रविवार, 14 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

सूत उवाच ।

आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १ ॥
स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽपि
     उरुक्रमस्य अधरशोण शोणिमा ।
दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे
     यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २ ॥
तमुपश्रुत्य निनदं जगद्‍भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३ ॥
तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४ ॥
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुः हर्षगद्‍गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदं अवितारं इवार्भकाः ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥ भगवान्‌ के शङ्ख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान्‌ सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ ४ ॥ सबके मुख-कमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 13 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

नवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

गर्गजी की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना; बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना

 

कुसंगनिष्ठोऽतिखलो हि कंसो
हंतुं स्वसारं धिषणां चकार ।
कचे गृहीत्वा शितखड्‍गपाणि-
र्गतत्रपो निर्दय उग्रकर्मा ॥१४॥
वादित्रकारा रहिता बभूवु-
रग्रे स्थिताः स्युश्चकिता हि पश्चात् ।
सर्वेषु वा श्वेतमुखेषु सत्सु
शौरिस्तमाहाऽऽशु सतां वरिष्ठः ॥१५॥


श्रीवसुदेव उवाच -
भोजेन्द्र भोजकुलकीर्तिकरस्त्वमेव
भौमादिमागधबकासुरवत्सबाणैः ।
श्लाघ्या गुणास्तव युधि प्रतियोद्धुकामैः
स त्वं कथं तु भगिनीमसिनात्र हन्याः ॥१६॥
ज्ञात्वा स्त्रियं किल बकीं प्रतियोद्धुकामां
युद्धं कृतं न भवता नृपनीतिवृत्त्या ।
सा तु त्वयापि भगिनीव कृता प्रशांत्यै
साक्षादियं तु भगिनी किमु ते विचारात् ॥१७॥
उद्‌वाहपर्वणि गता च तवानुजा च
बाला सुतेव कृपणा शुभदा सदैषा ।
योग्योऽसि नात्र मथुराधिप हंतुमेनां
त्वं दीनदुःखहरणे कृतचित्तवृत्तिः ॥१८॥


श्रीनारद उवाच -
नामन्यतेत्थं प्रतिबोधितोऽपि
कुसङ्गनिष्ठोऽतिखलो हि कंसः ।
तदा हरेः कालगतिं विचार्य
शौरिः प्रपन्नं पुनराह कंसम् ॥१९॥


श्रीवसुदेव उवाच -
नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-
द्यद्‌देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्या-
न्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्या
भयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥२१॥

 

कंस सदा दुष्टों का ही साथ करता था। स्वभाव से भी वह अत्यन्त खल (दुष्ट) था । लज्जा तो उसे छू नहीं गयी थी । वह निर्दय होनेके कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने तीखी धारवाली तलवार हाथमें उठा ली, बहिन- के केश पकड़ लिये और उसे मारनेका निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालोंने बाजे बंद कर दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँहपर मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थितिमें सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीवसुदेवजीने कंससे कहा ॥। १४ -१५॥

श्रीवसुदेवजी बोले- भोजेन्द्र ! आप इस वंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हैं। भौमासुर, जरासंध, बकासुर, वत्सासुर और बाणासुर - सभी योद्धा आपसे लड़नेके लिये युद्धभूमिमें आये; किंतु उन्होंने आपकी प्रशंसा ही की। वे ही आप तलवारसे बहिनका वध करनेको कैसे उद्यत हो गये ? बकासुर- की बहिन पूतना आपके पास आकर लड़नेकी इच्छा करने लगी; किंतु आपने राजनीतिके अनुरूप बर्ताव करनेके कारण स्त्री समझकर उसके साथ युद्ध नहीं किया। उस समय शान्ति स्थापनके लिये आपने पूतनाको बहिनके तुल्य बनाकर छोड़ दिया। फिर यह तो आपकी साक्षात् बहिन है। किस विचार से आप इस अनुचित कृत्य में लग गये ? ॥१६-१७॥  

मथुरानरेश ! यह कन्या यहाँ विवाहके शुभ अवसरपर आयी है। आपकी छोटी बहिन है। बालिका है। पुत्रीके समान दयनीय- दयापात्र है। यह सदा आपको सद्भावना प्रदान करती आयी है। अतः इसका वध करना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आपकी चित्तवृत्ति तो दीनदुखियों के दुःख दूर करने में ही लगी रहती है ॥१८॥  

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजीके समझानेपर भी अत्यन्त खल और कुसङ्गी कंसने उनकी बात नहीं मानी। तब वसुदेवजी, यह भगवान्‌ का विधान है, अथवा कालकी ऐसी ही गति है—यह समझकर भगवत्-शरणापन्न हो, पुनः कंस से बोले ॥ १९ ॥

श्रीवसुदेवजीने कहा- राजन् ! इस देवकी से तो आपको कभी भय है नहीं । आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके विषय में मेरा विचार सुनिये। मैं इसके गर्भ से उत्पन्न सभी पुत्र आपको दे दूँगा; क्योंकि उन्हींसे आपको भय है । अतः व्यथित न होइये ॥ २० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश ! कंसने वसुदेवजीके निश्चयपूर्वक कहे गये वचनपर विश्वास कर लिया। अतः उनकी प्रशंसा करके वह उसी क्षण घरको चला गया। इधर वसुदेवजी भी भयभीत हो देवकी के साथ अपने भवन को पधारे ॥ २१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'वसुदेवके विवाहका वर्णन' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः शङ्कितः स्नेहात् प्रायुङ्क्त चतुरङ्‌गिणीम् ॥ ३२ ॥
अथ दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३ ॥
कुरुजाङ्गलपाञ्चालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४ ॥
मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागात् श्रान्तवाहो मनाग्विभुः ॥ ३५ ॥
तत्र तत्र ह तत्रत्यैः हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं भेजे दिशं पश्चात् गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥

अजातशत्रु युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥ सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान्‌ के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की ॥ ३३ ॥ शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। उस समय अधिक चलनेके कारण भगवान्‌के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे ॥ ३४-३५ ॥ मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान्‌ का सम्मान करते, सायंकाल होनेपर वे रथपर से भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

नवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

तत्रैकदा श्रीमथुरापुरे वरे
पुरोहितः सर्वयदूत्तमैः कृतः ।
शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिकः
समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम् ॥१॥
हीराखचिद्धेमलसत्कपाटकं
द्विपेन्द्रकर्णाहतभृङ्गनादितम् ।
इभस्रवन्निर्झरगण्डधारया
समावृतं मण्डपखण्डमण्डितम् ॥२॥
महोद्‌भटैर्धीरजनैः सकञ्चुकै-
र्धनुर्धरैश्चर्म कृपाणपाणिभिः ।
रथद्विपाश्वध्वजिनीबलादिभिः
सुरक्षितं मण्डलमण्डलीभिः ॥३॥
ददर्श गर्भो नृपदेवमाहुकं
श्वाफल्किना देवककंससेवितम् ।
श्रीशक्रसिंहासन उन्नते परे
स्थितं वृतं छत्रवितानचामरैः ॥४॥
दृष्ट्वा मुनिं तं सहसाऽऽसनाश्रया-
दुत्थाय राजा प्रणनाम यादवैः ।
संस्थाप्य सम्पूज्य सुभद्रपीठके
स्तुत्वा परिक्रम्य नतः स्थितोऽभवत् ॥५॥
दत्त्वाऽऽशिषं गर्गमुनिर्नृपाय वै
पप्रच्छ सर्वं कुशलं नृपादिषु ।
श्रीदेवकं प्राह महामना ऋषि-
र्महौजसं नीतिविदं यदूत्तमम् ॥६॥


श्रीगर्ग उवाच -
शौरीं विना भुवि नृपेषु वरस्तु नास्ति
चिन्त्यो मया बहुदिनैः किल यत्र तत्र ।
तस्मान्नृदेव वसुदेववराय देहि
श्रीदेवकीं निजसुतां विधिनोद्‌वहस्व ॥७॥


श्रीनारद उवाच -
कृत्वा तदैव पुरि निश्चयनागवल्लीं
श्रीदेवकं सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
गर्गेच्छया तु वसुदेववराय पुत्रीं
कृत्वाथ मङ्गलमलं प्रददौ विवाहे ॥८॥
कृतोद्‌वहः शौरिरतीव सुन्दरं
रथं प्रयाणे समलङ्कृतं हयैः ।
सार्द्धं तया देवकराजकन्यया
समारुहत्कांचनरत्‍नशोभया ॥९॥
स्वसुः प्रियं कर्तुमतीव कंसो
जग्राह रश्मींश्चलतां हयानाम् ।
उवाह वाहांश्चतुरंगिणीभि-
र्वृतः कृपास्नेहपरोऽथ शौरौ ॥१०॥
दासीसहस्रं त्वयुतं गजानां
सत्पारिबर्हं नियुतं हयानाम् ।
लक्षं रथानां च गवां द्विलक्षं
प्रादाद्‌दुहित्रे नृप देवको वै ॥११॥
भेरीमृदंगोद्धरगोमुखानां
धुन्धुर्यवीणानकवेणुकानाम् ।
महत्स्वनोऽभूच्चलतां यदुनां
प्रयाणकाले पथि मङ्गलं च ॥१२॥
आकाशवागाह तदैव कंसं
त्वामष्टमो हि प्रसवोऽञ्जसास्याः ।
हन्ता न जानासि च यां रथस्थां
रश्मीन् गृहीत्वा वहसेऽबुधस्त्वम् ॥१३॥

गर्गजी की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना; बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना

 

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! एक समयकी बात है, श्रेष्ठ मथुरापुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्ग जी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान् थे । सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें अपने पुरोहित के पदपर प्रतिष्ठित किया था। मथुरा के उस राजभवन में सोने के किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे । राजद्वार पर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तकपर झुंड के झुंड भौरे आते और उन हाथियों के बड़े-बड़े कानोंसे आहत होकर गुञ्जारव करते हुए उड़ जाते थे। इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरों के नाद से कोलाहलपूर्ण हो रहा था। गजराजोंके गण्डस्थलसे निर्झरकी भाँति झरते हुए

मदकी धारासे वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप- समूह उस राजमन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढाल और तलवार धारण किये राजभवनकी सुरक्षामें तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरङ्गिणी सेना तथा माण्डलिकों की मण्डलीद्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था ॥ १-३ ॥

मुनिवर गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्रके सदृश उत्तम और ऊँचे सिंहासनपर विराजमान राजा उग्रसेन को देखा। अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्रचंदोवे से सुशोभित थे तथा उनपर चँवर ढुलाये जा रहे थे। मुनिको उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिंहासन से उठकर खड़े हो गये । उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्रपीठ पर बिठाकर उनकी सम्यक् प्रकारसे पूजा की। फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीतभाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राजपरिवारका कुशल- मङ्गल पूछा । फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा-- ॥ ४–६॥

श्रीगर्गजी बोले - राजन् ! मैंने बहुत दिनोंतक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा- विचारा है। मेरी दृष्टिमें वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेवको ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप दो और विधिपूर्वक दोनोंका विवाह कर दो ॥ ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! गर्गजीके उक्त आदेशको ही शिरोधार्य करके समस्त धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्रीदेवकने सगाईके निश्चयके लिये पानका बीड़ा भेज दिया और गर्गजीकी इच्छासे मङ्गलाचार का सम्पादन करके विवाहमें वसुदेव-वरको अपनी पुत्री अर्पित कर दी ॥ ८ ॥

विवाह हो जानेपर बिदाईके समय वसुदेवजी घोड़ों से सुशोभित अत्यन्त सुन्दर रथपर सुवर्ण-निर्मित एवं रत्नमय आभूषणों की शोभा से सम्पन्न नववधू देवकराज कन्या देवकी के साथ आरूढ़ हुए ।। वसुदेव के प्रति कंसका बहुत ही स्नेह और कृपाभाव था। वह अपनी बहिनका अत्यन्त प्रिय करनेके लिये चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आकर गमनोद्यत घोड़ोंकी बागडोर अपने हाथमें ले स्वयं रथ हाँकने लगा। उस समय देवकने अपनी पुत्रीके लिये उत्तम दहेजके रूपमें एक हजार दासियाँ, दस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, एक लाख रथ और दो लाख गौएँ प्रदान कीं ॥ ९-११ ॥

उस बिदाकालमें भेरी, उत्तम मृदङ्ग, गोमुख, धन्धुरि, वीणा, ढोल और वेणु आदि वाद्योंका और साथ जानेवाले यादवोंका महान् कोलाहल हुआ। उस समय मङ्गलगीत गाये जा रहे थे। और मङ्गलपाठ भी हो रहा था। उसी समय आकाशवाणीने कंसको सम्बोधित करके कहा - 'अरे मूर्ख कंस ! घोड़ोंकी बागडोर हाथमें लेकर जिसे रथपर बैठाये लिये जा रहा है, इसीकी आठवीं संतान अनायास ही तेरा वध कर डालेगी - तू इस बात को नहीं जानता' ॥ १२-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

नूनं व्रतस्नानहुतादिनेश्वरः
     समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः ।
पिबंति याः सख्यधरामृतं मुहुः
     व्रजस्त्रियः सम्मुमुहुः यदाशयाः ॥ २८ ॥
या वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे
     प्रमथ्य चैद्यः प्रमुखान्हि शुष्मिणः ।
प्रद्युम्न साम्बाम्ब सुतादयोऽपरा
     याः चाहृता भौमवधे सहस्रशः ॥ २९ ॥
एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
     निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात् पुष्करलोचनः पतिः
     न जातु अपैत्याहृतिभिः हृदि स्पृशन् ॥ ३० ॥
एवंविधा गदन्तीनां स गिरः पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेन अभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरिः ॥ ३१ ॥

सखी ! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही व्रजबालाएँ आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ २८ ॥ ये स्वयंवरमें शिशुपाल आदि मतवाले राजाओंका मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्र, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं। क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पतिव्रतासे रहित स्त्रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसे इनके हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षणके लिये भी इन्हें छोडक़र दूसरी जगह नहीं जाते ॥ २९-३० ॥  हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँसे विदा हो गये ॥ ३१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

आठवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

सुचन्द्र और कलावती के पूर्व-पुण्य का वर्णन, उन दोनों का वृषभानु तथा कीर्ति के रूप में अवतरण

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत् ।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि ॥१३॥


श्रीनारद उवाच -
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः ।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः ॥१४॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः ।
कलावती रत्‍नमाला मेनका नाम नामतः ॥१५॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते ।
वैदेहाय रत्‍नमालां मेनकां च हिमाद्रये ।
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः ॥१६॥
सीताभूद्‌रत्‍नमालायां मेनकायां च पार्वती ।
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते ॥१७॥
सुचन्द्रोऽथ कलावत्या गोमतीतीरजे वने ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैस्तताप ब्रह्मणस्तपः ॥१८॥
अथ विधिस्तमागत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
श्रुत्वा वल्मीकदेशाच्च निर्ययौ दिव्यरूपधृक् ॥१९॥
तं नत्वोवाच मे भूयाद्दिव्यं मोक्षं परात्परम् ।
तच्छ्रुत्वा दुःखिता साध्वी विधिं प्राह कलावती ॥२०॥
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् ।
यदि मोक्षमसौ याति तदा मे का गतिर्भवेत् ॥२१॥
एनं विना न जीवामि यदि मोक्षं प्रदास्यसि ।
तुभ्यं शापं प्रदास्यामि पतिविक्षेपविह्वला ॥२२॥


श्रीब्रह्मोवाच -
त्वच्छापाद्‌भयभीतोऽहं मे वरोऽपि मृषा न हि ।
तस्मात्त्वं प्राणपतिना सार्धं गच्छ त्रिविष्टपम् ॥२३॥
भुक्त्वा सुखानि कालेन युवां भूमौ भविष्यथः ।
गंगायमुनयोर्मध्ये द्वापरान्ते च भारते ॥२४॥
युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः ॥२५॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा ।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः ॥२६॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च ।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्‌भवा ॥२७॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत् ।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः ॥२८॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः ।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः ॥२९॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात् ॥३०॥

राजा बहुलाश्वने पूछा – मुने ! वृषभानुजी का सौभाग्य अद्भुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्रीराधिकाजी स्वयं पुत्रीरूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ ? ॥ १३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे । परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात् भगवान्‌ का अंश माना जाता है। पूर्वकालमें  (अर्यमा - प्रभृति) पितरों के यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। वे सभी परम सुन्दरी थीं। उनके नाम थे— कलावती, रत्नमाला और मेनका ॥ १४-१५ ॥

पितरों ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्रीहरि के अंशभूत बुद्धिमान् सुचन्द्र के हाथ में दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित कर दिया। साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दीं । महामते ! रत्नमाला से सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वतीजी प्रकट हुईं। इन दोनों देवियों की कथाएँ पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं ॥ १६-१७ ॥

तदनन्तर कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तटपर 'नैमिष' नामक वन में गये। उन्होंने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक चलता रहा । तदनन्तर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले—'वर माँगो।' राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थीं । ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबी से बाहर निकले। उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा - 'मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो ।' राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दुःखी हो गया ॥ १८-२० ॥

अतः उन्होंने ब्रह्माजी से कहा - 'पितामह ! पति ही नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है। यदि ये मेरे पतिदेवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी। यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप पड़ने के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी ।। २१–२२ ॥

ब्रह्माजीने कहा-देवि ! मैं तुम्हारे शापके भयसे अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता । इसलिये तुम अपने प्राणपतिके साथ स्वर्गमें जाओ। वहाँ स्वर्गसुख भोगकर कालान्तरमें फिर पृथ्वीपर जन्म लोगी। द्वापरके अन्तमें भारतवर्ष में, गङ्गा और यमुनाके बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनोंसे जब परिपूर्णतम भगवान्‌ की प्रिया साक्षात् श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे ।। २३-२५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं - इस प्रकार ब्रह्माजीके दिव्य एवं अमोघ वर से कलावती और सुचन्द्र- दोनों की भूतल पर उत्पत्ति हुई। वे ही 'कीर्ति' तथा 'श्रीवृषभानु' हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञकुण्ड से प्रकट हुईं। उस दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्मकी सारी बातें स्मरण थीं ।। २६-२७ ॥

सुरभानु के  घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे 'श्रीवृषभानु' नाम से विख्यात हुए। उन्हें भी पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के समान परम सुन्दर थे। परम बुद्धिमान् नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह सम्बन्ध जोड़ा था । उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अतः वह एक-दूसरे को चाहते भी थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ । जो मनुष्य वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यानको श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है और अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है ।। २८-३० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीराधिका के पूर्वजन्म का वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अहो अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलं
     अहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष पुंसां ऋषभः श्रियः पतिः
     स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति ॥ २६ ॥
अहो बत स्वर्यशसः तिरस्करी
     कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति नित्यं यदनुग्रहेषितं
     स्मितावलोकं स्वपतिं स्म यत्प्रजाः ॥ २७ ॥

अहो ! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्थामें घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ २६ ॥ बड़े हर्षकी बात है कि द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँकी प्रजा अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेमसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टिसे देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं ॥ २७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 10 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

स वा अयं यत्पदमत्र सूरयो
     जितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वनः ।
पश्यन्ति भक्ति उत्कलितामलात्मना
     नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुमर्हति ॥ २३ ॥
स वा अयं सख्यनुगीत सत्कथो
     वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभिः ।
य एक ईशो जगदात्मलीलया
     सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥ २४ ॥
यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा
     जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल ।
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो
     भवाय रूपाणि दधत् युगे युगे ॥ २५ ॥

इस जगत् में जिसके स्वरूपका साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणोंको वशमें करके भक्तिसे प्रफुल्लित निर्मल हृदयमें किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रह्म हैं। वास्तवमें इन्हींकी भक्तिसे अन्त:करणकी पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादिके द्वारा नहीं ॥ २३ ॥ सखी ! वास्तवमें ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियोंने किया है—जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीलासे जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते ॥ २४ ॥ जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्त्वगुणको स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसारके कल्याणके लिये युग-युगमें अनेकों अवतार धारण करते हैं ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

आठवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

सुचन्द्र और कलावती के पूर्व-पुण्य का वर्णन, उन दोनों का वृषभानु तथा कीर्ति के रूप में अवतरण

 

श्रुत्वा तदा शौनक भक्तियुक्तः
श्रीमैथिलो ज्ञानभृतां वरिष्ठः ।
नत्वा पुनः प्राह मुनिं महाद्‌भुतं
देवर्षिवर्यं हरिभक्तिनिष्ठः ॥१॥


बहुलाश्व उवाच -
त्वया कुलं कौ विशदीकृतं मे
स्वानंददोर्यद्यशसामलेन ।
श्रीकृष्णभक्तक्षणसंगमेन
जनोऽपि सत्स्याद्‌बहुना कुमुस्वित् ॥२॥
श्रीराधया पूर्णतमस्तु साक्षा-
द्‌गत्वा व्रजे किं चरितं चकार ।
तद्‌ब्रूहि मे देवऋषे ऋषीश
त्रितापदुःखात्परिपाहि मां त्वम् ॥३॥


श्रीनारद उवाच -
धन्यं कुलं यन्निमिना नृपेण
श्रीकृष्णभक्तेन परात्परेण ।
पूर्णीकृतं यत्र भवान्प्रजातो
शुक्तौ हि मुक्ताभवनं न चित्रम् ॥४॥
अथ प्रभोस्तस्य पवित्रलीलां
सुमङ्गलां संशृणुतां परस्य ।
अभूत्सतां यो भुवि रक्षणार्थं
न केवलं कंसवधाय कृष्णः ॥५॥
अथैव राधां वृषभानुपत्‍न्या-
मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥६॥
घनावृते व्योम्नि दिनस्य मध्ये
भाद्रे सिते नागतिथौ च सोमे ।
अवाकिरन्देवगणाः स्फुरद्‌भि-
स्तन्मन्दिरे नन्दनजैः प्रसूनैः ॥७॥
राधावतारेण तदा बभूवु-
र्नद्योऽमलाभाश्च दिशः प्रसेदुः ।
ववुश्च वाता अरविन्दरागैः
सुशीतलाः सुन्दरमन्दयानाः ॥८॥
सुतां शरच्चन्द्रशताभिरामां
दृष्ट्वाऽथ कीर्तिर्मुदमाप गोपी ।
शुभं विधायाशु ददौ द्विजेभ्यो

द्विलक्षमानन्दकरं गवां च ॥९॥
प्रेङ्‍खे खचिद्‌रत्‍नमयूखपूर्णे
सुवर्णयुक्ते कृतचन्दनाङ्‌गे ।
आन्दोलिता सा ववृधे सखीजनै-
र्दिने दिने चंद्रकलेव भाभिः ॥१०॥
यद्दर्शनं देववरैः सुदुर्लभं
यज्ञैरवाप्तं जनजन्मकोटिभिः ।
सविग्रहां तां वृषभानुमन्दिरे
ललन्ति लोका ललनाप्रलालनैः ॥११॥
श्रीरासरङ्‌गस्य विकासचन्द्रिका
दीपावलीभिर्वृषभानुमन्दिरे ।
गोलोकचूडामणिकण्ठभूषणां
ध्यात्वा परां तां भुवि पर्यटाम्यहम् ॥१२॥

गर्गजी कहते हैं— शौनक ! राजा बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था । हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसङ्ग को सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाववाले देवर्षि नारदजीको प्रणाम किया और पुनः पूछा ॥ १ ॥

राजा बहुलाश्वने कहा - भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यशसे मेरे कुलको पृथ्वीपर अत्यन्त विशद ( उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्णभक्तों के क्षणभर के सङ्ग से साधारण जन भी सत्पुरुष - महात्मा बन जाता है। इस विषय में  अधिक कहने से क्या लाभ । देवर्षे ! श्रीराधा के साथ भूतलपर अवतीर्ण हुए साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं - यह मुझे कृपापूर्वक बताइये । देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप–दुःख से मेरी रक्षा कीजिये ॥ २-३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्णभक्त राजा निमि ने समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया । तुम्हारे इस कुलके लिये कुछ भी विचित्र नहीं है । अब तुम उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी परम मङ्गलमयी पवित्र लीलाका श्रवण करो। वे भगवान् केवल कंसका संहार करनेके लिये ही नहीं, अपितु भूतलके संतजनोंकी रक्षाके लिये अवतीर्ण हुए थे । उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्रीराधाका वृषभानु की पत्नी कीर्ति-रानी के गर्भ में प्रवेश कराया। वे श्रीराधा कलिन्दजाकूलवर्ती निकुञ्जप्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं ॥ ४-६ ॥

उस समय भाद्रपद का महीना था । शुक्लपक्ष को अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवनपर बरसा रहे थे। उस समय श्रीराधिकाजीके अवतार धारण करनेसे नदियोंका जल स्वच्छ हो गया। सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न — निर्मल हो उठीं। कमलोंकी सुगन्धसे व्याप्त शीतल वायु मन्दगतिसे प्रवाहित हो रही थी ॥ ७-८ ॥

शरत्पूर्णिमा के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिराम कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में निमग्न हो गयीं। उन्होंने मङ्गलकृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान कीं। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मोंतक तप करनेपर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्रीराधिकाजी जब वृषभानुके यहाँ साकाररूपसे प्रकट हुईं और गोप- ललनाएँ जब उनका लालन- पालन करने लगीं, तब सर्वसाधारण लोग उनका दर्शन करने लगे। सुवर्णजटित एवं सुन्दर रत्नोंसे खचित, चन्दननिर्मित तथा रत्नकिरण-मण्डित पालने में

सखीजनोंद्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्रीराधा प्रतिदिन शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगीं ॥ ९-११ ॥

श्रीराधा क्या हैं— रास की रङ्गस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक - चूड़ामणि श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली । मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर विचरता रहता हूँ ॥ १२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सातवाँ अध्याय  (पोस्ट 04)

 

कंसकी दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

 

अंकुशास्फालनात् क्रुद्धं पातयन्तं पदैर्द्विषः ।
शुण्डादण्डस्य फूत्कारैर्मर्दयन्तमितस्ततः ॥४३॥
स्रवन्मदं चतुर्दन्तं हिमाद्रिमिव दुर्गमम् ।
नदन्तं शृङ्खलां शुण्डां चालयन्तं मुहुर्मुहुः ॥४४॥
घटाढ्यं किंकिणीजालरत्‍नकंबलमण्डितम् ।
गोमूत्रचयसिन्दूरकस्तूरीपत्रभृन्मुखम् ॥४५॥
दृढेन मुष्टिना कंसस्तं तताड महागजम् ।
द्वितीयमुष्टिना शक्रं स जघान रणाङ्गणे ॥४६॥
तस्य मुष्टिप्रहारेण दूरे शक्रः पपात ह ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा गजोऽपि विह्वलोऽभवत् ॥४७॥
पुनरुत्थाय नागेन्द्रो दन्तैश्चाहत्य दैत्यपम् ।
शुण्डादण्डेन चोद्‌धृत्य चिक्षेप लक्षयोजनम् ॥४८॥
पतितोऽपि स वज्रांगः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
स्फुरदोष्ठोऽतिरुष्टाङ्गो युद्धभूमिं समाययौ ॥४९॥
कंसो गृहीत्वा नागेन्द्रं संनिपात्य रणांगणे ।
निष्पीड्य शूण्डां तस्यापि दन्तांश्चूर्णीचकार ह ॥५०॥
अथ चैरावतो नागो दुद्रावाशु रणाङ्गणात् ।
निपातयन्महावीरान् देवधानीं पुरीं गतः ॥५१॥
गृहीत्वा वैष्णवं चापं सज्जं कृत्वाथ दैत्यराट् ।
देवान्विद्रायामास बाणौघैश्च धनुःस्वनैः ॥५२॥
ततः सुरास्तेन निहन्यमाना
विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-
र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३॥
केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-
त्संन्यस्तशस्त्रा युधि मुक्तकच्छाः ।
स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥५४॥
इत्थं स देवान्प्रगतान्निरीक्ष्य तान्
नीत्वा च सिंहासनमातपत्रवत् ।
सर्वैस्तदा दैत्यगणैर्जनाधिपः
स्वराजधानीं मथुरां समाययौ ॥५५॥

अङ्कुश की मार से कुपित हुआ वह गजराज शत्रुओंको अपने पैरोंसे मार-मारकर युद्धभूमिमें गिराने लगा। वह अपनी सूंड से निकले फूत्कारों से उनका मर्दन कर रहा था | झरते हुए मदजल तथा चार दांतों वाले हिमालय के समान दुर्गम उस गजराज की लौह श्रृंखलाएं झंकार कर रही थीं तथा वह बार-बार अपनी सूंड को घुमा रहा था | उसके गलेमें घंटे बँधे हुए थे, वह किङ्किणीजाल तथा रत्नमय कम्बलसे मण्डित था । गोरोचन, सिन्दूर और कस्तूरीसे उसके मुख-मण्डलपर पत्ररचना की गयी थी। कंस ने निकट आनेपर उस महान् गजराजके ऊपर सुदृढ़ मुक्केसे प्रहार किया। साथ ही उसने समराङ्गणमें देवराज इन्द्रपर भी दूसरे मुक्का प्रहार किया। उसके मुक्केकी मार खाकर इन्द्र ऐरावतसे दूर जा गिरे। ऐरावत भी धरतीपर घुटने टेककर व्याकुल हो गया। फिर तुरंत ही उठकर गजराजने दैत्यराज कंसपर दाँतोंसे आघात किया और उसे सूँड़पर उठाकर कई लाख योजन दूर फेंक दिया। कंसका शरीर वज्रके समान सुदृढ़ था । वह उतनी दूरसे गिरनेपर भी घायल नहीं हुआ। उसके मनमें किंचित् व्याकुलता हुई; किंतु रोषसे ओठ फड़फड़ाता अत्यन्त जोशमें भरकर वह पुनः युद्धभूमिमें जा पहुँचा ॥ कंस ने नागराज ऐरावतको पकड़कर समराङ्गणमें धराशायी कर दिया और उसकी सूँड़ मरोड़कर उसके दाँतोंको चूर-चूर कर दिया ॥ ४३-५० ॥

अब तो ऐरावत हाथी उस समराङ्गण से तत्काल भाग चला। वह बड़े-बड़े वीरोंको गिराता हुआ देवताओंकी राजधानी अमरावती पुरीमें जा घुसा । तदनन्तर दैत्यराज कंस ने वैष्णव धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर बाण-समूहों तथा धनुषकी टंकारोंसे देवताओंको खदेड़ना आरम्भ किया। कंसकी मार पड़नेसे देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओंमें भाग निकले। कुछ देवताओंने रणभूमिमें अपनी शिखाएँ खोल दीं और 'हम डरे हुए हैं (हमें न मारो ) ' – इस प्रकार कहने लगे ॥ ५१-५३ ॥

कुछ लोग हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की लाँग भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यन्त व्याकुल हो युद्धस्थलमें राजा कंसके सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके। इस प्रकार देवताओंको भगा हुआ देख वहाँके छत्र-युक्त सिंहासनको साथ लेकर नरेश्वर कंस समस्त दैत्योंके साथ अपनी राजधानी मथुराको लौट आया ॥ ५४-५५ ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'कंसकी दिग्विजय' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...