# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पाँचवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
भिन्न-भिन्न
स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था
का वर्णन
अत्रिरुवाच
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गोदोहं कुरुताश्वद्य पृथ्वीयं धारणामयी ।
सर्वं दास्यति वो दुर्गं मनोरथमहार्णवम् ॥१७॥
मनोरथं प्रदुदुहुर्मनःपात्रेण ताश्च गाम् ।
तस्माद्गोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१८॥
कामसेनामोहनार्थं दिव्या अप्सरसो वराः ।
नारायणस्य सहसा बभूवुर्गन्धमादने ॥१९॥
भर्तुकामाश्च ता आह सिद्धो नारायणो मुनिः ।
मनोरथो वो भविता व्रजोगोप्यो भविष्यथ ॥२०॥
स्त्रियः सुतलवासिन्यो वामनं वीक्ष्य मोहिताः ।
तपस्तप्ता भविष्यन्ति गोप्यो वृन्दावने विधे ॥२१॥
नागेन्द्रकन्या याः शेषं भेजुर्भक्त्या वरेच्छया ।
संकर्षणस्य रासार्थं भविष्यंति व्रजे च ताः ॥२२॥
कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥२३॥
वसुश्चैवोद्धवः साक्षाद्दक्षोऽक्रूरो दयापरः ।
हृदीको धनदश्चैव कृतवर्मा त्वपांपतिः ॥२४॥
गदः प्राचीनबर्हिश्च मरुतो ह्युग्रसेन उत् ।
तस्य रक्षां करिष्यामि राज्यं दत्त्वा विधानतः ॥२५॥
युयुधानश्चाम्बरीषः प्रह्लादः सात्यकिस्तथा ।
क्षीराब्धिः शन्तनुः साक्षाद्भीष्मो द्रोणो वसूत्तमः ॥२६॥
शलश्चैव दिवोदासो धृतराष्ट्रो भगो रविः ।
पाण्डुः पूषा सतां श्रेष्ठो धर्मो राजा युधिष्ठिरः ॥२७॥
भीमो वायुर्बलिष्ठश्च मनुः स्वायंभुवोऽर्जुनः ।
शतरूपा सुभद्रा च सविता कर्ण एव हि ॥२८॥
नकुलः सहदेवश्च स्मृतौ द्वावश्विनीसुतौ ।
धाता बाह्लीकवीरश्च वह्निर्द्रोणः प्रतापवान् ॥२९॥
दुर्योधनः कलेरंशोऽभिमन्युः सोम एव च ।
द्रौणिः साक्षाच्छिवस्यापि रूपं भूमौ भविष्यति ॥३०॥
इत्थं यदोः कौरवाणामन्येषां भूभुजां नृणाम् ।
कुले कुले च भवतः स्वांशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥३१॥
ये येऽवतारा मे पूर्वं तेषां राज्ञ्यो रमांशकाः ।
भविष्या राजराज्ञीषु सहस्राणि च षोडश ॥३२॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तत्र ब्रह्माणं कमलासनम् ।
दिव्यरूपां भगवतीं योगमायामुवाच ह ॥३३॥
देवक्याः सप्तमं गर्भं संनिकृष्य महामते ।
वसुदेवस्य भार्यायां कंसत्रासभयात्पुनः ॥३४॥
नन्दव्रजे स्थितायां च रोहिण्यां सन्निवेशय ।
नंदपत्न्यां भव त्वं वै कृत्वेदं कर्म चाद्भुतम् ॥३५॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा कृष्णं परात्पराम् ।
भूमिमाश्वास्य वाणीभिः स्वधाम च समाययौ ॥३६॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं विद्धि मैथिल ।
कंसादीनां वधार्थाय प्राप्तोयं भूमिमण्डले ॥३७॥
रोममात्रतनौ जिव्हा भवंत्वित्थं यदा नृप ।
तदापि श्रीहरेस्तस्य वर्ण्यते न गुणो महान् ॥३८॥
नभः पतन्ति विहगा यथा ह्यात्मसमं नृप ।
तथा कृष्णगतिं दिव्यां वदन्तीह विपश्चितः ॥३९॥
अत्रि
जी ने कहा- तुम सब शीघ्र ही आज इस गौको दुहो। यह सम्पूर्ण पदार्थोंको धारण
करनेवाली धारणामयी धरणी देवी है। तुम्हारे सारे मनोरथोंको- चाहे वे समुद्रके समान
अगाध,
अपार एवं दुर्गम ही क्यों न हों - अवश्य पूर्ण कर देंगी ॥ १७ ॥
ब्रह्मन्
! तब उन स्त्रियोंने मनको दोहन - पात्र बनाकर अपने मनोरथोंका दोहन किया। इसी
कारणसे वे सब की सब वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। बहुत-सी श्रेष्ठ अप्सराएँ,
जिनका रूप अत्यन्त मनोहर था और जो कामदेवकी सेनाएँ थीं, भगवान् नारायण ऋषिको मोहित करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर गयीं । परंतु
उन्हें देखकर वे भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उनके मनमें भगवान्को पति बनानेकी
इच्छा उत्पन्न हो गयी। तब सिद्धतपस्वी नारायण मुनिने कहा- 'तुम
व्रजमें गोपियाँ होओगी और वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा' ।।१८-२०
॥
ब्रह्मन्
! सुतल देशकी स्त्रियाँ भगवान् वामनको देखकर उन्हें पानेके लिये उत्कट इच्छा प्रकट
करने लगीं। फिर तो उन्होंने तपस्या आरम्भ कर दी। अतः वे भी वृन्दावनमें गोपियाँ
होंगी। जिन नागराज- कन्याओंने शेषावतार भगवान्को देखकर उन्हें पति बनानेकी
इच्छासे उनकी सेवा-समाराधना की हैं, वे
सब बलदेवजीके साथ रासविहार करनेके लिये व्रजमें उत्पन्न होंगी ।। २१-२२ ॥
कश्यपजी
वासुदेव होंगे | परम पूजनीया अदिति देवकीके रूपमें अवतार लेंगी। प्राण नामक वसु
शूरसेन और 'ध्रुव' नामक
वसु देवक होंगे। 'वसु' नामके जो वसु
हैं, उनका उद्धवके रूपमें प्राकट्य होगा। दयापरायण दक्ष
प्रजापति अक्रूरके रूपमें अवतार लेंगे। कुबेर हृदीक नामसे और जल के स्वामी वरुण
कृतवर्मा नाम से प्रसिद्ध होंगे ।। २३-२४ ॥
पुरातन
राजा प्राचीनवर्हि गद एवं मरुत देवता उग्रसेन बनेंगे। उन उग्रसेनको मैं विधानतः
राजा बनाऊँगा और उनकी भलीभाँति रक्षा करूँगा । भक्त राजा अम्बरीष युयुधान और
भक्तप्रवर प्रह्लाद सात्यकिके नामसे प्रकट होंगे। क्षीरसागर शंतनु होगा। वसुओंमें
श्रेष्ठ द्रोण साक्षात् भीष्मपितामहके रूपमें उत्पन्न होंगे ।। २५-२६ ॥
दिवोदास
शल के रूप में एवं भग नामके सूर्य धृतराष्ट्रके रूपमें अवतीर्ण होंगे
पूषा
नामसे विख्यात देवता पाण्डु होंगे । सत्पुरुषोंमें आदर पानेवाले धर्मराज ही राजा
युधिष्ठिरके रूपमें अवतार लेंगे ।। २७-२८ ॥
वायु
देवता महान् पराक्रमी भीमसेनके तथा स्वायम्भुव मनु अर्जुनके वेषमें प्रकट होंगे।
शतरूपाजी सुभद्रा होंगी और सूर्यनारायण कर्णके रूपसे अवतार लेंगे। अश्विनीकुमार
नकुल एवं सहदेव होंगे । धाता महान् बलशाली बाह्लीक नामसे विख्यात होंगे।
अग्निदेवता महान् प्रतापी द्रोणाचार्य के रूप में अवतार लेंगे। कलि का अंश
दुर्योधन होगा। चन्द्रमा अभिमन्यु के रूपमें अवतार लेंगे । पृथ्वीपर द्रोणपुत्र
अश्वत्थामा साक्षात् भगवान् शंकर का रूप होगा ।। २९-३० ॥
इस
प्रकार तुम सब देवता मेरी आज्ञा के अनुसार अपने अंशों और स्त्रियों के साथ यदुवंशी,
कुरुवंशी तथा अन्यान्य वंशोंके राजाओंके कुलमें प्रकट होओ। पूर्व
समयमें मेरे जितने अवतार हो चुके हैं, उनकी रानियाँ रमा का
अंश रही हैं। वे भी मेरी रानियों में सोलह हजार की संख्या में प्रकट होंगी ।। ३१ –
३२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! कमलासन ब्रह्मा से यों कहकर भगवन् श्रीहरि ने दिव्यरूपधारिणी
भगवती योगमाया से कहा- ॥ ३३ ॥
भगवान्
श्रीहरि बोले—महामते ! तुम देवकी के
सातवें गर्भ को खींचकर उसे वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दो। वे
देवी कंसके डरसे व्रज में नन्द के घर रहती हैं। साथ ही तुम भी ऐसे अलौकिक कार्य
करके नन्दरानी के गर्भ से प्रकट हो जाना ।। ३४-३५ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— परमश्रेष्ठ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं के
साथ ब्रह्माजीने परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और अपने वचनोंद्वारा
पृथ्वीदेवीको धीरज दे, वे अपने धामको चले गये।
मिथिलेश्वर जनक ! तुम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा
समझो। कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ही ये इस धराधामपर पधारे हैं ॥ ३६-३७ ॥
शरीर
में जितने रोएँ हैं, उतनी जिह्वाएँ हो
जायँ, तब भी भगवान् श्रीकृष्णके असंख्य महान् गुणोंका वर्णन
नहीं किया जा सकता। महाराज ! जिस प्रकार पक्षीगण अपनी शक्तिके अनुसार ही आकाशमें
उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन भी अपनी मति एवं शक्तिके अनुसार
ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी दिव्य लीलाओंका गायन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अवतार-व्यवस्थाका वर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से