मंगलवार, 28 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वाक्यं तदा गोपी प्रसन्ना गृहमागता ।
एकदा दधिचौर्यार्थं कृष्णस्तस्या गृहं गतः ॥ २७ ॥
वयस्यैर्बालकैः सार्द्धं पार्श्वकुड्ये गृहस्य च ।
हस्ताद्धस्तं संगृहीत्वा शनैः कृष्णो विवेश ह ॥ २८ ॥
शिक्यस्थं गोरसं दृष्ट्वा हस्ताग्राह्यं हरिः स्वयम् ।
उलूखले पीठके च गोपान्स्थाप्यारुरोह तम् ॥ २९ ॥
तदपि प्रांशुना लभ्यं गोरसं शिक्यसंस्थितम् ।
श्रीदाम्ना सुबलेनापि दंडेनापि तताड च ॥ ३० ॥
भग्नभाण्डात्सर्वगव्यं बृहद्‌भूमौ मनोहरम् ।
जगास सबलो मर्कैर्बालकैः सह माधवः ॥ ३१ ॥
भग्नभांडस्वनं श्रुत्वा प्राप्ता गोपी प्रभावती ।
पलायितेषु बालेषु जग्राह श्रीकरं हरेः ॥ ३२ ॥
नीत्वा मृषाश्रुं भीरुं च गच्छन्ती नन्दमंदिरम् ।
अग्रे नन्दं स्थितं दृष्ट्वा मुखे वस्त्रं चकार ह ॥ ३३ ॥
हरिर्विचिंतयन्नित्थं माता दंडं प्रदास्यति ।
दधार तद्‌बालरूपं स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २४ ॥
सा यशोदां समेत्याशु प्राह गोपी रुषान्विता ।
भांडं भग्नीकृतं सर्वं मुषितं दध्यनेन वै ॥ ३५ ॥
यशोदा तत्सुतं वीक्ष्य हसंती प्राह गोपिकाम् ।
वस्त्रांतं च मुखाद्‌गोपी दूरीकृत्य वदांहसः ॥ ३६ ॥
अपवादो यदा देयो निर्वासं कुरु मे परात् ।
युष्मत्पुत्रकृतं चौर्यमस्मत्पुत्रकृतं भवेत् ॥ ३७ ॥
जनलज्जासमायुक्ता दूरीकृत्य मुखांबरम् ।
सापि प्राह निजं बालं वीक्ष्य विस्मितमानसा ॥ ३८ ॥
निष्पदस्त्वं कुतः प्राप्तो व्रजसारोऽस्ति मे करे ।
वदन्तीत्थं च तं नीत्वा निर्गता नन्दमंदिरात् ॥ ३९ ॥
यशोदा रोहिणी नंदो रामो गोपाश्च गोपिकाः ।
जहसुः कथयंतस्ते दृष्टोऽन्यायो व्रजे महान् ॥ ४० ॥
भगवांस्तु बहिर्वीथ्यां भूत्वा श्रीनन्दनन्दनः ।
प्रहसन् गोपिकां प्राह धृष्टांगश्चंचलेक्षणः ॥ ४१ ॥


श्रीभगवान् उवाच -
पुनर्मां यदि गृह्णासि कदाचित्त्वं हि गोपिके ।
ते भर्तृरूपस्तु तदा भविष्यामि न संशयः ॥ ४२ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा सा विस्मिता गोपी गता गेहेऽथ मैथिल ।
तदा सर्वगृहे गोप्यो न गृह्णन्ति हरिं ह्रिया ॥ ४३ ॥

 

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यशोदाजीकी यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकोंके साथ फिर दही चुरानेके लिये उसके घरमें गये। घरकी दीवारके पास सटकर एक हाथसे दूसरे बालकका हाथ पकड़े धीरे-धीरे घरमें घुसे ।। २७-२८ ॥

 

छीके पर रखा हुआ गोरस हाथसे पकड़में नहीं आ सकता, यह देख श्रीहरिने स्वयं एक ओखलीके ऊपर पीढ़ा रखा। उसपर कुछ ग्वाल-बालोंको खड़ा किया और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीकेपर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कदके मनुष्यसे ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिये वे उसे न पा सके। तब श्रीदामा और सुबलके साथ उन्होंने मटकेपर डंडेसे प्रहार किया ।। २९-३० ॥

 

दही का बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वी पर बह चला। तब बलरामसहित माधव ने ग्वाल-बालों और बंदरों के साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया । भाण्ड के फूटने की आवाज सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची । अन्य सब बालक तो वहाँसे भाग निकले; किंतु श्रीकृष्ण का हाथ उसने पकड़ लिया ।। ३१-३२ ॥

 

श्रीकृष्ण भयभीत से होकर मिथ्या आँसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द-भवन की ओर चली। सामने नन्दरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावती ने मुखपर घूँघट डाल दिया। श्रीहरि सोचने लगे – 'इस तरह जानेपर माता मुझे अवश्य दण्ड देगी।' अतः उन स्वच्छन्दगति परमेश्वरने प्रभावतीके ही पुत्रका रूप धारण कर लिया। रोषसे भरी हुई प्रभावती यशोदाजीके पास शीघ्र जाकर बोली- इसने मेरा दहीका बर्तन फोड़ दिया और सारा दही लूट लिया' ।। ३३ - ३५॥

 

यशोदाजीने देखा, यह तो इसीका पुत्र है; तब वे हँसती हुई उस गोपीसे बोली- 'पहले अपने मुखसे घूँघट तो हटाओ, फिर बालकके दोष बताना । यदि इस तरह झूठे ही दोष लगाना है तो मेरे नगरसे बाहर चली जाओ। क्या तुम्हारे पुत्रकी की हुई चोरी मेरे बेटेके माथे मढ़ दी जायगी ?' ।। ३६-३७ ॥

 

तब लोगोंके बीच लजाती हुई प्रभावतीने अपने मुँहसे घूँघटको हटाकर देखा तो उसे अपना ही बालक दिखायी दिया। उसे देखकर वह मन ही मन चकित होकर बोली- 'अरे निगोड़े ! तू कहाँसे आ गया ! मेरे हाथमें तो व्रजका सार-सर्वस्व था।' इस तरह बड़बड़ाती हुई वह अपने बेटेको लेकर नन्दभवनसे बाहर चली गयी। यशोदा, रोहिणी, नन्द, बलराम तथा अन्यान्य गोप और गोपाङ्गनाएँ हँसने लगीं और बोलीं- 'अहो ! व्रजमें तो बड़ा भारी अन्याय दिखायी देने लगा है।' उधर भगवान् बाहरकी गलीमें पहुँचकर फिर नन्द-नन्दन बन गये और सम्पूर्ण शरीरसे धृष्टताका परिचय देते हुए, चञ्चल नेत्र मटकाकर, जोर-जोर से हँसते हुए उस गोपीसे बोले ॥ ३७–४१ ॥

 

श्रीभगवान् ने कहा - अरी गोपी! यदि फिर कभी तू मुझे पकड़ेगी तो अबकी बार मैं तेरे पति का रूप धारण कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर वह गोपी आश्चर्य से चकित हो अपने घर चली गयी। उस दिनसे सब घरोंकी गोपियाँ लाजके मारे श्रीहरिका हाथ नहीं पकड़ती थीं ॥ ४३ ॥

 

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें श्रीकृष्णके बालचरित्रगत 'दधि-चोरीका वर्णन' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १७ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🌹🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    मनोहारिणी लीलाओं से मन चित्त
    को हरने वाले बाल मुकुंद गोविंद का हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: चरण वंदन 🙏🥀🙏🥀🙏🥀🙏

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