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शनिवार, 4 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
शुक्रवार, 3 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 05)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
ब्राह्मणा
ऊचुः -
दामोदरः पातु पादौ जानुनी विष्टरश्रवाः ।
ऊरू पातु हरिर्नाभिः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥५४॥
कटिं राधापतिः पातु पीतवासास्तवोदरम् ।
हृदयं पद्मनाभश्च भुजौ गोवर्द्धनोद्धरः ॥५५॥
मुखं च मथुरानाथो द्वारकेशः शिरोऽवतु ।
पृष्ठं पात्वसुरध्वंसी सर्वतो भगवान्स्वयम् ॥५६॥
श्लोकत्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेन्मानवः सदा ।
महासौख्यं भवेत्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥५७॥
श्रीनारद उवाच -
नंदस्तेभ्यो गवां लक्षं सुवर्णं दशलक्षकम् ।
सहस्रं नवरत्नानां वस्त्रलक्षं ददौ परम् ॥५८॥
गतेषु द्विजमुख्येषु नंदो गोपान्नियम्य च ।
भोजयामास संपूज्य वस्त्रैभूषैर्मनोहरैः ॥५९॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
तृणावर्तः पूर्वकाले कोऽयं सुकृतकृन्नरः ।
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥६०॥
श्रीनारद उवाच - पाण्डुदेशोद्भवो राजा सहस्राक्षः प्रतापवान् ।
हरिभक्तो धर्मनिष्ठो यज्ञकृद्दानतत्परः ॥६१॥
रेवातटे महादिव्ये लतावेत्रसमाकुले ।
नारीणां च सहस्रेण रममाणो चचार ह ॥६२॥
दुर्वाससं मुनिं साक्षादागतं न ननाम ह ।
तदा मुनिर्ददौ शापं राक्षसो भव दुर्मते ॥६३॥
पुनस्तदंघ्र्योः पतितं नृपं प्रादाद्वरं मुनिः ।
श्रीकृष्णविग्रहस्पर्शात्परं मोक्षमवाप ह ॥६५॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे
शकटासुरतृणावर्तमोक्षो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
ब्राह्मणों
ने कहा- भगवान् दामोदर तुम्हारे चरणों की रक्षा करें। विष्टरश्रवा घुटनों की,
श्रीविष्णु जाँघों की और स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण
तुम्हारी नाभि की रक्षा करें। भगवान् राधावल्लभ तुम्हारे कटि- भाग की तथा
पीताम्बरधारी तुम्हारे उदर की रक्षा करें। भगवान् पद्मनाभ हृदयेश की, गोवर्धनधारी बाँहों की, मथुराधीश्वर मुखकी एवं
द्वारकानाथ सिरकी रक्षा करें। असुरों का संहार करनेवाले भगवान् पीठ की रक्षा करें
और साक्षात् भगवान् गोविन्द सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। तीन श्लोक वाले इस
स्तोत्र का जो मनुष्य निरन्तर पाठ करेगा, उसे परम सुख की
प्राप्ति होगी और उसे कहीं भी भय का सामना नहीं करना पड़ेगा ॥ ५४—५७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं-तदनन्तर नन्दजीने उन ब्राह्मणोंको एक लाख गायें,
दस लाख स्वर्णमुद्राएँ, एक हजार नूतन रत्न और
एक लाख बढ़िया वस्त्र दिये। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके चले जानेपर नन्दजीने गोपोंको
बुला-बुलाकर भोजन कराया और मनोहर वस्त्रा- भूषणोंसे उन सबका सत्कार किया ।। ५८-५९
॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा- मुने ! यह तृणावर्त पहले जन्ममें कौन-सा पुण्यकर्मा मनुष्य था,
जो साक्षात् परि- महाभाग ब्राह्मण बोले- व्रजपति नन्दजी तथा पूर्णतम
भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो गया ? ।। ६० ।।
श्रीनारदजी
बोले - राजन् ! पाण्डुदेशमें 'सहस्राक्ष'
नामसे विख्यात एक राजा थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। भगवान्
विष्णुमें उनकी अपार श्रद्धा थी। वे धर्ममें रुचि रखते थे । यज्ञ और दानमें उनकी
बड़ी लगन थी। एक दिन वे रेवा (नर्मदा नदीके दिव्य तटपर गये। लताएँ और बेंत उस तट की
शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ सहस्रों स्त्रियों के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए वे
विचरने लगे। उसी समय स्वयं दुर्वासा मुनि ने वहाँ पदार्पण किया। राजा ने उनकी
वन्दना नहीं की, तब मुनि ने शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा।' फिर तो राजा
सहस्राक्ष दुर्वासाजीके चरणोंमें पड़ गये। तब मुनिने उन्हें वर दिया- 'राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहका स्पर्श होनेसे तुम्हारी मुक्ति हो
जायगी' ॥ ६१–६४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं-राजन् ! वे ही राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके शापसे भूमण्डलपर 'तृणावर्त' नामक दैत्य हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके
दिव्य श्रीविग्रहका स्पर्श होनेसे उनको सर्वोत्तम मोक्ष (गोलोकधाम) प्राप्त हो गया
॥ ६५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'शकटासुर और तृणावर्तका मोक्ष' नामक चौदहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
गुरुवार, 2 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट
04)
शकटभञ्जन; उत्कच और
तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन
श्रीयशोदोवाच
-
न जानामि कथं बालो भारभूतो गिरींद्रवत् ।
तस्मान्मया कृतो भूमौ चक्रवाते महाभये ॥४०॥
गोप्य ऊचुः -
मा मृषा वद कल्याणि हे यशोदे गतव्यथे ।
अयं दुग्धमुखो बालो लघुं कुसुमतूलवत् ॥४१॥
श्रीनारद उवाच -
तदा गोप्योऽथ गोपाश्च नंदाद्या आगते शिशौ ।
अतीव मोदं संप्रापुर्वदन्तः कुशलं जनैः ॥४२॥
यशोदा बालकं नीत्वा पाययित्वा स्तनं मुहुः ।
आघ्रायोरसि वस्त्रेण रोहिणीं प्राह मोहिता ॥४३॥
श्रीयशोदोवाच -
एको दैवेन दत्तोऽयं न पुत्रा बहवश्च मे ।
तस्यापि बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणेन वै ॥४४॥
अद्य मृत्युमुखान्मुक्तो भविष्यत्किमतः परम् ।
किं करोमि क्व गच्छामि कुत्र वासो भवेदतः ॥४५॥
वज्रसाराश्च ये दैत्या निर्दया घोरदर्शनाः ।
वैरं कुर्वन्ति मे बाले दैव दैव कुतः सुखम् ॥४६॥
धनं देहो गृहं सौधो रत्नानि विविधानि च ।
सर्वेषां तु ह्यवशं वै भूयान्मे कुशली शिशुः ॥४७॥
हरेरर्चां दानमिष्टं पूर्तं देवालयं शतम् ।
करिष्यामि तदा बालोऽरिष्टेभ्यो विजयी यदा ॥४८॥
एकबालेन मे सौख्यमन्धयष्टिरिव प्रिये ।
बालं नीत्वा गमिष्यामि देशे रोहिणि निर्भये ॥४९॥
श्रीनारद उवाच -
तदैव विप्रा विद्वांस आगता नंदमंदिरम् ।
यशोदया च नंदेन पूजिता आसनस्थिताः ॥५०॥
ब्राह्मणा ऊचुः -
मा शोचं कुरु हे नंद हे यशोदे व्रजेश्वरी ।
करिष्यामः शिशो रक्षां चिरंजीवी भवेदयम् ॥५१॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा द्विजमुख्यास्ते कुशाग्रैर्नवपल्लवैः ।
पवित्रकलशैस्तोयैर्ऋग्यजुःसामजैः स्तवैः ॥५२॥
परैः स्वस्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः ।
अग्निं सम्पूज्यविधिवद्रक्षां विदधिरे शिशोः ॥५३॥
यशोदाजीने
कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने
लगा था,
इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर
रख दिया ॥ ४० ॥
गोपियाँ
कहने लगीं-यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो।
कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- माया नहीं है । यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल
और रूई के समान हलका है ॥ ४१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ – सभीको बड़ा
हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे । यशोदाजी बालक
श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥। ४२-४३ ॥
श्रीयशोदाजी
बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी
क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे
अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन,
शरीर, मकान, अटारी और
विविध प्रकारके रत्न – इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक
कुशलसे रहे ।। ४४-४७ ।।
यदि
मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा,
दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण
करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही
सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः
बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई
भय न हो ॥ ४८-४९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और
उत्तम आसनपर बैठे । नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ५० ॥
ब्राह्मण
बोले—[व्रजपति] नन्दजी तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम
इस बालक की [कवच आदि से] रक्षा करेंगे, जिससे
यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों,
नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और
उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधान से यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी ।
तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की ( रक्षार्थ निम्नाङ्कित कवच पढ़ा)
। ५२-५३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
बुधवार, 1 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
तस्मादुत्कदैत्यस्तु मुक्तो लोमशतेजसा ।
सद्भ्यो नमोऽस्तु ये नूनं समर्था वरशापयोः ॥२४॥
उत्संगे क्रीडितं बालं लालयंत्येकदा नृप ।
गिरिभारं न सेहे सा वोढुं श्रीनंदगेहिनी ॥२५॥
अहो गिरिसमो बालः कथं स्यादिति विस्मिता ।
भूमौ निधाय तं सद्यो नेदं कस्मै जगाद ह ॥२६॥
कंसप्रणोदितो दैत्यस्तृणावर्तो महाबलः ।
जहार बालं क्रीडन्तं वातावर्तेन सुंदरम् ॥२७॥
रजोऽन्धकारोऽभूत्तत्र घोरशब्दश्च गोकुले ।
रजस्वलानि चक्षूंषि बभूवुर्घटिकाद्वयम् ॥२८॥
ततो यशोदा नापश्यत्पुत्रं तं मंदिराजिरे ।
मोहिता रुदती घोरान् पश्यंती गृहशेखरान् ॥२९॥
अदृष्टे च यदा पुत्रे पतिता भुवि मूर्छिता ।
उच्चै रुरोद करुणं मृतवत्सा यथा हि गौः ॥३०॥
रुरुदुश्च तदा गोप्यः प्रेमस्नेहसमाकुलाः ।
अश्रुमुख्यो नंदसूनुं पश्यंत्यस्ता इतस्ततः ॥३१॥
तृणावर्तो नभः प्राप्त ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।
स्कंधे सुमेरुवद्बालं मन्यमानः प्रपीडितः ॥३२॥
अथ कृष्णं पातयितुं दैत्यस्तत्र समुद्यतः ।
गलं जग्राह तस्यापि परिपूर्णतमः स्वयम् ॥३३॥
मुंच मुंचेति गदिते दैत्ये कृष्णोऽद्भुतोऽर्भकः ।
गलग्राहेण महता व्यसुं दैत्यं चकार ह ॥३४॥
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं सौदामिनी यथा ।
दैत्योऽम्बरान्निपतितः शिलायां शिशुना सह ॥३५॥
विशीर्णावयवस्यापि पतितस्य स्वनेन वै ।
विनेदुश्च दिशः सर्वाः कंपितं भूमिमंडलम् ॥३६॥
तत्पृष्ठस्थं शिशुं तूष्णीं रुदंत्यो गोपिकास्ततः ।
ददृशुर्युगपत्सर्वा नीत्वा मात्रे ददुर्जगुः ॥३७॥
गोप्य ऊचुः -
न योग्यासि यशोदे त्वं बालं लालयितुं मनाक् ।
न घृणा ते क्वचिद्दृष्टा क्रुद्धासि कथितेन वै ॥३८॥
प्राप्तेऽन्धकारे स्वारोहात्कोऽपि बालं जहाति हि ।
त्वया निर्घृणया भूमौ धृतो बालो महाभये ॥३९॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्
के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं,
उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ॥ २४ ॥
राजन्
! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें
लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे
उसे गोदमें उठाये रखने में असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं— 'अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?' फिर
उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसी को
बतलाया नहीं । उसी समय कंस का भेजा हुआ महाबली दैत्य 'तृणावर्त'
वहाँ आकर आँगन में खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्ण को बवंडररूप से
उठा ले गया ।।२५-२७।।
तब
गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा
गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी
नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर
देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे ।। ३८-३९ ।।
जब
कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब
वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर
पड़ीं
और होश में आनेपर उच्चस्वर से इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं,
मानो बछड़े के मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो । प्रेम और स्नेहसे
व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओं की धारा बह रहीं थी ।
वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दन की खोज में लग गयीं ।। ३०-३१ ।।
उधर
तृणावर्त आकाश में दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधे पर थे। उनका
शरीर उसे सुमेरु पर्वत की भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी
। तब वह दानव श्रीकृष्ण को वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर
परिपूर्णतम भगवान् ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया ।। ३२-३३ ।।
निशाचर
के 'छोड़ दे, छोड़ दे ।' कहने पर
अद्भुत बालक श्रीकृष्ण ने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे
उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याम में उसी प्रकार
विलीन हो गयी, जैसे बादल में बिजली । तब आकाश से दैत्य का
शरीर बालक के साथ ही एक शिला पर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी।
गिरनेके धमाके से सम्पूर्ण दिशाएँ
प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा । उस समय रोती हुई
सब गोपियोंने राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और
दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं-- ॥। ३४–३७ ॥
गोपियाँ
बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहने से तो
तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है
कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है ! तू
ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भय के अवसरपर भी बालक को जमीन पर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
मंगलवार, 30 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
बाला
ऊचुः -
प्रेंखस्थोऽयं क्षिपन्पादौ रुदन्दुग्धार्थमेव हि ।
तताड पादं शकटे तेनेदं पतितं खलु ॥१४॥
श्रद्धां न चक्रुर्बालोक्ते गोपा गोप्यश्च विस्मिताः ।
त्रैमासिकः क्व बालोऽयं क्व चैतद्भारभृत्त्वनः ॥१५॥
बालमंके सा गृहित्वा यशोदा ग्रहशंकिता ।
कारयामास विधिवद्यज्ञं विप्रैः सुतर्पितैः ॥१६॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं तु कुशली दैत्य उत्कचनामभाक् ।
अहो कृष्णपदस्पर्शाद्गतो मोक्षं महामुने ॥१७॥
श्रीनारद उवाच -
हिरण्याक्षसुतो दैत्य उत्कचो नाम मैथिल ।
लोमशस्याश्रमे गच्छन् वृक्षांश्चूर्णीचकार ह ॥१८॥
तं दृष्ट्वा स्थूलदेहाढ्यमुत्कचाख्यं महाबलम् ।
शशाप रोषयुग्विप्रो विदेहो भव दुर्मते ॥१९॥
सर्पकंचुकवद्देहोऽपतत्कर्मविपाकतः ।
सद्यस्तच्चरणोपांते पतित्वा प्राह दैत्यराट् ॥२०॥
उत्कच उवाच -
हे मुने हे कृपासिंधो कृपां कुरु ममोपरि ।
ते प्रभावं न जानामि देहं मे देहि हे प्रभो ॥२१॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्दृष्टं नयशतं विधेः ।
सतां रोषोऽपि वरदो वरो मोक्षार्थदः किमु ॥२२॥
श्रीलोमश उवाच -
वातदेहस्तु ते भूयातद्व्यतीते चाक्षुषांतरे ।
वैवस्वतांतरे मुक्तिः भविता च पदा हरेः ॥२३॥
बालकोंने
कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही
पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट
गया । व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी
आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे- 'कहाँ तो तीन महीनेका यह
छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !' यशोदाको
यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें
लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको
धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥। १४ – १६ ॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा- महामुने ! इस 'उत्कच' नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका
भागी हो गया ? ॥ १७ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह
लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया । स्थूलदेहसे
युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- 'दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।' उसी कर्मके परिपाकसे
उसका वह शरीर सर्प- शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव
मुनिके चरणों में गिर पड़ा और बोला ॥। १८ - २० ॥
उत्कचने
कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । भगवन् ! मैंने आपके
प्रभावको नहीं जाना । आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ
नीतियाँ देखी हैं, अर्थात् जिनके सामने
सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता
है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या
है ॥२२॥
लोमशजी
बोले - चाक्षुष - मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत-
मन्वन्तर आयेगा । उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान् श्रीकृष्णके
चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ।। २३ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
सोमवार, 29 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
शकटभञ्जन; उत्कच और
तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन
इत्येवं
कथितं दिव्यं श्रीकृष्णचरितं वरम् ।
यं शृणोति नतो भक्त्या स कृतार्थो न संशयः ॥१॥
श्रीशौनक उवाच -
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
श्रुत्वा त्वन्मुखतः साक्षात्कृतार्थाः स्मो वयं मुने ॥२॥
श्रीकृष्णभक्तः शांतात्मा बहुलाश्वः सतां वरः ।
अथो मुनिं किं पप्रच्छ तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३॥
श्रीगर्ग उवाच -
अथ राजा मैथिलेंद्रो हर्षितः प्रेमविह्वलः ।
नारदं प्राह धर्मात्मा परिपूर्णतमं स्मरन् ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
धन्योऽहं च कृतार्थोऽहं भवता भूरिकर्मणा ।
संगो भगवदीयानां दुर्लभो दुर्घटोऽस्ति हि ॥५॥
श्रीकृष्णस्त्वर्भकः साक्षादद्भुतो भक्तवत्सलः ।
अग्रे चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे मुने ॥६॥
श्रीनारद उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन् भवता कृष्णधर्मिणा ।
संगमः खलु साधूनां सर्वेषां वितनोति शम् ॥७॥
एकदा कृष्णजन्मर्क्षे यशोदा नंदगेहिनी ।
गोपीगोपान्समाहूय मंगलं चाकरोद्द्विजैः ॥८॥
रक्तांबरं कनकभूषणभूषिताङ्गं
बालं प्रगृह्य कलितांजनपद्मनेत्रम् ।
श्यामं स्फुरद्धरिनखावृतचंद्रहारं
देवान् प्रणम्य सुधनं प्रददौ द्विजेभ्यः ॥९॥
प्रेंखे निधाय निजमात्मजमाशु गोपी
संपूज्य मंगलदिने प्रतिगोपिकास्ताः ।
नैवाशृणोत्सुरुदितस्य सुतस्य शब्दं
गोपेषु मंगलगृहेषु गतागतेषु ॥१०॥
तत्रैव कंसखलनोदित उत्कचाख्यो
दैत्यः प्रभंजनतनुः शकटं स एत्य ।
बालस्य मूर्ध्नि परिपातयितुं प्रवृत्तः
कृष्णोऽपि तं किल तताड पदारुणेन ॥११॥
चूर्ण गतेथ शकटे पतिते च दैत्ये
त्यक्त्वा प्रभंजनतनुं विमलो बभूव ।
नत्वा हरिं शतहयेन रथेन युक्तो
गोलोकधाम निजलोकमलं जगाम ॥१२॥
नंदादयो व्रजजना व्रजगोपिकाश्च
सर्वे समेत्य युगपत्पृथुकान् तदाहुः ।
एष स्वयं च पतितः शकटः कथं हि
जानीथ हे व्रजसुताः सुगताश्च यूयम् ॥१३॥
श्रीगर्गजीने
कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका
वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है,
वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो
गया—इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥
श्रीशौनकजी
बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत रससे तैयार की हुई परम
मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन !
संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे । उनके मनमें सदा
शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी,
यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥
श्रीगर्गजीने
कहा— शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल
हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए
नारदजीसे कहा ॥ ४ ॥
राजा
बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं
धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान्के
भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है । मुने! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ॥ ५-६ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो,
तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग
सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥
एक
दिन,
जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके
बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल
रंगका वस्त्र पहनाया गया। अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें
गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें
बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये
उत्तम धनका दान दिया ॥ ८- ९ ॥
तदनन्तर
गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर
गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया । उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से
गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींके
सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन - शब्द सुन न सकीं।
उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम 'उत्कच'
था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर ( जिसपर
बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस
शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस
शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर
नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो
गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर
भगवान् के निजी परमधाम गोलोकको चला गया ॥ १०- १२ ॥
उस
समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे
पूछने लगे- 'व्रजकुमारो ! यह शकट अपने आप ही
गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है? कैसे इसकी यह दशा हुई है,
तुम जानते हो तो बताओ ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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