॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)
महर्षि व्यासका असन्तोष
एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजाः ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यत् हृदयं ततः ॥ २६ ॥
नातिप्रसीदद् हृदयः सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं प्रोवाच धर्मवित् ॥ २७ ॥
धृतव्रतेन हि मया छन्दांसि गुरवोऽग्नयः ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम् ॥ २८ ॥
भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च दर्शितः ।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥ २९ ॥
तथापि बत मे दैह्यो ह्यात्मा चैवात्मना विभुः ।
असंपम्पन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः ॥ ३० ॥
किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः ॥ ३१ ॥
तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यतः ।
कृष्णस्य नारदोऽभ्यागाद् आश्रमं प्रागुदाहृतम् ॥ ३२ ॥
तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिः ।
पूजयामास विधिवत् नारदं सुरपूजितम् ॥ ३३ ॥
शौनकादि ऋषियो ! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्तिसे सदा-सर्वदा प्राणियोंके कल्याणमें ही लगे रहे, तथापि उनके हृदयको सन्तोष नहीं हुआ ॥ २६ ॥ उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदीके पवित्र तटपर एकान्तमें बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे— ॥ २७ ॥ ‘मैंने निष्कपट भावसे ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञाका पालन किया है ॥ २८ ॥ महाभारतकी रचना के बहाने मैंने वेदके अर्थको खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने- अपने धर्म-कर्मका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥ यद्यपि मैं ब्रह्मतेजसे सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है ॥ ३० ॥ अवश्य ही अबतक मैंने भगवान् को प्राप्त करानेवाले धर्मोंका प्राय: निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसोंको प्रिय हैं और वे ही भगवान्को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णताका यही कारण है)’ ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास इस प्रकार अपनेको अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रमपर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे ॥ ३२ ॥ उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओंके द्वारा सम्मानित देवर्षि नारदकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ ३३ ॥
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से