श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके
पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम
और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें
श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्री
नारद उवाच
प्रेङ्खे हरिं कनकरत्नमये शयानं
श्यामं शिशुं जनमनोहरमन्दहासम् ।
दृष्ट्यार्तिहारि मषिबिंदुधरं यशोदा
स्वांके चकार धृतकज्जलपद्मनेत्रम् ॥१॥
पादं पिबंतमतिचंचलमद्भुतांगं
वक्त्रैर्विनीलनवकोमलकेशबंधैः ।
श्रीमन्नृकेशरिनखस्फुरदरर्द्धचन्द्रं
तं लालयन्त्यतिघृणा मुदमाप गोपी ॥२॥
बालस्य पीतपयसो नृप जृम्भितस्य
तत्त्वानि चास्य वदने सकलेऽविराजन् ।
माता सुराधिपमुखैः प्रयुतं च सर्वं
दृष्ट्वा परं भयमवाप निमीलिताक्षी ॥३॥
राजन्परस्य परिपूर्णतमस्य साक्षा-
त्कृष्णस्य विश्वमखिलं कपटेन सा हि ।
नष्टस्मृतिः पुनरभूत्स्वसुते घृणार्ता
किं वर्णयामि सुतपो बहु नंदपत्न्याः ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
नंदो यशोदया सार्द्धं किं चकार तपो महत् ।
येन श्रीकृष्णचन्द्रोऽपि पुत्रीभूतो बभूव ह ॥५॥
श्रीनारद उवाच -
अष्टानां वै वसूनां च द्रोणो मुख्यो धरापतिः ।
अनपत्यो विष्णुभक्तो देवराज्यं चकार ह ॥६॥
एकदा पुत्रकांक्षी च ब्रह्मणा नोदितो नृप ।
मंदराद्रिं गतस्तप्तुं धरया भार्यया सह ॥७॥
कंदमूलफलाहारौ ततः पर्णाशनौ ततः ।
जलभक्षौ ततस्तौ तु निर्जलौ निर्जने स्थितौ ॥८॥
वर्षाणामर्बुदे याते तपस्तत्तपतोर्द्वयोः ।
ब्रह्मा प्रसन्नस्तावेत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ॥९॥
वल्मीकान्निर्गतो द्रोणो धरया भर्यया सह ।
नत्वा विधिं च संपूज्य हर्षितः प्राह तं प्रभुम् ॥१०॥
श्रीद्रोण उवाच -
परिपूर्णतमे कृष्णे पुत्रीभूते जनार्दने ।
भक्तिः स्यादावयोर्ब्रह्मन्सततं प्रेमलक्षणा ॥११॥
ययाञ्जसा तरंतीह दुस्तरं भवसागरम् ।
नान्यं वरं वांछितं स्यादावयोस्तपतोर्विधे ॥१२॥
श्रीब्रह्मोवाच -
युवाभ्यं याचितं यन्मे दुर्घटं दुर्लभं वरम् ।
तथापि भूयात्सफलं युवयोरन्यजन्मनि ॥१३॥
श्रीनारद उवाच -
द्रोणो नंदोऽभवद्भूमौ यशोदा सा धरा स्मृता ।
कृष्णो ब्रह्मवचः कर्तुं प्राप्तो घोषे पितुः पुरात् ॥१४॥
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
गंधमादनशृङ्गे वै नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥१५॥
कृपया च कृतार्थोऽहं नरनारायणस्य च ।
मया तुभ्यं च कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥१६॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन साँवले - सलोने बालक श्रीकृष्ण सोनेके रत्नजटित पालनेपर
सोये हुए थे। उनके मुखपर लोगोंके मनको मोहनेवाले मन्दहास्यकी छटा छा रही थी ।
दृष्टिजनित पीड़ाके निवारण के लिये नन्दनन्दन के ललाटपर काजलका डिठौना शोभा पा रहा
था। कमलके समान सुन्दर नेत्रोंमें काजल लगा था । अपने उस सुन्दर लालाको मैया
यशोदाने गोदमें ले लिया। वे बाल-मुकुन्द पैरका अंगूठा चूस रहे थे । उनका स्वभाव
चपल था । नील, नूतन, कोमल
एवं घुँघराले केशबन्धोंसे उनकी अङ्गच्छटा अद्भुत जान पड़ती थी । वक्षःस्थलपर
श्रीवत्सचिह्न, बघनखा तथा चमकीला अर्धचन्द्र (नामक आभूषण)
शोभा दे रहे थे। अपार दयामयी गोपी श्रीयशोदा अपने उस लालाको लाड़ लड़ाती हुई बड़े
आनन्दका अनुभव कर रही थी । राजन् ! बालक श्रीकृष्ण दूध पी चुके थे। उन्हें जँभाई आ
रही थी। माताकी दृष्टि उधर पड़ी तो उनके मुखमें पृथिव्यादि पाँच तत्त्वोंसहित
सम्पूर्ण विराट् (ब्रह्माण्ड ) तथा इन्द्रप्रभृति श्रेष्ठ देवता दृष्टिगोचर हुए।
तब श्रीयशोदाके मनमें त्रास छा गया। अतः उन्होंने अपनी आँखे मूंद लीं ॥ १-३ ॥
महाराज
! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी ही मायासे सम्पूर्ण संसार
सत्तावान् बना है । उसी मायाके प्रभावसे यशोदाजीकी स्मृति टिक न सकी। फिर अपने
बालक श्रीकृष्णपर उनका वात्सल्यपूर्ण दयाभाव उत्पन्न हो गया। अहो ! श्रीनन्दरानीके
तपका वर्णन कहाँतक करूँ ! ॥ ४ ॥
श्री
बहुलाश्वने पूछा- मुनिवर ! नन्दजीने यशोदाके साथ कौन सा महान् तप किया था,
जिसके प्रभावसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके यहाँ पुत्ररूपमें प्रकट
हुये ॥ ५ ॥
श्रीनारदजीने
कहा - आठ वसुओंमें प्रधान जो 'द्रोण' नामक वसु हैं, उनकी स्त्रीका नाम 'धरा' है। इन्हें संतान नहीं थी। वे भगवान्
श्रीविष्णुके परम भक्त थे । देवताओंके राज्यका भी पालन करते थे। राजन् ! एक समय
पुत्रकी अभिलाषा होनेपर ब्रह्माजीके आदेशसे वे अपनी सहधर्मिणी धराके साथ तप करनेके
लिये मन्दराचल पर्वतपर गये । वहाँ दोनों दम्पति कंद, मूल एवं
फल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते थे। बादमें जलके आधारपर उनका जीवन चलने
लगा । तदनन्तर उन्होंने जल पीना भी बंद कर दिया। इस प्रकार जनशून्य देशमें उनकी
तपस्या चलने लगी । उन्हें तप करते जब दस करोड़ वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर आये और बोले- ' वर माँगो'
॥ ६–९ ॥
उस
समय उनके ऊपर दीमकें चढ़ गयी थीं। अतः उन्हें हटाकर द्रोण अपनी पत्नीके साथ बाहर
निकले । उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और विधिवत् उनकी पूजा की। उनका मन
आनन्दसे उल्लसित हो उठा। वे उन प्रभुसे बोले - ॥ १० ॥
श्रीद्रोण
ने कहा- ब्रह्मन् ! विधे ! परिपूर्णतम जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पुत्र हो
जायँ और उनमें हम दोनोंकी प्रेमलक्षणा भक्ति सदा बनी रहे,
जिसके प्रभावसे मनुष्य दुर्लङ्घय भवसागरको सहज ही पार कर जाता है।
हम दोनों तपस्वीजनोंको दूसरा कोई वर अभिलषित नहीं है | ११-१२
॥
श्रीब्रह्माजी
बोले- तुमलोगोंने मुझसे जो वर माँगा है, वह
कठिनाईसे पूर्ण होनेवाला और अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी दूसरे जन्ममें तुमलोगोंकी
अभिलाषा पूरी होगी ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! वे 'द्रोण' ही इस पृथ्वीपर 'नन्द' हुए और 'धरा' ही 'यशोदा' नामसे विख्यात हुई ।
ब्रह्माजीकी
वाणी सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण पिता वसुदेवजीकी पुरी मथुरासे व्रजमें
पधारे थे । भगवान् श्रीकृष्णका शुभ चरित्र सुधा - निर्मित खाँड़ से भी अधिक मीठा
है। गन्धमादन पर्वत के शिखरपर भगवान् नर-नारायण के श्रीमुखसे मैंने इसे सुना है।
उनकी कृपासे मैं कृतार्थ हो गया ।
वही
कथा मैंने तुमसे कही है; अब और क्या सुनना
चाहते हो ? ।। १४–१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से