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गुरुवार, 23 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)
बुधवार, 22 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 04)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ
त्वं
ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था
कालो यदेमां च विदुः प्रधानाम् ।
महान्यदा त्वं जगदंकुरोऽसि
राधा तदेयं सगुणा च माया ॥२५॥
यदांतरात्मा विदितश्चतुर्भि-
स्तदा त्वियं लक्षणरूपवृत्तिः ।
यदा विराड्देहधरस्त्वमेव
तदाखिलं वा भुवि धारणेयम् ॥२६॥
श्यामं च गौरं विदितं द्विधा मह-
स्तवैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तम ।
गोलोकधामाधिपतिं परेशं
परात्परं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२७॥
सदा पठेद्यो युगलस्तवं परं
गोलोकधामप्रवरं प्रयाति सः ।
इहैव सौंदर्यसमृद्धिसिद्धयो
भवंति तस्यापि निसर्गतः पुनः ॥२८॥
यदा युवां प्रीतियुतौ च दंपती
परात्परौ तावनुरूपरूपितौ ।
तथापि लोकव्यवहारसङ्ग्रहा-
द्विधिं विवाहस्य तु कारयाम्यहम् ॥२९॥
श्रीनारद उवाच -
तदा स उत्थाय विधिर्हुताशनं
प्रज्वाल्य कुंडे स्थितयोस्तयोः पुरः ।
श्रुतेः करग्राहविधिं विधानतो
विधाय धाता समवस्थितोऽभवत् ॥३०॥
स वाहयामास हरिं च राधिकां
प्रदक्षिणं सप्तहिरण्यरेतसः ।
ततश्च तौ तं प्रणमय्य वेदवि-
त्तौ पाठयामास च सप्तमंत्रकम् ॥३१॥
ततो हरेर्वक्षसि राधिकायाः
करं च संस्थाप्य हरेः करं पुनः ।
श्रीराधिकायाः किल पृष्ठदेशके
संस्थाप्य मंत्रांश्च विधिः प्रपाठयन् ॥३२॥
राधा कराभ्यां प्रददौ च मालिकां
किंजल्किनीं कृष्णगलेऽलिनादिनीम् ।
हरेः कराभ्यां वृषभानुजा गले ।
ततश्च वह्निं प्रणमय्य वेदवित् ॥३३॥
संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृतांजली मौनयुतौ पितामहः ।
तौ पाठयामास तु पंचमंत्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम् ॥३४॥
आप
'ब्रह्म' हैं और ये तटस्था प्रकृति'। आप जब 'काल' रूपसे स्थित
होते हैं, तब इन्हें 'प्रधान' (प्रकृति) के रूप में जाना जाता है। जब आप जगत् के अङ्कुर 'महान्' (महत्तत्त्व) रूपमें स्थित होते हैं। तब ये
श्रीराधा 'सगुणा माया' रूपसे स्थित
होती हैं ॥ २५ ॥
जब
आप मन,
बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चारों
अन्तःकरणोंके साथ 'अन्तरात्मा' रूपसे
स्थित होते हैं, तब ये श्रीराधा 'लक्षणावृत्ति'
के रूपमें विराजमान होती हैं। जब आप 'विराट्'
रूप धारण करते हैं, तब ये अखिल भूमण्डलमें 'धारणा' कहलाती हैं ॥ २६ ॥
पुरुषोत्तमोत्तम
! आपका ही श्याम और गौर — द्विविध तेज सर्वत्र विदित है। आप गोलोकधामके अधिपति
परात्पर परमेश्वर हैं। मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ २७ ॥
जो
इस युगलरूप की उत्तम स्तुतिका सदा पाठ करता है, वह
समस्त धामोंमें श्रेष्ठ गोलोकधाममें जाता है और इस लोकमें भी उसे स्वभावतः
सौन्दर्य, समृद्धि और सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है । यद्यपि
आप दोनों नित्य दम्पति हैं और परस्पर प्रीतिसे परिपूर्ण रहते हैं, परात्पर होते हुए भी एक-दूसरेके अनुरूप रूप धारण करके लीला-विलास करते हैं;
तथापि मैं लोक- व्यवहार की सिद्धि या लोकसंग्रह के लिये आप दोनों की
वैवाहिक विधि सम्पन्न कराऊँगा ॥ २८–२९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्माजीने उठकर कुण्डमें अग्नि
प्रज्वलित की और अग्निदेवके सम्मुख बैठे हुए उन दोनों प्रिया- प्रियतमके वैदिक
विधानसे पाणिग्रहण-संस्कारकी विधि पूरी की। यह सब करके ब्रह्माजीने खड़े होकर
श्रीहरि और राधिकाजी से अग्निदेव की सात परिक्रमाएँ करवायीं । तदनन्तर उन दोनों को
प्रणाम करके वेदवेत्ता विधाता ने उन दोनोंसे सात मन्त्र पढ़वाये। उसके बाद
श्रीकृष्ण के वक्षःस्थलपर श्रीराधिका का हाथ रखवाकर और श्रीकृष्णका हाथ श्रीराधिका
के पृष्ठदेश में स्थापित करके विधाता ने उनसे मन्त्रों का उच्चस्वर से पाठ करवाया ॥
३०-३२ ॥
उन्होंने
राधाके हाथोंसे श्रीकृष्णके कण्ठमें एक केसरयुक्त माला पहनायी,
जिसपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। इसी तरह श्रीकृष्णके हाथोंसे भी
वृषभानु- नन्दिनीके गलेमें माला पहनवाकर वेदज्ञ ब्रह्माजीने उन दोनोंसे अग्निदेवको
प्रणाम करवाया और सुन्दर सिंहासनपर उन अभिनव दम्पतिको बैठाया । वे दोनों हाथ जोड़े
मौन रहे । पितामहने उन दोनोंसे पाँच मन्त्र पढ़वाये और जैसे पिता अपनी पुत्रीका
सुयोग्य वरके हाथमें दान करता है, उसी प्रकार उन्होंने
श्रीराधा को श्रीकृष्ण के हाथमें सौंप दिया ॥ ३३ - ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)
मंगलवार, 21 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट
03)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाएँ
तदैव
साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः ।
पीतांबरः कौस्तुभरत्नभूषणो
वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
विवाहसंभारयुतः समेखलं
सदर्भमृद्वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
तत्रैव सिंहासन उद्गते वरे
परस्परं संमिलितौ विरेजतुः ।
परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्घनाविव ॥१९॥
तदांबराद्देववरो विधिः प्रभुः
समागतस्तस्य परस्य संमुखे ।
नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥
श्रीब्रह्मोवाच -
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
लीलावतीयं निजलोकलीला ।
वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥२२॥
त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्निमुख्या ॥२३॥
त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥
दिव्यधामकी
शोभाका अवतरण होते ही साक्षात् पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान् श्रीकृष्ण
किशोरावस्थाके अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्रीराधाके सम्मुख खड़े हो गये । उनके
श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। । कौस्तुभमणिसे विभूषित हो,
हाथमें वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि राशि मन्मथों (कामदेवों)
को मोहित करने लगे। उन्होंने हँसते हुए प्रियतमाका हाथ अपने हाथमें थाम लिया और
उनके साथ विवाह मण्डपमें प्रविष्ट हुए। उस मण्डपमें विवाहकी सब सामग्री संग्रह
करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका
और जलसे भरे कलश आदि उस मण्डपकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १७-१८ ॥
वहीं
एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिसपर वे दोनों
प्रिया- प्रियतम एक-दूसरेसे सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभाका प्रसार करने
लगे। वे दोनों एक-दूसरेसे मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विद्युत् की भाँति
अपनी प्रभासे उद्दीप्त हो रहे थे। उसी समय देवताओंमें श्रेष्ठ विधाता – भगवान्
ब्रह्मा आकाशसे उतरकर परमात्मा श्रीकृष्णके सम्मुख आये और उन दोनोंके चरणोंमें
प्रणाम करके, हाथ जोड़, कमनीय
वाणीद्वारा चारों मुखोंसे मनोहर स्तुति करने लगे ।। १९ - २० ॥
श्रीब्रह्माजी
बोले- प्रभो ! आप सबके आदिकारण हैं, किंतु
आपका कोई आदि-अन्त नहीं । आप समस्त पुरुषोत्तमोंमें उत्तम हैं। अपने भक्तोंपर सदा
वात्सल्यभाव रखनेवाले और 'श्रीकृष्ण' नामसे
विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्डोंके पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु
राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण- चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ ॥२१॥
आप
गोलोकधामके अधिनाथ हैं, आपकी लीलाओंका कहीं
अन्त नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ
किया करती हैं । जब आप ही 'वैकुण्ठनाथ' के रूपमें विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानुनन्दिनी
ही 'लक्ष्मी' रूपसे आपके साथ सुशोभित
होती हैं। जब आप 'श्रीरामचन्द्र' के
रूपमें भूतलपर अवतीर्ण होते हैं, तब ये जनकनन्दिनी 'सीता' के रूपमें आपका सेवन करती हैं। आप 'श्रीविष्णु' हैं और ये कमलवनवासिनी 'कमला' हैं; जब आप 'यज्ञ- पुरुष' का अवतार धारण करते हैं, तब ये श्रीजी आपके साथ 'दक्षिणा' रूप में निवास करती हैं। आप पतिशिरोमणि हैं तो ये पत्नियोंमें प्रधान हैं ॥
२२-२३ ॥
आप
'नृसिंह' हैं तो ये आपके हृदयमें 'रमा' रूपसे निवास करती हैं। आप ही 'नर-नारायण' रूपसे रहकर तपस्या करते हैं, उस समय आपके साथ ये 'परम शान्ति' के रूपमें विराजमान होती हैं। आप जहाँ जिस रूपमें रहते हैं, वहाँ तदनुरूप देह धारण करके ये छायाकी भाँति आपके साथ रहती हैं ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
सोमवार, 20 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाएँ
नमामि
तुभ्यं भुवि रक्ष मां त्वं
यथेप्सितं सर्वजनैर्दुरापम् ।
श्रीराधोवाव -
अहं प्रसन्ना तव भक्तिभवा-
न्मद्दर्शनं दुर्लभमेव नंद ॥९॥
श्रीनंद उवाच -
यदि प्रसन्नासि तदा भवेन्मे
भक्तिर्दृढा कौ युवयोः पदाब्जे ।
सतां च भक्तिस्तव भक्तिभाजां
संगः सदा मेऽथ युगे युगे च ॥१०॥
श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्त्वाथ हरिं कराभ्यां
जग्राह राधा निजनाथमंकात् ।
गतेऽथ नंदे प्रणते व्रजेशे
तदा हि भांडीरवनं जगाम ॥११॥
गोलोकलोकाच्च पुरा समागता
भूमिर्निजं स्वं वपुरादधाना ।
या पद्मरागादिखचित्सुवर्णा
बभूव सा तत्क्षणमेव सर्वा ॥१२॥
वृंदावनं दिव्यवपुर्दधानं
वृक्षैर्वरैः कामदुघैः सहैव ।
कलिंदपुत्री च सुवर्णसौधैः
श्रीरत्नसोपानमयी बभूव ॥१३॥
गोवर्धनो रत्नशिलामयोऽभू-
त्सुवर्णशृङ्गैः परितः स्फुरद्भिः ।
मत्तालिभिर्निर्झरसुंदरीभि-
र्दरीभिरुच्चांगकरीव राजन् ॥१४॥
तदा निकुंजोऽपि निजं वपुर्दध-
त्सभायुतं प्रांगणदिव्यमंडपम् ।
वसंतमाधुर्यधरं मधुव्रतै-
र्मयूरपारावतकोकिलध्वनिम् ॥१५॥
सुवर्णरत्नादिखचित्पटैर्वृतं
पतत्पताकावलिभिर्विराजितम् ।
सरः स्फुरद्भिर्भ्रमरावलीढितै-
र्विचर्चितं कांचनचारुपंकजैः ॥१६॥
श्रीराधा
ने कहा - नन्दजी ! तुम ठीक कहते हो। मेरा दर्शन दुर्लभ ही है। आज तुम्हारे
भक्ति-भावसे प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें दर्शन दिया है ॥ ९ ॥
श्रीनन्द
बोले- देवि ! यदि वास्तवमें तुम मुझपर प्रसन्न हो तो तुम दोनों प्रिया-प्रियतम के
चरणारविन्दों में मेरी सुदृढ़ भक्ति बनी रहे। साथ ही तुम्हारी भक्तिसे भरपूर
साधु-संतों का सङ्ग मुझे सदा मिलता रहे। प्रत्येक युग में उन संत-महात्माओं के
चरणों में मेरा प्रेम बना रहे ॥ १० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर श्रीराधाने नन्दजीकी गोद से अपने प्राणनाथ को दोनों हाथों में ले
लिया । फिर जब नन्दरायजी उन्हें प्रणाम करके वहाँसे चले गये, तब श्रीराधिकाजी भाण्डीर वनमें गयीं ॥ ११ ॥
पहले
गोलोकधामसे जो 'पृथ्वी देवी' इस भूतलपर उतरी थीं, वे उस समय अपना दिव्य रूप धारण
करके प्रकट हुईं। उक्त धाममें जिस तरह पद्मरागमणिसे जटित सुवर्णमयी भूमि शोभा पाती
है, उसी तरह इस भूतलपर भी व्रजमण्डलमें उस दिव्य भूमिका
तत्क्षण अपने सम्पूर्ण रूपसे आविर्भाव हो गया । वृन्दावन कामपूरक दिव्य वृक्षोंके
साथ अपना दिव्य रूप धारण करके शोभा पाने लगा । कलिन्दनन्दिनी यमुना भी तटपर
सुवर्णनिर्मित प्रासादों तथा सुन्दर रत्नमय सोपानोंसे सम्पन्न हो गयीं ॥ १२-१३ ॥
गोवर्धन
पर्वत रत्नमयी शिलाओंसे परिपूर्ण हो गया उसके स्वर्णमय शिखर सब ओरसे उद्भासित होने
लगे । राजन् ! मतवाले भ्रमरों तथा झरनोंसे सुशोभित कन्दराओंद्वारा वह पर्वतराज
अत्यन्त ऊँचे अङ्गवाले गजराजकी भाँति सुशोभित हो रहा था ॥ १४ ॥
उस
समय वृन्दावन के निकुञ्ज ने भी अपना दिव्य रूप प्रकट किया। उसमें सभाभवन,
प्राङ्गण तथा दिव्य मण्डप शोभा पाने लगे। वसन्त ऋतु को सारी मधुरिमा
वहाँ अभिव्यक्त हो गयी। मधुपों, मयूरों, कपोतों तथा कोकिलों के कलरव सुनायी देने लगे। निकुञ्जवर्ती दिव्य
मण्डपोंके शिखर सुवर्ण-रत्नादिसे खचित कलशोंसे अलंकृत थे। सब ओर फहराती हुई
पताकाएँ उनकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ एक सुन्दर सरोवर प्रकट हुआ, जहाँ सुवर्णमय सुन्दर सरोज खिले हुए थे और उन सरोजों पर बैठी हुई
मधुपावलियाँ उनके मधुर मकरन्द का पान कर रही थीं ॥ १५-१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
रविवार, 19 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका
ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका
स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ
श्रीनारद
उवाच –
गाश्चारयन् नन्दनमङ्कदेशे
संलालयन् दूरतमं सकाशात् ।
कलिंदजातीरसमीरकंपितं
नंदोऽपि भांडीरवनं जगाम ॥१॥
कृष्णेच्छया वेगतरोऽथ वातो
घनैरभून्मेदुरमंबरं च ।
तमालनीपद्रुमपल्लवैश्च
पतद्भिरेजद्भिरतीव भाः कौ ॥२॥
तदांधकारे महति प्रजाते
बाले रुदत्यंकगतेऽतिभीते ।
नंदो भयं प्राप शिशुं स बिभ्र-
द्धरिं परेशं शरणं जगाम ॥३॥
तदैव कोट्यर्कसमूहदीप्ति-
रागच्छतीवाचलती दिशासु ।
बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं
ददर्श राधां नवनंदराजः ॥४॥
कोटींदुबिंबद्युतिमादधानां
नीलांबरां सुंदरमादिवर्णाम् ।
मंजीरधीरध्वनिनूपुराणा-
माबिभ्रतीं शब्दमतीव मंजुम् ॥५॥
कांचीकलाकंकणशब्दमिश्रां
हारांगुलीयांगदविस्फुरंतीम् ।
श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभिः
श्रीकंठचूडामणिकुंडलाढ्याम् ॥६॥
तत्तेजसा धर्षित आशु नंदो
नत्वाथ तामाह कृतांजलिः सन् ।
अयं तु साक्षात्पुरुषोत्तमस्त्वं
प्रियास्य मुख्यासि सदैव राधे ॥७॥
गुप्तं त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि
गृहाण राधे निजनाथमंकात् ।
एनं गृहं प्रापय मेघभीतं
वदामि चेत्थं प्रकृतेर्गुणाढ्यम् ॥८॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन नन्दजी अपने नन्दनको अङ्कमें लेकर लाड़ लड़ाते और गौएँ
चराते हुए खिरकके पाससे बहुत दूर निकल गये। धीरे-धीरे भाण्डीर-वन जा पहुँचे,
जो कालिन्दी-नीरका स्पर्श करके बहनेवाले तीरवर्ती शीतल समीरके
झोंकेसे कम्पित हो रहा था। थोड़ी ही देरमें श्रीकृष्णकी इच्छासे वायुका वेग
अत्यन्त प्रखर हो उठा । आकाश मेघोंकी घटासे आच्छादित हो गया । तमाल और कदम्ब
वृक्षों- के पल्लव टूट-टूटकर गिरने, उड़ने और अत्यन्त भयका
उत्पादन करने लगे। उस समय महान् अन्धकार छा गया। नन्दनन्दन रोने लगे। वे पिताकी
गोदमें बहुत भयभीत दिखायी देने लगे। नन्दको भी भय हो गया। वे शिशुको गोद में लिये
परमेश्वर श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ १-३ ॥
उसी
क्षण करोड़ों सूर्योंके समूहकी सी दिव्य दीप्ति उदित हुई,
जो सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त थी; वह क्रमशः
निकट आती-सी जान पड़ी उस दीप्तिराशि के भीतर नौ नन्दों के राजा ने वृषभानुनन्दिनी
श्रीराधा को देखा। वे करोड़ों चन्द्रमण्डलों की कान्ति धारण किये हुए थीं। उनके
श्रीअङ्गोंपर आदिवर्ण नील रंगके सुन्दर वस्त्र शोभा पा रहे थे। चरणप्रान्त में
मञ्जीरों की धीर-ध्वनिसे युक्त नूपुरोंका अत्यन्त मधुर शब्द हो रहा था । उस
शब्दमें काञ्चीकलाप और कङ्कणों की झनकार भी मिली थी । रत्नमय हार, मुद्रिका और बाजूबंदोंकी प्रभासे वे और भी उद्भासित हो रही थीं । नाकमें
मोतीकी बुलाक और नकबेसरकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कण्ठमें कंठा, सीमन्तपर चूड़ामणि और कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे ॥ ४-६ ॥
श्रीराधाके
दिव्य तेज से अभिभूत हो नन्द ने तत्काल उनके सामने मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर
कहा— 'राधे ! ये साक्षात् पुरुषोत्तम हैं और तुम इनकी मुख्य प्राणवल्लभा हो,
यह गुप्त रहस्य मैं गर्गजीके मुखसे सुनकर जानता हूँ। राधे! अपने
प्राणनाथको मेरे अङ्क से ले लो। ये बादलोंकी गर्जनासे डर गये हैं । इन्होंने
लीलावश यहाँ प्रकृतिके गुणोंको स्वीकार किया है। इसीलिये इनके विषयमें इस प्रकार
भयभीत होनेकी बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतलपर
मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तव में तो तुम सब लोगोंके लिये दुर्लभ हो' ॥ ७ – ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
शनिवार, 18 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)
# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 05)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन;
नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका
नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ
जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्रीगर्ग
उवाच -
अहं न कारयिष्यामि विवाहमनयोर्नृप ।
तयोर्विवाहो भविता भांडीरे यमुनातटे ॥६०॥
वृंदावनसमीपे च निर्जने सुंदरस्थले ।
परमेष्ठी समागत्य विवाहं कारयिष्यति ॥६१॥
तस्माद्राधां गोपवर विद्ध्यर्धांगीं वरस्य च ।
लोके चूडामणिः साक्षाद्राज्ञीं गोलोकमंदिरे ॥६२॥
यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि ।
तथा गोपीगणा गोपा गोलोके राधिकेच्छया ॥६३॥
यद्दर्शनं दुर्लभमेव दुर्घटं
देवैश्च यज्ञैर्न च जन्मभिः किमु ।
सविग्रहां तां तव मंदिराजिरे
लक्ष्यंति गुप्तां बहुगोपगोपिकाः ॥६४॥
श्रीनारद उवाच -
तदा च विस्मितौ राजन् दंपती हर्षितौ परम् ।
राधाकृष्णप्रभावं च श्रुत्वा श्रीगर्गमूचतुः ॥६५॥
दंपती ऊचतुः -
राधाशब्दस्य हे ब्रह्मन् व्याख्यानं वद तत्त्वतः ।
त्वत्तो न संशयच्छेत्ता कोऽपि भूमौ महामुने ॥६६॥
श्रीगर्ग उवाच -
सामवेदस्य भावार्थं गंधमादनपर्वते ।
शिष्येणापि मया तत्र नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥६७॥
रमया तु रकारः स्यादाकारस्त्वादिगोपिका ।
धकारो धरया हि स्यादाकारो विरजा नदी ॥६८॥
श्रीकृष्णस्य परस्यापि चतुर्द्धा तेजसोऽभवत् ।
लीलाभूः श्रीश्च विरजा चतस्रः पत्न्य एव हि ॥६९॥
संप्रलीनाश्च ताः सर्वा राधायां कुंजमंदिरे ।
परिपूर्णतमां राधां तस्मादाहुर्मनिषिणः ॥७०॥
श्रीनारद उवाच -
राधाकृष्णेति हे गोप ये जपंति पुनः पुनः ।
चतुष्पदार्थं किं तेषां साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥७१॥
तदातिविस्मितो राजन् वृषभानुः प्रियायुतः ।
राधाकृष्णप्रभावं तं ज्ञात्वाऽऽनंदमयो ह्यभूत् ॥७२॥
इत्थं गर्गो ज्ञानिवरः पूजितो वृषभानुना ।
जगाम स्वगृहं साक्षान्मुनीन्द्रः सर्ववित्कविः ॥७३॥
श्रीगर्गजीने कहा- राजन् ! श्रीराधा और
श्रीकृष्णका पाणिग्रहण-संस्कार मैं नहीं कराऊँगा । यमुनाके तटपर भाण्डीर वनमें
इनका विवाह होगा । वृन्दावनके निकट जनशून्य सुरम्य स्थानमें स्वयं श्रीब्रह्माजी
पधारकर इन दोनोंका विवाह करायेंगे । गोपवर ! तुम इन श्रीराधिकाको भगवान्
श्रीकृष्णकी वल्लभा समझो। संसारमें राजाओंके शिरोमणि तुम हो और लोकोंका शिरोमणि
गोलोकधाम है। तुम सम्पूर्ण गोप गोलोकधामसे ही इस भूमण्डलपर आये हो। वैसे ही समस्त
गोपियाँ भी श्रीराधिकाजीकी आज्ञा मानकर गोलोकसे आयी हैं। बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर
देवताओं- को भी अनेक जन्मों तक जिनकी झाँकी सुलभ नहीं होती,
उनके लिये भी जिनका दर्शन दुर्घट है, वे
साक्षात् श्रीराधिका जी तुम्हारे मन्दिर के आँगन में गुप्तरूप से विराज रही हैं और
बहुसंख्यक गोप और गोपियाँ उनका साक्षात् दर्शन करती हैं ।। ६० - ६४ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! श्रीराधिकाजी और भगवान् श्रीकृष्णका यह प्रशंसनीय प्रभाव सुनकर
श्रीवृषभानु और कीर्ति — दोनों अत्यन्त विस्मित तथा आनन्दसे आह्लादित हो उठे और
गर्गजीसे कहने लगे ॥ ६५ ॥
दम्पती
बोले- ब्रह्मन् ! 'राधा' शब्दकी तात्त्विक व्याख्या बताइये। महामुने ! इस भूतलपर मन के संदेह को
दूर करने वाला आपके समान दूसरा कोई नहीं है ॥ ६६ ॥
श्रीगर्गजीने
कहा- एक समयकी बात है, मैं गन्धमादन पर्वतपर
गया। साथमें शिष्यवर्ग भी थे। वहीं भगवान् नारायण के श्रीमुख से मैंने सामवेद का
यह सारांश सुना है। 'रकार' से रमा का,
'आकार' से गोपिकाओं का, 'धकार' से धराका तथा 'आकार'
से विरजा नदीका ग्रहण होता है । परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णका
सर्वोत्कृष्ट तेज चार रूपोंमें विभक्त हुआ । लीला, भू,
श्री और विरजा ये चार पत्नियाँ ही उनका चतुर्विध तेज हैं। ये सब की
सब कुञ्जभवनमें जाकर श्रीराधिकाजी के श्रीविग्रह में लीन हो गयीं। इसीलिये विज्ञजन
श्रीराधाको 'परिपूर्णतमा' कहते हैं ।
गोप ! जो मनुष्य बारंबार 'राधाकृष्ण' के
इस नामका उच्चारण करते हैं, उन्हें चारों पदार्थ तो क्या,
साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण भी सुलभ हो जाते हैं ॥ ६७-७१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! उस समय भार्या- सहित श्रीवृषभानुके आश्चर्यकी सीमा न रही।
श्रीराधा- कृष्णके दिव्य प्रभावको जानकर वे आनन्दके मूर्तिमान् विग्रह बन गये । इस
प्रकार श्रीवृषभानुने ज्ञानिशिरोमणि श्रीगर्गजीकी पूजा की। तब वे सर्वज्ञ एवं
त्रिकालदर्शी मुनीन्द्र गर्ग स्वयं अपने स्थानको सिधारे ।। ७२-७३ ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'नन्द-पत्नीका विश्वरूपदर्शन तथा श्रीकृष्ण-बलरामका नामकरण संस्कार'
नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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