# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौथा
अध्याय (पोस्ट 02)
नन्द
आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय;
श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त
वरदानों का विवरण
श्रीब्रह्मोवाच
-
एताः कथं व्रजे भाव्याः केन पुण्येन कैर्वरैः ।
दुर्लभं हि पदं तासां योगिभिः पुरुषोत्तम ॥१८॥
श्रीभगवानुवाच -
श्वेतद्वीपे च भूमानं श्रुतयस्तुष्टुवुः परम् ।
उशतीभिर्गिराभिश्च प्रसन्नोऽभूत्सहस्रपात् ॥१९॥
श्रीहरिरुवाच -
वरं वृणीत यूयं वै यन्मनोवाञ्छितं महत् ।
येषां प्रसन्नोऽहं साक्षात्तेषां किं दुर्लभं हि तत् ॥२०॥
श्रुतय ऊचुः -
वाङ्मनोगोचरातीतं ततो न ज्ञायते तु तत् ।
आनन्दमात्रमिति यद्वदंतीह पुराविदः ॥२१॥
तद्रूपं दर्शयास्माकं यदि देयो वरो हि नः ।
श्रुत्वैतद्दर्शयामास स्वं लोकं प्रकृतेः परम् ॥२२॥
केवलानुभवानन्दमात्रमक्षरमव्ययम् ।
यत्र वृंदावनं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ॥२३॥
मनोरमनिकुञ्जाढ्यं सर्वर्तुसुखसंयुतम् ।
यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः ॥२४॥
रत्नधातुमयः श्रीमान् सुपक्षिगणसंवृतः ।
यत्र निर्मलपानीया कालिन्दी सरितां वरा ।
रत्नबद्धोभयतटी हंसपद्मादिसंकुला ॥२५॥
नानारासरसोन्मत्तं यत्र गोपीकदंबकम् ।
तत्कदंबकमध्यस्थः किशोराकृतिरच्युतः ॥२६॥
दर्शयित्वा च ताः प्राह ब्रूत किं करवाणि वः ।
दृष्टो मदीयो लोकोऽयं यतो नास्ति परं वरम् ॥२७॥
श्रीश्रुतय ऊचुः -
कन्दर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनांसि नः ।
कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षिप्तान्यसंशयम् ॥२८॥
यया त्वल्लोकवासिन्यः कामतत्त्वेन गोपिकाः ।
भजन्ति रमणं मत्त्वा चिकीर्षाजनिनस्तथा ॥२९॥
श्रीहरिरुवाच -
दुर्लभो दुर्घटश्चैव युष्माकं तु मनोरथः ।
मयानुमोदितः सम्यक् सत्यो भवितुमर्हति ॥३०॥
आगामिनि विरिंचौ तु जाते सृष्ट्यर्थमुद्यते ।
कल्पे सारस्वतेऽतीते व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥३१॥
पृथिव्यां भारते क्षेत्रे माथुरे मम मण्डले ।
वृन्दावने भविष्यामि प्रेयान्वो रासमण्डले ॥३२॥
जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
मयि संप्राप्य सर्वा हि कृतकृत्या भविष्यथ ॥३३॥
श्रीब्रह्माजीने
पूछा- पुरुषोत्तम ! इन स्त्रियोंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है तथा इन्हें
कौन-कौन-से वर मिल चुके हैं, जिनके फलस्वरूप
ये व्रज में निवास करेंगी ? कारण, आपका
वह स्थान तो योगियों के लिये भी दुर्लभ है ॥ १८ ॥
श्रीभगवान्
बोले- पूर्वकालमें श्रुतियों ने श्वेतद्वीपमें जाकर वहाँ मेरे स्वरूपभूत भूमा - (
विराट् पुरुष या परब्रह्म ) का मधुर वाणी में स्तवन किया । तब सहस्रपाद विराट्
पुरुष प्रसन्न हो गये और बोले ॥ १९ ॥
श्रीहरिने
कहा- श्रुतियो ! तुम्हें जो भी पानेकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। जिनके ऊपर मैं स्वयं प्रसन्न हो गया, उनके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥
श्रुतियाँ
बोलीं- भगवन्! आप मन-वाणीसे नहीं जाने जा सकते; अतः
हम आपको जाननेमें असमर्थ हैं । पुराणवेत्ता ज्ञानीपुरुष यहाँ जिसे केवल आनन्दमात्र'
बताते हैं, अपने उसी रूपका हमें दर्शन कराइये।
प्रभो ! यदि आप हमें वर देना चाहते हों तो यही दीजिये ॥ २१॥
श्रुतियों
की ऐसी बात सुनकर भगवान् ने उन्हें अपने
दिव्य गोलोकधाम का दर्शन कराया, जो प्रकृतिसे
परे है । वह लोक ज्ञानानन्दस्वरूप, अविनाशी तथा निर्विकार है
। वहाँ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो कामपूरक कल्पवृक्षों से सुशोभित है ॥ २२-२३ ॥
मनोहर
निकुञ्जोंसे सम्पन्न वह वृन्दावन सभी ऋतुओंमें सुखदायी है। वहाँ सुन्दर झरनों और
गुफाओंसे सुशोभित 'गोवर्धन' नामक गिरि है । रत्न एवं धातुओंसे भरा हुआ वह श्रीमान् पर्वत सुन्दर
पक्षियोंसे आवृत है । वहाँ स्वच्छ जलवाली श्रेष्ठ नदी 'यमुना'
भी लहराती है। उसके दोनों तट रत्नोंसे बँधे हैं। हंस और कमल आदिसे
वह सदा व्याप्त रहती है ॥ २४-२५ ॥
वहाँ
विविध रास-रङ्गसे उन्मत्त गोपियोंका समुदाय शोभा पाता है। उसी गोपी- समुदाय के
मध्यभाग में किशोर वय से सुशोभित भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं। उन श्रुतियों को
इस प्रकार अपना लोक दिखाकर भगवान् बोले- 'कहो,
तुम्हारे लिये अब क्या करूँ ? तुमने मेरा यह
लोक तो देख ही लिया, इससे उत्तम दूसरा कोई वर नहीं हैं'
।। २६ - २७॥
श्रुतियोंने
कहा— प्रभो! आपके करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर श्रीविग्रहको देखकर हममें
कामिनी-भाव आ गया है और हमें आपसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो रही है ! हम
विरह-ताप-संतप्त हैं- इसमें संदेह नहीं है। अतः आपके लोकमें रहनेवाली गोपियाँ आपका
सङ्ग पानेके लिये जैसे आपकी सेवा करती हैं, हमारी
भी वैसी ही अभिलाषा है ।। २८-२९ ।।
श्रीहरि
बोले- श्रुतियो ! तुमलोगोंका यह मनोरथ दुर्लभ एवं दुर्घट है;
फिर भी मैं इसका भलीभाँति अनुमोदन कर चुका हूँ, अतः वह सत्य होकर रहेगा। आगे होनेवाली सृष्टिमें जब ब्रह्मा जगत्की
रचनामें संलग्न होंगे, उस समय सारस्वत- कल्प बीतनेपर तुम सभी
श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होओगी । भूमण्डलपर भारतवर्षमें मेरे माथुरमण्डलके
अन्तर्गत वृन्दावनमें रासमण्डलके भीतर मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। तुम्हारा मेरे
प्रति सुदृढ़ प्रेम होगा, जो सब प्रेमोंसे बढ़कर है। तब तुम
सब श्रुतियाँ मुझे पाकर सफल-मनोरथ होओगी ।। ३०-३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से