मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अन्योन्यमासीत् संजल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरस्त्रीणां सर्वश्रुतिमनोहरः ॥ २० ॥
स वै किलायं पुरुषः पुरातनो
     य एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे गुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे
     निमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु ॥ २१ ॥
स एव भूयो निजवीर्यचोदितां
     स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी 
     विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२ ॥

हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और मन को आकृष्ट कर रही थीं ॥ २० ॥ वे आपस में कह रही थीं—‘सखियो ! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वरमें जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती हैं ॥ २१ ॥ उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी इच्छा की, तथा अपनी काल-शक्तिसे प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवोंको मोहित कर लेती है और सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहारके लिये वेदादि शास्त्रोंकी रचना की ॥ २२ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 8 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सातवाँ अध्याय  (पोस्ट 03)

 

कंसकी दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

 

कंसादीनागतान्दृष्ट्वा शक्रो देवाधिपः स्वराट् ।
सर्वैर्देवणैः सार्द्धं योद्धुं कृद्धो विनिर्ययौ ॥२९॥
तयोर्युद्धमभूद्‌घोरं तुमुलं रोमहर्षणम् ।
दिव्यैश्च शस्त्रसंघातैर्बाणैस्तीक्ष्णैः स्फुरत्प्रभैः ॥३०॥
शस्त्रान्धकारे संजाते रथारूढो महेश्वरः ।
चिक्षेप वज्रं कंसाय शतधारं तडिद्‌द्युति ॥३१॥
मुद्‌गरेणापि तद्‌वज्रं तताडाशु महासुरः ।
पपात कुलिशं युद्धे छिन्नधारं बभूव ह ॥३२॥
त्यक्त्वा वज्रं तदा वज्री खड्‌गं जग्राह रोषतः ।
कंसं मूर्ध्नि तताडाशु नादं कृत्वाऽथ भैरवम् ॥३३॥
स क्षतो नाभवत्कंसो मालाहत इव द्विपः ।
गृहीत्वा स गदां गुर्वीमष्टधातुमयीं दृढाम् ॥३४॥
लक्षभारसमां कंसश्चिक्षेपेन्द्राय दैत्यराट् ।
तां समापततीं वीक्ष्य जग्राहाशु पुरंदरः ॥३५॥
ततश्चिक्षेप दैत्याय वीरो नमुचिसूदनः ।
चचार युद्धे विदलन्नरीन्मातलिसारथिः ॥३६॥
कंसो गृहीत्वा परिघं तताडांसेऽसुरद्विषः ।
तत्प्रहारेण देवेन्द्रः क्षणं मूर्च्छामवाप सः ॥३७॥
कंसं मरुद्‌गणाः सर्वे गृध्रपक्षैः स्फुरत्प्रभैः ।
बाणौघैश्छादयामासुर्वर्षासूर्यमिवांबुदः ॥३८॥
दोःसहस्रयुतो वीरश्चापं टंकारयन्मुहुः ।
तदा तान्कालयामास बाणैर्बाणासुरो बली ॥३९॥
बाणं च वसवो रुद्रा आदित्या ऋभवः सुराः ।
जघ्नुर्नानाविधैः शस्त्रैः सर्वतोऽद्रिं समागताः ॥४०॥
ततो भौमासुरः प्राप्तः प्रलंबाद्यसुरैर्नदन् ।
तेन नादेन देवास्ते निपेतुर्मूर्छिता रणे ॥४१॥
उत्थायाशु तदा शक्रो जगामारुह्य तत्त्वदृक् ।
नोदयामास कंसाय मत्तमैरावतं गजम् ॥४२॥

कंस आदि असुरोंको आया देख, त्रिभुवन सम्राट् देवराज इन्द्र समस्त देवताओंको साथ ले रोषपूर्वक युद्धके लिये निकले। उन दोनों दलोंमें भयंकर एवं रोमाञ्चकारी तुमुल युद्ध होने लगा। दिव्य शस्त्रोंके समूह तथा चमकीले तीखे बाण छूटने लगे ।। २९-३० ॥

इस प्रकार शस्त्रोंकी बौछारसे वहाँ अन्धकार-सा छा गया। उस समय रथपर बैठे हुए सुरेश्वर इन्द्रने कंसपर विद्युत् के समान कान्तिमान् सौ धारोंवाला वज्र छोड़ा किंतु उस महान् असुरने इन्द्रके वज्रपर मुद्गरसे प्रहार किया । इससे वज्रकी धारें टूट गयीं और वह युद्ध- भूमिमें गिर पड़ा। तब वज्रधारीने वज्र छोड़कर बड़े रोषके साथ तलवार हाथमें ली और भयंकर सिंहनाद करके तत्काल कंसके मस्तकपर प्रहार किया ।। ३१-३३ ॥

परंतु जैसे हाथीको फूलकी मालासे मारा जाय और उसको कुछ पता न लगे, उसी प्रकार खड्गसे आहत होनेपर भी कंसके सिरपर खरोंचतक नहीं आयी। उस दैत्यराजने अष्टधातुमयी मजबूत गदा, जो लाख भार लोहेके बराबर भारी थी, लेकर इन्द्रपर चलायी। उस गदाको अपने ऊपर आती देख नमुचिसूदन वीर देवेन्द्रने तत्काल हाथसे पकड़ लिया और उसे उस दैत्यपर ही दे मारा। इन्द्र के रथ का संचालन मातलि कर रहे थे और देवेन्द्र शत्रुदलका दलन करते हुए युद्धभूमिमें विचर रहे थे । कंसने परिघ लेकर असुरद्रोही इन्द्रके कंधेपर प्रहार किया। उस प्रहारसे देवराज क्षणभरके लिये मूर्च्छित हो गये ।। ३४-३७ ॥

उस समय समस्त मरुद्गणोंने गीधके पंखवाले चमकीले बाणसमूहोंसे कंसको उसी तरह ढक दिया, जैसे वर्षाकाल के सूर्यको मेघमालाएँ आच्छादित कर देती हैं ।। ३८ ॥

यह देख एक हजार भुजाओं से युक्त बलवान् वीर बाणासुर ने बारंबार धनुष की टंकार करते हुए अपने बाण—समूहों से उन मरुद्गणों को घायल करना आरम्भ किया। बाणासुर पर भी वसु, रुद्र, आदित्य तथा अन्यान्य देवता एवं ऋभुगण चारों ओर से टूट पड़े और नाना प्रकार के शस्त्रोंद्वारा उसपर प्रहार करने लगे, जैसे हाथी पर्वतों पर प्रहार करते हैं ।। ३९-४० ॥                                                                  

इतने में ही प्रलम्ब आदि असुरोंके साथ गर्जना करता हुआ भौमासुर आ पहुँचा। उसके उस भयानक सिंहनादसे देवतालोग मूर्च्छित होकर भूमिपर गिर पड़े। उस समय देवराज इन्द्र शीघ्र ही उठ गये और लाल आँखें किये ऐरावत हाथीपर आरूढ हो उस मदमत्त गजराज को कंस की ओर उसे कुचल डालने के लिये प्रेरित करने लगे ।। ४१-४२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

न्यरुन्धन् उद्‍गलत् बाष्पमौत्कण्ठ्यात् देवकीसुते ।
निर्यात्यगारात् नोऽभद्रं इति स्यात् बान्धवस्त्रियः ॥ १४ ॥
मृदङ्गशङ्खभेर्यश्च वीणापणव गोमुखाः ।
धुन्धुर्यानक घण्टाद्या नेदुः दुन्दुभयस्तथा ॥ १५ ॥
प्रासादशिखरारूढाः कुरुनार्यो दिदृक्षया ।
ववृषुः कुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः ॥ १६ ॥
सितातपत्रं जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रत्‍नदण्डं गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह ॥ १७ ॥
उद्धवः सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्‍भुते ।
विकीर्यमाणः कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि ॥ १८ ॥
अश्रूयन्ताशिषः सत्याः तत्र तत्र द्विजेरिताः ।
नानुरूपानुरूपाश्च निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १९ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण के घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओंसे भर आये; परन्तु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया ॥ १४ ॥ भगवान्‌के प्रस्थानके समय मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे ॥ १५ ॥ भगवान्‌के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकानसे युक्त चितवनसे भगवान्‌को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ १६ ॥ उस समय भगवान्‌के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुनने अपने प्रियतम श्रीकृष्णका वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया ॥ १७ ॥ उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान्‌ श्रीकृष्णपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी ॥ १८ ॥ जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान्‌के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुणके अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९ ॥ 

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रविवार, 7 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सातवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

कंसकी दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

 

श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा सौहृदं हृद्यं सद्यो वै कंसबाणयोः ।
चकार परया शान्त्या शिवः साक्षान्महेश्वरः ॥१४॥
अथ कंसो दिक्‌प्रतीच्यां श्रुत्वा वत्सं महासुरम् ।
तेन सार्द्धं स युयुधे वत्सरूपेण दैत्यराट् ॥१५॥
पुच्छे गृहीत्वा तं वत्सं पोथयामास भूतले ।
वशे कृत्वाथ तं शैलं म्लेच्छदेशांस्ततो ययौ ॥१६॥
मन्मुखात्कालयवनः श्रुत्वा दैत्यं महाबलम् ।
निर्ययौ संमुखे योद्धुं रक्तश्मश्रुर्गदाधरः ॥१७॥
कंसो गदां गृहीत्वा स्वां लक्षभारविनिर्मिताम् ।
प्राक्षिपद्यवनेन्द्राय सिंहनादमथाकरोत् ॥१८॥
गदायुद्धमभूद्‌घोरं तदा हि कंसकालयोः ।
विस्फुलिंगान् क्षरंत्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥१९॥
कंसः कालं संगृहीत्वा पातयामास भूतले ।
पुनर्गृहीत्वा निष्पात्य मृततुल्यं चकार ह ॥२०॥
बाणवर्षं प्रकुर्वन्तीं सेनां तां यवनस्य च ।
गदया पोथयामास कंसो दैत्याधिपो बली ॥२१॥
गजांस्तुरगान्सुरथान्वीरान् भूमौ निपात्य च ।
जगर्ज घनवद्‌वीरो गदायुद्धे मृधाङ्गणे ॥२२॥
ततश्च दुद्रुवुर्म्लेच्छास्त्यक्त्वा स्वं स्वं रणं परम् ।
भीतान् पलायितान् म्लेच्छान्न जघानाथ नीतिमान् ॥२३॥
उच्चपादो दीर्घजानुः स्तंभोरुर्लघिमा कटिः ।
कपाटवक्षाः पीनांसः पुष्टः प्रांशुर्बृहद्‌भुजः ॥२४॥
पद्मनेत्रो बृहत्केशोऽरुणवर्णोऽसिताम्बरः ।
किरीटी कुंडली हारी पद्ममाली लयार्करुक् ॥२५॥
खड्गी निषंगी कवची मुद्‌गराढ्यो धनुर्धरः ।
मदोत्कटो ययौ जेतुं देवान्कंसोऽमरावतीम् ॥२६॥
चाणूरमुष्टिकारिष्टशलतोशलकेशिभिः ।
प्रलंबेन बकेनापि द्विविदेन समावृतः ॥२७॥
तृणावर्त्ताघकूटैश्च भौमबाणाख्यशंबरैः ।
व्योमधेनुकवत्सैश्च रुरुधे सोऽमरावतीम् ॥२८॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर साक्षात् महेश्वर शिवने कंस और बाणासुरमें तत्काल बड़ी शान्तिके साथ मनोरम सौहार्द स्थापित कर दिया। तदनन्तर पश्चिम दिशामें महासुर वत्सका नाम सुनकर कंस वहाँ गया । उस दैत्यराजने बछड़ेका रूप धारण करके कंसके साथ युद्ध छेड़ दिया। कंसने उस बछड़े की पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इसके बाद उसके निवासभूत पर्वतको अपने अधिकारमें करके कंसने म्लेच्छ देशोंपर धावा किया। मेरे मुखसे महाबली दैत्य कंसके आक्रमणका समाचार सुनकर कालयवन उसका सामना करनेके लिये निकला। उसकी दाढ़ी-मूँछका रंग लाल था और उसने हाथमें गदा ले रखी थी। कंसने भी लाख भार लोहेकी बनी हुई अपनी गदा लेकर यवनराजपर चलायी और सिंहके समान गर्जना की। उस समय कंस और कालयवनमें बड़ा भयानक गदा-युद्ध हुआ। दोनोंकी गदाओंसे आगकी चिनगारियाँ बरस रही थीं। वे दोनों गदाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। तब कंसने कालयवनको पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा और पुनः उठाकर उसे पटक दिया । इस तरह उसने उस यवनको मृतक तुल्य बना दिया। यह देख कालयवनकी सेना कंसपर बाणोंकी वर्षा करने लगी। तब बलवान् दैत्यराज कंसने गदाकी मारसे उस सेनाका कचूमर निकाल दिया । बहुत-से हाथियों, घोड़ों, उत्तम रथों और वीरोंको धराशायी करके गदा-युद्ध करनेवाला वीर कंस समराङ्गणमें मेघके समान गर्जना करने लगा ।। १४–२२ ॥

फिर तो सारे म्लेच्छ सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग निकले । कंस बड़ा नीतिज्ञ था; उसने भयभीत होकर भागते हुए म्लेच्छोंपर आघात नहीं किया। कंसके पैर ऊँचे थे, दोनों घुटने बड़े थे, जाँघें खंभोंके समान जान पड़ती थीं। उसका कटिप्रदेश पतला, वक्षःस्थल किवाड़ोंके समान चौड़ा और कंधे मोटे थे। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, कद ऊँचा और भुजाएँ विशाल थीं। नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान प्रतीत होते थे। सिरके बाल बड़े-बड़े थे, देहकी कान्ति अरुण थी। उसके अङ्गोंपर काले रंगका वस्त्र सुशोभित था । मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार और वक्षपर कमलोंकी माला शोभा दे रही थी। वह प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था । खड्ग, तूणीर, कवच और मुद्गर आदिसे सम्पन्न धनुर्धर एवं मदमत्त वीर कंस देवताओंको जीतनेके लिये अमरावती पुरीपर जा चढ़ा। चाणूर, मुष्टिक, अरिष्ट, शल, तोशल, केशी, प्रलम्ब, वक, द्विविद, तृणावर्त, अघासुर, कूट, भौम, बाण, शम्बर, व्योम, धेनुक और वत्स नामक असुरों के साथ कंस ने अमरावतीपुरी पर चारों ओर से घेरा डाल दिया ।। २३-२८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

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श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

उषित्वा हास्तिनपुरे मासान् कतिपयान् हरिः ।
सुहृदां च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया ॥ ७ ॥
आमंत्र्य चाभ्यनुज्ञातः परिष्वज्याभिवाद्य तम् ।
आरुरोह रथं कैश्चित् परिष्वक्तोऽभिवादितः ॥ ८ ॥
सुभद्रा द्रौपदी कुन्ती विराटतनया तथा ।
गान्धारी धृतराष्ट्रश्च युयुत्सुः गौतमो यमौ ॥ ९ ॥
वृकोदरश्च धौम्यश्च स्त्रियो मत्स्यसुतादयः ।
न सेहिरे विमुह्यन्तो विरहं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १० ॥
सत्सङ्गात् मुक्तदुःसङ्गो हातुं नोत्सहते बुधः ।
कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृत् आकर्ण्य रोचनम् ॥ ११ ॥
तस्मिन् न्यस्तधियः पार्थाः सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलाप शयनासन भोजनैः ॥ १२ ॥
सर्वे तेऽनिमिषैः अक्षैः तं अनु द्रुतचेतसः ।
वीक्षन्तः स्नेहसम्बद्धा विचेलुस्तत्र तत्र ह ॥ १३ ॥

अपने बन्धुओंका शोक मिटानेके लिये और अपनी बहिन सुभद्राकी प्रसन्नताके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण कई महीनोंतक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ ७ ॥ फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिरसे द्वारका जानेकी अनुमति माँगी, तब राजाने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान्‌ उनको प्रणाम करके रथपर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्रवालों) ने उनका आलिङ्गन किया और कुछ (छोटी उम्र- वालों) ने प्रणाम ॥ ८ ॥ उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मूर्छित-से हो गये। वे शार्ङ्गपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके ॥ ९-१० ॥ भगवद्भक्त सत्पुरुषोंके सङ्गसे जिसका दु:सङ्ग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान्‌के मधुर-मनोहर सुयशको एक बार भी सुन लेनेपर फिर उसे छोडऩेकी कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान्‌के दर्शन तथा स्पर्शसे, उनके साथ आलाप करनेसे तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करनेसे जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे ॥ ११-१२ ॥ उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान्‌ को देखते हुए स्नेह-बन्धनसे बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे ॥ १३ ॥ 

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शनिवार, 6 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सातवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

कंसकी दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

 

अथ कंसः प्रलंबाद्यैरन्यैः पूर्वं जितैश्च तैः ।
शंबरस्य पुरं प्रागात्स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ॥१॥
शंबरो ह्यतिवीर्योऽपि न युयोध स तेन वै ।
चकार सौहृदं कंसे सर्वैरतिबलैः सह ॥२॥
त्रिशृङ्गशिखरे शेते व्योमो नामाऽसुरो बली ।
कंसपादप्रबुद्धोऽभूत्क्रोधसंरक्तलोचनः ॥३॥
कंसं जघान चोत्थाय प्रबलैर्दृढमुष्टिभिः ।
तयोर्युद्धमभूद्‌घोरमितरेतरमुष्टिभिः ॥४॥
कंसस्य मुष्टिभिः सोऽपि निःसत्त्वोऽभूद्‌भ्रमातुरः ।
भृत्यं कृत्वाथ तं कसः प्राप्तं मां प्रणनाम ह ॥५॥
हे देव युद्धकांक्षोऽस्मि क्व यामि त्वं वदाशु मे ।
प्रोवाच तं तदा गच्छ दैत्य बाणं महाबलम् ॥६॥
प्रेरितश्चेति कंसाख्यो मया युद्धदिदृक्षुणा ।
भुजवीर्यमदोन्नद्धः शोणिताख्यं पुरं ययौ ॥७॥
बाणासुरस्तत्प्रतिज्ञां श्रुत्वा क्रुद्धो ह्यभून्महान् ।
तताड लत्तां भूमध्ये जगर्ज घनवद्‌बली ॥८॥
आजानुभूमिगां लत्तां पातालांतमुपागताम् ।
कृत्वा तमाह बाणस्तु पूर्वं चैनां समुद्धर ॥९॥
श्रृत्वा वचः कराभ्यां तामुज्जहार मदोत्कटः ।
प्रचंडविक्रमः कंसः खरदण्डं गजौ यथा ॥१०॥
तया चोद्‌धृतयोत्खाता लोकाः सप्ततला दृढाः ।
निपेतुर्गिरयोऽनेका विचेलुर्दृढदिग्गजाः ॥११॥
योद्धुं तमुद्यतं बाणं दृष्ट्वाऽऽगत्य वृषध्वजः ।
सर्वान्संबोधयामास प्रोवाच बलिनन्दनम् ॥१२॥
कृष्णं विनापरं चैनं भूमौ कोऽपि न जेष्यति ।
भार्गवेण वरं दत्तं धनुरस्मै च वैष्णवम् ॥१३॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर कंस पहलेके जीते हुए प्रलम्ब आदि अन्य दैत्योंके साथ शम्बरासुरके नगर में गया। वहाँ उसने अपना युद्ध- विषयक अभिप्राय कह सुनाया। शम्बरासुरने अत्यन्त पराक्रमी होनेपर भी कंसके साथ युद्ध नहीं किया । कंसने उन सभी अत्यन्त बलशाली असुरोंके साथ मैत्री स्थापित कर ली । त्रिकूट पर्वतके शिखरपर व्योमनामक एक बलवान् असुर सो रहा था। कंसने वहाँ पहुँचकर उसके ऊपर लात चलायी। उसके प्रहारसे व्योमासुरकी निद्रा टूट गयी और उसने उठकर सुदृढ बँधे हुए जोरदार मुक्कोंसे कंसपर आघात किया। उस समय उसके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे। कंस और व्योमासुरमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों एक-दूसरेको मुक्कोंसे मारने लगे। कंसके मुक्कोंकी मारसे व्योमासुर अपनी शक्ति और उत्साह खो बैठा। उसको चक्कर आने लगा। यह देख कंसने उसको अपना सेवक बना लिया। उसी समय मैं (नारद) वहाँ जा पहुँचा। कंसने मुझे प्रणाम किया और पूछा - 'हे देव ! मेरी युद्धविषयक आकाङ्क्षा अभी पूरी नहीं हुई है। मुझे शीघ्र बताइये, अब मैं कहाँ, किसके पास जाऊँ ?' तब मैंने उससे कहा- 'तुम महाबली दैत्य बाणासुरके पास जाओ।' मुझे तो युद्ध देखनेका चाव रहता ही है। मेरी इस प्रकारकी प्रेरणासे प्रेरित हो बाहुबलके मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस शोणितपुर गया । ।। १–७ ॥

कंसकी युद्धविषयक प्रतिज्ञाको सुनकर महाबली बाणासुर अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने मेघके समान गम्भीर गर्जना करके पृथ्वीपर बड़े जोरसे लात मारी । उसका वह पैर घुटनेतक धरतीमें धँस गया और पातालके निकटतक जा पहुँचा। ऐसा करके बाणने कंससे कहा – 'पहले मेरे इस पैरको तो उठाओ !' उसकी यह बात सुनकर मदोन्मत्त कंसने दोनों हाथोंसे उसके पैरको उखाड़कर ऊपर कर दिया। उसका पराक्रम बड़ा प्रचण्ड था। जैसे हाथी गड़े हुए कठोर दण्ड या खंभे को अनायास ही उखाड़ लेता है, उसी प्रकार कंसने बाणासुरके पैरको खींचकर ऊपर कर दिया। उसके पैरके उखड़ते ही पृथ्वीतलके लोक और सातों पाताल हिल उठे, अनेक पर्वत धराशायी हो गये और सुदृढ़ दिग्गज भी अपने स्थानसे विचलित हो उठे। अब बाणासुर को युद्ध के लिये उद्यत हुआ देख भगवान् शंकर स्वयं वहाँ आ गये और सबको समझा- बुझाकर युद्ध से रोक दिया। फिर उन्होंने बलिनन्दन बाणसे कहा – 'दैत्यराज ! भगवान् श्रीकृष्णको छोड़कर भूतलपर दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है, जो युद्धमें इसे जीत सकेगा। परशुरामजीने इसे ऐसा ही वर दिया है और अपना वैष्णव धनुष भी अर्पित कर दिया है ॥ ८-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन

शौनक उवाच ।

हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
सहानुजैः प्रत्यवरुद्धभोजनः
कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः ॥ १ ॥

सूत उवाच –

वंशं कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं
संरोहयित्वा भवभावनो हरिः ।
निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो
युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥ २ ॥
निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
प्रवृत्त विज्ञान विधूत विभ्रमः ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रयः
परिध्युपान्तां अनुजानुवर्तितः ॥ ३ ॥
कामं ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचुः स्म व्रजान् गावः पयसोधस्वतीर्मुदा ॥ ४ ॥
नद्यः समुद्रा गिरयः सवनस्पतिवीरुधः ।
फलन्त्योषधयः सर्वाः कामं अन्वृतु तस्य वै ॥ ५ ॥
नाधयो व्याधयः क्लेशा दैवभूतात्महेतवः ।
अजातशत्रौ अवभवन् जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित् ॥ ६ ॥

शौनकजीने पूछा—धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिरने अपनी पैतृक सम्पत्तिको हड़प जानेके इच्छुक आतताइयों का नाश करके अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारसे राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगोंमें तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ॥ १ ॥
सूतजी कहते हैं—सम्पूर्ण सृष्टिको उज्जीवित करनेवाले भगवान्‌ श्रीहरि परस्परकी कलहाग्नि से दग्ध कुरुवंशको पुन: अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥ २ ॥ भीष्मपितामह और भगवान्‌ श्रीकृष्णके उपदेशोंके श्रवणसे उनके अन्त:करण में विज्ञान- का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान्‌के आश्रयमें रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका इन्द्रके समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्णरूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे ॥ ३ ॥ युधिष्ठिरके राज्यमें आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वीमें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूधसे सींचती रहती थीं ॥ ४ ॥ नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतुमें यथेष्टरूपसे अपनी-अपनी वस्तुएँ राजाको देती थीं ॥ ५ ॥ अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें किसी प्राणीको कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 04)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 04)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
अथ नत्वा मुनिं कंसो विचरन्स मदोन्मदः ।
न केऽपि युयुधुस्तेन राजानश्च बलिं ददुः ॥४४॥
समुद्रस्य तटे कंसो दैत्यं नाम्ना ह्यघासुरम् ।
सर्पाकारं च फीत्कारैर्लेलिहानं ददर्श ह ॥४५॥
आगच्छन्तं दशन्तं च गृहीत्वा तं निपात्य सः ।
चकार स्वगले हारं निर्भयो दैत्यराड् बली ॥४६॥
प्राच्यां तु बंगदेशेषु दैत्योऽरिष्टो महावृषः ।
तेन सार्द्धं स युयुधे गजेनापि गजो यथा ॥४७॥
शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप कंसमूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं संगृहीत्वा चाक्षिपत्तस्य मस्तके ॥४८॥
जघान मुष्टिनारिष्टं कंसो वै दैत्यपुंगवः ।
मूर्च्छितं तं विनिर्जित्य तेनोदीचीं दिशं गतः ॥४९॥
प्राग्ज्योतिषेश्वरं भौमं नरकाख्यं महाबलम् ।
उवाच कंसो युद्धार्थी युद्धं मे देहि दैत्यराट् ॥५०॥
अहं दासो भवेयं वो भवन्तो जयिनो यदि ।
अहं जयो चेद्‌भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
पूर्वं प्रलंबो युयुधे कंसेनापि महाबलः ।
मृगेन्द्रेण मृगेन्द्रोऽद्रावुद्‌भटेन यथोद्‌भटः ॥५२॥
मल्लयुद्धे गृहीत्वा तं कंसो भूमौ निपात्य च ।
पुनर्गृहीत्वा चिक्षेप प्राग्ज्योतिषपुरं प्रति ॥५३॥
आगतो धेनुको नाम्ना कंसं जग्राह रोषतः ।
नोदयामास दूरेण बलं कृत्वाऽथ दारुणम् ॥५४॥
कंसस्तं नोदयामास धेनुकं शतयोजनम् ।
निपात्य चूर्णयामास तदङ्गं मुष्टिभिर्दृढैः ॥५५॥
तृणावर्तो भौमवाक्यात्कंसं नीत्वा नभो गतः ।
तत्रैव युयुधे दैत्य ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ॥५६॥
कंसोऽनन्तबलं कृत्वा दैत्यं नीत्वा तदाम्बरात् ।
भूमौ स पातयामास बमन्तं रुधिरं मुखात् ॥५७॥
तुण्डेनाथ ग्रसन्तं च बकं दैत्यं महाबलम् ।
कंसो निपातयामास मुष्टिना वज्रघातिना ॥५८॥
उत्थाय दैत्यो बलवान् सितपक्षो घनस्वनः ।
क्रोधयुक्तः समुत्पत्य तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसच्च तम् ॥५९॥
निगीर्णोऽपि स वज्राङ्‌गो तद्‌गले रोधकृच्च यः ।
सद्यश्चच्छर्द तं कंसं क्षतकण्ठो महाबकः ॥६०॥
कंसो बकं संगृहीत्वा पातयित्वा महीतले ।
कराभ्यां भ्रामयित्वा च युद्धे तं विचकर्ष ह ॥६१॥
तत्स्वसारं पूतनाख्यां योद्धुकमामवस्थिताम् ।
तामाह कंसः प्रहसन्वाक्यं मे शृणु पूतने ॥६२॥
स्त्रिया सार्धमहं युद्धं न करोमि कदाचन ।
बकासुरः स्यान्मे भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ॥६३॥
ततोऽनन्तबलं कंसं वीक्ष्य भौमोऽपि धर्षितः ।
चकार सौहृदं कंसे साहाय्यार्थं सुरान्प्रति ॥६४॥

श्रीनारदजी कहते हैं—राजन् ! तदनन्तर बल के मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस मुनिवर परशुरामजीको प्रणाम करके भूतलपर विचरने लगा। किन्हीं राजाओंने उसके साथ युद्ध नहीं किया— सबने उसे कर देना स्वीकार कर लिया। अब कंस समुद्रके तटपर गया। वहाँ 'अघासुर' नामक एक दानव रहता था, जो सर्प के आकार का था। वह फुफकारता और लपलपाती जीभ से चाटता-सा दिखायी देता था। वह आकर कंस- को डँसने लगा। यह देख पराक्रमी दैत्यराजने निर्भयतापूर्वक उसे पकड़ा और धरतीपर पटक दिया। फिर उसे अपने गलेकी माला बना लिया ॥ ४४-४६ ॥

उन दिनों पूर्वदिशावर्ती बंगदेशमें 'अरिष्ट' नामक दैत्य रहता था, जिसकी आकृति बैलके समान थी। उस दैत्यके साथ कंस इस प्रकार जा भिड़ा जैसे एक हाथीके साथ दूसरा हाथी लड़ता है। वह दानव अपनी सींगोंसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उठाता और कंसके मस्तकपर पटक देता था। कंस भी उसी पर्वत को हाथ में लेकर अरिष्टासुर पर दे मारता था। उस युद्धमें दैत्यराज कंसने मुक्केसे अरिष्टासुरपर प्रहार किया, जिससे वह दानव मूर्च्छित हो गया। इस प्रकार उस अरिष्टासुर को पराजित करके उसके साथ ही कंस उत्तर दिशाकी ओर चल दिया।

प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी महाबली भूमिपुत्र 'नरक' के पास जाकर युद्धार्थी कंस ने उससे कहा-- 'दैत्येश्वर ! तुम मुझे युद्ध करने का अवसर दो । यदि संग्राम में तुम्हारी जीत हो गयी तो मैं तुम्हारा सेवक बन जाऊँगा । साथ ही मुझे विजय प्राप्त होनेपर तुम सबको मेरा भृत्य बनना पड़ेगा ।। ४७–५१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! प्राग्ज्योतिषपुर में सर्वप्रथम महापराक्रमी प्रलम्बासुर कंस के साथ इस प्रकार युद्ध करने लगा, जैसे किसी पर्वतपर एक उद्भट सिंह के साथ दूसरा उद्भट सिंह लड़ता हो । कंस ने उस मल्लयुद्ध में प्रलम्बासुर को पकड़ा और पृथ्वी पर दे मारा। फिर उसे उठाकर प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर के पास फेंक दिया। तदनन्तर 'धेनुक' नाम से विख्यात दानव ने आकर कंस को रोषपूर्वक पकड़ लिया। उसने दारुण बल का प्रयोग करके कंस को दूर तक पीछे हटा दिया। तब कंस ने भी धेनुकासुर को बहुत दूर पीछे ढकेल दिया और सुदृढ़ घूँसों से मारकर उसके शरीर को चूर-चूर कर दिया । तदनन्तर भौमासुर- की आज्ञा से 'तृणावर्त' कंस को पकड़कर लाख योजन ऊपर आकाश में ले गया और वहीं युद्ध करने लगा ॥ ५२-५६ ॥

कंस ने अपनी अनन्त शक्ति लगाकर बलपूर्वक उस दैत्य को आकाश से खींचकर पृथ्वीपर पटक दिया । उस समय तृणावर्त के मुँह से खून की धार बह चली । इसके बाद महाबली 'बकासुर' आकर अपनी चोंचसे कंसको निगल जानेकी चेष्टा करने लगा। कंसने वज्रके समान कठोर मुक्केसे प्रहार करके उसे भी धराशायी कर दिया। बलवान् बकासुर फिर उठ गया । उसके पंख सफेद थे। वह मेघके समान गम्भीर गर्जना करता था । क्रोधपूर्वक उड़कर तीखी चोंचवाले उस बकासुरने कंसको निगल लिया ॥ ५७-५९ ॥

कंस का शरीर वज्र की भाँति कठोर था । निगले जानेपर उसने उस दानवके गलेकी नलीको रूँध दिया। फिर महान् बली बकासुरने कण्ठ छिद जानेके कारण कंसको मुँहसे बाहर उगल दिया । तदनन्तर कंसने उस दैत्यको पकड़कर जमीनपर पटका और दोनों हाथोंसे घुमाता हुआ उसे वह युद्धभूमि में घसीटने लगा। बकासुर की एक बहन थी । उसका नाम था- 'पूतना' । वह भी युद्ध करने के लिये उद्यत हो गयी। उसे उपस्थित देखकर कंसने हँसते हुए कहा – 'पूतने ! मेरी बात सुन लो। तुम स्त्री हो, मैं तुम्हारे साथ कभी भी लड़ नहीं सकता। अब यह बकासुर मेरा भाई और तुम बहन होकर रहो' ॥ तदनन्तर महान् पराक्रमी कंसको देखकर भौमासुरने भी पराजय स्वीकार कर ली। फिर देवताओंसे युद्ध करनेके समय सहायता प्रदान करनेके लिये वह कंसके साथ सौहार्दपूर्ण बर्ताव करने लगा ।। ६० - ६४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'कंसके बलका

वर्णन' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट १२)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

सूत उवाच ।

कृष्ण एवं भगवति मनोवाक् दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मनि आत्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ॥ ४३ ॥
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले ।
सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये ॥ ४४ ॥
तत्र दुन्दुभयो नेदुः देवमानव वादिताः ।
शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ ४५ ॥
तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव ।
युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत् ॥ ४६ ॥
तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तत् गुह्यनामभिः ।
ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान्प्रययुः पुनः ॥ ४७ ॥
ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम् ।
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४८ ॥
पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः ।
चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः ॥ ४९ ॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियोंसे आत्मस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णमें अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ॥ ४३ ॥ उन्हें अनन्त ब्रह्ममें लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है ॥ ४४ ॥ उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ ४५ ॥ शौनकजी ! युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये ॥ ४६ ॥ उस समय मुनियोंने बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयोंको श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये ॥ ४७ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारीको ढाढस बँधाया ॥ ४८ ॥ फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 03)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

शतवारं चोज्जहार गिरिमुत्पाट्य दैत्यराट् ।
पुनस्तत्र स्थितं रामं क्रोधसंरक्तलोचनम् ॥३२॥
प्रलयार्कप्रभं दृष्ट्वा ननाम शिरसा मुनिम् ।
पुनः प्रदक्षिणीकृत्य तदंघ्र्योर्निपपात ह ॥३३॥
ततः शान्तो भार्गवोऽपि कंसं प्राह महोग्रदृक् ।
हे कीटमर्कटीडिंभ तुच्छोऽसि मशको यथा ॥३४॥
अद्यैव त्वां हन्मि दुष्ट क्षत्रियं वीर्यमानिनम् ।
मत्समीपे धनुरिदं लक्षभारसमं महत् ॥३५॥
इदं च विष्णुना दत्तं शंभवे त्रैपुरे युधि ।
शंभोः करादिह प्राप्तं क्षत्रियाणां वधाय च ॥३६॥
यदि चेदं तनोषि त्वं तदा च कुशलं भवेत् ।
चेदस्य कर्षणं न स्याद्‌घातयिष्यामि ते बलम् ॥३७॥
श्रुत्वा वचस्तदा दैत्यः कोदण्डं सप्ततालकम् ।
गृहीत्वा पश्यतस्तस्य सज्जं कृत्वाथ लीलया ॥३८॥
आकृष्य कर्णपर्यंतं शतवारं ततान ह ।
प्रत्यञ्चास्फोटनेनैव टङ्कारोऽभूत्तडित्स्वनः ॥३९॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्त लोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन् भूमिमंडले ॥४०॥
धनुः संस्थाप्य तत्कंसो नत्वा नत्वाह भार्गवम् ।
हे देव क्षत्रियो नास्मि दैत्योऽहं ते च किंकरः ॥४१॥
तव दासस्य दासोऽहं पाहि मां पुरुषोत्तम ।
श्रुत्वा प्रसन्नः श्रीरामस्तस्मै प्रादाद्धनुश्च तत् ॥४२॥


श्रीजामदग्न्य उवाच -
यत्कोदण्डं वैष्णवं तद्‌येन भंगीभविष्यति ।
परिपूर्णतमो नात्र सोऽपि त्वां घातयिष्यति ॥४३॥

दानवराज कंस ने उस पर्वत को सौ बार उखाड़कर ऊपर को उठा लिया। फिर वहाँ रहनेवाले मुनिवर परशुरामजी के, जिनके नेत्र क्रोधसे लाल थे और जो प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे, चरणों में मस्तक झुकाया और बार-बार उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके दोनों चरणोंमें वह लेट गया। तब अत्यन्त उग्र दृष्टिवाले परशुरामजीकी क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे बोले- रे कीट ! रे बँदरिया के बच्चे ! तू मच्छर के समान तुच्छ है। तू बलके घमंड में चूर रहनेवाला दुष्ट क्षत्रिय है । मैं आज ही तुझे मौतके मुखमें भेजता हूँ। देख, मेरे पास यह महान् धनुष है। इसकी गुरुता लाख भार (लगभग तीन लाख मन) के बराबर है ॥ ३२-३५ ॥

त्रिपुरासुर- से युद्ध के समय भगवान् विष्णु ने यह धनुष भगवान् शंकर को दिया था । फिर क्षत्रियों का विनाश करने के लिये यह शंकरजी के हाथ से मुझे प्राप्त हुआ । यदि तू इसे चढ़ा सका, तब तो कुशल है; यदि नहीं चढ़ा सका तो तेरे सारे बल का विनाश कर दूँगा ' ॥ ३६-३७ ॥

परशुराम जी की बात सुनकर कंस ने उस धनुष को, जो सात ताड़ के बराबर लंबा था, उठा लिया और परशुरामजी के देखते-देखते उसे लीलापूर्वक चढ़ा दिया। फिर कान तक

खींच-खींचकर उसे सौ बार फैलाया। उसकी प्रत्यञ्चा- के खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान टंकार शब्द होने लगा । उसकी भीषण ध्वनि से सातों लोकों और पातालोंके साथ पूरा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और तारागण टूट-टूटकर जमीन पर गिरने लगे। फिर कंस ने धनुष को नीचे रख दिया और परशुराम जी को बारंबार प्रणाम करके कहा- 'भगवन्! मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं आपका सेवक दैत्य हूँ । आपके दासोंका दास हूँ। पुरुषोत्तम ! मेरी रक्षा कीजिये।' कंसकी ऐसी प्रार्थना सुनकर परशुरामजी प्रसन्न हो गये। फिर वह धनुष उन्होंने कंसको ही दे दिया ।। ३८-४२ ॥

परशुरामजी ने कहा- यह धनुष भगवान् विष्णुका है। इसे जो तोड़ देगा, वहीं यहाँ साक्षात् परिपूर्णतम पुरुष है । उसी के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी ॥ ४३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...