मंगलवार, 14 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना

 

श्री नारद उवाच

प्रेङ्खे हरिं कनकरत्‍नमये शयानं
श्यामं शिशुं जनमनोहरमन्दहासम् ।
दृष्ट्यार्तिहारि मषिबिंदुधरं यशोदा
स्वांके चकार धृतकज्जलपद्मनेत्रम् ॥१॥
पादं पिबंतमतिचंचलमद्‌भुतांगं
वक्त्रैर्विनीलनवकोमलकेशबंधैः ।
श्रीमन्नृकेशरिनखस्फुरदरर्द्धचन्द्रं
तं लालयन्त्यतिघृणा मुदमाप गोपी ॥२॥
बालस्य पीतपयसो नृप जृम्भितस्य
तत्त्वानि चास्य वदने सकलेऽविराजन् ।
माता सुराधिपमुखैः प्रयुतं च सर्वं
दृष्ट्वा परं भयमवाप निमीलिताक्षी ॥३॥
राजन्परस्य परिपूर्णतमस्य साक्षा-
त्कृष्णस्य विश्वमखिलं कपटेन सा हि ।
नष्टस्मृतिः पुनरभूत्स्वसुते घृणार्ता
किं वर्णयामि सुतपो बहु नंदपत्‍न्याः ॥४॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
नंदो यशोदया सार्द्धं किं चकार तपो महत् ।
येन श्रीकृष्णचन्द्रोऽपि पुत्रीभूतो बभूव ह ॥५॥


श्रीनारद उवाच -
अष्टानां वै वसूनां च द्रोणो मुख्यो धरापतिः ।
अनपत्यो विष्णुभक्तो देवराज्यं चकार ह ॥६॥
एकदा पुत्रकांक्षी च ब्रह्मणा नोदितो नृप ।
मंदराद्रिं गतस्तप्तुं धरया भार्यया सह ॥७॥
कंदमूलफलाहारौ ततः पर्णाशनौ ततः ।
जलभक्षौ ततस्तौ तु निर्जलौ निर्जने स्थितौ ॥८॥
वर्षाणामर्बुदे याते तपस्तत्तपतोर्द्वयोः ।
ब्रह्मा प्रसन्नस्तावेत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ॥९॥
वल्मीकान्निर्गतो द्रोणो धरया भर्यया सह ।
नत्वा विधिं च संपूज्य हर्षितः प्राह तं प्रभुम् ॥१०॥


श्रीद्रोण उवाच -
परिपूर्णतमे कृष्णे पुत्रीभूते जनार्दने ।
भक्तिः स्यादावयोर्ब्रह्मन्सततं प्रेमलक्षणा ॥११॥
ययाञ्जसा तरंतीह दुस्तरं भवसागरम् ।
नान्यं वरं वांछितं स्यादावयोस्तपतोर्विधे ॥१२॥


श्रीब्रह्मोवाच -
युवाभ्यं याचितं यन्मे दुर्घटं दुर्लभं वरम् ।
तथापि भूयात्सफलं युवयोरन्यजन्मनि ॥१३॥


श्रीनारद उवाच -
द्रोणो नंदोऽभवद्‌भूमौ यशोदा सा धरा स्मृता ।
कृष्णो ब्रह्मवचः कर्तुं प्राप्तो घोषे पितुः पुरात् ॥१४॥
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
गंधमादनशृङ्गे वै नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥१५॥
कृपया च कृतार्थोऽहं नरनारायणस्य च ।
मया तुभ्यं च कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥१६॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन साँवले - सलोने बालक श्रीकृष्ण सोनेके रत्नजटित पालनेपर सोये हुए थे। उनके मुखपर लोगोंके मनको मोहनेवाले मन्दहास्यकी छटा छा रही थी । दृष्टिजनित पीड़ाके निवारण के लिये नन्दनन्दन के ललाटपर काजलका डिठौना शोभा पा रहा था। कमलके समान सुन्दर नेत्रोंमें काजल लगा था । अपने उस सुन्दर लालाको मैया यशोदाने गोदमें ले लिया। वे बाल-मुकुन्द पैरका अंगूठा चूस रहे थे । उनका स्वभाव चपल था । नील, नूतन, कोमल एवं घुँघराले केशबन्धोंसे उनकी अङ्गच्छटा अद्भुत जान पड़ती थी । वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न, बघनखा तथा चमकीला अर्धचन्द्र (नामक आभूषण) शोभा दे रहे थे। अपार दयामयी गोपी श्रीयशोदा अपने उस लालाको लाड़ लड़ाती हुई बड़े आनन्दका अनुभव कर रही थी । राजन् ! बालक श्रीकृष्ण दूध पी चुके थे। उन्हें जँभाई आ रही थी। माताकी दृष्टि उधर पड़ी तो उनके मुखमें पृथिव्यादि पाँच तत्त्वोंसहित सम्पूर्ण विराट् (ब्रह्माण्ड ) तथा इन्द्रप्रभृति श्रेष्ठ देवता दृष्टिगोचर हुए। तब श्रीयशोदाके मनमें त्रास छा गया। अतः उन्होंने अपनी आँखे मूंद लीं ॥ १-३ ॥

महाराज ! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी ही मायासे सम्पूर्ण संसार सत्तावान् बना है । उसी मायाके प्रभावसे यशोदाजीकी स्मृति टिक न सकी। फिर अपने बालक श्रीकृष्णपर उनका वात्सल्यपूर्ण दयाभाव उत्पन्न हो गया। अहो ! श्रीनन्दरानीके तपका वर्णन कहाँतक करूँ ! ॥ ४ ॥

श्री बहुलाश्वने पूछा- मुनिवर ! नन्दजीने यशोदाके साथ कौन सा महान् तप किया था, जिसके प्रभावसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके यहाँ पुत्ररूपमें प्रकट हुये ॥ ५ ॥

श्रीनारदजीने कहा - आठ वसुओंमें प्रधान जो 'द्रोण' नामक वसु हैं, उनकी स्त्रीका नाम 'धरा' है। इन्हें संतान नहीं थी। वे भगवान् श्रीविष्णुके परम भक्त थे । देवताओंके राज्यका भी पालन करते थे। राजन् ! एक समय पुत्रकी अभिलाषा होनेपर ब्रह्माजीके आदेशसे वे अपनी सहधर्मिणी धराके साथ तप करनेके लिये मन्दराचल पर्वतपर गये । वहाँ दोनों दम्पति कंद, मूल एवं फल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते थे। बादमें जलके आधारपर उनका जीवन चलने लगा । तदनन्तर उन्होंने जल पीना भी बंद कर दिया। इस प्रकार जनशून्य देशमें उनकी तपस्या चलने लगी । उन्हें तप करते जब दस करोड़ वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर आये और बोले- ' वर माँगो' ॥ ६–९ ॥

उस समय उनके ऊपर दीमकें चढ़ गयी थीं। अतः उन्हें हटाकर द्रोण अपनी पत्नीके साथ बाहर निकले । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और विधिवत् उनकी पूजा की। उनका मन आनन्दसे उल्लसित हो उठा। वे उन प्रभुसे बोले - ॥ १० ॥

श्रीद्रोण ने कहा- ब्रह्मन् ! विधे ! परिपूर्णतम जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पुत्र हो जायँ और उनमें हम दोनोंकी प्रेमलक्षणा भक्ति सदा बनी रहे, जिसके प्रभावसे मनुष्य दुर्लङ्घय भवसागरको सहज ही पार कर जाता है। हम दोनों तपस्वीजनोंको दूसरा कोई वर अभिलषित नहीं है | ११-१२ ॥

श्रीब्रह्माजी बोले- तुमलोगोंने मुझसे जो वर माँगा है, वह कठिनाईसे पूर्ण होनेवाला और अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी दूसरे जन्ममें तुमलोगोंकी अभिलाषा पूरी होगी ॥ १३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वे 'द्रोण' ही इस पृथ्वीपर 'नन्द' हुए और 'धरा' ही 'यशोदा' नामसे विख्यात हुई ।

ब्रह्माजीकी वाणी सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण पिता वसुदेवजीकी पुरी मथुरासे व्रजमें पधारे थे । भगवान् श्रीकृष्णका शुभ चरित्र सुधा - निर्मित खाँड़ से भी अधिक मीठा है। गन्धमादन पर्वत के शिखरपर भगवान् नर-नारायण के श्रीमुखसे मैंने इसे सुना है। उनकी कृपासे मैं कृतार्थ हो गया ।

वही कथा मैंने तुमसे कही है; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ।। १४–१६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

 

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना

और अर्जुन का द्वारका से लौटना

 

युधिष्ठिर उवाच ।

कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते ।

मधुभोजदशार्हार्ह सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥

शूरो मातामहः कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।

मातुलः सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६ ॥

सप्त स्वसारस्तत्पत्‍न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।

आसते सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७ ॥

कच्चित् राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।

हृदीकः ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८ ॥

आसते कुशलं कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।

कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९ ॥

प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।

गम्भीररयोऽनिरुद्धो वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥

सुषेणश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।

अन्ये च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥

तथैवानुचराः शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।

सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥

अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्ण भुजाश्रयाः ।

अपि स्मरन्ति कुशलं अस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३ ॥

भगवानपि गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।

कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्‌वृतः ॥ ३४ ॥

मङ्‌गलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।

आस्ते यदुकुलाम्भोधौ आद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५ ॥

यद्‍बाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।

क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥

यत् पादशुश्रूषणमुख्य कर्मणा

     सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।

निर्जित्य सङ्‌ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो

     हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७ ॥

यद्‍बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो

     यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।

अधिक्रमन्त्यङ्‌घ्रिभिराहृतां बलात्

     सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८ ॥

 

युधिष्ठिरने (अर्जुन से) कहा—‘भाई ! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥ २५ ॥ हमारे माननीय नाना शूरसेन जी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेव जी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६ ॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे तो हैं ? ॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवोंके प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं ? ॥ २८-२९ ॥ वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्र सुखसे तो हैं ? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान्‌ अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ ३० ॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ॥ ३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा-सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४ ॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल, परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान्‌के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



शुक्रवार, 10 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध चौदहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

सूर्यं हतप्रभं पश्य ग्रहमर्दं मिथो दिवि ।
ससङ्‌कुलैर्भूतगणैः ज्वलिते इव रोदसी ॥ १७ ॥
नद्यो नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च ।
न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति ॥ १८ ॥
न पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्यन्ति च मातरः ।
रुदन्त्यश्रुमुखा गावो न हृष्यन्ति ऋषभा व्रजे ॥ १९ ॥
दैवतानि रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्चलन्ति च ।
इमे जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः ।
भ्रष्टश्रियो निरानन्दाः किमघं दर्शयन्ति नः ॥ २० ॥
मन्य एतैर्महोत्पातैः नूनं भगवतः पदैः ।
अनन्यपुरुषश्रीभिः हीना भूर्हतसौभगा ॥ २१ ॥
इति चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा ।
राज्ञः प्रत्यागमद् ब्रह्मन् यदुपुर्याः कपिध्वजः ॥ २२ ॥
तं पादयोः निपतितं अयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनं अब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः ॥ २३ ॥
विलोक्य उद्विग्नहृदयो विच्छायं अनुजं नृपः ।
पृच्छति स्म सुहृत् मध्ये संस्मरन् नारदेरितम् ॥ २४ ॥

(युधिष्ठिर भीम से कहते हैं) देखो ! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाशमें ग्रह परस्पर टकराया करते हैं। भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई है ॥ १७ ॥ नदी, नद, तालाब, और लोगोंके मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घीसे आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा ॥ १८ ॥ बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देतीं, गोशालामें गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ १९ ॥ देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई ! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दु:खकी सूचना दे रहे हैं ॥ २० ॥ इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान्‌के उन चरणकमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र, अंकुशादि- विलक्षण चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ॥ २१ ॥ शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातोंको देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये ॥ २२ ॥ युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है। उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारदकी बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा ॥ २३-२४ ॥

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गुरुवार, 9 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध चौदहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

पश्योत्पातान् नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान्शंसतोऽदूराद् भयं नो बुद्धिमोहनम् ॥ १० ॥
ऊर्वक्षिबाहवो मह्यं स्फुरन्त्यङ्‌ग पुनः पुनः ।
वेपथुश्चापि हृदये आरात् दास्यन्ति विप्रियम् ॥ ११ ॥
शिवैषोद्यन्तं आदित्यं अभिरौति अनलानना ।
मामङ्‌ग सारमेयोऽयं अभिरेभत्यभीरुवत् ॥ १२ ॥
शस्ताः कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे ।
वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम ॥ १३ ॥
मृत्युदूतः कपोतोऽयं उलूकः कम्पयन् मनः ।
प्रत्युलूकश्च कुह्वानैः अनिद्रौ शून्यमिच्छतः ॥ १४ ॥
धूम्रा दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः ।
निर्घातश्च महांस्तात साकं च स्तनयित्‍नुभिः ॥ १५ ॥
वायुर्वाति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः ।
असृग् वर्षन्ति जलदा बीभत्सं इव सर्वतः ॥ १६ ॥

(युधिष्ठिर कहते हैं) भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं ! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फडक़ रही हैं। हृदय जोरसे धडक़ रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥ देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है। अरे ! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥ भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥ यह मृत्युका दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण-कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं ॥ १४ ॥ दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥ १५ ॥ शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥ 

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बुधवार, 8 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)


 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

 

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना

और अर्जुन का द्वारका से लौटना

 

सूत उवाच ।

सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।

ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ १ ॥

व्यतीताः कतिचिन्मासाः तदा नायात् ततोऽर्जुनः ।

ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः ॥ २ ॥

कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः ।

पापीयसीं नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३ ॥

जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।

पितृमातृसुहृद्‍भ्रातृ दम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४ ॥

निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले तु अनुगते नृणाम् ।

लोभादि अधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः ॥ ५ ॥

 

युधिष्ठिर उवाच ।

सम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धु दिदृक्षया ।

ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ ६ ॥

गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।

नायाति कस्य वा हेतोः नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ७ ॥

अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः ।

यदाऽऽत्मनोऽङ्‌गमाक्रीडं भगवान् उत्सिसृक्षति ॥ ८ ॥

यस्मान्नः सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः ।

आसन् सपत्‍नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात् ॥ ९ ॥

 

सूतजी कहते हैंस्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैंयह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ १ ॥ कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे ॥ २ ॥ उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥ सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥ ४ ॥ कलिकाल के आजाने से लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥ ५ ॥ युधिष्ठिरने कहाभीमसेन ! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैंइसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये ॥ ६ ॥ तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है ॥ ७ ॥ कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं ? ॥ ८ ॥ उन्हीं भगवान्‌की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य,स्त्री,प्राण,कुल,संतान,शत्रुओंपर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से 



मंगलवार, 7 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे ॥ ५४ ॥
ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः ।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः ।
तस्यान्तरायो मैवाभूः सन्न्यस्ताखिलकर्मणः ॥ ५५ ॥
स वा अद्यतनाद् राजन् परतः पञ्चमेऽहनि ।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥ ५६ ॥
दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्‍नी सहोटजे ।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति ॥ ५७ ॥
विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवकः ॥ ५८ ॥
इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः ॥ ५९ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं कि)  उन्होंने (दोनों चाचाओं और गांधारी ने) अहंकार को बुद्धि के साथ जोडक़र और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होनेवाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अत: तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना [*] ॥ ५४-५५ ॥ धर्मराज ! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ५६ ॥ गाहर्पत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ॥ ५७ ॥ धर्मराज ! विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुखित होते हुए वहाँसे तीर्थ-सेवनके लिये चले जायँगे ॥ ५८ ॥ देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ स्वर्गको चले गये। धर्मराज युधिष्ठिरने उनके उपदेशोंको हृदयमें धारण करके शोकको त्याग दिया ॥५९॥
...............................................................
 [*] देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे धृतराष्ट्र के भविष्य जीवन को वर्तमान की भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूपमें वर्णन कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रातको ही हस्तिनापुर से गये हैं, अत: यह वर्णन भविष्यका ही समझना चाहिये ।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 6 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यां अभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४८ ॥
निष्पादितं देवकृत्यं अवशेषं प्रतीक्षते ।
तावद् यूयं अवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः ॥ ४९ ॥
धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणां आश्रमं गतः ॥ ५० ॥
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ५१ ॥
स्नात्वानुसवनं तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि ।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः ॥ ५२ ॥
जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः ।
हरिभावनया ध्वस्तः अजःसत्त्वतमोमलः ॥ ५३ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहरहे  हैं)  महाराज ! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान्‌ इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४८ ॥ अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं, तब तक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ॥ ४९ ॥
धर्मराज ! हिमालयके दक्षिण भागमें, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गङ्गाजीने अलग- अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं ॥ ५०-५१ ॥ वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्रिहोत्र करते हैं। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं ॥ ५२ ॥ आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्‌ की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ॥ ५३ ॥ 

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रविवार, 5 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

यथा गावो नसि प्रोताः तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः ॥ ४१ ॥
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४२ ॥
यन्मन्यसे ध्रुवं लोकं अध्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहात् अन्यत्र मोहजात् ॥ ४३ ॥
तस्माज्जह्यङ्‌ग वैक्लव्यं अज्ञानकृतमात्मनः ।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥ ४४ ॥
कालकर्म गुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत् सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४५ ॥
अहस्तानि सहस्तानां अपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४६ ॥
तदिदं भगवान् राजन् एक आत्मात्मनां स्वदृक् ।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा ॥ ४७ ॥

(देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहते हैं)  जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें बँधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं ॥ ४१ ॥ जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्‌की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुडऩा होता है ॥ ४२ ॥ तुम लोगोंको जीवरूपसे नित्य मानो या देहरूपसे अनित्य अथवा जडरूपसे अनित्य और चेतन-रूपसे नित्य अथवा शुद्धब्रह्मरूपमें नित्य- अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी अवस्थामें मोहजन्य आसक्तिके अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ४३ ॥ इसलिये धर्मराज ! वे दीन-दुखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो ॥ ४४ ॥ यह पाञ्चभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है ॥ ४५ ॥ हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है ॥ ४६ ॥ इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्‌, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हींको देखो ॥ ४७ ॥ 

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शनिवार, 4 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।
कृपया स्नेहवैक्लव्यात् सूतो विरहकर्शितः ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः ॥ ३४ ॥
विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन् ॥ ३५ ॥

सञ्जय उवाच ।
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन ।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः ॥ ३६ ॥
अथाजगाम भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन् मुनिम् ॥ ३७ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।
नाहं वेद गतिं पित्रोः भगवन् क्व गतावितः ।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी ॥ ३८ ॥
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः ।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तमः ॥ ३९ ॥

नारद उवाच ।
मा कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः ।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥ ४० ॥

सूतजी कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलतासे अत्यन्त पीडि़त और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके ॥ ३४ ॥ फिर धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथों से आँखों के आँसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण करते हुए युधिष्ठिरसे कहा ॥ ३५ ॥
सञ्जय बोले—कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके सङ्कल्पका कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया ॥ ३६ ॥ सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले— ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिरने कहा—‘भगवन् ! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे कहाँ चले गये ॥ ३८ ॥ भगवन् ! अपार समुद्रमें कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवान्‌के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा— ॥ ३९ ॥ ‘धर्मराज ! तुम किसीके लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ॥ ४० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 3 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

ब्राह्मणा ऊचुः -
दामोदरः पातु पादौ जानुनी विष्टरश्रवाः ।
ऊरू पातु हरिर्नाभिः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥५४॥
कटिं राधापतिः पातु पीतवासास्तवोदरम् ।
हृदयं पद्मनाभश्च भुजौ गोवर्द्धनोद्धरः ॥५५॥
मुखं च मथुरानाथो द्वारकेशः शिरोऽवतु ।
पृष्ठं पात्वसुरध्वंसी सर्वतो भगवान्स्वयम् ॥५६॥
श्लोकत्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेन्मानवः सदा ।
महासौख्यं भवेत्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥५७॥


श्रीनारद उवाच -
नंदस्तेभ्यो गवां लक्षं सुवर्णं दशलक्षकम् ।
सहस्रं नवरत्‍नानां वस्त्रलक्षं ददौ परम् ॥५८॥
गतेषु द्विजमुख्येषु नंदो गोपान्नियम्य च ।
भोजयामास संपूज्य वस्त्रैभूषैर्मनोहरैः ॥५९॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
तृणावर्तः पूर्वकाले कोऽयं सुकृतकृन्नरः ।
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥६०॥
श्रीनारद उवाच - पाण्डुदेशोद्‌भवो राजा सहस्राक्षः प्रतापवान् ।
हरिभक्तो धर्मनिष्ठो यज्ञकृद्दानतत्परः ॥६१॥
रेवातटे महादिव्ये लतावेत्रसमाकुले ।
नारीणां च सहस्रेण रममाणो चचार ह ॥६२॥
दुर्वाससं मुनिं साक्षादागतं न ननाम ह ।
तदा मुनिर्ददौ शापं राक्षसो भव दुर्मते ॥६३॥
पुनस्तदंघ्र्योः पतितं नृपं प्रादाद्‌वरं मुनिः ।
श्रीकृष्णविग्रहस्पर्शात्परं मोक्षमवाप ह ॥६५॥

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शकटासुरतृणावर्तमोक्षो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

ब्राह्मणों ने कहा- भगवान् दामोदर तुम्हारे चरणों की रक्षा करें। विष्टरश्रवा घुटनों की, श्रीविष्णु जाँघों की और स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी नाभि की रक्षा करें। भगवान् राधावल्लभ तुम्हारे कटि- भाग की तथा पीताम्बरधारी तुम्हारे उदर की रक्षा करें। भगवान् पद्मनाभ हृदयेश की, गोवर्धनधारी बाँहों की, मथुराधीश्वर मुखकी एवं द्वारकानाथ सिरकी रक्षा करें। असुरों का संहार करनेवाले भगवान् पीठ की रक्षा करें और साक्षात् भगवान् गोविन्द सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें। तीन श्लोक वाले इस स्तोत्र का जो मनुष्य निरन्तर पाठ करेगा, उसे परम सुख की प्राप्ति होगी और उसे कहीं भी भय का सामना नहीं करना पड़ेगा  ॥ ५४—५७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तदनन्तर नन्दजीने उन ब्राह्मणोंको एक लाख गायें, दस लाख स्वर्णमुद्राएँ, एक हजार नूतन रत्न और एक लाख बढ़िया वस्त्र दिये। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके चले जानेपर नन्दजीने गोपोंको बुला-बुलाकर भोजन कराया और मनोहर वस्त्रा- भूषणोंसे उन सबका सत्कार किया ।। ५८-५९ ॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तृणावर्त पहले जन्ममें कौन-सा पुण्यकर्मा मनुष्य था, जो साक्षात् परि- महाभाग ब्राह्मण बोले- व्रजपति नन्दजी तथा पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो गया ? ।। ६० ।।

श्रीनारदजी बोले - राजन् ! पाण्डुदेशमें 'सहस्राक्ष' नामसे विख्यात एक राजा थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। भगवान् विष्णुमें उनकी अपार श्रद्धा थी। वे धर्ममें रुचि रखते थे । यज्ञ और दानमें उनकी बड़ी लगन थी। एक दिन वे रेवा (नर्मदा नदीके दिव्य तटपर गये। लताएँ और बेंत उस तट की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ सहस्रों स्त्रियों के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए वे विचरने लगे। उसी समय स्वयं दुर्वासा मुनि ने वहाँ पदार्पण किया। राजा ने उनकी वन्दना नहीं की, तब मुनि ने शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा।' फिर तो राजा सहस्राक्ष दुर्वासाजीके चरणोंमें पड़ गये। तब मुनिने उन्हें वर दिया- 'राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहका स्पर्श होनेसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी' ॥ ६१–६४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! वे ही राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके शापसे भूमण्डलपर 'तृणावर्त' नामक दैत्य हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य श्रीविग्रहका स्पर्श होनेसे उनको सर्वोत्तम मोक्ष (गोलोकधाम) प्राप्त हो गया ॥ ६५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'शकटासुर और तृणावर्तका मोक्ष' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...