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गुरुवार, 13 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
बुधवार, 12 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
विश्वेश्वरस्य देवस्य काशीनाम्ना महापुरी ।
यत्र पापी मृतः सद्यः परं मोक्षं प्रयाति हि ॥ २४ ॥
यत्र गंगाऽऽगता साक्षाद्विश्वनाथोऽपि यत्र वै ।
तत्रैव स्थापयिष्यामि जातोऽयं मे मनोरथः ॥ २६ ॥
सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यवचनं श्रुत्वा स्वसुतस्नेहविह्वलः ।
अश्रुपूर्णो द्रोणगिरिस्तं मुनिं वाक्यमब्रवीत् ॥ २७ ॥
द्रोण उवाच -
पुत्रस्नेहाकुलोऽहं वै पुत्रो मेऽयमतिप्रियः ।
ते शापभयभीतोऽहं वदाम्येनं महामुने ॥ २८ ॥
हे पुत्र गच्छ मुनिना भारते कर्मके शुभे ।
त्रैवर्ग्यं लभ्यते यत्र नृभिर्मोक्षमपि क्षणात् ॥ २९ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने कथं मां नयसि लंबितं योजनाष्टकम् ।
योजनद्वयमुच्चांगं पंचयोजनविस्तृतम् ॥ ३० ॥
पुलस्त्य उवाच -
उपविश्य करे मे त्वं गच्छ पुत्र यथासुखम् ।
वाहयामि करे त्वां वै यावत्काशीं समागतः ॥ ३१ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने यत्र स्थले भूम्यां स्थापनां मे करिष्यसि ।
करिष्यामि न चोत्थानं तद्भूम्याः शपथो मम ॥ ३२ ॥
पुलस्त्य उवाच -
अहमाशाल्मलिद्वीपान् मर्यादीकृत्य कौसलम् ।
न स्थापनां करिष्यामि शपथस्तेऽपि मे पथि ॥ ३३ ॥
सन्नन्द उवाच -
मुनेः करतले तस्मिन्नारुरोह महाचलः ।
प्रणम्य पितरं द्रोणमश्रुपूर्णाकुलेक्षणः ॥ ३४ ॥
मुनिस्तं दक्षिणकरे धृत्वा गच्छन् शनैः शनैः ।
स्वतेजो दर्शयन् नॄणां प्राप्तोऽभूद्व्रजमंडले ॥ ३५ ॥
भगवान्
विश्वेश्वर की महानगरी 'काशी' नामसे प्रसिद्ध है, जहाँ मरणको प्राप्त हुआ पापी
पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाँ गङ्गा
नदी प्राप्त होती हैं और जहाँ साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं। मैं वहीं
तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूँगा, जहाँ दूसरा कोई पर्वत
नहीं है । लता-बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा – ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जाग्रत् हुई
है । २४ - २६॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्नेहसे विह्वल हुए द्रोणाचलके
नेत्रोंमें आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनिसे कहा ॥ २७ ॥
द्रोणाचल
बोला- महामुने ! मैं पुत्र स्नेहसे आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है,
तथापि आपके शापके भयसे भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमें देता हूँ।
(फिर वह पुत्रसे बोला - ) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्षमें
जाओ । वहाँ मनुष्य सत्कर्मोंद्वारा धर्म, अर्थ और काम —
त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोगद्वारा) क्षणभरमें
मोक्ष भी पा लेते हैं ।। २८-२९ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो
योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशामें आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ॥ ३० ॥
पुलस्त्यजी
बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथपर बैठकर सुखपूर्वक चलेचलो। जबतक काशी नहीं आ जाती,
तबतक मैं तुम्हें हाथपर ही ढोये चलूँगा ॥ ३१ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमिपर मुझे एक बार रख देंगे,
वहाँकी भूमिसे मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ॥ ३२ ॥
पुलस्त्यजी
बोले- मैं इस शाल्मलीद्वीपसे लेकर भारतवर्षके कोसलदेशतक तुम्हें कहीं भी रास्तेमें
नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ॥ ३३ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं-नन्दराज ! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेलीपर
आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये । उसे दाहिने हाथपर रखकर पुलस्त्य
मुनि लोगोंको अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डलमें आ पहुँचे ॥ ३४-३५
॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
मंगलवार, 11 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
शैला ऊचुः -
त्वं साक्षात्कृष्णचंद्रस्य परिपूर्णतमस्य च ।
गोलोके गोगणैर्युक्ते गोपीगोपालसंयुते ॥ १३ ॥
त्वं हि गोवर्धनो नाम वृंदारण्ये विराजसे ।
त्वन्नो गिरीणां सर्वेषां गिरिराजोऽसि सांप्रतम् ॥ १४ ॥
नमो वृंदावनाङ्काय तुभ्यं गोलोकमौलिने ।
पूर्णब्रह्मातपत्राय नमो गोवर्धनाय च ॥ १५ ॥
सन्नन्द उवाच -
इति स्तुत्वाथ गिरयो जग्मुः स्वं स्वं गृहं ततः ।
शैलो गिरिवरः साक्षाद्गिरिराज इति स्मृतः ॥ १६ ॥
एकदा तीर्थयायी च पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
द्रोणाचलसुतं श्यामं गिरिं गोवर्धनं वरम् ॥ १७ ॥
माधवीलतिकापुष्पं पलभारसमन्वितम् ।
निर्झरैर्नादितं शान्तं कंदरामंगलायनम् ॥ १८ ॥
तपोयोग्यं रत्नमयं शतशृङ्गं मनोहरम् ।
चित्रधातुविचित्रांगं सटंकं पक्षिसंकुलम् ॥ १९ ॥
मृगैः शाखामृगैर्व्याप्तं मयूरध्वनिमंडितम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां तं ददर्श महामुनिः ॥ २० ॥
तल्लिप्सुर्मुनिशार्दूलो द्रोणपार्श्वं समागतः ।
पूजितो द्रोणगिरिणा पुलस्त्यः प्राह तं गिरिम् ॥ २१ ॥
पुलस्त्य उवाच -
हे द्रोण त्वं गिरिन्द्रोऽसि सर्वदेवैश्च पूजितः ।
दिव्यौषधिसमायुक्तः सदा जीवनदो नृणाम् ॥ २२ ॥
अर्थी तवांतिके प्राप्तः काशीस्थोऽहं महामुनिः ।
गोवर्धनं सुतं देहि नान्यैर्मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ २३ ॥
पर्वत
बोले- तुम साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें,
जहाँ दिव्य गौओंका समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप-
सुन्दरियाँ शोभा पाती हैं, सुशोभित होते हो। तुम्हीं 'गोवर्धन' नामसे वृन्दावनमें विराजते हो, इस समय तुम्हीं हम समस्त पर्वतोंमें 'गिरिराज'
हो। तुम वृन्दावनकी गोद में समोद निवास करनेवाले, गोलोकके मुकुटमणि हो तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके हाथोंमें किसी
विशिष्ट अवसरपर छत्रके समान शोभा पाते हो। तुम गोवर्धनको हमारा सादर नमस्कार है ॥
१३- .१५ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- नन्दराज ! जब इस प्रकार स्तुति करके सब पर्वत अपने-अपने स्थानपर चले गये,
तभीसे यह गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात् 'गिरिराज'
कहलाने लगा है। एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी तीर्थयात्राके लिये
भूतलपर भ्रमण करने लगे। उन महामुनिने द्रोणाचलके पुत्र श्यामवर्णवाले श्रेष्ठ
पर्वत गोवर्धनको देखा, जिसके ऊपर माधवी लताके सुमन सुशोभित
हो रहे थे । वहाँके वृक्ष फलोंके भारसे लदे हुए थे । निर्झरोंके झर-झर शब्द वहाँ
गूँज रहे थे। उस पर्वतपर बड़ी शान्ति विराज रही थी। अपनी कन्दराओंके कारण वह
मङ्गलका धाम जान पड़ता था। सैकड़ों शिखरोंसे सुशोभित वह रत्नमय मनोहर शैल तपस्या
करनेके लिये उपयुक्त स्थान था । विविध रंगकी चित्र-विचित्र धातुएँ उस पर्वतके
अवयवोंमें विचित्र शोभाका आधान करती थीं। उसकी भूमि ढालू (चढ़ाव उतारसे युक्त) थी
और वहाँ नाना प्रकारके पक्षी सब ओर व्याप्त थे। मृग और बंदर आदि पशु चारों ओर फैले
हुए थे। मयूरों की केकाध्वनि से मण्डित गोवर्धन पर्वत मुमुक्षुओं के लिये
मोक्षप्रद प्रतीत होता था ॥ १६-२० ॥
मुनिवर
पुलस्त्य के मन में उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई। इसके लिये वे द्रोणाचल
के समीप गये । द्रोणगिरि ने उनका पूजन - स्वागत-सत्कार किया । इसके बाद पुलस्त्य जी
उस पर्वत से बोले-- ॥ २१ ॥
पुलस्त्यने
कहा- द्रोण ! तुम पर्वतोंके स्वामी हो । समस्त देवता तुम्हारा समादर करते हैं। तुम
दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न और मनुष्योंको सदा जीवन देनेवाले हो। मैं काशीका निवासी
मुनि हूँ और तुम्हारे निकट याचक होकर आया हूँ। तुम अपने पुत्र गोवर्धनको मुझे दे
दो। यहाँ अन्य वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है ॥ २२-२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
सोमवार, 10 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
दूसरा अध्याय (पोस्ट
01)
गिरिराज गोवर्धन की
उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
नन्द उवाच -
हे सन्नन्द महाप्राज्ञ सर्वज्ञोऽसि बहुश्रुतः ।
व्रजमंदलमाहात्म्यं वदतस्ते मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥
गिरिर्गोवर्धनो नाम तस्योत्पत्तिंच मे वद ।
कस्मादेनं गिरिवरं गिरिराजं वदन्ति हि ॥ २ ॥
यमुनेयं नदी साक्षात्कस्मात्लोकात्समागताः ।
तन्माहात्म्यं च वद मे त्वमसि ज्ञानिनां वरः ॥ ३ ॥
सन्नन्द उवाच -
एकदा हस्तिनपुरे भीष्मं धर्मभृतां वरम् ।
पप्रच्छ पाण्डुरित्थं तं जनानां चानुशृण्वताम् ॥ ४ ॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिः गोलोकाधिपतिः प्रभुः ॥ ५ ॥
भुवो भारावताराय गच्छन् देवो जनार्दनः ।
राधां प्राह प्रिये भीरु गच्छ त्वमपि भूतले ॥ ६ ॥
राधोवाच -
यत्र वृंदावनं नास्ति न यत्र यमुना नदी ।
यत्र गोवर्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥ ७ ॥
सन्नन्द उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥ ८ ॥
वेदनागक्रोशभूमिः सापि चात्र समागता ।
चतुर्विंशद्वनैर्युक्ता सर्वलोकैश्च वन्दिता ॥ ९ ॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्न्यां द्रोणाचलस्य च ॥ १० ॥
गोवर्धनोपरि सुराः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
हिमालयसुमेर्वाद्याः शैलाः सर्वे समागताः ॥ ११ ॥
नत्वा प्रदक्षिणीकृत्य पूजां कृत्वा विधानतः ।
गोवर्धनस्य परमां स्तुतिं चक्रुर्महाद्रयः ॥ १२ ॥
नन्दजी
ने पूछा- महाप्राज्ञ सन्नन्दजी ! आप सर्वज्ञ और बहुश्रुत हैं,
मैंने आपके मुख से व्रजमण्डल- के माहात्म्य का वर्णन सुना। अब 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध जो पर्वत है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई— यह मुझे बताइये। इस गिरिश्रेष्ठ गोवर्धनको लोग 'गिरिराज' क्यों कहते हैं ? यह
साक्षात् यमुना नदी किस लोकसे यहाँ आयी है ? उसका माहात्म्य
भी मुझसे कहिये; क्योंकि आप ज्ञानियों के शिरोमणि हैं ।। १-३
॥
सन्नन्दजी
बोले – एक समयकी बात है, हस्तिनापुरमें महाराज
पाण्डुने धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ श्री भीष्मजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उनके उस
प्रश्नको और भीष्मजीद्वारा दिये गये उत्तर को अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे। (उस
समय भीष्मजीने जो उत्तर दिया, वही मैं यहाँ सुना रहा हूँ-)
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण, जो असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके नाथ और सब कुछ करनेमें समर्थ
हैं, जब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वयं इस भूतलपर पधारने
लगे, तब उन जनार्दन देवने अपनी प्राणवल्लभा राधासे
कहा—प्रिये ! तुम मेरे वियोगसे भयभीत रहती थी अतः भीरु ! तुम भी भूतल पर चलो' ॥ ४–६ ॥
श्रीराधाजी
बोलीं- प्राणनाथ ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, जहाँ
यह यमुना नदी नहीं है तथा जहाँ गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहाँ
मेरे मनको सुख नहीं मिल सकता ॥ ७ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं-नन्दराज ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर स्वयं श्रीहरिने अपने धामसे चौरासी
कोस विस्तृत भूमि, गोवर्धन पर्वत और
यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस समय चौरासी कोस विस्तारवाली गोलोककी सर्वलोकवन्दिता
भूमि चौबीस वनोंके साथ यहाँ आयी ॥ ८-९ ॥
गोवर्धन
पर्वतने भारतवर्षसे पश्चिम दिशामें शाल्मलीद्वीपके भीतर द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे
जन्म ग्रहण किया। उस अवसरपर देवताओंने गोवर्धनके ऊपर फूल बरसाये । हिमालय और
सुमेरु आदि समस्त पर्वतों ने वहाँ आकर प्रणाम और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत्
पूजन किया। पूजन के पश्चात् उन महान् पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारम्भ की ।। १०-
१२ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
रविवार, 9 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 05)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 05)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
सन्नन्द उवाच -
आदौ वाराहकल्पेऽस्मिन् हरिर्वाराहरूपधृक् ।
रसातलात्समुद्धृत्य गां बभौ दंष्ट्रया प्रभुः ॥ ४६ ॥
गच्छन्तं वारिवृन्देषु भगवन्तं रमेश्वरम् ।
दंष्ट्राग्रे शोभिता पृथ्वी प्राह देवं जनार्दनम् ॥ ४७ ॥
धरोवाच -
देव कुत्र स्थले त्वं वै स्थापनां मे करिष्यसि ।
जलपूर्णं जगत्सर्वं दृश्यते वद हे प्रभो ॥ ४८ ॥
वाराह उवाच -
यदा वृक्षाः प्रदृष्टा हि भवन्त्युद्वेगता जले ।
तदा ते स्थापना भूयात्पश्यन्ती गच्छ भूरुहान् ॥ ४९ ॥
धरोवाच -
स्थावराणां तु रचना ममोपरि समास्थिता ।
अन्यास्ति किं वा धरणी त्वहं हि धारणामयी ॥ ५० ॥
सन्नन्द उवाच -
वदन्तीत्थं ददर्शाग्रे जले वृक्षान् मनोहरान् ।
वीक्ष्य पृथ्वी हरिं प्राह सर्वतो विगतविस्मया ॥ ५१ ॥
धरोवाच -
देव कस्मिंस्थले वृक्षाः सन्ति ह्येते सपल्लवाः ।
इदं मनसि मे चित्रं वद यज्ञपते प्रभो ॥ ५२ ॥
वाराह उवाच -
माथुरं मंडलं दिव्यं दृश्यतेऽग्रे नितम्बिनि ।
गोलोकभूमिसंयुक्तं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ५३ ॥
सन्नन्द उवाच -
तच्छ्रुत्वा विस्मिता पृथ्वी गतमाना बभूव ह ।
तस्मान्नन्द महाबाहो व्रजोऽयं सर्वतोऽधिकः ॥ ५४ ॥
श्रुत्वेदं व्रजमाहात्म्यं जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
तीर्थराजात्परं विद्धि माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ५५ ॥
सन्नन्द
ने कहा - इसी वाराहकल्प में पहले श्रीहरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़पर उठाकर
रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था । उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में
जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान् रमानाथ जनार्दन से उनकी दंष्ट्रा के अग्रभाग पर
शोभित हुई पृथ्वी बोली ।। ४६-४७ ॥
पृथ्वी
ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताइये,
आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ? ॥ ४८ ॥
भगवान्
वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जलमें उद्वेगका भाव प्रकट हो,
तब उसी स्थानपर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षोंको देखती चलो ॥
४९ ॥
पृथ्वीने
कहा- भगवन् ! स्थावर वस्तुओंकी रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है। क्या कोई दूसरी भी
धरणी है ?
धारणामयी धरणी तो केवल मैं ही हूँ ॥ ५० ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं— यों कहती हुई पृथ्वीने अपने सामने जलमें मनोहर वृक्ष देखे। उन्हें देखकर
पृथ्वीका अभिमान दूर हो गया और वह भगवान्से बोली- 'देव ! किस स्थलपर ये पल्लवसहित वृक्ष विद्यमान हैं ? यह दृश्य मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य पैदा कर रहा है । यज्ञपते ! प्रभो !
इसका रहस्य बताइये ॥ ५१-५२ ॥
भगवान्
वराह बोले- नितम्बिनि ! यह सामने दिव्य 'माथुर-मण्डल'
दिखायी देता है, जो गोलोककी धरतीसे जुड़ा हुआ
है। प्रलयकालमें भी इसका संहार नहीं होता ॥ ५३ ॥
सन्नन्द
बोले- यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा विस्मय हुआ । वह अभिमानशून्य हो गयी । अतः महाबाहु
नन्द ! यह व्रजमण्डल समस्त लोकोंसे अधिक महत्त्वशाली है। व्रजका यह माहात्म्य
सुनकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। तुम 'माथुर
व्रजमण्डल' को तीर्थराज प्रयागसे भी उत्कृष्ट समझो ॥ ५४-५५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'वृन्दावन में आगमन के उद्योग का वर्णन' नामक पहला
अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)
शनिवार, 8 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 04)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 04)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
श्रीनारद उवाच -
तीर्थैः प्रपूजितस्त्वं वै तीर्थराज महातपः ।
तुभ्यं च सर्वतीर्थानि मुख्यानीह बलिं ददुः ॥ ३४ ॥
व्रजाद्वृंदावनादीनि नागतानीह ते पुरः ।
तीर्थानां राजराजस्त्वं प्रमत्तैस्तैस्तिरस्कृतः ॥ ३५ ॥
इति प्रभाष्य तं साक्षाद्गते देवर्षिसत्तमे ।
तीर्थराजस्तदा क्रुद्धो हरिलोकं जगाम ह ॥ ३६ ॥
नत्वा हरिं परिक्रम्य पुरः स्थित्वा कृतांजलिः ।
सर्वतीर्थैः परिवृतः श्रीनाथं प्राह तीर्थराट् ॥ ३७ ॥
तीर्थराज उवाच -
हे देवदेव प्राप्तोऽहं तीर्थराजस्त्वया कृतः ।
बलिं ददुर्मे तीर्थानि मथुरामंडलं विना ॥ ३८ ॥
प्रमत्तैर्व्रजतीर्थैश्च तैरहं तु तिरस्कृतः ।
तस्मात्तुभ्यं च कथितं प्राप्तोऽहं तव मंदिरे ॥ ३९ ॥
श्रीभगवानुवाच -
धरायां सर्वतीर्थानां त्वं कृतस्तीर्थराण्मया ।
किंतु स्वस्य गृहस्यापि न कृतो राट् त्वमेव हि ॥ ४० ॥
किं त्वं मे मंदिरं लिप्सुः मत्तवद्भाषसे वचः ।
तीर्थराज गृहं गच्छ शृणु वाक्यं शुभं च मे ॥ ४१ ॥
मथुरामंडलं साक्षान्मंदिरं मे परात्परम् ।
लोकत्रयात्परं दिव्यं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ४२ ॥
सन्नन्द उवाच -
इति श्रुत्वा तीर्थराजो विस्मितोऽभूद्गतस्मयः ।
आगत्य नत्वा संपूज्य माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४३ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वधाम गतवान् पुनः ।
धराया मानभंगार्थं पूर्वमेतत्प्रदर्शितम् ।
मया तवाग्रे कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
नंद उवाच -
धराया मानभङ्गार्थं केन पूर्वं प्रदर्शितम् ।
एतन्मे वद गोपेश माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४५ ॥
श्रीनारदजीने
कहा— महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चय ही तुम समस्त तीर्थोंद्वारा विशेषरूपसे पूजित
हुए हो,
तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थोंने यहाँ आकर भेंट समर्पित की है;
परंतु व्रजके वृन्दावनादि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये। तुम
तीर्थोके राजाधिराज हो, व्रज के प्रमादी तीर्थ ने यहाँ न आकर
तुम्हारा तिरस्कार किया है ।। ३४-३५ ॥
सन्नन्द
कहते हैं—यों कहकर साक्षात् देवर्षि- शिरोमणि नारदजी वहाँ से चले गये। तब तीर्थराज
के मन में बड़ा क्रोध हुआ और वे उसी क्षण श्रीहरि के लोक में गये । श्रीहरिको
प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके सम्पूर्ण तीर्थोंसे घिरे हुए तीर्थराज हाथ जोड़कर
भगवान्के सामने खड़े हुए और उन श्रीनाथसे बोले ।। ३६-३७ ।।
तीर्थराज
ने कहा— देवदेव ! मैं आपकी सेवामें इसलिये आया हूँ कि आपने तो मुझे 'तीर्थराज' बनाया और समस्त तीर्थों ने मुझे भेंट दी,
किंतु मथुरामण्डल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये उन प्रमादी
व्रजतीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात आपसे कहने के लिये मैं आपके
मन्दिर में आया हूँ ।। ३८-३९ ।।
श्रीभगवान्
बोले—मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थोंका राजा - 'तीर्थराज' अवश्य बनाया है; किंतु
अपने घरका भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं
हुई है ! फिर तुम तो मेरे गृहपर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुषके
समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ और
मेरा यह शुभ वचन सुन लो । मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता ।।
४०-४२ ॥
सन्नन्द
कहते हैं - यह सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए। उनका सारा अभिमान गल गया। फिर
वहाँ से आकर उन्होंने मथुराके व्रजमण्डलका पूजन और उसकी परिक्रमा करके अपने
स्थानको पदार्पण किया। पृथ्वीका मानभङ्ग करनेके लिये यह व्रजमण्डल पहले दिखाया गया
था। मैंने ये सारी बातें तुम्हारे सामने कहीं, अब
और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४३-४४ ॥
नन्दजीने
पूछा—गोपेश्वर ! किसने पहले पृथ्वी का मानभङ्ग करनेके लिये इस व्रजमण्डल को
दिखलाया था, यह मुझे बताइये ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)
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