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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
शैला ऊचुः -
त्वं साक्षात्कृष्णचंद्रस्य परिपूर्णतमस्य च ।
गोलोके गोगणैर्युक्ते गोपीगोपालसंयुते ॥ १३ ॥
त्वं हि गोवर्धनो नाम वृंदारण्ये विराजसे ।
त्वन्नो गिरीणां सर्वेषां गिरिराजोऽसि सांप्रतम् ॥ १४ ॥
नमो वृंदावनाङ्काय तुभ्यं गोलोकमौलिने ।
पूर्णब्रह्मातपत्राय नमो गोवर्धनाय च ॥ १५ ॥
सन्नन्द उवाच -
इति स्तुत्वाथ गिरयो जग्मुः स्वं स्वं गृहं ततः ।
शैलो गिरिवरः साक्षाद्गिरिराज इति स्मृतः ॥ १६ ॥
एकदा तीर्थयायी च पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
द्रोणाचलसुतं श्यामं गिरिं गोवर्धनं वरम् ॥ १७ ॥
माधवीलतिकापुष्पं पलभारसमन्वितम् ।
निर्झरैर्नादितं शान्तं कंदरामंगलायनम् ॥ १८ ॥
तपोयोग्यं रत्नमयं शतशृङ्गं मनोहरम् ।
चित्रधातुविचित्रांगं सटंकं पक्षिसंकुलम् ॥ १९ ॥
मृगैः शाखामृगैर्व्याप्तं मयूरध्वनिमंडितम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां तं ददर्श महामुनिः ॥ २० ॥
तल्लिप्सुर्मुनिशार्दूलो द्रोणपार्श्वं समागतः ।
पूजितो द्रोणगिरिणा पुलस्त्यः प्राह तं गिरिम् ॥ २१ ॥
पुलस्त्य उवाच -
हे द्रोण त्वं गिरिन्द्रोऽसि सर्वदेवैश्च पूजितः ।
दिव्यौषधिसमायुक्तः सदा जीवनदो नृणाम् ॥ २२ ॥
अर्थी तवांतिके प्राप्तः काशीस्थोऽहं महामुनिः ।
गोवर्धनं सुतं देहि नान्यैर्मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ २३ ॥
पर्वत
बोले- तुम साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें,
जहाँ दिव्य गौओंका समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप-
सुन्दरियाँ शोभा पाती हैं, सुशोभित होते हो। तुम्हीं 'गोवर्धन' नामसे वृन्दावनमें विराजते हो, इस समय तुम्हीं हम समस्त पर्वतोंमें 'गिरिराज'
हो। तुम वृन्दावनकी गोद में समोद निवास करनेवाले, गोलोकके मुकुटमणि हो तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके हाथोंमें किसी
विशिष्ट अवसरपर छत्रके समान शोभा पाते हो। तुम गोवर्धनको हमारा सादर नमस्कार है ॥
१३- .१५ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- नन्दराज ! जब इस प्रकार स्तुति करके सब पर्वत अपने-अपने स्थानपर चले गये,
तभीसे यह गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात् 'गिरिराज'
कहलाने लगा है। एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी तीर्थयात्राके लिये
भूतलपर भ्रमण करने लगे। उन महामुनिने द्रोणाचलके पुत्र श्यामवर्णवाले श्रेष्ठ
पर्वत गोवर्धनको देखा, जिसके ऊपर माधवी लताके सुमन सुशोभित
हो रहे थे । वहाँके वृक्ष फलोंके भारसे लदे हुए थे । निर्झरोंके झर-झर शब्द वहाँ
गूँज रहे थे। उस पर्वतपर बड़ी शान्ति विराज रही थी। अपनी कन्दराओंके कारण वह
मङ्गलका धाम जान पड़ता था। सैकड़ों शिखरोंसे सुशोभित वह रत्नमय मनोहर शैल तपस्या
करनेके लिये उपयुक्त स्थान था । विविध रंगकी चित्र-विचित्र धातुएँ उस पर्वतके
अवयवोंमें विचित्र शोभाका आधान करती थीं। उसकी भूमि ढालू (चढ़ाव उतारसे युक्त) थी
और वहाँ नाना प्रकारके पक्षी सब ओर व्याप्त थे। मृग और बंदर आदि पशु चारों ओर फैले
हुए थे। मयूरों की केकाध्वनि से मण्डित गोवर्धन पर्वत मुमुक्षुओं के लिये
मोक्षप्रद प्रतीत होता था ॥ १६-२० ॥
मुनिवर
पुलस्त्य के मन में उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई। इसके लिये वे द्रोणाचल
के समीप गये । द्रोणगिरि ने उनका पूजन - स्वागत-सत्कार किया । इसके बाद पुलस्त्य जी
उस पर्वत से बोले-- ॥ २१ ॥
पुलस्त्यने
कहा- द्रोण ! तुम पर्वतोंके स्वामी हो । समस्त देवता तुम्हारा समादर करते हैं। तुम
दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न और मनुष्योंको सदा जीवन देनेवाले हो। मैं काशीका निवासी
मुनि हूँ और तुम्हारे निकट याचक होकर आया हूँ। तुम अपने पुत्र गोवर्धनको मुझे दे
दो। यहाँ अन्य वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है ॥ २२-२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से