गुरुवार, 9 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध चौदहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

पश्योत्पातान् नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान्शंसतोऽदूराद् भयं नो बुद्धिमोहनम् ॥ १० ॥
ऊर्वक्षिबाहवो मह्यं स्फुरन्त्यङ्‌ग पुनः पुनः ।
वेपथुश्चापि हृदये आरात् दास्यन्ति विप्रियम् ॥ ११ ॥
शिवैषोद्यन्तं आदित्यं अभिरौति अनलानना ।
मामङ्‌ग सारमेयोऽयं अभिरेभत्यभीरुवत् ॥ १२ ॥
शस्ताः कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे ।
वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम ॥ १३ ॥
मृत्युदूतः कपोतोऽयं उलूकः कम्पयन् मनः ।
प्रत्युलूकश्च कुह्वानैः अनिद्रौ शून्यमिच्छतः ॥ १४ ॥
धूम्रा दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः ।
निर्घातश्च महांस्तात साकं च स्तनयित्‍नुभिः ॥ १५ ॥
वायुर्वाति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः ।
असृग् वर्षन्ति जलदा बीभत्सं इव सर्वतः ॥ १६ ॥

(युधिष्ठिर कहते हैं) भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं ! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फडक़ रही हैं। हृदय जोरसे धडक़ रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥ देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है। अरे ! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥ भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥ यह मृत्युका दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण-कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं ॥ १४ ॥ दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥ १५ ॥ शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥ 

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बुधवार, 8 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)


 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

 

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना

और अर्जुन का द्वारका से लौटना

 

सूत उवाच ।

सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।

ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ १ ॥

व्यतीताः कतिचिन्मासाः तदा नायात् ततोऽर्जुनः ।

ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः ॥ २ ॥

कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः ।

पापीयसीं नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३ ॥

जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।

पितृमातृसुहृद्‍भ्रातृ दम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४ ॥

निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले तु अनुगते नृणाम् ।

लोभादि अधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः ॥ ५ ॥

 

युधिष्ठिर उवाच ।

सम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धु दिदृक्षया ।

ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ ६ ॥

गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।

नायाति कस्य वा हेतोः नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ७ ॥

अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः ।

यदाऽऽत्मनोऽङ्‌गमाक्रीडं भगवान् उत्सिसृक्षति ॥ ८ ॥

यस्मान्नः सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः ।

आसन् सपत्‍नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात् ॥ ९ ॥

 

सूतजी कहते हैंस्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैंयह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ १ ॥ कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे ॥ २ ॥ उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥ सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥ ४ ॥ कलिकाल के आजाने से लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥ ५ ॥ युधिष्ठिरने कहाभीमसेन ! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैंइसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये ॥ ६ ॥ तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है ॥ ७ ॥ कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं ? ॥ ८ ॥ उन्हीं भगवान्‌की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य,स्त्री,प्राण,कुल,संतान,शत्रुओंपर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥

 

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मंगलवार, 7 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे ॥ ५४ ॥
ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः ।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः ।
तस्यान्तरायो मैवाभूः सन्न्यस्ताखिलकर्मणः ॥ ५५ ॥
स वा अद्यतनाद् राजन् परतः पञ्चमेऽहनि ।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥ ५६ ॥
दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्‍नी सहोटजे ।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति ॥ ५७ ॥
विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवकः ॥ ५८ ॥
इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः ॥ ५९ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं कि)  उन्होंने (दोनों चाचाओं और गांधारी ने) अहंकार को बुद्धि के साथ जोडक़र और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होनेवाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अत: तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना [*] ॥ ५४-५५ ॥ धर्मराज ! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ५६ ॥ गाहर्पत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ॥ ५७ ॥ धर्मराज ! विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुखित होते हुए वहाँसे तीर्थ-सेवनके लिये चले जायँगे ॥ ५८ ॥ देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ स्वर्गको चले गये। धर्मराज युधिष्ठिरने उनके उपदेशोंको हृदयमें धारण करके शोकको त्याग दिया ॥५९॥
...............................................................
 [*] देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे धृतराष्ट्र के भविष्य जीवन को वर्तमान की भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूपमें वर्णन कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रातको ही हस्तिनापुर से गये हैं, अत: यह वर्णन भविष्यका ही समझना चाहिये ।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 6 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यां अभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४८ ॥
निष्पादितं देवकृत्यं अवशेषं प्रतीक्षते ।
तावद् यूयं अवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः ॥ ४९ ॥
धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणां आश्रमं गतः ॥ ५० ॥
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ५१ ॥
स्नात्वानुसवनं तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि ।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः ॥ ५२ ॥
जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः ।
हरिभावनया ध्वस्तः अजःसत्त्वतमोमलः ॥ ५३ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं)  महाराज ! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान्‌ इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४८ ॥ अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं, तब तक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ॥ ४९ ॥
धर्मराज ! हिमालयके दक्षिण भागमें, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गङ्गाजीने अलग- अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं ॥ ५०-५१ ॥ वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्रिहोत्र करते हैं। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं ॥ ५२ ॥ आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्‌ की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ॥ ५३ ॥ 

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रविवार, 5 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

यथा गावो नसि प्रोताः तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः ॥ ४१ ॥
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४२ ॥
यन्मन्यसे ध्रुवं लोकं अध्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहात् अन्यत्र मोहजात् ॥ ४३ ॥
तस्माज्जह्यङ्‌ग वैक्लव्यं अज्ञानकृतमात्मनः ।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥ ४४ ॥
कालकर्म गुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत् सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४५ ॥
अहस्तानि सहस्तानां अपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४६ ॥
तदिदं भगवान् राजन् एक आत्मात्मनां स्वदृक् ।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा ॥ ४७ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहते हैं)  जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें बँधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं ॥ ४१ ॥ जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्‌की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुडऩा होता है ॥ ४२ ॥ तुम लोगोंको जीवरूपसे नित्य मानो या देहरूपसे अनित्य अथवा जडरूपसे अनित्य और चेतन-रूपसे नित्य अथवा शुद्धब्रह्मरूपमें नित्य- अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी अवस्थामें मोहजन्य आसक्तिके अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ४३ ॥ इसलिये धर्मराज ! वे दीन-दुखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो ॥ ४४ ॥ यह पाञ्चभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है ॥ ४५ ॥ हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है ॥ ४६ ॥ इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्‌, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हींको देखो ॥ ४७ ॥ 

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शनिवार, 4 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।
कृपया स्नेहवैक्लव्यात् सूतो विरहकर्शितः ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः ॥ ३४ ॥
विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन् ॥ ३५ ॥

सञ्जय उवाच ।
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन ।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः ॥ ३६ ॥
अथाजगाम भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन् मुनिम् ॥ ३७ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।
नाहं वेद गतिं पित्रोः भगवन् क्व गतावितः ।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी ॥ ३८ ॥
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः ।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तमः ॥ ३९ ॥

नारद उवाच ।
मा कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः ।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥ ४० ॥

सूतजी कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलतासे अत्यन्त पीडि़त और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके ॥ ३४ ॥ फिर धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथों से आँखों के आँसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण करते हुए युधिष्ठिरसे कहा ॥ ३५ ॥
सञ्जय बोले—कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके सङ्कल्पका कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया ॥ ३६ ॥ सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले— ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिरने कहा—‘भगवन् ! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे कहाँ चले गये ॥ ३८ ॥ भगवन् ! अपार समुद्रमें कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवान्‌के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा— ॥ ३९ ॥ ‘धर्मराज ! तुम किसीके लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ॥ ४० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 3 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

ब्राह्मणा ऊचुः -
दामोदरः पातु पादौ जानुनी विष्टरश्रवाः ।
ऊरू पातु हरिर्नाभिः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥५४॥
कटिं राधापतिः पातु पीतवासास्तवोदरम् ।
हृदयं पद्मनाभश्च भुजौ गोवर्द्धनोद्धरः ॥५५॥
मुखं च मथुरानाथो द्वारकेशः शिरोऽवतु ।
पृष्ठं पात्वसुरध्वंसी सर्वतो भगवान्स्वयम् ॥५६॥
श्लोकत्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेन्मानवः सदा ।
महासौख्यं भवेत्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥५७॥


श्रीनारद उवाच -
नंदस्तेभ्यो गवां लक्षं सुवर्णं दशलक्षकम् ।
सहस्रं नवरत्‍नानां वस्त्रलक्षं ददौ परम् ॥५८॥
गतेषु द्विजमुख्येषु नंदो गोपान्नियम्य च ।
भोजयामास संपूज्य वस्त्रैभूषैर्मनोहरैः ॥५९॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
तृणावर्तः पूर्वकाले कोऽयं सुकृतकृन्नरः ।
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥६०॥
श्रीनारद उवाच - पाण्डुदेशोद्‌भवो राजा सहस्राक्षः प्रतापवान् ।
हरिभक्तो धर्मनिष्ठो यज्ञकृद्दानतत्परः ॥६१॥
रेवातटे महादिव्ये लतावेत्रसमाकुले ।
नारीणां च सहस्रेण रममाणो चचार ह ॥६२॥
दुर्वाससं मुनिं साक्षादागतं न ननाम ह ।
तदा मुनिर्ददौ शापं राक्षसो भव दुर्मते ॥६३॥
पुनस्तदंघ्र्योः पतितं नृपं प्रादाद्‌वरं मुनिः ।
श्रीकृष्णविग्रहस्पर्शात्परं मोक्षमवाप ह ॥६५॥

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शकटासुरतृणावर्तमोक्षो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

ब्राह्मणों ने कहा- भगवान् दामोदर तुम्हारे चरणों की रक्षा करें। विष्टरश्रवा घुटनों की, श्रीविष्णु जाँघों की और स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी नाभि की रक्षा करें। भगवान् राधावल्लभ तुम्हारे कटि- भाग की तथा पीताम्बरधारी तुम्हारे उदर की रक्षा करें। भगवान् पद्मनाभ हृदयेश की, गोवर्धनधारी बाँहों की, मथुराधीश्वर मुखकी एवं द्वारकानाथ सिरकी रक्षा करें। असुरों का संहार करनेवाले भगवान् पीठ की रक्षा करें और साक्षात् भगवान् गोविन्द सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। तीन श्लोक वाले इस स्तोत्र का जो मनुष्य निरन्तर पाठ करेगा, उसे परम सुख की प्राप्ति होगी और उसे कहीं भी भय का सामना नहीं करना पड़ेगा  ॥ ५४—५७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तदनन्तर नन्दजीने उन ब्राह्मणोंको एक लाख गायें, दस लाख स्वर्णमुद्राएँ, एक हजार नूतन रत्न और एक लाख बढ़िया वस्त्र दिये। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके चले जानेपर नन्दजीने गोपोंको बुला-बुलाकर भोजन कराया और मनोहर वस्त्रा- भूषणोंसे उन सबका सत्कार किया ।। ५८-५९ ॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तृणावर्त पहले जन्ममें कौन-सा पुण्यकर्मा मनुष्य था, जो साक्षात् परि- महाभाग ब्राह्मण बोले- व्रजपति नन्दजी तथा पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो गया ? ।। ६० ।।

श्रीनारदजी बोले - राजन् ! पाण्डुदेशमें 'सहस्राक्ष' नामसे विख्यात एक राजा थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। भगवान् विष्णुमें उनकी अपार श्रद्धा थी। वे धर्ममें रुचि रखते थे । यज्ञ और दानमें उनकी बड़ी लगन थी। एक दिन वे रेवा (नर्मदा नदीके दिव्य तटपर गये। लताएँ और बेंत उस तट की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ सहस्रों स्त्रियों के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए वे विचरने लगे। उसी समय स्वयं दुर्वासा मुनि ने वहाँ पदार्पण किया। राजा ने उनकी वन्दना नहीं की, तब मुनि ने शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा।' फिर तो राजा सहस्राक्ष दुर्वासाजीके चरणोंमें पड़ गये। तब मुनिने उन्हें वर दिया- 'राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहका स्पर्श होनेसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी' ॥ ६१–६४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! वे ही राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके शापसे भूमण्डलपर 'तृणावर्त' नामक दैत्य हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य श्रीविग्रहका स्पर्श होनेसे उनको सर्वोत्तम मोक्ष (गोलोकधाम) प्राप्त हो गया ॥ ६५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'शकटासुर और तृणावर्तका मोक्ष' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

एवं राजा विदुरेणानुजेन
     प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
     निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
     पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
     मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निः
     विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
     न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः शमलं गङ्‌गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥

जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको  इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥ जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 2 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीयशोदोवाच -
न जानामि कथं बालो भारभूतो गिरींद्रवत् ।
तस्मान्मया कृतो भूमौ चक्रवाते महाभये ॥४०॥


गोप्य ऊचुः -
मा मृषा वद कल्याणि हे यशोदे गतव्यथे ।
अयं दुग्धमुखो बालो लघुं कुसुमतूलवत् ॥४१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा गोप्योऽथ गोपाश्च नंदाद्या आगते शिशौ ।
अतीव मोदं संप्रापुर्वदन्तः कुशलं जनैः ॥४२॥
यशोदा बालकं नीत्वा पाययित्वा स्तनं मुहुः ।
आघ्रायोरसि वस्त्रेण रोहिणीं प्राह मोहिता ॥४३॥


श्रीयशोदोवाच -
एको दैवेन दत्तोऽयं न पुत्रा बहवश्च मे ।
तस्यापि बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणेन वै ॥४४॥
अद्य मृत्युमुखान्मुक्तो भविष्यत्किमतः परम् ।
किं करोमि क्व गच्छामि कुत्र वासो भवेदतः ॥४५॥
वज्रसाराश्च ये दैत्या निर्दया घोरदर्शनाः ।
वैरं कुर्वन्ति मे बाले दैव दैव कुतः सुखम् ॥४६॥
धनं देहो गृहं सौधो रत्‍नानि विविधानि च ।
सर्वेषां तु ह्यवशं वै भूयान्मे कुशली शिशुः ॥४७॥
हरेरर्चां दानमिष्टं पूर्तं देवालयं शतम् ।
करिष्यामि तदा बालोऽरिष्टेभ्यो विजयी यदा ॥४८॥
एकबालेन मे सौख्यमन्धयष्टिरिव प्रिये ।
बालं नीत्वा गमिष्यामि देशे रोहिणि निर्भये ॥४९॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव विप्रा विद्वांस आगता नंदमंदिरम् ।
यशोदया च नंदेन पूजिता आसनस्थिताः ॥५०॥


ब्राह्मणा ऊचुः -
मा शोचं कुरु हे नंद हे यशोदे व्रजेश्वरी ।
करिष्यामः शिशो रक्षां चिरंजीवी भवेदयम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा द्विजमुख्यास्ते कुशाग्रैर्नवपल्लवैः ।
पवित्रकलशैस्तोयैर्ऋग्यजुःसामजैः स्तवैः ॥५२॥
परैः स्वस्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः ।
अग्निं सम्पूज्यविधिवद्‌रक्षां विदधिरे शिशोः ॥५३॥

यशोदाजीने कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने लगा था, इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर रख दिया ॥ ४० ॥

गोपियाँ कहने लगीं-यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- माया नहीं है । यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूई के समान हलका है ॥ ४१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ – सभीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे । यशोदाजी बालक श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥। ४२-४३ ॥

श्रीयशोदाजी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकारके रत्न – इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशलसे रहे ।। ४४-४७ ।।

यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो ॥ ४८-४९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसनपर बैठे । नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ५० ॥

 

ब्राह्मण बोले—[व्रजपति]  नन्दजी  तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम इस बालक की [कवच आदि से] रक्षा करेंगे, जिससे यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों, नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधान से यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी । तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की ( रक्षार्थ निम्नाङ्कित कवच पढ़ा) । ५२-५३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः ॥ २० ॥
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१ ॥
अहो महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डं आदत्ते गृहपालवत् ॥ २२ ॥
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३ ॥
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४ ॥
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिः जह्यात् स वै धीर उदाहृतः ॥ २५ ॥
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः ॥ २६ ॥
अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७ ॥

(विदुरजी धृतराष्ट्र से कहते हैं)  काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ २० ॥ आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥ ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है ॥ २३ ॥ आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥ अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥ चाहे अपनी समझ से हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दु:खरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान्‌ को धारण कर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥ इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...