शनिवार, 20 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८ ॥
ताः पुत्रमङ्‌कं आरोप्य स्नेहस्नुत पयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुः नेत्रजैर्जलैः ॥ २९ ॥
अथाविशत् स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्‍नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३० ॥
पत्‍न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
     क्य सञ्जात मनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात् सहसासनाशयात्
     व्रतैः व्रीडित लोचनाननाः ॥ ३१ ॥
तं आत्मजैः दृष्टिभिरन्तरात्मना
     दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयोः
     विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ॥ २८-२९ ॥ माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥ अपने प्राणनाथ भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियों के हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी हुर्ईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं, बल्कि उन नियमोंको[*] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके  नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये ॥ ३२ ॥
......................................................

[*] जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना चहिये—
क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ॥
जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्री को खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना—इन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये। ............(याज्ञवल्क्यस्मृति)

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 03)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान् द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

सतडित्‌घनदिव्यसौभगं
चलनीलालकवृन्दभृन्मुखम् ।
चलदंशु तमोहरं परं
शुभदं सुन्दरमंबुजेक्षणम् ॥२७॥
कृतपत्रविचित्रमंडनं
सततं कोटिमनोजमोहनम् ।
परिपूर्णतमं परात्परं
कलवेणुध्वनिवाद्यतत्परम् ॥२८॥
तमवेक्ष्य सुतं यदूत्तमो
हरिजन्मोत्सवफुल्ललोचनः ।
अथ विप्रजनेषु चाशु वै
नियुतं सन्मनसा गवां ददौ ॥२९॥
हरिमानकदुंदुभिः स्तवैः
स्तवनं तं प्रणिपत्य विस्मितः ।
अकरोदुदितप्रभूदयो
गतभीः सूतिगृहे कृतांजलिः ॥३०॥


श्रीवसुदेव उवाच -
एको यः प्रकृतिगुणैरनेकधासि
हर्ता त्वं जनक उतास्य पालकस्त्वम् ।
निर्लिप्तः स्फटिक इवाद्य देहवर्णै-
स्तस्मै श्रीभुवनपते नमामि तुभ्यम् ॥३१॥
एधःसु त्वनल इवात्र वर्तमानो
यो‍ऽन्तस्थो बहिरपि चाम्बरं यथा हि ।
आधारो धरणिरिवास्य सर्वसाक्षी
तस्मै ते नम इव सर्वगो नभस्वान् ॥३२॥
भूभारोद्‌भटहरणार्थमेव जातो
गोदेवद्विजनिजवत्सपालकोऽसि ।
गेहे मे भुवि पुरुषोत्तमोत्तमस्त्वं
कंसान्मां भुवनपते प्रपाहि पापात् ॥३३॥


श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं श्यामसुन्दरम् ।
ज्ञात्वा नत्वाथ तं प्राह देवकी सर्वदेवता ॥३४॥


श्रीदेवक्युवाच -
हे कृष्ण हे विगणिताण्डपते परेश
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेव ।
पूर्णेश पूर्ण परिपूर्णतम प्रभो मां
त्वं पाहि परमेश्वर कंसपापात् ॥३५॥


श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा भगवान्कृष्णः परिपूर्णतमः स्वयम् ।
सस्मितो देवकीं शौरिं प्राह स वृजिनार्दनः ॥३६॥

श्यामसुन्दर विग्रहपर सुशोभित वह पीताम्बर विद्युद्विलाससे विलसित नीलमेघके सौभाग्यपूर्ण सौन्दर्यको छीने लेता था। मुखके ऊपर शिरोदेशमें काले-काले घुँघराले केश शोभा पाते थे। मुखचन्द्रकी चञ्चल रश्मियाँ वहाँका सम्पूर्ण अन्धकार दूर किये देती थीं। वह परम सुन्दर शुभद आनन प्रफुल्ल इन्दीवर - सदृश युगल नेत्रोंसे सुशोभित था । उसपर विचित्र रीतिसे मनोहर पत्ररचना की गयी थी, जिससे मण्डित अभिराम मुख सदैव करोड़ों कामदेवोंको मोहे लेता था । वे परिपूर्णतम परात्पर भगवान् मधुर ध्वनिसे वेणु बजाने में तत्पर थे ॥ २७-२८ ॥

ऐसे पुत्र का अवलोकन करके यदुकुलतिलक वसुदेवजी के नेत्र भगवान् के जन्मोत्सवजनित आनन्दसे खिल उठे । फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणों को एक लाख गो-दान करने का मन-ही-मन संकल्प किया। सूतिकागार में प्रभु का आविर्भाव प्रत्यक्ष हो गया, इससे वसुदेवजीका सारा भय जाता रहा। वे अत्यन्त विस्मित हो, हाथ जोड़कर आदि-अन्तरहित श्रीहरिको प्रणाम करके, स्तोत्रों द्वारा उनका स्तवन करने लगे ।। २९-३० ॥

श्री वसुदेव जी बोले- भगवन् ! जो एकमात्र अद्वितीय हैं, वे ही परब्रह्म परमात्मा आप प्रकृति के सत्वगुणों के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं | आप ही संहार, आप ही उत्पादक तथा आप ही इस जगत के पालक हैं | हे आदिदेव ! हे त्रिभुवनपते ! परमात्मन् ! जैसे स्फटिकमणि औपाधिक रंगोंसे लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार आप देहके वर्णोंसे निर्लिप्त ही रहते हैं। ऐसे आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है ॥ ३१ ॥

जैसे ईंधनमें आग छिपी रहती है, उसी तरह आप अव्यक्तरूप से इस सम्पूर्ण जगत् में विद्यमान हैं; तथा जैसे आकाश सबके भीतर और बाहर भी रहता है, उसी प्रकार आप सबके भीतर और बाहर भी स्थित हैं। आप ही पृथ्वीकी भाँति इस समस्त जगत् के आधार हैं, सबके साक्षी हैं तथा वायु की भाँति सर्वत्र जानेकी शक्ति रखते हैं। आप गौ, देवता, ब्राह्मण, अपने भक्तजन तथा बछड़ों के पालक हैं और उद्भट भूभार का हरण करनेके लिये ही मेरे घर में अवतीर्ण हुए हैं। इस भूतलपर समस्त पुरुषोंत्तमों से भी उत्तम आप ही हैं। भुवनपते ! पापी कंससे मुझे बचाइये । ॥ ३२-३३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं—मिथिलापते ! सर्व- देवतास्वरूपिणी देवकीको भी यह ज्ञात हो गया कि मेरे घरमें परिपूर्णतम भगवान् साक्षात् श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका आविर्भाव हुआ है। अतः वे भी उन्हें नमस्कार करके बोलीं ॥ ३४ ॥

देवकीने कहा - हे सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्ण ! हे अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी ! हे परमेश्वर ! हे गोलोक- धाममन्दिर की ध्वजा ! हे आदिदेव ! हे पूर्णरूप ईश्वर ! हे परिपूर्णतम परमेश ! हे प्रभो ! आप पापी कंसके भय से मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये  ॥ ३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! पिता-माताकी ओरसे किया गया वह स्तवन सुनकर पापनाशन साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मन्द मन्द मुस्कराते हुए देवकी तथा वसुदेवजीसे बोले - ॥ ३६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।
हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्र तदीक्षण महोत्सवाः ॥ २४ ॥
नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न वितृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्‌गमच्युतम् ॥ २५ ॥
श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारङ्‌गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६ ॥
सितातपत्रव्यजनैः उपस्कृतः
     नवर्षैः अभिवर्षितः पथि ।
पिशङ्‌गवासा वनमालया बभौ
     यथार्कोडुप चाप वैद्युतैः ॥ २७ ॥

शौनकजी ! जिस समय भगवान्‌ राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान्‌ के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌- का वक्ष:स्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मी का  निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अङ्ग-अङ्ग शोभाके धाम हैं। भगवान्‌की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ २५-२६ ॥ द्वारकाके राजपथपर भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऊपर श्वेत वर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो ॥ २७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान् द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

श्रीनारद उवाच -
नत्वा हरिं तदा देवा ब्रह्माद्या मुनिभिः सह ।
गायन्तस्तं प्रशंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥१४॥
अथ मैथिलराजेन्द्र जन्मकाले हरेः सति ।
अंबरं निर्मलं भूतं निर्मलाश्च दिशो दश ॥१५॥
उज्ज्वलास्तारका जाताः प्रसन्नं भूमिमंडलम् ।
नदा नद्यः समुद्राश्च प्रसन्नापः सरोवराः ॥१६॥
सहस्रदलपद्मानि शतपत्राणि सर्वतः ।
विचकानि मरुत्स्पर्शैः पतद्‌गन्धिरजांसि च ॥१७॥
तेषु नेदुर्मधुकरा नदन्तश्चित्रपक्षिणः ।
शीतला मन्दयानाश्च गंधाक्ता वायवो ववुः ॥१८॥
ऋद्धा जनपदा ग्रामा नगरा मंगलायनाः ।
देवा विप्रा नगा गावो बभूवुः सुखसंवृताः ॥१९॥
देवदुन्दुभयो नेदुर्जयध्वनिसमाकुलाः ।
यत्र तत्र महाराज सर्वेषां मंगलं परम् ॥२०॥
विद्याधराश्च गंधर्वाः सिद्धकिन्नरचारणाः ।
जगुः सुनायका देवास्तुष्टुवुः स्तुतिभिः परम् ॥२१॥
ननृतुर्दिवि गन्धर्वा विद्याधर्य्यो मुदान्विताः ।
पारिजातकमन्दारमालतीसुमनांसि च ॥२२॥
मुमुचुर्देवमुख्याश्च गर्जन्तश्च घना जले ।
भाद्रे बुधे कृष्णपक्षे धात्रर्क्षे हर्षणे वृषे ।
कर्णेऽष्टम्यामर्द्धरात्रे नक्षत्रेशमहोदये ॥२३॥
अन्धकारावृते काले देवक्यां शौरिमन्दिरे ।
आविरासीद्धरिः साक्षादरण्यामध्वरेऽग्निवत् ॥२४॥
स्फुरदक्षविचित्रहारिणं
विलसत्कौस्तुभरत्‍नधारिणम् ।
परिधिद्युतिनूपुरांगदं
धृतबालार्ककिरीटकुंडलम् ॥२५॥
चलदद्‌भुतवन्हिकंकणं
तडिदूर्जितगुणमेखलाञ्चितम् ।
मधुभृद्‌ध्वनिपद्ममालिनं
नवजांबूनददिव्यवाससम् ॥२६॥

श्रीनारद जी बोले - उस समय मुनियोंसहित ब्रह्मा आदि सब देवता श्रीहरि को नमस्कार करके उनकी महिमा का गान तथा स्वभाव की प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धामको चले गये। मिथिला-सम्राट् बहुलाश्व ! तदनन्तर जब श्रीहरि के प्राकट्य का समय आया, आकाश स्वच्छ हो गया। दसों दिशाएँ निर्मल हो गयीं ॥ १४-१५ ॥

तारे अत्यन्त उद्दीप्त हो उठे। भूमण्डल में प्रसन्नता छा गयी । नदी, नद, सरोवर और समुद्र के जल स्वच्छ हो गये। सब ओर सहस्रदल तथा शतदल कमल खिल उठे। वायुके स्पर्शसे उनके सुगन्धयुक्त पराग सब दिशाओं में फैलने लगे ॥ १६-१७ ॥

उन कमलों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु बहने लगी। जनपद और ग्राम सुख-सुविधा से सम्पन्न हो गये। बड़े-बड़े नगर तो मङ्गल के धाम बन गये। देवता, ब्रह्मण, पर्वत, वृक्ष और गौएँ– सभी सुख -सामग्रीसे परिपूर्ण हो गये ॥ १८-१९ ॥

देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं। साथ ही जय-जयकार की ध्वनि सब ओर व्याप्त हो गयी । महाराज ! जहाँ-तहाँ सब जगह सब का परम मङ्गल हो गया। गायन कलामें निपुण विद्याधर, गन्धर्व, सिद्ध, किंनर तथा चारण गीत गाने लगे। देवता लोग स्तोत्र पढ़कर उन परम पुरुषका स्तवन करने लगे । ॥ २०-२१ ॥

देवलोकमें गन्धर्व तथा विद्याधरियाँ आनन्दमग्न होकर नाचने लगीं। मुख्य-मुख्य देवता पारिजात, मन्दार तथा मालतीके मनोरम फूल बरसाने लगे और मेघ गर्जना करते हुए जलकी वृष्टि करने लगे। भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग तथा वृष लग्नमें अष्टमी तिथिको आधी रातके समय चन्द्रोदय-कालमें, जब कि जगत्में अन्धकार छा रहा था, वसुदेव-मन्दिर में देवकी के गर्भसे साक्षात् श्रीहरि प्रकट हुए-ठीक उसी तरह, जैसे अरणिकाष्ठ से अग्नि का आविर्भाव होता है ॥ २२- २४ ॥

कण्ठ में प्रकाशमान स्वच्छ एवं विचित्र मुक्ताहार, वक्षपर शोभा - प्रभा-समन्वित सुन्दर कौस्तुभ मणि तथा रत्नों की माला, चरणों में नूपुर तथा बाहों में बाजूबंद धारण किये भगवान् मण्डलाकार प्रभापुञ्ज से उद्भासित हो रहे थे । मस्तकपर किरीट तथा कानोंमें कुण्डल-युगल बालरवि के सदृश उद्दीप्त हो रहे थे। कलाइयोंमें प्रज्वलित अग्निके समान कान्तिमान् अद्भुत कङ्कण हिल रहे थे । कटिकी करधनीमें जो डोर या जंजीर लगी थी, उसकी प्रभा विद्युत् के समान सब ओर व्याप्त हो रही थी । कण्ठदेश में कमलों की माला शोभा पाती थी, जिसके ऊपर मधु-लोलुप मधुकर मँडरा रहे थे। उनके श्रीअङ्गों पर जो दिव्य पीतवस्त्र था, वह नूतन ( तपाये हुए) जाम्बूनद (सुवर्ण) की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था ॥ २५- २६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

भगवान् तत्र बन्धूनां पौराणां अनुवर्तिनाम् ।
यथाविधि उपसङ्‌गम्य सर्वेषां मानमादधे ॥ २१ ॥
प्रह्वाभिवादन आश्लेष करस्पर्श स्मितेक्षणैः ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्च अभिमतैर्विभुः ॥ २२ ॥
स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।
आशीर्भिः युज्यमानोऽन्यैः वन्दिभिश्चाविशत् पुरम् ॥ २३ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग- अलग मिलकर सब का सम्मान किया ॥ २१ ॥ किसी  को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही-वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया ॥ २२-२३ ॥

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बुधवार, 17 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
विवेश वसुदेवस्य मनः पूर्वं परात्परः ॥१॥
सूर्येन्दुवह्निसंकाशो वसुदेवो महामनाः ।
बभूवात्यन्तमहसा साक्षाद्‌यज्ञ इवापरः ॥२॥
देवक्यामागते कृष्णे सर्वेषामभयंकरे ।
रराज तेन सा गेहे घने सौदामिनी यथा ॥३॥
तेजोवतीं च तां वीक्ष्य कंसः प्राह भयातुरः ।
प्राप्तोऽयं प्राणहन्ता मे पूर्वमेषा न चेदृशी ॥४॥
जातमात्रं हनिष्यामीत्युक्त्वाऽऽस्ते भयविह्वलः ।
पश्यन्सर्वत्र च हरिं पूर्वशत्रुं विचिन्तयन् ॥५॥
अहो वैरानुबन्धेन साक्षात्कृष्णोऽपि दृश्यते ।
तस्माद्वैरं प्रकुर्वन्ति कृष्णप्राप्त्यर्थमासुराः ॥६॥
अथ ब्रह्मादयो देवा मुनीन्द्रैरस्मदादिभिः ।
शौरिगेहोपरि प्राप्ताः स्तवं चक्रुः प्रणम्य तम् ॥७॥


देवा ऊचुः -
यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतु-
र्हेतुः स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण ।
नैतद्विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघा-
स्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृतविस्फुलिंगाः ॥८॥
नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान्
माया न शब्द उत नो विषयीकरोति ।
तद्‌ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं
शुद्धं परात्परतरं शरणं गताः स्मः ॥९॥
अंशांशकांशककलाद्यवतारवृन्दै-
रावेशपूर्णसहितैश्च परस्य यस्य ।
सर्गादयः किल भवन्ति तमेव कृष्णं
पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नताः स्मः ॥१०॥
मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागतेषु
कल्पेषु चांशकलया स्ववपुर्बिभर्षि ।
अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि
धर्मं विधाय भुवि मंगलमातनोषि ॥११॥
यद्‌दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं
गम्यं द्रवद्‌भिरमलाशयभक्तियोगैः ।
आनंदकंद चरतस्तव मन्दयानं
पादारविन्दमकरन्दरजो दधामः ॥१२॥
पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मयं त्वां
कंदर्पकोटिशतमोहनमद्‌भुतं च ।
गोलोकधामधिषणद्युतिमादधानं
राधापतिं धरणिधुर्यधनं दधामः ॥१३॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण पहले वसुदेवजीके मनमें आविष्ट हुए। भगवान्‌का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य, चन्द्रमा और अग्निके समान महान् तेजसे उद्भासित हो उठे, मानो उनके रूपमें दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय देनेवाले श्रीकृष्ण देवी देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए। इससे उस कारागृहमें देवकी उसी तरह दिव्य दीप्तिसे दमक उठीं, जैसे घनमाला में चपला चमक उठती है। देवकीके उस तेजस्वी रूपको देखकर कंस मन-ही-मन भयसे व्याकुल होकर बोला- 'यह मेरा प्राणहन्ता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी तेजस्विनी नहीं थी। इस शिशु को जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा ।' यों कहकर वह भयसे विह्वल हो उस बालकके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा। भयके कारण अपने पूर्वशत्रु भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए वह सर्वत्र उन्हींको देखने लगा। अहो ! दृढ़तापूर्वक वैर बँध जाने से भगवान् कृष्णका भी प्रत्यक्षकी भाँति दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्णकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही उनके साथ वैर करते हैं। जब भगवान् गर्भमें आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि देवता तथा अस्मदादि (नारद-प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेवके गृह के ऊपर आकाशमें स्थित हो, भगवान्‌ को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-७ ॥

देवता बोले- जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं- में प्रतीत होनेवाले विश्वके जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके गुणोंका आश्रय लेकर ही ये प्राणिसमुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्निसे निकलकर सब ओर फैले हुए विस्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) पुनः उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियवर्ग तथा उनके अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनसे प्रकट हो पुनः उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान् श्रीकृष्णको हमारा सादर नमस्कार है ॥ ८ ॥

बलवानों में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिनपर शासन करनेमें समर्थ नहीं है, माया भी जिनपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्यशब्द (वेद) जिनको अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान्‌की हम शरणमें आये हैं। जिन परमेश्वरके अंशावतार, अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार तथा पूर्णावतारसहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्वके सृष्टिपालन आदि कार्य सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको हम प्रणाम करते हैं। प्रभो! अतीत, वर्तमान और अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पोंमें आप अपने अंश और कलाद्वारा अवतार - विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया है, जब कि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेजःपुञ्ज) का यहाँ विस्तार कर रहे हैं! अब इस परिपूर्णतम अवतारद्वारा भूतलपर धर्मकी स्थापना करके आप लोकमें मङ्गल (कल्याण) का प्रसार करेंगे ॥ ९-११ ॥

आनन्दकंद ! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अन्तःकरणवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ और अगम्य है, वही उन बड़भागी भक्तोंके लिये परम सुलभ है, जो अपने निर्मल हृदयमें भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिरसमें निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूपमें मन्द मन्द विचरनेवाले आपके चरणारविन्दोंके मकरन्द एवं परागको हम सानुराग सिरपर धारण करें, यही हमारी आन्तरिक अभिलाषा है । आप पहले से ही परम कमनीय कलेवरधारी हैं और यहाँ इस अवतारमें भी उसी कमनीय रूपसे आप सुशोभित होंगे । आपका रूप कोटिशत कामदेवोंको भी मोहित करनेवाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाममें धारित दिव्य दीप्ति-राशिको यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारयिता आप श्रीराधावल्लभ को हम [ह्रदय में] धारण करते हैं  ॥ १२- १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः ।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चाद्‍भुतविक्रमः ॥ १६ ॥
प्रद्युम्नः चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
प्रहर्षवेग उच्छशित शयनासन भोजनाः ॥ १७ ॥
वारणेन्द्रं पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्‌गलैः ।
शङ्‌खतूर्य निनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः ।
प्रत्युज्जग्मू रथैर्हृष्टाः प्रणयागत साध्वसाः ॥ १८ ॥
वारमुख्याश्च शतशो यानैः तत् दर्शनोत्सुकाः ।
लसत्कुण्डल निर्भात कपोल वदनश्रियः ॥ १९ ॥
नटनर्तकगन्धर्वाः सूत मागध वन्दिनः ।
गायन्ति चोत्तमश्लोक चरितानि अद्‍भुतानि च ॥ २० ॥

उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मङ्गल शकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्त्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले। शङ्ख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्‌की अगवानी करने चले ॥ १६—१८ ॥ साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पडऩेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढक़र भगवान्‌की अगवानीके लिये चलीं ॥ १९ ॥ बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान्‌ श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले ॥ २० ॥

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मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दसवाँ अध्याय  (पोस्ट 03)

 

कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन

 

श्रीव्यास उवाच -
अहोभाग्यं तु ते नंद शिशुः शेषः सनातनः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातोऽयं मथुरापुरे ॥३२॥
कृष्णेच्छया तदुदरात्प्रणीतो रोहिणीं शुभाम् ।
नंदराज त्वया दृश्यो दुर्लभो योगिनामपि ॥३३॥
तद्दर्शनार्थं प्राप्तोऽहं वेदव्यासो महामुनिः ।
तस्मात्त्वं दर्शयास्माकं शिशुरूपं परात्परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
अथ नंदः शिशुं शेषं दर्शयामास विस्मितः ।
दृष्ट्वा प्रेंखस्थितं प्राह नत्वा सत्यवतीसुतः ॥३५॥


श्रीव्यास उवाच -
देवाधिदेव भगवन्कामपाल नमोऽस्तु ते ।
नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्‌रामाय ते नमः ॥३६॥
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये ।
सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ॥३७॥
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
हलायुधः प्रलंबघ्नः पाहि मां पुरुषोत्तम ॥३८॥
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नमः ।
नीलांबराय गौराय रौहिणेयाय ते नमः ॥३९॥
धेनुकारिर्मुष्टिकारिः कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।
रुक्म्यरिः कूपकर्णारिः कूटारिर्बल्वलान्तकः ॥४०॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षकः ।
द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमंडनः ॥४१॥
कंसभ्रातृप्रहन्ताऽसि तीर्थयात्राकरः प्रभुः ।
दुर्योधनगुरुः साक्षात्पाहि पाहि जगत्प्रभो ॥४२॥
जयजयाच्युत देव परात्पर
स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।
सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः ॥४३॥
इह पठेत्सततं स्तवनं तु यः
स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।
जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं
भवति तस्य जयः स्वधनं धनम् ॥४४॥


श्रीनारद उवाच -
बलं परिक्रम्य शतं प्रणम्य
तैर्द्वैपायनो देव पराशरात्मजः ।
विशालबुद्धिर्मुनिबादरायणः
सरस्वतीं सत्यवतीसुतो ययौ ॥४५॥

श्रीव्यासजी बोले-नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे इनका देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ। ॥ ३२ – ३४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन कराया । पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की — ॥ ३५ ॥

श्रीव्यासजी बोले- भगवन् ! आप देवताओंके भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले) हैं, आपको नमस्कार है। आप साक्षात् अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है । आप धरणीधर, पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करनेवाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित तथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है ॥३६–३७॥

रेवती- रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं। पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये । आप बल, बलभद्र तथा तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणीके सुपुत्र हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी, कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं ॥ ३८-४० ॥

कालिन्दी की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गङ्गा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण)

हैं। आप कंस के भाइयों का वध करनेवाले तथा तीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके गुरु भी साक्षात् आप ही हैं । प्रभो ! जगत्‌की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥

अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले परात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो, जय हो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आप सुरेन्द्र, मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है । जो इस जगत् में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा । उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा  ॥ ४३-४४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजी को सौ बार प्रणाम और परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'बलभद्रजी के जन्म का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

मधुभोजदशार्हार्ह कुकुरान्धक वृष्णिभिः ।
आत्मतुल्य बलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११ ॥
सर्वर्तु सर्वविभव पुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैः वृत पद्माकर श्रियम् ॥ १२ ॥
गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुक तोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैः अन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३ ॥
सम्मार्जित महामार्ग रथ्यापणक चत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्‌कुरैः ॥ १४ ॥
द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षत फलेक्षुभिः ।
अलङ्‌कृतां पूर्णकुम्भैः बलिभिः धूपदीपकैः ॥ १५ ॥

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ की वह द्वारका पुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ॥ ११ ॥ वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥ नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ोंपर भगवान्‌के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे। और भगवान्‌ के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्कुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥ घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥

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सोमवार, 15 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दसवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन

 

उग्रसेनानुगान्दृष्ट्वा कंसवीराः समुत्थिताः ।
तैः सार्द्धमभवद्युद्धं सभामंडपमध्यतः ॥१६॥
द्वारदेशेऽपि वीराणां युद्धं जातं परस्परम् ।
खड्‍गप्रहारैरयुतं जनानां निधनं गतम् ॥१७॥
कंसो गृहीत्वाथ गदां पितुः सेनां ममर्द ह ।
कंसस्य गदया स्पृष्ट्वा केचिच्छिन्नललाटकाः ॥१८॥
भिन्नपादा भिन्नमुखाश्छिन्नाशाश्छिन्नबाहवः ।
अधोमुखा ऊर्ध्वमुखाः सशस्त्राः पतिताः क्षणात् ॥१९॥
वमन्तो रुधिरं वीरा मूर्छिता निधनं गताः ।
सभामंडपमारक्तं दृश्यते क्षतजस्रवात् ॥२०॥
इत्थं मदोत्कटः कंसः संनिपात्योद्‍‌भटान् रिपून् ।
क्रोधाढ्यो राजराजेन्द्रं जग्राह पितरं खलः ॥२१॥
नृपासनात्संगृहीत्वा बद्ध्वा पाशैश्च तं खलः ।
तन्मित्रैश्च नृपैः सार्द्धं कारागारे रुरोध ह ॥२२॥
मधूनां शूरसेनानां देशानां सर्वसंपदाम् ।
सिंहासने चोपविश्य स्वयं राज्यं चकार ह ॥२३॥
पीडिता यादवाः सर्वे संबंधस्य मिषैस्त्वरम् ।
चतुर्दिशान्तरं देशान् विविशुः कालवेदिनः ॥२४॥
देवक्याः सप्तमे गर्भे हर्षशोकविवर्द्धने ।
व्रजं प्रणीते रोहिण्यामनन्ते योगमायया ॥२५॥
अहो गर्भः क्व विगत इत्यूचुर्माथुरा जनाः ॥२६॥
अथ व्रजे पंचदिनेषु भाद्रे
स्वातौ च षष्ठ्यां च सिते बुधे च ।
उच्चैर्गृहैः पंचभिरावृते च
लग्ने तुलाऽऽख्ये दिनमध्यदेशे ॥२७॥
सुरेषु वर्षत्सु सुपुष्पवर्षं
घनेषु मुंचत्सु च वारिबिन्दून् ।
बभूव देवो वसुदेवपत्‍न्यां
विभासयन्नन्दगृहं स्वभासा ॥२८॥
नंदोऽपि कुर्वन् शिशुजातकर्म
ददौ द्विजेभ्यो नियुतं गवां च ।
गोपान् समाहूय सुगायकानां
रावैर्महामंगलमातनोति ॥२९॥
द्वैपायनो देवलदेवरात-
वसिष्ठवाचस्पतिभिर्मया च ।
आगत्य तत्रैव समास्थितोऽभू-
त्पाद्यादिभिर्नन्दकृतैः प्रसन्नः ॥३०॥


नंदराज उवाच -
सुंदरो बालकः कोऽयं न दृश्यो यत्समः क्वचित् ।
कथं पंचदिनाज्जातस्तन्मे ब्रूहि महामुने ॥३१॥

उग्रसेन के अनुगामियों को युद्धके लिये उद्यत देख कंसके निजी वीर सैनिक भी उनका सामना करनेके लिये खड़े हुए। राजसभाके मण्डपमें ही उन दोनों दलोंका परस्पर युद्ध होने लगा। राजद्वारपर भी उन दोनों दलोंके वीरोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया। वे सब लोग खुलकर एक- दूसरेपर खड्गका प्रहार करने लगे। इस संघर्षमें दस हजार मनुष्य खेत रहे । तदनन्तर कंसने गदा हाथमें लेकर पिताकी सेनाको कुचलना आरम्भ किया। उसकी गदासे छू जानेसे ही कितने ही लोगोंके मस्तक फट गये, कितनोंके पाँव कट गये, नख विदीर्ण हो गये, बाँहें कट गयीं और उनकी आशापर पानी फिर गया। कोई औंधे मुँह और कोई उतान होकर अस्त्र- शस्त्र लिये क्षणभरमें धराशायी हो गये। बहुत-से वीर खून उगलते हुए मूर्च्छित हो काल के गाल में चले गये। वहाँ इतना रक्त प्रवाहित हुआ कि सारा सभामण्डप रँग गया ॥ १६-२० ॥

राजराजेश्वर ! इस प्रकार दुष्ट एवं मदमत्त कंस ने कुपित हो उद्भट शत्रुओं को धराशायी करके अपने पिता को कैद कर लिया। उन्हें राजसिंहसनसे उतारकर उस दुष्टने पाशोंसे बाँधा और उनके मित्रोंके साथ उन्हें भी कारागारमें बंद कर दिया। मधु और शूरसेन की सारी सम्पत्तिओं पर अधिकार करके कंस स्वयं सिंहासनपर जा बैठा और राज्यशासन करने लगा ॥२१–२३॥

समस्त पीड़ित यादव सम्बन्धी के घरपर जानेके बहाने तुरंत चारों दिशाओंमें विभिन्न देशोंके भीतर जाकर रहने लगे और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। देवकीका सातवाँ गर्भ उनके लिये हर्ष और शोक दोनों की वृद्धि करनेवाला हुआ, उसमें साक्षात् अनन्त - देव अवतीर्ण हुए थे। योगमायाने देवकीके उस गर्भको खींचकर व्रजमें रोहिणीकी कुक्षिके भीतर पहुँचा दिया। ऐसा हो जानेपर मथुरा के लोग खेद प्रकट करते हुए कहने लगे— 'अहो ! बेचारी देवकीका गर्भ कहाँ चला गया ? कैसे गिर गया ?' ॥२४–२६॥

व्रज में उस गर्भ को गये पाँच ही दिन बीते थे कि भाद्रपद शुक्ला षष्ठीको, स्वाती नक्षत्रमें, बुधके दिन वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भसे अनन्तदेवका प्राकट्य हुआ । उच्चस्थानमें स्थित पाँच ग्रहों से घिरे हुए तुला लग्न में, दोपहर के समय बालक का जन्म हुआ। उस जन्मवेला में जब देवता फूल बरसा रहे थे और बादल वारिबिन्दु बिखेर रहे थे, प्रकट हुए अनन्तदेवने अपनी अङ्गकान्ति से नन्दभवन को उद्भासित कर दिया ॥२७–२८॥

नन्दरायजी ने भी उस शिशुका जातकर्मसंस्कार करके ब्राह्मणों को दस लाख गौएँ दान कीं। गोपोंको बुलाकर उत्तम गान-विद्यामें निपुण गायकोंके संगीतके साथ महान् मङ्गलमय उत्सव का आयोजन किया । देवल, देवरात, वसिष्ठ, बृहस्पति और मुझ नारदके साथ आकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास भी वहाँ बैठे और नन्दजीके दिये हुए पाद्य आदि उपहारोंसे अत्यन्त प्रसन्न हुए । २९ - ३० ॥

नन्दरायजीने पूछा- महर्षियो ! यह सुन्दर बालक कौन है, जिसके समान दूसरा कोई देखने में नहीं आता ? महामुने ! इसका जन्म पाँच ही दिनों में कैसे हुआ ? यह मुझे बताइये ॥ ३१ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...