सोमवार, 1 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था का वर्णन

 

अत्रिरुवाच -
गोदोहं कुरुताश्वद्य पृथ्वीयं धारणामयी ।
सर्वं दास्यति वो दुर्गं मनोरथमहार्णवम् ॥१७॥
मनोरथं प्रदुदुहुर्मनःपात्रेण ताश्च गाम् ।
तस्माद्‌गोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१८॥
कामसेनामोहनार्थं दिव्या अप्सरसो वराः ।
नारायणस्य सहसा बभूवुर्गन्धमादने ॥१९॥
भर्तुकामाश्च ता आह सिद्धो नारायणो मुनिः ।
मनोरथो वो भविता व्रजोगोप्यो भविष्यथ ॥२०॥
स्त्रियः सुतलवासिन्यो वामनं वीक्ष्य मोहिताः ।
तपस्तप्ता भविष्यन्ति गोप्यो वृन्दावने विधे ॥२१॥
नागेन्द्रकन्या याः शेषं भेजुर्भक्त्या वरेच्छया ।
संकर्षणस्य रासार्थं भविष्यंति व्रजे च ताः ॥२२॥
कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥२३॥
वसुश्चैवोद्धवः साक्षाद्दक्षोऽक्रूरो दयापरः ।
हृदीको धनदश्चैव कृतवर्मा त्वपांपतिः ॥२४॥
गदः प्राचीनबर्हिश्च मरुतो ह्युग्रसेन उत् ।
तस्य रक्षां करिष्यामि राज्यं दत्त्वा विधानतः ॥२५॥
युयुधानश्चाम्बरीषः प्रह्लादः सात्यकिस्तथा ।
क्षीराब्धिः शन्तनुः साक्षाद्‌भीष्मो द्रोणो वसूत्तमः ॥२६॥
शलश्चैव दिवोदासो धृतराष्ट्रो भगो रविः ।
पाण्डुः पूषा सतां श्रेष्ठो धर्मो राजा युधिष्ठिरः ॥२७॥
भीमो वायुर्बलिष्ठश्च मनुः स्वायंभुवोऽर्जुनः ।
शतरूपा सुभद्रा च सविता कर्ण एव हि ॥२८॥
नकुलः सहदेवश्च स्मृतौ द्वावश्विनीसुतौ ।
धाता बाह्लीकवीरश्च वह्निर्द्रोणः प्रतापवान् ॥२९॥
दुर्योधनः कलेरंशोऽभिमन्युः सोम एव च ।
द्रौणिः साक्षाच्छिवस्यापि रूपं भूमौ भविष्यति ॥३०॥
इत्थं यदोः कौरवाणामन्येषां भूभुजां नृणाम् ।
कुले कुले च भवतः स्वांशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥३१॥
ये येऽवतारा मे पूर्वं तेषां राज्ञ्यो रमांशकाः ।
भविष्या राजराज्ञीषु सहस्राणि च षोडश ॥३२॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तत्र ब्रह्माणं कमलासनम् ।
दिव्यरूपां भगवतीं योगमायामुवाच ह ॥३३॥
देवक्याः सप्तमं गर्भं संनिकृष्य महामते ।
वसुदेवस्य भार्यायां कंसत्रासभयात्पुनः ॥३४॥
नन्दव्रजे स्थितायां च रोहिण्यां सन्निवेशय ।
नंदपत्‍न्यां भव त्वं वै कृत्वेदं कर्म चाद्‌भुतम् ॥३५॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा कृष्णं परात्पराम् ।
भूमिमाश्वास्य वाणीभिः स्वधाम च समाययौ ॥३६॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं विद्धि मैथिल ।
कंसादीनां वधार्थाय प्राप्तोयं भूमिमण्डले ॥३७॥
रोममात्रतनौ जिव्हा भवंत्वित्थं यदा नृप ।
तदापि श्रीहरेस्तस्य वर्ण्यते न गुणो महान् ॥३८॥
नभः पतन्ति विहगा यथा ह्यात्मसमं नृप ।
तथा कृष्णगतिं दिव्यां वदन्तीह विपश्चितः ॥३९॥

 

अत्रि जी ने कहा- तुम सब शीघ्र ही आज इस गौको दुहो। यह सम्पूर्ण पदार्थोंको धारण करनेवाली धारणामयी धरणी देवी है। तुम्हारे सारे मनोरथोंको- चाहे वे समुद्रके समान अगाध, अपार एवं दुर्गम ही क्यों न हों - अवश्य पूर्ण कर देंगी ॥ १७ ॥

ब्रह्मन् ! तब उन स्त्रियोंने मनको दोहन - पात्र बनाकर अपने मनोरथोंका दोहन किया। इसी कारणसे वे सब की सब वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। बहुत-सी श्रेष्ठ अप्सराएँ, जिनका रूप अत्यन्त मनोहर था और जो कामदेवकी सेनाएँ थीं, भगवान् नारायण ऋषिको मोहित करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर गयीं । परंतु उन्हें देखकर वे भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उनके मनमें भगवान्‌को पति बनानेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी। तब सिद्धतपस्वी नारायण मुनिने कहा- 'तुम व्रजमें गोपियाँ होओगी और वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा' ।।१८-२० ॥

ब्रह्मन् ! सुतल देशकी स्त्रियाँ भगवान् वामनको देखकर उन्हें पानेके लिये उत्कट इच्छा प्रकट करने लगीं। फिर तो उन्होंने तपस्या आरम्भ कर दी। अतः वे भी वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। जिन नागराज- कन्याओंने शेषावतार भगवान्‌को देखकर उन्हें पति बनानेकी इच्छासे उनकी सेवा-समाराधना की हैं, वे सब बलदेवजीके साथ रासविहार करनेके लिये व्रजमें उत्पन्न होंगी ।। २१-२२ ॥

कश्यपजी वासुदेव होंगे | परम पूजनीया अदिति देवकीके रूपमें अवतार लेंगी। प्राण नामक वसु शूरसेन और 'ध्रुव' नामक वसु देवक होंगे। 'वसु' नामके जो वसु हैं, उनका उद्धवके रूपमें प्राकट्य होगा। दयापरायण दक्ष प्रजापति अक्रूरके रूपमें अवतार लेंगे। कुबेर हृदीक नामसे और जल के स्वामी वरुण कृतवर्मा नाम से प्रसिद्ध होंगे ।। २३-२४ ॥

पुरातन राजा प्राचीनवर्हि गद एवं मरुत देवता उग्रसेन बनेंगे। उन उग्रसेनको मैं विधानतः राजा बनाऊँगा और उनकी भलीभाँति रक्षा करूँगा । भक्त राजा अम्बरीष युयुधान और भक्तप्रवर प्रह्लाद सात्यकिके नामसे प्रकट होंगे। क्षीरसागर शंतनु होगा। वसुओंमें श्रेष्ठ द्रोण साक्षात् भीष्मपितामहके रूपमें उत्पन्न होंगे ।। २५-२६ ॥

 

दिवोदास शल के रूप में एवं भग नामके सूर्य धृतराष्ट्रके रूपमें अवतीर्ण होंगे

पूषा नामसे विख्यात देवता पाण्डु होंगे । सत्पुरुषोंमें आदर पानेवाले धर्मराज ही राजा युधिष्ठिरके रूपमें अवतार लेंगे ।। २७-२८ ॥

वायु देवता महान् पराक्रमी भीमसेनके तथा स्वायम्भुव मनु अर्जुनके वेषमें प्रकट होंगे। शतरूपाजी सुभद्रा होंगी और सूर्यनारायण कर्णके रूपसे अवतार लेंगे। अश्विनीकुमार नकुल एवं सहदेव होंगे । धाता महान् बलशाली बाह्लीक नामसे विख्यात होंगे। अग्निदेवता महान् प्रतापी द्रोणाचार्य के रूप में अवतार लेंगे। कलि का अंश दुर्योधन होगा। चन्द्रमा अभिमन्यु के रूपमें अवतार लेंगे । पृथ्वीपर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा साक्षात् भगवान् शंकर का रूप होगा ।। २९-३० ॥

इस प्रकार तुम सब देवता मेरी आज्ञा के अनुसार अपने अंशों और स्त्रियों के साथ यदुवंशी, कुरुवंशी तथा अन्यान्य वंशोंके राजाओंके कुलमें प्रकट होओ। पूर्व समयमें मेरे जितने अवतार हो चुके हैं, उनकी रानियाँ रमा का अंश रही हैं। वे भी मेरी रानियों में सोलह हजार की संख्या में प्रकट होंगी ।। ३१ – ३२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कमलासन ब्रह्मा से यों कहकर भगवन् श्रीहरि ने दिव्यरूपधारिणी भगवती योगमाया से कहा- ॥ ३३ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले—महामते ! तुम देवकी  के सातवें गर्भ को खींचकर उसे वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दो। वे देवी कंसके डरसे व्रज में नन्द के घर रहती हैं। साथ ही तुम भी ऐसे अलौकिक कार्य करके नन्दरानी के गर्भ से प्रकट हो जाना ।। ३४-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— परमश्रेष्ठ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजीने परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और अपने वचनोंद्वारा पृथ्वीदेवीको धीरज दे, वे अपने धामको चले गये। मिथिलेश्वर जनक ! तुम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा समझो। कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ही ये इस धराधामपर पधारे हैं ॥ ३६-३७

शरीर में जितने रोएँ हैं, उतनी जिह्वाएँ हो जायँ, तब भी भगवान् श्रीकृष्णके असंख्य महान् गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। महाराज ! जिस प्रकार पक्षीगण अपनी शक्तिके अनुसार ही आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन भी अपनी मति एवं शक्तिके अनुसार ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी दिव्य लीलाओंका गायन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अवतार-व्यवस्थाका वर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



रविवार, 31 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था का वर्णन

 

श्रीभगवानुवाच

रमावैकुण्ठवासिन्यः श्वेतद्वीपसखीजनाः ।
ऊर्ध्वं वैकुण्ठवासिन्यस्तथाजितपदाश्रिताः ॥१॥
श्रीलोकाचलवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ।
ता गोप्योऽभिभविष्यन्ति लक्ष्मीपतिवराद्‌व्रजे ॥२॥
काश्चिद्दिव्या अदिव्याश्च तथा त्रिगुणवृत्तयः ।
भूमिगोप्यो भविष्यन्ति पुण्यैर्नानाविधैः कृतैः ॥३॥
यज्ञावतारं रुचिरं रुचिपुत्रं दिवस्पतिम् ।
मोहिताः प्रीतिभावेन वीक्ष्य देवजनस्त्रियः ॥४॥
ताश्च देवलवाक्येन तपस्तेपुर्हिमाचले ।
भक्त्या परमया ता मे गोप्यो भाव्या व्रजे विधे ॥५॥
अन्तर्हिते भगवति देवे धन्वन्तरौ भुवि ।
ओषध्यो दुःखमापन्ना निष्फला भारतेऽभवन् ॥६॥
सिद्ध्यर्थं तास्तपस्तेपुः स्त्रियो भूत्वा मनोहराः ।
चतुर्युगे व्यतीते तु प्रसन्नोऽभूद्धरिः परम् ॥७॥
वरं वृणीत चेत्यृक्तं श्रुत्वा नार्यो महावने ।
तं दृष्ट्वा मोहमापन्ना ऊचुर्भर्ता भवात्र नः ॥८॥
वृन्दावने द्वापरान्ते लता भूत्वा मनोहराः ।
भविष्यथ स्त्रियो रासे करिष्यामि वचश्च वः ॥९॥


श्रीभगवानुवाच -
भक्तिभावसमायुक्ता भूरिभाग्या वरांगनाः ।
लतागोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१०॥
जालन्धर्य्यश्च या नार्यो वीक्ष्य वृन्दापतिं हरिम् ।
ऊचुर्वायं हरिः साक्षादस्माकं तु वरो भवेत् ॥११॥
आकाशवागभूत्तासां भजताशु रमापतिम् ।
यथा वृन्दा तथा यूयं वृन्दारण्ये भविष्यथ ॥१२॥
समुद्रकन्याः श्रीमत्स्यं हरिं दृष्ट्वा च मोहिताः ।
ता हि गोप्यो भविष्यन्ति श्रीमत्स्यस्य वराद्‌व्रजे ॥१३॥
आसीद्‌राजा पृथुः साक्षान्ममांशश्चण्डविक्रमः ।
जित्वा शत्रून्नृपश्रेष्ठो धरां कामान्दुदोह ह ॥१४॥
बर्हिष्मतीभवास्तत्र पृथुं दृष्ट्वा पुरस्त्रियः ।
अत्रेः समीपमागत्य ता ऊचुर्मोहविह्वलाः ॥१५॥
अयं तु राजराजेन्द्रः पृथुः पृथुलविक्रमः ।
कथं वरो भवेन्नो वै तद्‌वद त्वं महामुने ॥१६॥

भगवान् श्रीहरि कहते हैं – वैकुण्ठ में विराजने वाली रमादेवी की सहचरियाँ, श्वेतद्वीपकी सखियाँ, भगवान् अजित (विष्णु) के चरणोंके आश्रित ऊर्ध्व वैकुण्ठमें निवास करनेवाली देवियाँ तथा श्रीलोकाचलपर्वतपर रहनेवाली, समुद्रसे प्रकटित श्रीलक्ष्मीकी सखियाँ - ये सभी भगवान् कमलापति के वरदानसे व्रजमें गोपियाँ होंगी । पूर्वकृत विविध पुण्योंके प्रभावसे कोई दिव्य, कोई अदिव्य और कोई सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणोंसे युक्त देवियाँ व्रजमण्डलमें गोपियाँ होगीं ॥ १ - ३ ॥

रुचिके यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण, द्युलोकपति रुचिरविग्रह भगवान् यज्ञको देखकर देवाङ्गनाएँ प्रेम-रसमें निमग्न हो गयीं। तदनन्तर वे देवलजीके उपदेशसे हिमालय पर्वतपर जाकर परम भक्तिभावसे तपस्या करने लगीं। ब्रह्मन् ! वे सब मेरे व्रजमें जाकर गोपियाँ होंगी ।। ४-५ ॥

भगवान् धन्वन्तरि जब इस भूतलपर अन्तर्धान हुए, उस समय सम्पूर्ण ओषधियाँ अत्यन्त दुःखमें डूब गयीं और भारतवर्षमें अपनेको निष्फल मानने लगीं। फिर सबने सुन्दर स्त्रीका वेष धारण करके तपस्या आरम्भ की। चार युग व्यतीत होनेपर भगवान् श्रीहरि उनपर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले— 'तुम सब वर माँगो ।' यह सुनकर स्त्रियोंने उस महान् वनमें जब आँखें खोलीं, तब उन श्रीहरिका दर्शन करके वे सब- की सब मोहित हो गयीं और बोलीं- 'आप हमारे पतितुल्य आराध्यदेव होनेकी कृपा करें' ॥ ६-८ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले- ओषधिस्वरूपा स्त्रियो ! द्वापरके अन्तमें तुम सभी लतारूपसे वृन्दावनमें रहोगी और वहाँ रासमें मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा । ९ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं - ब्रह्मन् ! भक्तिभावसे परिपूर्ण वे बड़भागिनी वराङ्गनाएँ वृन्दावनमें 'लता- गोपी' होंगी। इसी प्रकार जालंधर नगरकी स्त्रियाँ वृन्दापति भगवान् श्रीहरिका दर्शन करके मन-ही-मन संकल्प करने लगीं- 'ये साक्षात् श्रीहरि हम सबके स्वामी हों।' उस समय उनके लिये आकाशवाणी हुई - 'तुम सब शीघ्र ही रमापतिकी आराधना करो; फिर वृन्दाकी ही भाँति तुम भी वृन्दावनमें भगवान्‌की प्रिया गोपी होओगी।' मत्स्यावतारके समय मत्स्यविग्रह श्रीहरिको देखकर समुद्रकी कन्याएँ मुग्ध हो गयी थीं। श्रीमत्स्यभगवान्‌के वरदानसे वे भी व्रजमें गोपियाँ होंगी ॥। १० – १४ ॥

मेरे अंशभूत राजा पृथु बड़े प्रतापी थे । उन महाराजने सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतकर पृथ्वीसे सारी अभीष्ट वस्तुओंका दोहन किया था। उस समय बर्हिष्मती नगरीमें रहनेवाली बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें देखकर मुग्ध हो गयीं और प्रेमसे विह्वल हो अनिजीके पास जाकर बोलीं- 'महामुने! समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ महाराजा पृथु बड़े ही पराक्रमी हैं। ये किस प्रकारसे हमारे पति होंगे ? यह बतानेकी कृपा कीजिये ।। १५-१६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

श्रीभीष्म उवाच ।

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचित् विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्‍भवप्रवाहः ॥ ३२ ॥
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृत आननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३ ॥
युधि तुरगरजो विधूम्र विष्वक्
कचलुलितश्रमवारि अलङ्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान
त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४ ॥

भीष्मजीने कहा—अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकी—लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ ३२ ॥ जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्य-रश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो ॥ ३३ ॥ मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टापकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्त:करण और आत्मा समर्पित हो जायँ ॥ ३४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 30 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 04)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

वरं वृणीत मुनयः श्रीरामस्तानुवाच ह ।
यथा सीता तथा सर्वे भूयाःस्म इति वादिनः ॥५१॥


श्रीराम उवाच -
यथा हि लक्ष्मणो भ्राता तथा प्रार्थ्यो वरो यदि ।
अद्यैव सफलो भाव्यो भवद्‌भिर्मत्प्रसंगतः ॥५२॥
सीतोपमेयवाक्येन दुर्घटो दुर्लभो वरः ।
एकपत्‍नीव्रतोऽहं वै मर्यादापुरुषोत्तमः ॥५३॥
तस्मात्तु मद्‌वरेणापि द्वापरान्ते भविष्यथ ।
मनोरथं करिष्यामि भवतां वाञ्छितं परम् ॥५४॥
इति दत्त्वा वरं रामस्ततः पंचवटीं गतः ।
पर्णशाला समासाद्य वनवासं चकार ह ॥५५॥
तद्दर्शनस्मररुजः पुलिन्द्यः प्रेमविह्वलाः ।
श्रीमत्पादरजो धृत्वा प्राणांस्त्यक्तुं समुद्युताः ॥५६॥
ब्रह्मचारीवपुर्भूत्वा रामस्तत्र समागतः ।
उवाच प्राणसंत्यागं मा कुरुत स्त्रियो वृथा ॥५७॥
वृन्दावने द्वापरान्ते भविता वो मनोरथः ।
इत्युक्त्वा ब्रह्मचारी तु तत्रैवान्तरधीयत ॥५८॥
अथ रामो वानरेन्द्रै रावणादीन्निशाचरान् ।
जित्वा लङ्कामेत्य सीता पुष्पकेण पुरीं ययौ ॥५९॥
सीतां तत्त्याज राजेन्द्रो वने लोकापवादतः ।
अहो सतामपि भुवि भवनं भूरि दुःखदम् ॥६०॥
यदा यदाकरोद्यज्ञं रामो राजीवलोचनः ।
तदा तदा स्वर्णमयीं सीतां कृत्वा विधानतः ॥६१॥
यज्ञसीतासमूहोऽभून्मन्दिरे राघवस्य च ।
ताश्चैतन्यघना भूत्वा रन्तुं रामं समागताः ॥६२॥
ता आह राघवेशेन्द्रो नाहं गृह्णामि हे प्रियाः ।
तदोचुस्ताः प्रेमपरा रामं दशरथात्मजम् ॥६३॥
कथं चास्मान्न गृह्णासि भजन्तीर्मैथिलीः सतीः ।
अर्धाङ्गीर्यज्ञकालेषु सततं कार्यसाधनीः ॥६४॥
धर्मिष्ठस्त्वं श्रुतिधरोऽधर्मवद्‌भाषसे कथम् ।
करं गृहीत्वा त्यजसि ततः पापमवाप्यसि ॥६५॥


श्रीराम उवाच -
समीचीनं वचस्सत्यो युष्माभिर्गदितं च मे ।
एकपत्‍नीव्रतोऽहं हि राजर्षिः सीतयैकया ॥६६॥
तस्माद्‌यूयं द्वापरान्ते पुण्ये वृन्दावने वने ।
भविष्यथ करिष्यामि युष्माकं तु मनोरथम् ॥६७॥


श्रीभगवान् उवाच -
ता व्रजेऽपि भविष्यन्ति यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
अन्यासां चैव गोपीनां लक्षणं शृणु तद्विधे ॥६८॥

तब श्रीरामने कहा - 'मुनियो ! वर माँगो ।' यह सुनकर सभीने एक स्वरसे कहा- 'जिस भाँति सीता आपके प्रेमको प्राप्त हैं, वैसे ही हम भी चाहते हैं' ॥ ५१ ॥

श्रीराम बोले- यदि तुम्हारी ऐसी प्रार्थना हो कि जैसे भाई लक्ष्मण हैं, वैसे ही हम भी आपके भाई बन जायँ, तब तो आज ही मेरेद्वारा तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है; किंतु तुमने तो 'सीता' के समान होनेका वर माँगा है। अतः यह वर महान् कठिन और दुर्लभ है; क्योंकि इस समय मैंने एकपत्नी व्रत धारण कर रखा है। मैं मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहकर 'मर्यादापुरुषोत्तम' भी कहलाता हूँ। अतएव तुम्हें मेरे वरका आदर करके द्वापरके अन्तमें जन्म धारण करना होगा और वहीं मैं तुम्हारे इस उत्तम मनोरथको पूर्ण करूँगा ॥ ५२ - ५४ ॥

 

इस प्रकार वर देकर श्रीराम स्वयं पञ्चवटी पधारे। वहाँ पर्णकुटीमें रहकर वनवासकी अवधि पूरी करने लगे। उस समय भीलोंकी स्त्रियोंने उन्हें देखा । उनमें मिलनेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होनेके कारण वे प्रेमसे विह्वल हो गयीं । यहाँतक कि श्रीरामके चरणोंकी धूल मस्तकपर रखकर अपने प्राण छोड़नेकी तैयारी करने लगीं। उस समय श्रीराम ब्रह्मचारीके वेषमें वहाँ आये और इस प्रकार बोले- 'स्त्रियो ! तुम व्यर्थ ही प्राण त्यागना चाहती हो, ऐसा मत करो। द्वापरके शेष होनेपर वृन्दावनमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।' इस प्रकारका आदेश देकर श्रीरामका वह ब्रह्मचारी रूप वहीं अन्तर्हित हो गया ।। ५५ - ५८ ।।

तत्पश्चात् श्रीरामने सुग्रीव आदि प्रधान वानरोंकी सहायतासे लङ्कामें जाकर रावण प्रभृति राक्षसोंको परास्त किया। फिर सीताको पाकर पुष्पक विमान- द्वारा अयोध्या चले गये। राजाधिराज श्रीराम ने लोकापवाद के कारण सीता को वनमें छोड़ दिया । अहो ! भूमण्डलपर दुर्जनों का होना बहुत ही दुःखदायी है ।। ५९-६० ।।

जब-जब कमललोचन श्रीराम यज्ञ करते थे, तब-तब विधिपूर्वक सुवर्णमयी सीता की प्रतिमा बनायी जाती थी । इसलिये श्रीराम-भवन में यज्ञ-सीताओंका एक समूह ही एकत्र हो गया। वे सभी दिव्य चैतन्य- घनस्वरूपा होकर श्रीराम के पास गयीं ।। ६१-६२ ।।

उस समय श्रीराम ने उनसे कहा- 'प्रियाओ ! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता।' वे सभी प्रेमपरायणा सीता-मूर्तियाँ दशरथनन्दन श्रीराम से कहने लगी- 'ऐसा क्यों ? हम तो आपकी सेवा करनेवाली हैं। हमारा नाम भी मिथिलेशकुमारी सीता है और हम उत्तम व्रत का आचरण करनेवाली सतियाँ भी हैं; फिर हमें आप ग्रहण क्यों नहीं करते ? यज्ञ करते समय हम आपकी अर्धाङ्गनी बनकर निरन्तर कार्यों का संचालन करती रही ।। ६३-६४ ।।

आप धर्मात्मा और वेद के मार्ग का अवलम्बन करनेवाले हैं, यह अधर्मपूर्ण बात आपके श्रीमुख से कैसे निकल रही है ? यदि आप स्त्रीका हाथ पकड़- कर उसे त्यागते हैं तो आपको पाप का भागी होना पड़ेगा ।। ६५ ॥

श्रीराम बोले- सतियो ! तुमने मुझसे जो बात कही है, वह बहुत ही उचित और सत्य है। परंतु मैंने 'एकपत्नीव्रत' धारण कर रखा है ? सभी लोग मुझे 'राजर्षि' कहते हैं। अतः नियम को छोड़ भी नहीं सकता। एकमात्र सीता ही मेरी सहधर्मिणी है। इसलिये तुम सभी द्वापर के अन्त में श्रेष्ठ वृन्दावन में पधारना, वहीं तुम्हारी मनःकामना पूर्ण करूँगा ।। ६६-६७ ॥

भगवान् श्रीहरिने कहा- ब्रह्मन् ! वे यज्ञ-सीता ही व्रज में गोपियाँ होंगी । अन्य गोपियोंका भी लक्षण सुनो ॥ ६८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत भगवद् ब्रह्म-संवादमें 'अवतारके उद्योगविषयक प्रश्नका वर्णन' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः ।
यो योगिनः छन्दमृत्योः वाञ्छितस्तु उत्तरायणः ॥ २९ ॥
तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीः
विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे ।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे
पुरः स्थितेऽमीलित दृग् व्यधारयत् ॥ ३० ॥
विशुद्धया धारणया हताशुभः
तदीक्षयैवाशु गतायुधश्रमः ।
निवृत्त सर्वेन्द्रिय वृत्ति विभ्रमः
तुष्टाव जन्यं विसृजन् जनार्दनम् ॥ ३१ ॥

भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुँचा, जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ॥ २९ ॥ उस समय हजारों रथियोंके नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मनको सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्णके सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं ॥ ३० ॥ उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी, वह तो भगवान्‌के दर्शनमात्रसे ही तुरन्त दूर हो गयी तथा भगवान्‌ की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोडऩेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्ति-विलासको रोक दिया और बड़े प्रेमसे भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ३१ ॥

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शुक्रवार, 29 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 03)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

श्रीभगवानुवाच -
ताश्च गोप्यो भविष्यन्ति पूर्वकल्पवरान्मम ।
अन्यासां चैव गोपीनां लक्षणं शृणु तद्विधे ॥३४॥
सुराणां रक्षणार्थाय राक्षसानां वधाय च ।
त्रेतायां रामचंद्रोऽभूद्‌वीरो दशरथात्मजः ॥३५॥
सीतास्वयंवरं गत्वा धनुर्भङ्गं चकार सः ।
उवाह जानकीं सीतां रामो राजीवलोचनः ॥३६॥
तं दृष्ट्वा मैथिलाः सर्वाः पुरन्ध्र्यो मुमुहुर्विधे ।
रहस्यूचुर्महात्मानं भर्ता नो भव हे प्रभो ॥३७॥
तामाह राघवेन्द्रस्तु मा शोकं कुरुत स्त्रियः ।
द्वापरान्ते करिष्यामि भवतीनां मनोरथम् ॥३८॥
तीर्थं दानं तपः शौचं समाचरत तत्त्वतः ।
श्रद्धया परया भक्त्या व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥३९॥
इति ताभ्यो वरं दत्त्वा श्रीरामः करुणानिधिः ।
कोसलान् प्रययौ धन्वी तेजसा जितभार्गवः ॥४०॥
मार्गे च कौसला नार्यो रामं दृष्ट्वातिसुंदरम् ।
मनसा वव्रिरे तं वै पतिं कन्दर्पमोहनम् ॥४१॥
मनसापि वरं रामो ददौ ताभ्यो ह्यशेषवित् ।
मनोरथं करिष्यामि व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥४२॥
आगतं सीतया सार्धं सैनिकैः सहितं रघुम् ।
अयोध्यापुरवासिन्यः श्रुत्वा द्रष्टुं समाययुः ॥४३॥
वीक्ष्य तं मोहमापन्ना मूर्छिताः प्रेमविह्वलाः ।
तेपुस्तपस्ताः सरयूतीरे रामधृतव्रताः ॥४४॥
आकाशवागभूत्तासां द्वापरान्ते मनोरथः ।
भविष्यति न संदेहः कालिंदीतीरजे वने ॥४५॥
पितुर्वाक्याद्‌यदा रामो दंडकाख्यं वनं गतः ।
चचार सीतया सार्धं लक्ष्मणेन धनुष्मता ॥४६॥
गोपालकोपासकाः सर्वे दंडकारण्यवासिनः ।
ध्यायन्तः सततं मां वै रासार्थं ध्यानतत्पराः ॥४७॥
येषामाश्रममासाद्य धनुर्बाणधरो युवा ।
तेषां ध्याने गतो रामो जटामुकुटमंडितः ॥४८॥
अन्याकृतिं ते तं वीक्ष्य परं विस्मितमानसाः ।
ध्यानादुत्थाय ददृशुः कोटिकन्दर्पसन्निभम् ॥४९॥
ऊचुस्तेऽयं तु गोपालो वंशीवेत्रे विना प्रभुः ।
इत्थं विचार्य मनसा नेमुश्चक्रुः स्तुतिं पराम् ॥५०॥

श्रीभगवान् कहते हैं - ब्रह्माजी ! पूर्व कल्प- में मैंने वर दे दिया है, उसीके प्रभावसे वे श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होंगी। अब अन्य गोपियोंके लक्षण सुनो ॥ ३४ ॥

त्रेतायुगमें देवताओंकी रक्षा और राक्षसोंका संहार करनेके लिये मेरे स्वरूपभूत महापराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी अवतीर्ण हुए थे। कमललोचन श्रीरामने सीताके स्वयंवरमें जाकर धनुष तोड़ा और उन जनकनन्दिनी श्रीसीताजीके साथ विवाह किया ॥ ३५-३६ ॥

ब्रह्माजी ! उस अवसरपर जनकपुर की स्त्रियाँ श्रीराम को देखकर प्रेमविह्वल हो गयीं। उन्होंने एकान्त में उन महाभाग से अपना अभिप्राय प्रकट किया- 'राघव ! आप हमारे परम प्रियतम बन जायें ।' तब श्रीरामने कहा- 'सुन्दरियो ! तुम शोक मत करो। द्वापरके अन्तमें मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥ ३७-३८ ॥

तुमलोग परम श्रद्धा और भक्तिके साथ तीर्थ, दान, तप, शौच एवं सदाचार का भलीभाँति पालन करती रहो। तुम्हें व्रजमें गोपी होने का सुअवसर प्राप्त होगा' ॥ ३९ ॥

इस प्रकार वर देकर धनुर्धारी करुणानिधि श्रीराम ने अयोध्याके लिये प्रस्थान कर दिया। उस समय मार्ग में अपने प्रताप से उन्होंने भृगुकुलनन्दन परशुरामजी को परास्त कर दिया था । कोसल जनपद की स्त्रियों ने भी राजपथ से जाते हुए उन कमनीय- कान्ति राम को देखा। उनकी सुन्दरता कामदेवको मोहित कर रही थी। उन स्त्रियोंने श्रीरामको मन-ही-मन पतिके रूपमें वरण कर लिया। उस समय सर्वज्ञ श्रीरामने उन समस्त स्त्रियोंको मन-ही-मन वर दिया — 'तुम सभी व्रजमें गोपियाँ होओगी और उस समय मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ।। ४०-४२ ॥

फिर सीता और सैनिकोंके साथ रघुनाथजी अयोध्या पधारे। यह सुनकर अयोध्यामें रहनेवाली स्त्रियाँ उन्हें देखनेके लिये आयीं। श्रीरामको देखकर उनका मन मुग्ध हो गया। वे प्रेमसे विह्वल हो मूर्च्छित सी हो गयीं। फिर वे श्रीरामके व्रतमें परायण होकर सरयू के तटपर तपस्या करने लगीं। तब उनके सामने आकाशवाणी हुई- 'द्वापरके अन्तमें यमुनाके किनारे वृन्दावनमें तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे, इसमें संदेह नहीं है । ४३ – ४५॥

जिस समय श्रीरामने पिताकी आज्ञासे दण्डकवन- की यात्रा की, सीता तथा लक्ष्मण भी उनके साथ थे और वे हाथमें धनुष लेकर इधर-उधर विचर रहे थे। वहीं बहुत-से मुनि थे। उनकी गोपाल वेषधारी भगवान् के स्वरूपमें निष्ठा थी। रासलीलाके निमित्त वे भगवान् का ध्यान करते थे। उस समय श्रीरामकी युवा अवस्था थी - वे हाथमें धनुष-बाण धारण किये हुए थे । जटाओंके मुकुटसे उनकी विचित्र शोभा थी। अपने आश्रमपर पधारे हुए श्रीराममें उन मुनियोंका ध्यान लग गया। (वे ऋषिलोग गोपाल-वेषधारी भगवान् के उपासक थे) अतः दूसरे ही स्वरूपमें आये हुए श्रीरामको देखकर सबके मनमें अत्यन्त आश्चर्य हो गया। उनकी समाधि टूट गयी और देखा तो करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर श्रीराम दृष्टिगोचर हुए।

तब वे बोल उठे- 'अहो ! आज हमारे गोपालजी वंशी एवं बेंतके बिना ही पधारे हैं। -इस प्रकार मन-ही- मन विचारकर सबने श्रीरामको प्रणाम किया और उनकी उत्तम स्तुति करने लगे । ४६ - ५० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

भक्त्यावेश्य मनो यस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् ।
त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः ॥ २३ ॥
स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां
कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्
मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः ॥ २४ ॥

सूत उवाच ।

युधिष्ठिरः तत् आकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे ।
अपृच्छत् विविधान् धर्मान् ऋषीणां चानुश्रृण्वताम् ॥ २५ ॥
पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्णं यथाश्रमम् ।
वैराग्यराग उपाधिभ्यां आम्नात उभयलक्षणान् ॥ २६ ॥
दानधर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागशः ।
स्त्रीधर्मान् भगवत् धर्मान् समास व्यास योगतः ॥ २७ ॥
धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान् यथा मुने ।
नानाख्यान इतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित् ॥ २८ ॥

(भीष्मपितामह कहते हैं) भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं ॥ २३ ॥ वे ही देवदेव भगवान्‌ अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूप से, जिसका और लोगों को केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जब तक मैं इस शरीरका त्याग न कर दूँ’॥२४ ॥
सूतजी कहते हैं—युधिष्ठिरने उनकी यह बात सुनकर शर-शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत-से ऋषियोंके सामने ही नाना प्रकारके धर्मोंके सम्बन्धमें अनेकों रहस्य पूछे ॥ २५ ॥ तब तत्त्ववेत्ता भीष्म-पितामह ने वर्ण और आश्रमके अनुसार पुरुषके स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा रागके कारण विभिन्नरूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म—इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया। शौनकजी ! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंका तथा इनकी प्राप्तिके साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागश: वर्णन किया ॥२६-२८॥

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गुरुवार, 28 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

श्रीब्रह्मोवाच -
एताः कथं व्रजे भाव्याः केन पुण्येन कैर्वरैः ।
दुर्लभं हि पदं तासां योगिभिः पुरुषोत्तम ॥१८॥


श्रीभगवानुवाच -
श्वेतद्वीपे च भूमानं श्रुतयस्तुष्टुवुः परम् ।
उशतीभिर्गिराभिश्च प्रसन्नोऽभूत्सहस्रपात् ॥१९॥


श्रीहरिरुवाच -
वरं वृणीत यूयं वै यन्मनोवाञ्छितं महत् ।
येषां प्रसन्नोऽहं साक्षात्तेषां किं दुर्लभं हि तत् ॥२०॥


श्रुतय ऊचुः -
वाङ्मनोगोचरातीतं ततो न ज्ञायते तु तत् ।
आनन्दमात्रमिति यद्‌वदंतीह पुराविदः ॥२१॥
तद्‌रूपं दर्शयास्माकं यदि देयो वरो हि नः ।
श्रुत्वैतद्दर्शयामास स्वं लोकं प्रकृतेः परम् ॥२२॥
केवलानुभवानन्दमात्रमक्षरमव्ययम् ।
यत्र वृंदावनं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ॥२३॥
मनोरमनिकुञ्जाढ्यं सर्वर्तुसुखसंयुतम् ।
यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः ॥२४॥
रत्‍नधातुमयः श्रीमान् सुपक्षिगणसंवृतः ।
यत्र निर्मलपानीया कालिन्दी सरितां वरा ।
रत्‍नबद्धोभयतटी हंसपद्मादिसंकुला ॥२५॥
नानारासरसोन्मत्तं यत्र गोपीकदंबकम् ।
तत्कदंबकमध्यस्थः किशोराकृतिरच्युतः ॥२६॥
दर्शयित्वा च ताः प्राह ब्रूत किं करवाणि वः ।
दृष्टो मदीयो लोकोऽयं यतो नास्ति परं वरम् ॥२७॥


श्रीश्रुतय ऊचुः -
कन्दर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनांसि नः ।
कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षिप्तान्यसंशयम् ॥२८॥
यया त्वल्लोकवासिन्यः कामतत्त्वेन गोपिकाः ।
भजन्ति रमणं मत्त्वा चिकीर्षाजनिनस्तथा ॥२९॥


श्रीहरिरुवाच -
दुर्लभो दुर्घटश्चैव युष्माकं तु मनोरथः ।
मयानुमोदितः सम्यक् सत्यो भवितुमर्हति ॥३०॥
आगामिनि विरिंचौ तु जाते सृष्ट्यर्थमुद्यते ।
कल्पे सारस्वतेऽतीते व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥३१॥
पृथिव्यां भारते क्षेत्रे माथुरे मम मण्डले ।
वृन्दावने भविष्यामि प्रेयान्वो रासमण्डले ॥३२॥
जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
मयि संप्राप्य सर्वा हि कृतकृत्या भविष्यथ ॥३३॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा- पुरुषोत्तम ! इन स्त्रियोंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है तथा इन्हें कौन-कौन-से वर मिल चुके हैं, जिनके फलस्वरूप ये व्रज में निवास करेंगी ? कारण, आपका वह स्थान तो योगियों के लिये भी दुर्लभ है ॥ १८ ॥

श्रीभगवान् बोले- पूर्वकालमें श्रुतियों ने श्वेतद्वीपमें जाकर वहाँ मेरे स्वरूपभूत भूमा - ( विराट् पुरुष या परब्रह्म ) का मधुर वाणी में स्तवन किया । तब सहस्रपाद विराट् पुरुष प्रसन्न हो गये और बोले ॥ १९ ॥

श्रीहरिने कहा- श्रुतियो ! तुम्हें जो भी पानेकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। जिनके ऊपर मैं स्वयं प्रसन्न हो गया, उनके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥

श्रुतियाँ बोलीं- भगवन्! आप मन-वाणीसे नहीं जाने जा सकते; अतः हम आपको जाननेमें असमर्थ हैं । पुराणवेत्ता ज्ञानीपुरुष यहाँ जिसे केवल आनन्दमात्र' बताते हैं, अपने उसी रूपका हमें दर्शन कराइये। प्रभो ! यदि आप हमें वर देना चाहते हों तो यही दीजिये ॥ २१॥

श्रुतियों की ऐसी बात सुनकर भगवान् ने  उन्हें अपने दिव्य गोलोकधाम का दर्शन कराया, जो प्रकृतिसे परे है । वह लोक ज्ञानानन्दस्वरूप, अविनाशी तथा निर्विकार है । वहाँ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो कामपूरक कल्पवृक्षों से सुशोभित है ॥ २२-२३ ॥

मनोहर निकुञ्जोंसे सम्पन्न वह वृन्दावन सभी ऋतुओंमें सुखदायी है। वहाँ सुन्दर झरनों और गुफाओंसे सुशोभित 'गोवर्धन' नामक गिरि है । रत्न एवं धातुओंसे भरा हुआ वह श्रीमान् पर्वत सुन्दर पक्षियोंसे आवृत है । वहाँ स्वच्छ जलवाली श्रेष्ठ नदी 'यमुना' भी लहराती है। उसके दोनों तट रत्नोंसे बँधे हैं। हंस और कमल आदिसे वह सदा व्याप्त रहती है ॥ २४-२५ ॥

वहाँ विविध रास-रङ्गसे उन्मत्त गोपियोंका समुदाय शोभा पाता है। उसी गोपी- समुदाय के मध्यभाग में किशोर वय से सुशोभित भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं। उन श्रुतियों को इस प्रकार अपना लोक दिखाकर भगवान् बोले- 'कहो, तुम्हारे लिये अब क्या करूँ ? तुमने मेरा यह लोक तो देख ही लिया, इससे उत्तम दूसरा कोई वर नहीं हैं' ।। २६ - २७॥

श्रुतियोंने कहा— प्रभो! आपके करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर श्रीविग्रहको देखकर हममें कामिनी-भाव आ गया है और हमें आपसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो रही है ! हम विरह-ताप-संतप्त हैं- इसमें संदेह नहीं है। अतः आपके लोकमें रहनेवाली गोपियाँ आपका सङ्ग पानेके लिये जैसे आपकी सेवा करती हैं, हमारी भी वैसी ही अभिलाषा है ।। २८-२९ ।।

श्रीहरि बोले- श्रुतियो ! तुमलोगोंका यह मनोरथ दुर्लभ एवं दुर्घट है; फिर भी मैं इसका भलीभाँति अनुमोदन कर चुका हूँ, अतः वह सत्य होकर रहेगा। आगे होनेवाली सृष्टिमें जब ब्रह्मा जगत्की रचनामें संलग्न होंगे, उस समय सारस्वत- कल्प बीतनेपर तुम सभी श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होओगी । भूमण्डलपर भारतवर्षमें मेरे माथुरमण्डलके अन्तर्गत वृन्दावनमें रासमण्डलके भीतर मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। तुम्हारा मेरे प्रति सुदृढ़ प्रेम होगा, जो सब प्रेमोंसे बढ़कर है। तब तुम सब श्रुतियाँ मुझे पाकर सफल-मनोरथ होओगी ।। ३०-३३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम् ।
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् ॥ २० ॥
सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः ।
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित् ॥ २१ ॥
तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम् ।
यत् मे असून् त्यजतः साक्षात् कृष्णो दर्शनमागतः ॥ २२ ॥

(भीष्मपितामह कह रहे हैं) जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ॥ २० ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मामें उन ऊँचे-नीचे कार्योंके कारण कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं होती ॥ २१ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी, देखो तो सही, वे (श्रीकृष्ण) अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समयमें जबकि मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ॥ २२ ॥

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बुधवार, 27 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 01)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

नन्दोपनन्दभवने श्रीदामा सुबलः सखा ।
स्तोककृष्णोऽर्जुनोंऽशश्च नवनन्दगृहे विधे ॥१॥
विशालार्षभतेजस्वी देवप्रस्थवरूथपाः ।
भविष्यन्ति सखायो मे व्रजे षड् वृषभानुषु ॥२॥


श्रीब्रह्मोवाच -
कस्य वै नन्दपदवी कस्य वै वृषभानुता ।
वद देवपते साक्षादुपनन्दस्य लक्षणम् ॥३॥


श्रीभगवानुवाच -
गाः पालयन्ति घोषेषु सदा गोवृत्तयोऽनिशम् ।
ते गोपाला मया प्रोक्तास्तेषां त्वं लक्षणं श्रृणु ॥४॥
नन्दःप्रोक्तः सगोपालैर्नवलक्षगवां पतिः ।
उपनन्दश्च कथितः पंचलक्षगवां पतिः ॥५॥
वृषभानुः स उक्तो यो दशलक्षगवां पतिः ।
गवां कोटिर्गृहे यस्य नन्दराजः स एवहि ॥६॥
कोट्यर्धं च गवां यस्य वृषभानुवरस्तु सः ।
एतादृशौ व्रजे द्वौ तु सुचन्द्रो द्रोण एवहि ॥७॥
सर्वलक्षणलक्ष्याढ्यौ गोपराजौ भविष्यतः ।
शतचन्द्राननानां च सुन्दरीणां सुवाससाम् ।
गोपीनां मद्‌व्रजे रम्ये शतयूथो भविष्यति ॥८॥


श्रीब्रह्मोवाच -
हे दीनबंधो हे देव जगत्कारणकारण ।
यूथस्य लक्षणं सर्वं तन्मे ब्रूहि परेश्वर ॥९॥


श्रीभगवानुवाच -
अर्बुदं दशकोटीनां मुनिभिः कथितं विधे ।
दशार्बुदं यत्र भवेत्सोऽपि यूथः प्रकथ्यते ॥१०॥
गोलोकवासिन्यः काश्चित्काश्चिद्वै द्वारपालिकाः ।
शृङ्गारप्रकराः काश्चित्काश्चिच्छस्योपकारकाः ॥११॥
पार्षदाख्यास्तथा काश्चिच्छ्रीवृन्दावनपालिकाः ।
गोवर्धननिवासिन्यः काश्चित्कुञ्जविधायिकाः ॥१२॥
मे निकुञ्जनिवासिन्यो भविष्यन्ति व्रजे मम ।
एवं च यमुनायूथो जाह्नवीयूथ एव च ॥१३॥
रमाया मधुमाधव्या विरजायास्तथैव च ।
ललिताया विशाखाया मायायूथो भविष्यति ॥१४॥
एवं हृष्टसखीनां च सखीनां किल षोडश ।
द्वात्रिंशच्च सखीनां च यूथा भाव्या व्रजे विधे ॥१५॥
श्रुतरूपा ऋषिरूपा मैथिलाः कोशलास्तथा ।
अयोध्यापुरवासिन्यो यत्र सीतापुलिन्दकाः ॥१६॥
यासां मया बरो दत्तो पूर्वे पुर्वे युगे युगे ।
तासां यूथा भविष्यन्ति गोपीनां मद्‍व्रजे शुभे ॥१७॥

भगवान् ने कहा- ब्रह्मन् ! 'सुबल' और 'श्रीदामा' नामके मेरे सखा नन्द तथा उपनन्दके घरपर जन्म धारण करेंगे। इसी प्रकार और भी मेरे सखा हैं, जिनके नाम 'स्तोककृष्ण', 'अर्जुन' एवं 'अंशु' आदि हैं, वे सभी नौ नन्दोंके यहाँ प्रकट होंगे। व्रजमण्डलमें जो छः वृषभानु हैं, उनके गृह में विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप नामके मेरे सखा अवतीर्ण होंगे ॥ १-२ ॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा- देवेश्वर ! किसे 'नन्द' कहा जाता है और किसे 'उपनन्द' तथा 'वृषभानु' के क्या लक्षण हैं ? ॥ ३ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं—जो गोशालाओं में सदा गौओंका पालन करते रहते हैं एवं गो-सेवा ही जिनकी जीविका है, उन्हें मैंने 'गोपाल' संज्ञा दी है। अब तुम उनके लक्षण सुनो। गोपालोंके साथ नौ लाख गायोंके स्वामीको 'नन्द' कहा जाता है। पाँच लाख गौओंका स्वामी 'उपनन्द' पदको प्राप्त करता है । 'वृषभानु' नाम उसका पड़ता है, जिसके अधिकारमें दस लाख गौएँ रहती हैं, ऐसे ही जिसके यहाँ एक करोड़ गौओंकी रक्षा होती है, वह 'नन्दराज' कहलाता है। पचास लाख गौओंके अध्यक्षकी 'वृषभानुवर' संज्ञा है । 'सुचन्द्र' और 'द्रोण' – ये दो ही व्रजमें इस प्रकारके सम्पूर्ण लक्षणोंसे सम्पन्न गोपराज बनेंगे और मेरे दिव्य व्रजमें सुन्दर वस्त्र धारण करनेवाली शतचन्द्रानना गोप- सुन्दरियोंके सौ यूथ होंगे ॥ ४ – ८ ॥

श्रीब्रह्माजी ने कहा भगवन् ! आप दीनजनों के बन्धु और जगत् के कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं 1 प्रभो ! अब आप मेरे समक्ष यूथके सम्पूर्ण लक्षणोंका वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥

श्रीभगवान् बोले—–ब्रह्माजी ! मुनियोंने दस कोटिको एक 'अर्बुद' कहा है। जहाँ दस अर्बुद होते हैं । उसे 'यूथ' कहा जाता है । यहाँ की गोपियों में कुछ गोलोकवासिनी हैं, कुछ द्वारपालिका हैं, कुछ शृङ्गार-साधनों की व्यवस्था करनेवाली हैं और कुछ शय्या सँवारने में संलग्न रहती हैं। कई तो पार्षदकोटि में आती और कुछ गोपियाँ श्रीवृन्दावन की देख-रेख किया करती हैं। कुछ गोपियों का गोवर्धन गिरिपर निवास है । कई गोपियाँ कुञ्जवन को सजाती-सँवारती हैं तथा बहुतेरी गोपियाँ मेरे निकुञ्ज में रहती हैं। इन सब को मेरे व्रज में पधारना होगा। ऐसे ही यमुना-गङ्गाके भी यूथ हैं। इसी प्रकार रमा, मधुमाधवी, विरजा, ललिता, विशाखा एवं मायाके यूथ होंगे। ब्रह्माजी ! इसी प्रकार मेरे व्रजमें आठ, सोलह और बत्तीस सखियोंके भी यूथ होंगे। पूर्वके अनेक युगोंमें जो श्रुतियाँ, मुनियोंकी पत्नियाँ, अयोध्याकी महिलाएँ, यज्ञमें स्थापित की हुई सीता, जनकपुर एवं कोसलदेशकी निवासिनी सुन्दरियाँ तथा पुलिन्दकन्याएँ थीं तथा जिनको मैं पूर्ववर्ती युग- युग में वर दे चुका हूँ, वे सब मेरे पुण्यमय व्रजमें गोपी- रूप में पधारेंगी और उनके भी यूथ होंगे ॥ १०-१७॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...