शनिवार, 3 जून 2023

चतु: श्लोकी भागवत

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

अहमेवासमेवाऽग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्याद् आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ २ ॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टानि अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३ ॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ४ ॥

सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ १ ॥ वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ २ ॥ जैसे प्राणियोंके पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े शरीरोंमें आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३ ॥ यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं—इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है—इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान्‌ ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है||४|| 

............(श्रीमद्भा०२|९|३२-३५)


शुक्रवार, 2 जून 2023

ठगो मत, चाहे ठगे जाओ !

||जय श्री हरि ||

ठगो मत,चाहे ठगे जाओ; क्योंकि संसार में हमेशा नहीं रहना है, जाना अवश्य है और साथ कुछ नहीं जाएगा –यह भी निश्चित है | यदि किसी को ठग लोगे तो ठगी हुई वस्तु तो नष्ट हो जायेगी या यहीं पडी रह जायेगी; पर उसका पाप तुम्हारे साथ जाएगा और उसका फल भोगना ही पड़ेगा | यदि तुमको कोई ठगले तो तुम्हारा भाग्य तो वह नहीं ले जाएगा—विचार करलो कि उसी के भाग्य की चीज थी, धोखे से तुम्हारे पास आ गयी थी, अब ठीक अपनी जगह पहुँच गयी या ऐसा सोच लो कि किसी समय का पिछला ऋण उसका तुम्हारे ऊपर था सो अब चुक गया | इस विचार से ठगाने में ज्यादा हानि नहीं, ठगने में ही ज्यादा है !!

......(कल्याण-- नीतिसार अंक)


बुधवार, 31 मई 2023

।। श्रीहरि :।।

सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।

प्रलयपयोधि में मार्कण्डेयजी को भगवद्विग्रह का दर्शन 

महामुनि मार्कण्डेय जी की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् नारायण ने उनसे वर माँगने को कहा | मुनि ने कहा- हे प्रभो !  आपने कृपा करके अपने मनोहर रूप का दर्शन कराया है, फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपकी माया का दर्शन करना चाहता हूँ | तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् बदरीवन को चले गए | एक दिन मार्कण्डेयजी पुष्पभद्रा नदी के तट पर भगवान् की उपासना में तन्मय थे | उसी समय एकाएक उनके समक्ष प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित हो गया | भगवान् की माया के प्रभाव से उस प्रलयकालीन समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें करोड़ों वर्ष बीत गए और –--

“एकार्णव की उस अगाध जलराशि-बीच वटबृक्ष विशाल ,
दीख पडा उसकी शाखा पर बिछा पलंग एक तत्काल |
उसपर रहा विराज एक था कमलनेत्र एक सुन्दर बाल,
देख प्रफुल्ल कमल-मुख मुनि मार्कण्डेय हो गए चकित निहाल ||
...............(पदरत्नाकर)

---अकस्मात् एक दिन उन्हें उस प्रलय-पयोधि के मध्य एक विशाल वटवृक्ष दिखाई पडा | उस वटवृक्ष की एक शाखा पर एक सुन्दर-सा पलंग बिछा हुआ था | उस पलंग पर कमल-जैसे नेत्र वाला एक सुन्दर बालक विराज रहा था | उसके प्रफुल्लित कमल-जैसे मुख को देखकर मार्कण्डेय मुनि विस्मित तथा  सफल-मनोरथ हो गए |

---{कल्याण वर्ष ९०,सं०६..जून,२०१६}


सोमवार, 15 मई 2023

जय भोलेनाथ

शिव पञ्चाक्षर स्तोत्रम्

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय । 
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नमः शिवाय ॥१॥ 
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै ‘म’काराय नमः शिवाय ॥२॥ 
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’काराय नमः शिवाय ॥३॥ 
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै ‘व’काराय नमः शिवाय ॥४॥ 
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’काराय नमः शिवाय ॥५॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥

भावार्थ: जिनके कंठ में साँपों का हार है,जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अंगराग(अनुलेपन) है;दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है [अर्थात् जो नग्न हैं] , उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर ‘न’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मंदार पुष्प तथा अन्यान्य कुसुमों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नंदी के अधिपति प्रथमगणों के स्वामी महेश्वर ‘म’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वती के मुखकमल को विकसित(प्रसन्न) करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं,जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं.जिनकी ध्वजा में बैल का चिन्ह है, उन शोभाशाली नीलकंठ ‘शि’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || वसिष्ठ,अगस्त्य,और गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्रादि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा,सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन ‘व’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जिन्होंने यक्षरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है. जो दिव्य सनातनपुरुष हैं,उन दिगंबर देव ‘य’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो शिव के समीप इस शिवपञ्चाक्षर- स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है और वहाँ शिवजी के साथ आनंदित होता है ||

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


जय जय अम्बे !

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥

महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है ; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े , वह करो ॥


शुक्रवार, 12 मई 2023

# श्रीहरि: #

“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | 
मद्भक्ता यत्र गायंति तत्र तिष्ठामि नारद ||”          ........( पद्मपुराण उ. १४/२३)

                                                                                                                                                                                           

 (  हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं  ।  मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं  )  | 

श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |


सोमवार, 8 मई 2023

जय श्री राम

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं,
तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम् |
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं,
मारुतिम् नमत राक्षसान्तकम् ||

( जहां भगवान श्रीराम (रघुनाथ ) की स्तुति या संकीर्तन होता है, वहां राक्षसों का संहार करनेवाले श्री हनुमान, शरणागत मस्तक, श्रीराम के सम्मुख अपने हस्त कमल को जोड़कर और नेत्रोंमें भावपूर्ण आनंद के अश्रुओं के साथ उपस्थित रहते हैं , ऐसे श्रीहनुमान जी को हमारा बारम्बार प्रणाम !!!!)


गुरुवार, 4 मई 2023

ज्ञान योग ....... तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 03


एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक ‘यह’ है और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ है । अहम् न तो प्रकाश्य (‘यह’) में है और न प्रकाशक (सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नाम ‘अहम्’ है और वही ‘जीव’ है । तात्पर्य है कि जड के सम्बन्ध से संसार की इच्छा अर्थात् ‘भोगेच्छा’ है और चेतन के सम्बन्धसे परमात्मा की इच्छा अर्थात् ‘जिज्ञासा’ है । अतः अहम् (जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंश की प्रधानता से हम परमात्मा को चाहते है * । माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।
साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जब तक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तब तक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होने पर जिज्ञासा भी तत्वज्ञान में बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र ‘है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय —इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है । वह ‘है’ अपेक्षावाले ‘नहीं’ और ‘है’ —दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें ‘नहीं’ भी नहीं है और ‘है’ भी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती—यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है ।

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* मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहीं—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊ—यह ‘आनंद’ की इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे—वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


बुधवार, 3 मई 2023

ज्ञान योग .......तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 02



मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओंमें तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक है । बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।
यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं । ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करनेसे ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमें ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये । ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करनेसे ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा । भगवान् कहते हैं:- 

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।“........... (गीता २/१६)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।’एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।
वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है ।
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं । अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयं प्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


मंगलवार, 2 मई 2023

ज्ञान योग .......तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 01


ज्ञानयोग
तत्त्वज्ञानका सहज उपाय ….पोस्ट 01

हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगनेकी बात नहीं है । समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है । जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—

“संकर सहज सरूपु सम्हारा लागि समाधि अखंड अपारा”
  ………(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’ । इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है । ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है । ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है । ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है । ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलानेसे ही ‘हूँ’ कहा जाता है । अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है ।

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहनके सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नीके सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि । तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है । ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला । वह ‘मैं’ बापके सामने बेटा हो जाता, बेटेके सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है । अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुदका पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी । कारण कि वास्तवमें सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं ।
बेटेकी अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं । स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है । वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है । ‘मैं’ जानने वाला नहीं है और जो जानने वाला है, वह ‘मैं’ नहीं है । ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है । ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है । सत्ता ‘है’ की ही है । परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं । ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है । ‘मैं’ पनको पकड़नेसे ही वह अंश है । अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है । अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
“निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥“
                        …………………(गीता २/७१)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...