शनिवार, 1 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

सूत उवाच ।

तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् ॥१॥
वृषं मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम् ।
वेपमानं पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् ॥२॥
गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम् ।
विवत्सां साश्रुवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम् ॥३॥
पप्रच्छ रथामारुढः कार्तस्वरपरिच्छदम् ।
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुकः ॥४॥
कस्त्वं मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान् बली ।
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ॥५॥
यस्त्वं कृष्णे गते दूरं सह गाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान् रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ॥६॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित्‌ ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ॥ १ ॥ वह कमल-तन्तु के समान श्वेत रंगका बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्रकी ताडऩा से पीडि़त और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ॥ २ ॥ धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थोंको देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ॥ ३ ॥ स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित्‌ ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ॥ ४ ॥ अरे ! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है ॥ ५ ॥ हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अत: वधके योग्य है ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 31 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

दामोदर कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा गोकुले गोप्यो ममंथुर्दधि सर्वतः ।
गृहे गृहे प्रगायन्त्यो गोपालचरितं परम् ॥१॥
यशोदापि समुत्थाय प्रातः श्रीनंदमंदिरे ।
भांडे रायं विनिक्षिप्य ममंथ दधि सुंदरी ॥२॥
मंजीररावं संकुर्वन्बालः श्रीनंदनंदनः ।
ननर्त्त नवनीतार्थं रायःशब्दकुतूहलात् ॥३॥
बालकेलिर्बभौ नृत्यन्मातुः पार्श्वमनुभ्रमन् ।
सुनादिकिंकिणीसंघ झंकारं कारयन्मुहुः ॥४॥
हैयंगवीनं सततं नवीनं
याचन्स मातुर्मधुरं ब्रुवन्सः ।
आदाय हस्तेऽश्मसुतं रुषा सुधी-
र्बिभेद कृष्णो दधिमंथपात्रम् ॥५॥
पलायमानं स्वसुतं यशोदा
प्रभावती प्राप न हस्तमात्रात् ।
योगीश्वराणामपि यो दुरापः
कथं स मातुर्ग्रहणे प्रयाति ॥६॥
तथापि भक्तेषु च भक्तवश्यता
प्रदर्शिता श्रीहरिणा नृपेश्वर ।
बालं गृहीत्वा स्वसुतं यशोमती
बबंध रज्ज्वाथ रुषा ह्युलूखले ॥७॥
आदाय यद्यद्‌बहुदाम तत्त-
त्स्वल्पं प्रभूतं स्वसुते यशोदा ।
गुणैर्न बद्धः प्रकृतेः परो यः
कथं स बद्धो भवतीह दाम्ना ॥८॥
यदा यशोदा गतबन्धनेच्छा
खिन्ना निषण्णा नृप खिन्नमानसा ।
आसीत्तदायं कृपया स्वबंधे
स्वच्छंदयानः स्ववशोऽपि कृष्णः ॥९॥
एष प्रसादो न हि वीरकर्मणां
न ज्ञानिनां कर्मधियां कुतः पुनः ।
मातुर्यथाऽभून्नृप एषु तस्मा-
न्मुक्तिं व्यधाद्‌भक्तिमलं न माधवः ॥१०॥
तदैव गोप्यस्तु समागतास्त्वरं
दृष्ट्वाथ भग्नं दधिमंथभाजनम् ।
उ‌लूखले बद्धमतीव दामभि-
र्भीतं शिशुं वीक्ष्य जगुर्घृणातुराः ॥११॥


गोप्य ऊचुः -
अस्मद्‌गृहेषु पात्राणि भिनत्ति सततं शिशुः ।
तदप्येनं नो वदामः कारुण्यान्नंदगेहिनि ॥१२॥
गतव्यथे ह्यकरुणे यशोदे हे व्रजेश्वरि ।
यष्ट्या निर्भर्त्सितो बालस्त्वया बद्धो घटक्षयात् ॥१३॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक समय गोपाङ्गनाएँ घर-घरमें गोपालकी लीलाएँ गाती हुई गोकुलमें सब ओर दधि-मन्थन कर रही थीं। श्रीनन्द - मन्दिरमें सुन्दरी यशोदाजी भी प्रातःकाल उठकर दहीके भाण्डमें रई डालकर उसे मथने लगीं ।। १-२ ॥

 

मथानी की आवाज सुनकर बालक श्रीनन्दनन्दन भी नवनीतके लिये कौतूहलवश मञ्जीरकी मधुर ध्वनि प्रकट करते हुए नाचने लगे। माताके पास बाल- क्रीडापरायण श्रीकृष्ण बार-बार चक्कर लगाते और नाचते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे और बजती हुई करधनीके घुघुरुओंकी मधुर झंकार बारंबार फैला रहे थे ।। ३-४ ॥

 

वे माता से मीठे वचन बोलकर ताजा निकाला हुआ माखन माँग रहे थे। जब वह उन्हें नहीं मिला, तब वे कुपित हो उठे और एक पत्थर का टुकड़ा लेकर उसके द्वारा दही मथने का पात्र फोड़ दिया। ऐसा करके वे भाग चले । यशोदाजी भी अपने पुत्रको पकड़ने के लिये पीछे- पीछे दौड़ीं। वे उनसे एक ही हाथ आगे थे, किंतु वे उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। जो योगीश्वरों के लिये भी दुर्लभ हैं, वे माता की पकड़ में कैसे आ सकते थे ॥ ५-६॥

 

नृपेश्वर ! तथापि श्रीहरिने भक्तोंके प्रति अपनी भक्तवश्यता दिखायी, इसलिये वे जान-बूझकर माता के हाथ आ गये। अपने बालक- पुत्र को पकड़कर यशोदा ने रोषपूर्वक ऊखलमें बाँधना आरम्भ किया। वे जो-जो बड़ी से बड़ी रस्सी उठातीं, वही वही उनके पुत्रके लिये कुछ छोटी पड़ जाती थी। जो प्रकृतिके तीनों गुणोंसे न बँध सके, वे प्रकृतिसे परे विद्यमान परमात्मा यहाँके गुणसे (रस्सीसे) कैसे बँध सकते थे ? ॥ ७-८ ॥

 

हे राजन् ! जब यशोदा बाँधते- बाँधते थक गयीं और हतोत्साह होकर बैठ रहीं तथा बाँधनेकी इच्छा भी छोड़ बैठीं, तब ये स्वच्छन्दगति भगवान् श्रीकृष्ण स्ववश होते हुए भी कृपा करके माताके बन्धनमें आ गये। भगवान् की ऐसी कृपा कर्मत्यागी ज्ञानियोंको भी नहीं मिल सकी; फिर जो कर्ममें आसक्त हैं, उनको तो मिल ही कैसे सकती है। यह भक्तिका ही प्रताप है कि वे माताके बन्धनमें आ गये। नरेश्वर ! इसीलिये भगवान् ज्ञानके साधक आराधकोंको मुक्ति तो दे देते हैं, किंतु भक्ति नहीं देते। उसी समय बहुत-सी गोपियाँ भी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने देखा कि दही मथनेका भाण्ड फूटा हुआ है और भयभीत नन्द- शिशु बहुत-सी रस्सियोंद्वारा ओखलीमें बँधे खड़े हैं। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आयी और वे यशोदाजीसे बोलीं ॥ ९ - ११॥

 

गोपियोंने कहा - नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा सा बालक सदा ही हमारे घरोंमें जाकर बर्तन- भाँड़े फोड़ा करता है, तथापि हम करुणावश इसे कभी कुछ नहीं कहतीं ।

व्रजेश्वरि यशोदे ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दर्द नहीं है, तुम निर्दय हो गयी हो। एक बर्तनके फूट जानेके कारण तुमने इस बच्चेको छड़ीसे डराया- धमकाया है और बाँध भी दिया है ! ॥ १२-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपांगमोक्ष 
कामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः ।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय 
यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता ॥३२॥
तस्याहमब्जकुलिशांकुशकेतुकेतैः 
श्रीमत्पदैर्भगवतः समलंकृतांगी ।
त्रीनत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं 
लोकान् स मां व्यसृजदुत्स्मयंतीं तदन्ते ॥३३॥
यो वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञा- 
मक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः ।
त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण 
सम्पादयन् यदुषु रम्यमबिभ्रदंगम् ॥३४॥
का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य 
प्रमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां 
रोमोत्सवो मम यदंघ्रिविटंकितायाः ॥३५॥
पयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा ।
परिक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम् ‍ ॥३६॥

 (पृथ्वी धर्म से कहरही है) जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्‌ के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान्‌के कमल, वज्र, अङ्कुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्‌ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥
तुम अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैंकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित्‌ पूर्ववाहिनी सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे पृथ्वीधर्मसंवादो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 30 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

धरण्युवाच ।
भवान् हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥२५॥
सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो दमस्तपः साम्य तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥२६॥
ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्य कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ॥२७॥
प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्य स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः ॥२८॥
एते चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या महत्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥२९॥
तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥३०॥
आत्मानं चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम् ।
देवान् पितृनृषीन् साधुन् सर्वान् वर्णास्तथाऽऽश्रमान् ॥३१॥

पृथ्वीने कहा—धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान्‌के सहारे तुम सारे संसारको सुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करनेके लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ॥ २५—३० ॥ अपने लिये, देवताओंमें श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके मनुष्योंके लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ 

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श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

नन्द, उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला

 

एकदा यमुनातीरे मृत्कृष्णेनावलीढिता ।
यशोदां बालकाः प्राहुरत्ति बालो मृदं तव ॥१३॥
बलभद्रे च वदति तदा सा नंदगेहिनी ।
करे गृहीत्वा स्वसुतं भीरुनेत्रमुवाच ह ॥१४॥


श्रीयशोदा उवाच -
कस्मान्मृदं भक्षितवान् महाज्ञ
भवान्वयस्याश्च वदंति साक्षात् ।
ज्यायान्बलोऽयं वदति प्रसिद्धं
मा एवमर्थं न जहाति नेष्टम् ॥१५॥


श्रीभगवानुवाच -
सर्वे मृषावादरथा व्रजार्भका
मातर्मया क्वापि न मृत्प्रभक्षिता ।
यदा समीचीनमनेन वाक्पथं
तदा मुखं पश्य मदीयमंजसा ॥१६॥


श्रीनारद उवाच -
अथ गोपी बालकस्य पश्यंती सुंदरं मुखम् ।
प्रसारितं च ददृशे ब्रह्मांडं रचितं गुणैः ॥१७॥
सप्तद्वीपान्सप्त सिंधून्सखंडान्सगिरीन्दृढान् ।
आब्रह्मलोकाँल्लोकाँस्त्रीन्स्वात्मभिः सव्रजैः सह ॥१८॥
दृष्ट्वा निमीलिताक्षी सा भूत्वा श्रीयमुनातटे ।
बालोऽयं मे हरिः साक्षादिति ज्ञानमयी ह्यभूत् ॥१९॥
तदा जहास श्रीकृष्णो मोहयन्निव मायया ।
यशोदा वैभवं दृष्टं न सस्मार गतस्मृतिः ॥२०॥

एक दिनकी बात है, यमुनाके तटपर श्रीकृष्णने मिट्टीका आस्वादन किया। यह देख बालकोंने यशोदाजीके पास आकर कहा – 'अरी मैया ! तुम्हारा लाला तो मिट्टी खाता है।' बलभद्रजीने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी । तब नन्दरानी ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ लिया। बालक के नेत्र भयभीत से हो उठे। मैया ने उससे कहा ।। १३-१४ ॥

 

यशोदाजीने पूछा- ओ महामूढ़ ! तूने क्यों मिट्टी खायी ! तेरे ये साथी भी बता रहे हैं और साक्षात् बड़े भैया ये बलराम भी यही बात कहते हैं कि 'माँ ! मना करने पर भी यह मिट्टी खाना नहीं छोड़ता । इसे मिट्टी बड़ी प्यारी लगती है' ॥ १५ ॥

 

श्रीभगवान् ने कहा - मैया ! व्रजके ये सारे बालक झूठ बोल रहे हैं। मैंने कहीं भी मिट्टी नहीं खायी । यदि तुम्हें मेरी बातपर विश्वास न हो तो मेरा मुँह देख लो ॥ १६ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब गोपी यशोदाने बालकका सुन्दर मुख खोलकर देखा । यशोदाको उसके भीतर तीनों गुणोंद्वारा रचित और सब ओर फैला हुआ ब्रह्माण्ड दिखायी दिया। सातों द्वीप, सात समुद्र, भारत आदि वर्ष, सुदृढ़ पर्वत, ब्रह्मलोक-पर्यन्त तीनों लोक तथा समस्त व्रज- मण्डलसहित अपने शरीरको भी यशोदा ने अपने पुत्रके मुखमें देखा ।। १७-१८ ॥

 

यह देखते ही उन्होंने आँखें बंद कर लीं और श्रीयमुनाजीके तटपर बैठकर सोचने लगीं - 'यह मेरा बालक साक्षात् श्रीनारायण है।' इस तरह वे ज्ञाननिष्ठ हो गयीं। तब श्रीकृष्ण उन्हें अपनी मायासे मोहित-सी करते हुए हँसने लगे । यशोदाजी की स्मरण शक्ति विलुप्त हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्ण का जो वैभव देखा था, वह सब वे तत्काल भूल गयीं ॥ १९ - २० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ब्रह्माण्डदर्शन' नामक अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



बुधवार, 29 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 # श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

नन्द, उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला

 

श्रीनारद उवाच -
गोपीगृहेषु विचरन् नवनीचौरः
श्यामो मनोहरवपुर्नवकंजनेत्रः ।
श्रीबालचंद्र इव वृद्धिगतो नराणां
चित्तं हरन्निव चकार व्रजे च शोभाम् ॥१॥
श्रीनंदनंदनमतीव चलं गृहीत्वा
गेहं निधाय मुमुहुर्नवनंदगोपाः ।
सत्कंदुकैश्च सततं परिपालयंते
गायंत ऊर्जितसुखा न जगत्स्मरन्तः ॥२॥


राजोवाच -
नवोपनंदनामानि वद देवऋषे मम ।
अहोभाग्यं तु येषां वै ते पूर्वं क इहागताः ॥३॥
तथा षड्वृषभानूनां कर्माणि मंगलानि च ।


श्रीनारद उवाच -
गयश्च विमलः श्रीशः श्रीधरो मंगलायनः ॥४॥
मंगलो रंगवल्लीशो रङ्गोजिर्देवनायकः ।
नवनंदाश्च कथिता बभूवुर्गोकुले व्रजे ॥५॥
वीतिहोत्रोऽग्निभुक् साम्बः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
व्रजेशः पावनः शांत उपनंदाः प्रकीर्तिताः ॥६॥
नीतिविन्मार्गदः शुक्लः पतंगो दिव्यवाहनः ।
गोपेष्टश्च व्रजे राजञ्जाताः षड्वृषभानवः ॥७॥
गोलोके कृष्णचंद्रस्य निकुंजद्वारमाश्रिताः ।
वेत्रहस्ताः श्यामलांगा नवनंदाश्च ते स्मृताः ॥८॥
निकुंजे कोटिशो गावस्तासां पालनतत्पराः ।
वंशीमयूरपक्षाढ्या उपनंदाश्च ते स्मृताः ॥९॥
निकुंजदुर्गरक्षायां दंडपाशधराः स्थिताः ।
षड्‌द्वारमास्थिताः षड् वै कथिता वृषभानवः ॥१०॥
श्रीकृष्णस्येच्छया सर्वे गोलोकादागता भुवि ।
तेषां प्रभावं वक्तुं हि न समर्थश्चतुर्मुखः ॥११॥
अहं किमु वदिष्यामि तेषां भाग्यं महोदयम् ।
येषामारोहमास्थाय बालकेलिर्बभौ हरिः ॥१२॥

श्रीनारदजी कहते हैं — मिथिलेश्वर ! गोपाङ्गनाओंके घरोंमें विचरते और माखन चोरीकी लीला करते हुए नवकंज लोचन मनोहर श्याम- रूपधारी श्रीकृष्ण बालचन्द्रकी भाँति बढ़ते और लोगोंके चित्त चुराते हुए-से व्रजमें अद्भुत शोभाका विस्तार करने लगे। नौ नन्द नामके गोप अत्यन्त चञ्चल श्रीनन्दनन्दनको पकड़कर अपने घर ले जाते और वहाँ बिठाकर उनकी रूपमाधुरीका आस्वादन करते हुए मोहित हो जाते थे । वे उन्हें अच्छी-अच्छी गेंदें देकर खेलाते, उनका लालन-पालन करते, उनकी लीलाएँ गाते और बढ़े हुए आनन्दमें निमग्न हो सारे जगत्‌ को भूल जाते थे ॥ १-२ ॥

 

राजा ने पूछा- देवर्षे ! आप मुझसे नौ उपनन्दोंके नाम बताइये। वे सब बड़े सौभाग्यशाली थे। उनके पूर्वजन्मका परिचय दीजिये । वे पहले कौन थे, जो इस भूतलपर अवतीर्ण हुए ? उपनन्दोंके साथ ही छः वृषभानुओंके भी मङ्गलमय कर्मोंका वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- गय, विमल, श्रीश, श्रीधर, मङ्गलायन, मङ्गल, रङ्गवल्लीश, रङ्गोजि तथा देवनायक – ये 'नौ नन्द' कहे गये हैं, जो व्रजके गोकुलमें उत्पन्न हुए थे। वीतिहोत्र, अग्निभुक्, साम्ब, श्रीवर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त – ये 'उपनन्द' कहे गये हैं ।। ४-६ ॥

 

हे राजन् ! नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतंग, दिव्यवाहन और गोपेष्ट – ये छः 'वृषभानु' हैं, जिन्होंने व्रजमें जन्म धारण किया था। जो गोलोकधाममें श्रीकृष्णचन्द्रके निकुञ्जद्वारपर रहकर हाथमें बेंत लिये पहरा देते थे, वे श्याम अङ्गवाले गोप व्रजमें 'नौ नन्द' के नामसे विख्यात हुए । निकुञ्जमें जो करोड़ों गायें हैं, उनके पालनमें तत्पर, मोरपंख और मुरली धारण करनेवाले गोप यहाँ 'उपनन्द' कहे गये हैं। निकुञ्ज- दुर्ग की रक्षा के लिये जो दण्ड और पाश धारण किये उसके छहों द्वारोंपर रहा करते हैं, वे ही छः गोप यहाँ 'छः वृषभानु' कहलाये ।। ९-१० ॥

 

श्रीकृष्ण की इच्छा से ही वे सब लोग गोलोक से भूतलपर उतरे हैं। उनके प्रभाव का वर्णन करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर मैं उनके महान् अभ्युदयशाली सौभाग्य का कैसे वर्णन कर सकूँगा, जिनकी गोद में बैठकर बाल-क्रीडापरायण श्रीहरि सदा सुशोभित होते थे । ११ - १२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

अरक्ष्यमाणाः स्त्रिय उर्वि बालान् 
शोचस्यथो पुरुषादैरिवार्तान् ।
वाचं देवीं ब्रह्मकुले कुकर्म- 
ण्य़ब्रह्मण्ये राजकुले कुलाग्र्यान् ॥२१॥
किं क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान् 
राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि ।
इतस्ततो वाशनपानवास:- 
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम् ॥२२॥
यद्वाम्ब ते भूरिभरावतार 
कृतावतारस्य हरेर्धरित्रि ।
अन्तर्हितस्य स्मरती विसृष्टा 
कर्माणि निर्वाणविलम्बितानि ॥२३॥
इदं ममाचक्ष्व तवाधिमूलं 
वसुन्धरे येन विकर्शितासि ।
कालेन वा ते बलिना बलियसा 
सुरार्चितं किं हृतमम्ब सौभगम् ॥२४॥

(बैलरूपी धर्म गाय के रूपमें पृथ्वी से कहरहे हैं) देवि ! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकों के लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुलमें पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हें दु:ख हो ॥ २१ ॥ आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो ? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुखी हो ? ॥ २२ ॥ मा पृथ्वी ! अब समझमें आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्षका भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला संवरण कर लेनेपर उनके परित्यागसे तुम दुखी हो रही हो ॥ २३ ॥ देवि ! तुम तो धन-रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानोंको भी हरा देनेवाले काल ने देवताओंके द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्यको छीन लिया है ॥ २४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


मंगलवार, 28 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वाक्यं तदा गोपी प्रसन्ना गृहमागता ।
एकदा दधिचौर्यार्थं कृष्णस्तस्या गृहं गतः ॥ २७ ॥
वयस्यैर्बालकैः सार्द्धं पार्श्वकुड्ये गृहस्य च ।
हस्ताद्धस्तं संगृहीत्वा शनैः कृष्णो विवेश ह ॥ २८ ॥
शिक्यस्थं गोरसं दृष्ट्वा हस्ताग्राह्यं हरिः स्वयम् ।
उलूखले पीठके च गोपान्स्थाप्यारुरोह तम् ॥ २९ ॥
तदपि प्रांशुना लभ्यं गोरसं शिक्यसंस्थितम् ।
श्रीदाम्ना सुबलेनापि दंडेनापि तताड च ॥ ३० ॥
भग्नभाण्डात्सर्वगव्यं बृहद्‌भूमौ मनोहरम् ।
जगास सबलो मर्कैर्बालकैः सह माधवः ॥ ३१ ॥
भग्नभांडस्वनं श्रुत्वा प्राप्ता गोपी प्रभावती ।
पलायितेषु बालेषु जग्राह श्रीकरं हरेः ॥ ३२ ॥
नीत्वा मृषाश्रुं भीरुं च गच्छन्ती नन्दमंदिरम् ।
अग्रे नन्दं स्थितं दृष्ट्वा मुखे वस्त्रं चकार ह ॥ ३३ ॥
हरिर्विचिंतयन्नित्थं माता दंडं प्रदास्यति ।
दधार तद्‌बालरूपं स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २४ ॥
सा यशोदां समेत्याशु प्राह गोपी रुषान्विता ।
भांडं भग्नीकृतं सर्वं मुषितं दध्यनेन वै ॥ ३५ ॥
यशोदा तत्सुतं वीक्ष्य हसंती प्राह गोपिकाम् ।
वस्त्रांतं च मुखाद्‌गोपी दूरीकृत्य वदांहसः ॥ ३६ ॥
अपवादो यदा देयो निर्वासं कुरु मे परात् ।
युष्मत्पुत्रकृतं चौर्यमस्मत्पुत्रकृतं भवेत् ॥ ३७ ॥
जनलज्जासमायुक्ता दूरीकृत्य मुखांबरम् ।
सापि प्राह निजं बालं वीक्ष्य विस्मितमानसा ॥ ३८ ॥
निष्पदस्त्वं कुतः प्राप्तो व्रजसारोऽस्ति मे करे ।
वदन्तीत्थं च तं नीत्वा निर्गता नन्दमंदिरात् ॥ ३९ ॥
यशोदा रोहिणी नंदो रामो गोपाश्च गोपिकाः ।
जहसुः कथयंतस्ते दृष्टोऽन्यायो व्रजे महान् ॥ ४० ॥
भगवांस्तु बहिर्वीथ्यां भूत्वा श्रीनन्दनन्दनः ।
प्रहसन् गोपिकां प्राह धृष्टांगश्चंचलेक्षणः ॥ ४१ ॥


श्रीभगवान् उवाच -
पुनर्मां यदि गृह्णासि कदाचित्त्वं हि गोपिके ।
ते भर्तृरूपस्तु तदा भविष्यामि न संशयः ॥ ४२ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा सा विस्मिता गोपी गता गेहेऽथ मैथिल ।
तदा सर्वगृहे गोप्यो न गृह्णन्ति हरिं ह्रिया ॥ ४३ ॥

 

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यशोदाजीकी यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकोंके साथ फिर दही चुरानेके लिये उसके घरमें गये। घरकी दीवारके पास सटकर एक हाथसे दूसरे बालकका हाथ पकड़े धीरे-धीरे घरमें घुसे ।। २७-२८ ॥

 

छीके पर रखा हुआ गोरस हाथसे पकड़में नहीं आ सकता, यह देख श्रीहरिने स्वयं एक ओखलीके ऊपर पीढ़ा रखा। उसपर कुछ ग्वाल-बालोंको खड़ा किया और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीकेपर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कदके मनुष्यसे ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिये वे उसे न पा सके। तब श्रीदामा और सुबलके साथ उन्होंने मटकेपर डंडेसे प्रहार किया ।। २९-३० ॥

 

दही का बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वी पर बह चला। तब बलरामसहित माधव ने ग्वाल-बालों और बंदरों के साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया । भाण्ड के फूटने की आवाज सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची । अन्य सब बालक तो वहाँसे भाग निकले; किंतु श्रीकृष्ण का हाथ उसने पकड़ लिया ।। ३१-३२ ॥

 

श्रीकृष्ण भयभीत से होकर मिथ्या आँसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द-भवन की ओर चली। सामने नन्दरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावती ने मुखपर घूँघट डाल दिया। श्रीहरि सोचने लगे – 'इस तरह जानेपर माता मुझे अवश्य दण्ड देगी।' अतः उन स्वच्छन्दगति परमेश्वरने प्रभावतीके ही पुत्रका रूप धारण कर लिया। रोषसे भरी हुई प्रभावती यशोदाजीके पास शीघ्र जाकर बोली- इसने मेरा दहीका बर्तन फोड़ दिया और सारा दही लूट लिया' ।। ३३ - ३५॥

 

यशोदाजीने देखा, यह तो इसीका पुत्र है; तब वे हँसती हुई उस गोपीसे बोली- 'पहले अपने मुखसे घूँघट तो हटाओ, फिर बालकके दोष बताना । यदि इस तरह झूठे ही दोष लगाना है तो मेरे नगरसे बाहर चली जाओ। क्या तुम्हारे पुत्रकी की हुई चोरी मेरे बेटेके माथे मढ़ दी जायगी ?' ।। ३६-३७ ॥

 

तब लोगोंके बीच लजाती हुई प्रभावतीने अपने मुँहसे घूँघटको हटाकर देखा तो उसे अपना ही बालक दिखायी दिया। उसे देखकर वह मन ही मन चकित होकर बोली- 'अरे निगोड़े ! तू कहाँसे आ गया ! मेरे हाथमें तो व्रजका सार-सर्वस्व था।' इस तरह बड़बड़ाती हुई वह अपने बेटेको लेकर नन्दभवनसे बाहर चली गयी। यशोदा, रोहिणी, नन्द, बलराम तथा अन्यान्य गोप और गोपाङ्गनाएँ हँसने लगीं और बोलीं- 'अहो ! व्रजमें तो बड़ा भारी अन्याय दिखायी देने लगा है।' उधर भगवान् बाहरकी गलीमें पहुँचकर फिर नन्द-नन्दन बन गये और सम्पूर्ण शरीरसे धृष्टताका परिचय देते हुए, चञ्चल नेत्र मटकाकर, जोर-जोर से हँसते हुए उस गोपीसे बोले ॥ ३७–४१ ॥

 

श्रीभगवान् ने कहा - अरी गोपी! यदि फिर कभी तू मुझे पकड़ेगी तो अबकी बार मैं तेरे पति का रूप धारण कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर वह गोपी आश्चर्य से चकित हो अपने घर चली गयी। उस दिनसे सब घरोंकी गोपियाँ लाजके मारे श्रीहरिका हाथ नहीं पकड़ती थीं ॥ ४३ ॥

 

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें श्रीकृष्णके बालचरित्रगत 'दधि-चोरीका वर्णन' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १७ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

सारथ्यपारषदसेवनसख्यदौत्य- 
वीरासनानुगमनस्तवनप्रणामान् ।
स्निग्धेषु पाण्डुषु जगत्प्रणतिं च विष्णो- 
र्भक्तिं करोति नृपतिश्चरणारविन्दे ॥१६॥
तस्यैवं वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम् ।
नातिदूरे किलाश्चर्य यदासीत् तन्निबोध मे ॥१७॥
धर्मः पदैकेन चरन् विच्छायामुपलभ्य गाम् ।
पृच्छति स्माश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम् ॥१८॥

धर्म उवाच ।
कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते 
विच्छायासि म्लायतेषन्मुखेन ।
आलक्षये भवतीमन्तराधिं 
दूरे बन्धुं शोचसि कञ्चनाम्ब ॥१९॥
पादैर्न्यूनं शोचासि मैकपाद- 
मात्मानं वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम् ।
आहो सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा उतस्विन्मघवत्यवर्षति ॥२०॥

वे (परीक्षित्‌ जी) सुनते कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने प्रेमपरवश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बने—यहाँतक कि उनके मनके अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके चरणोंमें उन्होंने सारे जगत् को झुका दिया। तब परीक्षित्‌की भक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें और भी बढ़ जाती ॥ १६ ॥ इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १७ ॥ धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गाय के रूपमें पृथ्वी मिली। पुत्रकी मृत्युसे दु:खिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुओंके झरने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ॥ १८ ॥

धर्म ने कहा—कल्याणि ! कुशलसे तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दु:ख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? ॥ १९ ॥ कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिये भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल एवं दुर्भिक्षसे पीडि़त हो रही है ॥ २० ॥ 

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सोमवार, 27 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
तदा यशोदारोहिण्यौ सुतकल्याणहेतवे ।
वस्त्ररत्‍ननवान्नानां दानं नित्यं च चक्रतुः ॥ १३ ॥
अथ व्रजे रामकृष्णौ बालसिंहावलोकनौ ।
पद्‌भ्यां चलंतौ घोषेषु वर्धमानौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
श्रीदामसुबलाद्यैश्च वयस्यैर्व्रजबालकैः ।
यमुनासिकते शुभ्रे लुठंतौ सकुतूहलौ ॥ १५ ॥
कालिंद्युपवने श्यामैस्तमालैः सघनैर्वृते ।
कदंबकुंजशोभाढ्ये चेरतू रामकेशवौ ॥ १६ ॥
जनयन् गोपगोपीनामानन्दं बाललीलया ।
वयस्यैश्चोरयामास नवनीतं घृतं हरिः ॥ १७ ॥
एकदा ह्युपनंदस्य पत्‍नी नाम्ना प्रभावती ।
श्रीनन्दमन्दिरं प्राप्ता यशोदां प्राह गोपिका ॥ १८ ॥


प्रभावत्युवाच -
नवनीतं घृतं दुग्धं दधि तक्रं यशोमति ।
आवयोर्भेदरहितः त्वत्प्रसादाच्च मेऽभवत् ॥ १९ ॥
नाहं वदामि चानेन स्तेयं कुत्रापि शिक्षितम् ।
शिक्षां करोषि न सुते नवनीतमुषि स्वतः ॥ २० ॥
यदा मया कृता शिक्षा तदा धृष्टस्तवांगजः ।
गालिप्रदानं दत्त्वायं द्रवति प्रांगणान्मम ॥ २१ ॥
व्रजाधीशस्य पुत्रोऽयं भूत्वा स्तेयं समाचरेत् ।
न मया कथितं किंचिद्‌यशोदे तव गौरवात् ॥ २२ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा प्रभावतीवाक्यं यशोदा नंदगेहिनी ।
बालं निर्भर्त्स्य तामाह साम्ना प्रेमपरायणा ॥ २३ ॥


श्रीयशोदा उवाच -
गवां कोटिर्गृहे मेऽस्ति गोरसैरार्द्रिताचला ।
न जाने दधिमुड् बालो नात्ति सोऽत्र कदाचन ॥ २४ ॥
अनेन मुषितं गव्यं तत्समं त्वं गृहाण मे ।
ते शिशौ मे शिशौ भेदो नास्ति किंचित्प्रभावति ॥ २५ ॥
नवनीतमुखं चैनमत्र त्वं ह्यानयिष्यसि ।
तदा शिक्षां करिष्यामि भर्त्सनं बंधनं तथा ॥ २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तबसे यशोदा और रोहिणीजी पुत्रोंकी कल्याण-कामनासे प्रतिदिन वस्त्र, रत्न तथा नूतन अन्नका दान करने लगीं। कुछ दिनों बाद सिंह - शावककी भाँति दीखनेवाले राम और कृष्ण- दोनों बालक कुछ बड़े होकर गोष्ठोंमें अपने पैरोंके बलसे चलने लगे ।। १३-१४ ॥

 

श्रीदामा और सुबल आदि व्रज-बालक सखाओं के साथ यमुनाजीके शुभ्र वालुकामय तटपर कौतूहलपूर्वक लोटते हुए राम और श्याम नील-सघन तमालोंसे घिरे और कदम्ब कुञ्जकी शोभासे विलसित कालिन्दी-तटवर्ती उपवनमें विचरने लगे । १५ – १६ ॥

 

श्रीहरि अपनी बाललीलासे गोप-गोपियोंको आनन्द प्रदान करते हुए सखाओंके साथ घरोंमें जा-जाकर माखन और घृतकी चोरी करने लगे। एक दिन उपनन्दपत्नी गोपी प्रभावती श्रीनन्द – मन्दिर में आकर यशोदाजीसे बोलीं ।। १७-१८ ।।

 

प्रभावती ने कहा- यशोमति ! हमारे और तुम्हारे घरों में जो माखन, घी, दूध, दही और तक्र है उसमें ऐसा कोई बिलगाव नहीं है कि यह हमारा है और वह तुम्हारा। मेरे यहाँ तो तुम्हारे कृपाप्रसादसे ही सब कुछ हुआ है। मैं यह नहीं कहना चाहती कि तुम्हारे इस लाला ने कहीं चोरी सीखी है। माखन तो यह स्वयं ही चुराता फिरता है, परंतु तुम इसे ऐसा न करने के लिये कभी शिक्षा नहीं देती। एक दिन जब मैंने शिक्षा दी तो तुम्हारा यह ढीठ बालक मुझे गाली देकर मेरे आँगनसे भाग निकला। यशोदाजी ! व्रजराज का बेटा होकर यह चोरी करे, यह उचित नहीं है; किंतु मैंने तुम्हारे गौरव का खयाल करके इसे कभी कुछ नहीं कहा है ॥ २१–२२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! प्रभावतीकी बात सुनकर नन्द - गेहिनी यशोदाने बालकको डाँट बतायी और बड़े प्रेमसे सान्त्वनापूर्वक प्रभावतीसे कहा ॥ २३ ॥

 

श्रीयशोदा बोलीं- बहिन ! मेरे घर में करोड़ों गौएँ हैं, इस घरकी धरती सदा गोरससे भीगी रहती है। पता नहीं, यह बालक क्यों तुम्हारे घरमें दही चुराता है। यहाँ तो कभी ये सब चीजें चावसे खाता ही नहीं। प्रभावती ! इसने जितना भी दही या माखन चुराया हो, वह सब तुम मुझसे ले लो। तुम्हारे पुत्र और मेरे लाला- में किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है। यदि तुम इसे माखन चुराकर खाते और मुखमें माखन लपेटे हुए पकड़कर मेरे पास ले आओगी तो मैं इसे अवश्य ताड़ना दूँगी, डाँदूँगी और घर में बाँध रखूँगी || २४ - २६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...