बुधवार, 3 जुलाई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

रजस्तमोभ्यां आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया धीरो हंति या तत्कृतं मलम् ॥ २० ॥
यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१ ॥

राजोवाच ॥
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२ ॥

श्रीशुक उवाच ।
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेंद्रियः ।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद् धिया ॥ २३ ॥
विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४ ॥
अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५ ॥

यदि भगवान्‌ का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योगधारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंलमय आश्रय (भगवान्‌)को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है॥२१॥
परीक्षित्‌ ने पूछा—ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्‌के स्थूल रूपमें लगाना चाहिये ॥ २३ ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सबका-सब-जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्‌ का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ॥ २४ ॥ जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान्‌ हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 2 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

सुन्दरं तु तव रूपमेव हि
     मन्मथस्य मनसो हरं परम्
आविरस्तु मम नेत्रयोः सदा
     श्यामलं मकरकुण्डलावृतम् ॥ १८ ॥
वैकुण्ठलीलाप्रवरं मनोहरं
     नमस्कृतं देवगणैः परं वरम् ।
गोपाललीलाभियुतं भजाम्यहं
     गोलोकनाथं शिरसा नमाम्यहम् ॥ १९ ॥
युक्तं वसन्तकलकण्ठविहंगमैश्च
     सौगन्धिकं त्वरणपल्लवशाखिसंगम् ।
वृन्दावनं सुधितधीरसमीरलीलं
     गच्छन् हरिर्जयति पातु सदैव भक्तान् ॥ २० ॥
हरति कमलमानं लोलमुक्ताभिमानं
     धरणिरसिकदानं कामदेवस्य बाणम् ।
श्रवणविदितयानं नेत्रयुग्मप्रयाणं
     भज यदुत समक्षं दानदक्षं कटाक्षम् ॥ २१ ॥
शरच्चन्द्राकारं नखमणिसमूहं सुखकरं
     सुरक्तं हृत्पूर्णं प्रकटिततमःखण्डनकरम् ।
भजेऽहं ब्रह्माण्डेसकलनरपापाभिदलनं
     हरेर्विष्णोर्देवैर्दिवि भरतखण्डे स्तुतमलम् ॥ २२ ॥
महापद्मे किं वा परिधिरिव चाभाति सततं
     कदादित्यस्फूर्जद्‌रथचरण इत्थं ध्वनिधरः ।
यथा न्यस्तं चक्रं शतकिरणयुक्तं तु हरिणा
     स्फुरच्छ्रीमञ्जीरं हरिचरणपद्मे त्वधिगतम् ॥ २३ ॥
कट्यां पीताम्बरं दिव्यं क्षुद्रघण्टिकयाऽन्वितम् ।
भजाम्यहं चित्तहरं कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ २४ ॥

आपका परम सुन्दर रूप मन्मथ के मन को भी हरनेवाला है। मेरे नेत्रों में सर्वदा मकरकुण्डलधारी श्यामकलेवर श्रीकृष्णके उस रूपका प्रकाश होता रहे। जिनकी लीला वैकुण्ठ - लीलाकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और जिनके परम श्रेष्ठ मनोहर रूपको देवगण भी नमस्कार करते हैं, उन गोपलीलाकारी गोलोकनाथको मैं मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ । वसन्तकालीन सुन्दर कण्ठ- वाले कोकिलादि पक्षियोंसे युक्त, सुगन्धित, नवीन पल्लवयुक्त वृक्षोंसे अलंकृत, सुधाके समान शीतल, धीर (मन्द) पवनकी क्रीड़ासे सुशोभित वृन्दावनमें विचरण करनेवाले श्रीकृष्णकी जय हो ! वे सदा भक्तों की रक्षा करें ॥। १ – २० ॥

 

"आपके कान तक फैले हुए विशाल नेत्र तथा उनकी तिरछी चितवन कमलपुष्पोंका मान और झूलते हुए मोतियों का अभिमान दूर करनेवाली है, भूतल के समस्त रसिकों- को रस का दान करती है तथा कामदेवके बाणोंके समान पैनी एवं प्रीतिदान में निपुण है। जिनकी नखमणियाँ शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुखकर, सुरक्त, हृदयग्राहिणी, गाढ़ अन्धकार का नाश करनेवाली और जगत् के समस्त प्राणियोंके पापोंका ध्वंस करनेवाली हैं तथा स्वर्ग में देवमण्डली जिनका श्रीविष्णु एवं हरि की नखावली के रूप में स्तवन करती है, मैं उनकी आराधना करता हूँ ।। २१-२२ ॥

 

आपके पादपद्मों की सर्वदा बजनेवाली, श्रीहरि के सैकड़ों किरणोंसे युक्त (सुदर्शन) चक्र के समान आकारवाली पैजनियाँ ऐसी हैं, जिनसे गोल घेरे की भाँति किरणें इस प्रकार निकलती हैं, जैसे सूर्य के प्रकाशयुक्त रथचक्र की परिधि हो, अथवा जो आपके पादपद्मों की परिधि के समान सुशोभित हैं। आपकी कमर में छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त दिव्य पीताम्बर जगमगा रहा है । मैं अक्लिष्टकर्मा भगवान् श्रीकृष्ण (आप) के उस मनोहर रूपकी आराधना करता हूँ ।। २३-२४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः ॥ १२ ॥
खट्वाङ्गो नाम राजर्षिः ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात् सर्वं उत्सृज्य गतवान् अभयं हरिम् ॥ १३ ॥
तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः ।
उपकल्पय तत्सर्वं तावद् यद् सांपरायिकम् ॥ १४ ॥
अंतकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्याद् असङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम् ॥ १५ ॥
गृहात् प्रत्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत् कल्पितासने ॥ १६ ॥
अभ्यसेन् मनसा शुद्धं त्रिवृद् ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजं अविस्मरन् ॥ १७ ॥
नियच्छेद् विषयेभ्योऽक्षान् मनसा बुद्धिसारथिः ।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेत् धिया ॥ १८ ॥
तत्रैकावयवं ध्यायेत् अव्युच्छिन्नेन चेतसा ।
मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत् ।
पदं तत्परमं विष्णोः मनो यत्र प्रसीदति ॥ १९ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) अपने कल्याण- साधन की ओर से असावधान रहनेवाले पुरुषकी वर्षों लम्बी आयु भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानीसे ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है ॥ १२ ॥ राजर्षि खट्वाङ्ग अपनी आयुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्‌ के अभयपद को प्राप्त हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! अभी तो तुम्हारे जीवनकी अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ॥ १४ ॥ मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति ममताको काट डाले ॥ १५ ॥ धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे। प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ॥ १७ ॥ बुद्धिकी सहायतासे मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले। और कर्मकी वासनाओंसे चञ्चल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान्‌ के मङ्गलमय रूपमें लगाये ॥ १८ ॥ स्थिर चित्तसे भगवान्‌ के श्रीविग्रहमें से किसी एक अङ्गका ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक अङ्गका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूपसे भगवान्‌में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान्‌ विष्णुका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है॥१९॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 1 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

दुःखं सुखञ्च मनसा प्रभवञ्च सुप्ते
     मिथ्या भवेत्पुनरहो भुवि जागरेऽस्य ।
इत्थं विवेकघटितस्य जनस्य सर्वं
     स्वप्नभ्रमादृतजगत्सततं भवेद्धि ॥ ९ ॥
ज्ञानी विसृज्य ममतामभिमानयोगं
     वैराग्यभावरसिकः सततं निरीहः ।
दीपेन दीपकशतञ्च यथा प्रजातं
     पश्येत् तथाऽऽत्मविभवं भुवि चैकतत्त्वम् ॥ १० ॥
भक्तो भजेदजपतिं हृदि वासुदेवं
     निर्धूमवह्निरिव मुक्तगुणस्वभावः ।
पश्यन् घटेषु सजलेषु यथेन्दुमेकं
     एतादृशः परमहंसवरः कृतार्थः ॥ ११ ॥
स्तुवन्ति वेदाः सततञ्च यं सदा
     हरेर्महिम्नः किल षोडशीं कलाम् ।
कदापि जानन्ति न ते त्रिलोके
     वक्तुं गुणांस्तस्य जनोऽस्ति कः परः ॥ १२ ॥
वक्त्रैश्चतुर्भिस्त्वहमेव देवः
     श्रीपञ्चवक्त्रः किल पञ्चवक्त्रैः ।
सहस्रशीर्षास्तु सहस्रवक्त्रैः
     य स्तौति सेवां कुरुते च तस्य ॥ १३ ॥
विष्णुश्च वैकुण्ठनिवासकृच्च
     क्षिरोदवासी हरिरेव साक्षात् ।
नारायणो धर्मसुतस्तथापि
     गोलोकनाथं भजते भवन्तम् ॥ १४ ॥
अहोऽतिधन्यो महिमा मुरारे-
     र्जानन्ति भूमौ मुनयो न मानवाः ।
सुरासुरा वा मनवो बुधाः पुनः
     स्वप्नेऽपि पश्यन्ति न तत्पदद्वयम् ॥ १५ ॥
वरं हरिं गुणाकरं सुमुक्तिदं परात्परम् ।
रमेश्वरं गुणेश्वरं व्रजेश्वरं नमाम्यहम् ॥ १६ ॥
ताम्बूलसुन्दरमुखं मधुरं ब्रुवन्तं
     बिम्बाधरं स्मितयुतं सितकुन्ददन्तम् ।
नीलालकावृतकपोलमनोहराभं
     वन्दे चलत्कनककुण्डलमण्डनार्हम् ॥ १७ ॥

सुख एवं दुःख मनसे उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्थामें वे लुप्त हो जाते हैं और जागनेपर पुनः उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकारका विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत् निरन्तर स्वप्नावस्थाके भ्रमके समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमानका त्याग करके सदा वैराग्यसे प्रीति करनेवाले तथा शान्त होते हैं। जैसे एक दियेसे सैकड़ों दिये उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक परमात्मासे सब कुछ उत्पन्न हुआ है — ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी रहती है ॥

भक्त निर्धूम अग्निशिखाकी भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदयमें ब्रह्माके भी स्वामी भगवान् वासुदेवका भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्बको अनेकों घड़ोंके जल में देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा के एकत्व का दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं ।। ९-११ ॥

 

निरन्तर स्तवन करते रहनेपर भी वेद जिनके माहात्म्यके षोडशांशका भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके, तब त्रिलोकीमें उन श्रीहरिके गुणोंका वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है ? मैं चार मुखोंसे, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखोंसे तथा हजार मुखवाले शेषजी अपने सहस्र मुखोंसे जिनकी स्तुति सेवा करते हैं; वैकुण्ठनिवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात् हरि और धर्मसुत नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं ।। १२-१४ ॥

 

अहा ! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है । भूतलपर उस महिमा को न मुनिगण जानते हैं न मनुष्य ही । सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जाननेमें असमर्थ हैं। ये सब स्वप्नमें भी आपके चरणकमलों के दर्शन पानेमें असमर्थ हैं। गुणोंके सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, व्रजेश्वर श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ । ताम्बूल-रागरञ्जित सुन्दर मुखसे सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए बिम्बफलके समान लाल-लाल अधरोंवाले, स्मिताहास्ययुक्त, कुन्दकलीके समान शुभ्र दन्तपंक्तिसे जगमगाते हुए, नील अलकोंसे आवृत्त कपोलोंवाले, मनोहर - कान्ति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलोंसे मण्डित श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।। १५-१७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिषेधतः ।
नैर्गुण्यस्था रमंते स्म गुणानुकथने हरेः ॥ ७ ॥
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम् ॥ ८ ॥
परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया ।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यत् अधीतवान् ॥ ९ ॥
तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान् मुकुंदे मतिः सती ॥ १० ॥
एतन्निर्विद्यमानानां इच्छतां अकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम् ॥ ११ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) परीक्षित्‌ ! जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित हैं एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि- मुनि भी प्राय: भगवान्‌ के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते हैं ॥ ७ ॥ द्वापरके अन्तमें इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था ॥ ८ ॥ राजर्षे ! मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराणका अध्ययन किया ॥ ९ ॥ तुम भगवान्‌ के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ॥ १० ॥ जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत संसारमें दु:खका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपदको प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों के लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही निर्णय है कि वे भगवान्‌के नामोंका प्रेमसे सङ्कीर्तन करें ॥ ११ ॥ 

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रविवार, 30 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

ब्रह्मोवाच -
कृष्णाय मेघवपुषे चपलाम्बराय
     पियूषमिष्टवचनाय परात्पराय ।
वंशीधराय शिखिचंद्रिकयान्विताय
     देवाय भ्रातृसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १ ॥
कृष्णस्तु साक्षात्पुरुषोतमः स्वयं
     पूर्णः परेशः प्रकृतेः परो हरिः ।
यस्यावतारांशकला वयं सुरा
     सृजाम विश्वं क्रमतोऽस्य शक्तिभिः ॥ २ ॥
स त्वं साक्षात्कृष्णचन्द्रावतारो
     नन्दस्यापि पुत्रतामागतः कौ ।
वृन्दारण्ये गोपवेशेन वत्सान्
     गोपैर्मुख्यैश्चारयन् भ्राजसे वै ॥ ३ ॥
हरिं कोटिकन्दर्पलीलाभिरामं
     स्फुरत्कौस्तुभं श्यामलं पीतवस्त्रम् ।
व्रजेशं तु वंशीधरं राधिकेशं
     परं सुन्दरं तं निकुंजे नमामि ॥ ४ ॥
तं कृष्णं भज हरिमादिदेवमस्मिन्
     क्षेत्रज्ञं कमिव विलिप्तमेघमेव ।
स्वच्छाङ्‌गं परमधियाज्ञचैत्यरूपं
     भक्त्याद्यैर्विशदविरागभावसंघैः ॥ ५ ॥
यावन्मनश्च रजसा प्रबलेन विद्वन्
     संकल्प एव तु विकल्पक एव तावत् ।
ताभ्यां भवेन्मनसिजस्त्वभिमानयोग-
     स्तेनापि बुद्धिविकृतिं क्रमतः प्रयान्ति ॥ ६ ॥
विद्युद्‌द्युतिस्त्वृतुगुणो जलमध्यरेखा
     भूतोल्मुकः कपटपान्थरतिर्यथा च ।
इत्थं तथाऽस्य जगतस्तु सुखं मृषेति
     दुःखावृतं विषयघूर्णमलातचक्रम् ॥ ७ ॥
वृक्षा जलेन चलतापि चला इवात्र
     नेत्रेण भूरिचलितेन चलेव भूश्च ।
एवं गुणः प्रकृतिजैर्भ्रमतो जनस्थं
     सत्यं वदेद्‌गुणसुखादिदमेव कृष्ण ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले – “मेघकी-सी कान्तिसे युक्त विद्युत्-वर्णका वस्त्र धारण करनेवाले, अमृत तुल्य मीठी वाणी बोलनेवाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर पिच्छको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको उनके भ्राता बलरामसहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात् स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण परमेश्वर, प्रकृतिसे अतीत श्रीहरि हैं । हम देवता जिनके अंश और कलावतार हैं, जिनकी शक्तिसे हमलोग क्रमशः विश्वकी सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात् कृष्णचन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होकर धराधामपर नन्दका पुत्र होना स्वीकार किया है। आप प्रधान- प्रधान गोप-बालकोंके साथ गोपवेषसे वृन्दावनमें गोचारण करते हुए विराज रहे हैं। करोड़ों कामदेवके समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर, व्रजेश, राधिकापति, निकुञ्ज-विहारी परमसुन्दर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ।। १-४ ॥

 

जो मेघ से निर्लिप्त आकाश के समान प्राणियों की देह में क्षेत्रज्ञ रूपसे स्थित हैं, जो अधियज्ञ एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावों से प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरि की मैं वन्दना करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मनमें प्रबल रजोगुण का उदय होता है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है संकल्प - विकल्पके वशीभूत मन में ही अभिमान की उत्पत्ति होती है और वही अभिमान धीरे-धीरे बुद्धिको विकृत कर देता है ।। ५-६ ॥

 

क्षणस्थायी बिजली के समान, बदलते हुए ऋतुगुणों के समान, जलपर खींची गयी रेखा के समान, पिशाच के द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारों के समान और कपटी यात्री की प्रीति के समान जगत् के सुख मिथ्या हैं। विषय-सुख दुःखोंसे घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत् (जलते हुए अंगारको वेगसे चक्राकार घुमानेपर जो क्षणस्थायी वृत्त बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते हुए भी, जलके चलनेके कारण चलते हुए-से दीखते हैं, नेत्रोंको वेगसे घुमानेपर अचल पृथ्वी भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण ! उसी प्रकार प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके वशमें होकर भ्रान्त जीव उस प्रकृतिजन्य सुखको सत्य मान लेता है ।। ७-८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण -द्वितीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।

वरीयान् एष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप ।
आत्मवित् सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ १ ॥
श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः ।
अपश्यतां आत्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥ २ ॥
निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुंबभरणेन वा ॥ ३ ॥
देहापत्यकलत्रादिषु आत्मसैन्येष्वसत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४ ॥
तस्माद्‍भारत सर्वात्मा भगवान् ईश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥ ५ ॥
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसां अंते नारायणस्मृतिः ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! तुम्हारा लोकहितके लिये किया हुआ यह प्रश्न  बहुत ही उत्तम है। मनुष्योंके लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करनेकी हैं, उन सबमें यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्रका बड़ा आदर करते हैं ॥ १ ॥ राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घरके काम-धंधोंमें उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ॥ २ ॥ उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसङ्गसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषणमें समाप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ॥ ४ ॥ इसलिये परीक्षित्‌ ! जो अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य-जन्म का यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान्‌ की स्मृति अवश्य बनी रहे ॥ ६ ॥ 

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शनिवार, 29 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

वत्सपालापहरणात् किमभूज्जगत. पतेः ।

हो खद्योतवद्वधा श्रीकृष्णरविसम्मुखे || ३७

एवं विमुह्यति सति जडीभूते च ब्रह्मणि ।

स्वमायां कृपयाकृष्य कृष्णः स्वं दर्शनं ददौ ॥ ३८

एवं तत्र सकृद् ब्रह्मा गोवत्सान् गोपदारकान् ।

सर्वानाचष्ट श्रीकृष्णं भक्त्या विज्ञानलोचनैः || ३९

ददर्शाथ विधिस्तत्र बहिरन्त शरीरतः ।

स्वात्मना सहितं राजन् सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ ४०

एवं विलोक्य ब्रह्मा तु जडो भूत्वा स्थिरोऽभवत् ।

वृन्दावद् वृन्दारण्ये प्रदृश्येत यथा तथा ।। ४१

स्वात्मनो महिमां द्रष्टुं नीशेऽपि च ब्रह्मणि ।

चच्छाद सपदि ज्ञात्वा मायाजवनिकां हरिः ॥ ४२

ततः प्रलब्धनयनः स्रष्टा सुप्त इवोत्थितः,

उन्मील्य नयने कृच्छ्राद्ददर्शेद सहात्मना ॥ ४३

समाहितस्तत्र भूत्वा सद्योऽपश्यद्दिशो दश ।

श्रीमद्बृन्दावनं रम्यं वासन्तीलतिकान्वितम् ॥ ४४

शार्दूलबालकैर्यत्र क्रीडन्ति मृगबालकाः ।

श्येनैः कपोता नकुलै. सर्पा वैरविवर्जिताः ॥ ४५

ततश्च वृन्दकारण्ये सपाणिकवलं विधिः ।

वत्सान् सखीन् विचिन्वन्तमेकं कृष्णं ददर्श सः ॥ ४६

दृष्ट्वा गोपालवेषेण गुप्तं गोलोकवल्लभम् ।

ज्ञात्वा साक्षाद्धरि ब्रह्मा भीतोऽभूत् स्वकृतेन च ॥ ४७

तं प्रसादयितुं राजन् ज्वलन्तं सर्वतो दिशम् ।

लज्जयावाङ्मुखो भूत्वा ह्यवतीर्य स्ववाहनात् ॥ ४८

शनैरुपससारेशं प्रसीदेति वदन् नमन् ।

स्रवद्वर्षात्ताः स षपाताथ दण्डवत् ॥ ४९

उत्थाप्याश्वास्य तं कृष्णः प्रियं प्रिय इव स्पृशन् ।

सुरान् सुभुवि दूरस्थानालुलोक सुधार्द्रटक ॥ ५०

ततो जयजयेत्युच्चैः स्तुवतां नमतां समम् ।

तहयादृष्टदृष्टानां सानन्दः सम्भ्रमोऽभवत् ॥ ५१

दृष्ट्वा हरिं तत्र समास्थितं विधि

र्ननाम भक्तमनाः कृताञ्जलिः ।

स्तुति चकाराशु स दण्डवल्लुठन्

प्रहृष्टरोमा भुवि गद्मदातरः || ५२

 

गोप-बालकों के हरण से जगत्पति की तो कुछ हानि हुई नहीं, अपितु श्रीकृष्णरूप सूर्यके सम्मुख ब्रह्माजी ही जुगनू से दीखने लगे। ब्रह्माके इस प्रकार मोहित एवं जडीभूत हो जानेपर श्रीकृष्णने कृपापूर्वक अपनी मायाको हटाकर उनको अपने स्वरूपका दर्शन कराया। भक्तिके द्वारा ब्रह्माजीको ज्ञाननेत्र प्राप्त हुए । उन्होंने एक बार गोवत्स एवं गोप-बालक—सबको श्रीकृष्णरूप देखा । राजन् ! ब्रह्माजीने शरीरके भीतर और बाहर अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को विष्णुमय देखा ॥ ३ – ४० ॥

 

इस प्रकार दर्शन करके ब्रह्माजी तो जडताको प्राप्त होकर निश्चेष्ट हो गये। ब्रह्माजीको वृन्दादेवी द्वारा अधिष्ठित वृन्दावनमें जहाँ-तहाँ दीखनेवाली भगवान्- की महिमा देखनेमें असमर्थ जानकर श्रीहरिने मायाका पर्दा हटा लिया ।। ४१-४२ ॥

 

तब ब्रह्माजी नेत्र पाकर, निद्रा से जगे हुए की भाँति उठकर, अत्यन्त कष्ट से नेत्र खोलकर अपनेसहित वृन्दावन को देखने में समर्थ हुए। वहाँपर वे उसी समय एकाग्र होकर दसों दिशाओं में देखने लगे और वसन्तकालीन सुन्दर लताओं से युक्त रमणीय श्रीवृन्दावन का उन्होंने दर्शन किया ।। ४३-४४ ॥

 

वहाँ बाघके बच्चोंके साथ मृग शावक खेल रहे थे। बाज और कबूतरमें, नेवला और साँपमें वहाँ जन्मजात वैरभाव नहीं था। ब्रह्माजीने देखा कि एकमात्र श्रीकृष्ण ही हाथमें भोजनका कौर लिये हुए प्यारे गोवत्सोंको वृन्दावनमें ढूँढ़ रहे हैं। गोलोकपति साक्षात् श्रीहरिको गोपाल-वेषमें अपनेको छिपाये हुए देखकर तथा ये साक्षात् श्रीहरि हैं - यह पहचानकर ब्रह्माजी अपनी करतूतको स्मरण करके भयभीत हो गये ।। ४५-४७ ॥

 

राजन् ! उन चारों ओर प्रज्वलित दीखनेवाले श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्माजी अपने वाहनसे उतरे और लज्जाके कारण उन्होंने सिर नीचा कर लिया। वे भगवान्‌को प्रणाम करते हुए और 'प्रसन्न हों - यह कहते हुए धीरे-धीरे उनके निकट पहुँचे। यों भगवान्- को अपनी आँखों से झरते हुए हर्ष के आँसुओं का अर्ध्य देकर दण्ड की भाँति वे भूमिपर गिर पड़े ।।४८-४९ ॥

 

भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको उठाकर आश्वस्त किया और उनका इस प्रकार स्पर्श किया, जैसे कोई प्यारा अपने प्यारेका स्पर्श करे । तत्पश्चात् वे सुधासिक्त दृष्टिसे उसी सुन्दर भूमिपर दूर खड़े देवताओंकी ओर देखने लगे। तब वे सभी उच्चस्वरसे जय-जयकार करते हुए उनका स्तवन करने लगे । साथ-साथ प्रणाम भी करने लगे। श्रीकृष्णकी दयादृष्टि पाकर सभी आनन्दित हुए और उनके प्रति आदरसे भर गये ।। ५०-५१ ॥

 

 ब्रह्माजीने भगवान्‌ को उस स्थानपर देखकर भक्तियुक्त मनसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रोमाञ्चित होकर दण्डकी भाँति वे भूमिपर गिर पुनः वे गद्गद वाणीसे भगवान्‌ का स्तवन लगे ॥ ५२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

परीक्षित्‌ का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

अन्यथा तेऽव्यक्तगतेः दर्शनं नः कथं नृणाम् ।
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः ॥ ३६ ॥
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ३७ ॥
यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो ।
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ३८ ॥
नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
न लक्ष्यते ह्यवस्थानं अपि गोदोहनं क्वचित् ॥ ३९ ॥

सूत उवाच ।

एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ।
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ४० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्युके समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते ॥ ३६ ॥ आप योगियोंके परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धिके स्वरूप और साधनके सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ? ॥ ३७ ॥ भगवन् ! साथ ही यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? ॥ ३८ ॥ भगवत्स्वरूप मुनिवर ! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थों के घरपर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ॥ ३९ ॥

सूतजी कहते हैं—जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

इति प्रथम स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 28 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

एवं प्रेमपरान् सर्वान् दृष्ट्वा सङ्कर्षणो बल. ।

बहुप्रकारं सन्देहं कृत्वा मनसि सोऽब्रवीत् ॥ १९

हो कि वत्सरात् प्राप्तो न ज्ञातोऽपि व्रजे मया ।

तिस्नेहस्तु सर्वेषा वर्द्धते च दिने दिने ॥ २०

केयं माया समायाता देवगन्धर्वरक्षसाम् ।

नान्या मे मोहिनी माया विना कृष्णस्य साम्प्रतम् ॥ २१

एव' विचार्य रामस्तु लोचने स्वे न्यमीलयन् ।

भूतं भव्यं भविष्यञ्च दिव्यात्ताभ्यां ददर्श ह || २२

सर्वान् वत्साँस्तथा गोपान् व' शीवेत्रविभूषितान् ।

बहिंपक्षधरान् श्यामान् भृग्वङ्घ्रिकृत कौतुकान् ॥ २३

जालकाना मणीनाञ्च गुञ्जानां स्रग्भिरेव च ।

पद्मानां कुमुदानाच ह्येषां स्रग्भिर्विभूषितान् ॥ २४

उष्णीषैर्मुकुटैर्दिव्यैः कुण्डलैरलकैव तान् ।

आनन्दवर्षान् कुर्वाणान् शरत्पद्मदृशैरपि ॥ २५

कोटिकन्दर्प लावण्यान् नासामौक्तिकशोभितान् ।

शिखाभूषणसंयुक्तान् पाणिभूषणभूषितान् ।। २६

द्विभुजान् पीतवस्त्रश्च का चीकटकनूपुरै ।

प्रभातरविकोटीना शोभाभि शोभितान् शुभान् ॥ २७

उत्तरे गिरिराजस्य यमुनायाश्च दक्षिणे ।

आष्ट वृन्दारण्ये सर्वान् कृष्णं हलायुध. ॥ २८

ज्ञात्वा कृष्णकृतं कर्म तथा विधिकृतं बलः ।

पुनवेत्सान् वत्सपाश्च पश्यन् कृष्णमुवाच ह ॥ २९

ब्रह्मानन्तो धर्म इन्द्र. शिवश्च

सेवन्ते तं भक्तियुक्ताः सदैते ।

स्वात्माराम पूर्णकाम: परेश

स्रष्टुं शक्तः कोटिशोऽण्डानि यः खे ॥ ३०

 

नारद उवाच

एवं ब्रुवति श्रीरामे तावत्तत्रागतो विधिः ।

ददर्श कृष्णं रामञ्च वत्सकैर्वत्सपैः समम् ॥ ३१

हो कृष्णेन चानीता यत्र सर्वे धृता मया ।

इति ब्रुवन् ययौ स्थाने तत्र सर्वान् ददर्श सः ॥ ३२

दृष्ट्वा प्रसुप्तान् सर्वास्तु स श्रागत्य व्रजे पुनः ।

वत्सपालैर्हरि वीक्ष्य मनसि प्राह विस्मितः ॥ ३३

विचित्र ये सर्वे कुत्र स्थानात् समागताः ।

क्रीडन्तो पूर्ववञ्चात्र सार्क कृष्णोन क्रीडनै ॥ ३४

मत्त्रुटिवत्सरश्चैको व्यतीतोऽभून्महीतले ।

सर्वे प्रसन्नतां प्राप्ता न ज्ञातः केनचित् कचित् ॥ ३५

एवं संमोहयन् ब्रह्मा मोहनं विश्वमोहनम् ।

स्वमाययान्धकारेण स्वगात्र नैव दृष्टवान् ॥ ३६

 

संकर्षण बलराम ने इस प्रकार जब गोपों को प्रेम- परायण देखा, तब उनके मन में अनेक प्रकार के संदेह उठने लगे। उन्होंने मन-ही-मन कहा – 'अहा ! प्रायः एक वर्ष से व्रज में क्या हो गया है, वह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सब के हृदयों का स्नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है । क्या यह देवताओं, गन्धर्वों या राक्षसोंकी माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करने वाली कृष्णकी माया से भिन्न और कुछ नहीं है ।।१९-२१ ॥

 

इस प्रकार विचार करके बलरामजी- ने अपने नेत्र बंद कर लिये और दिव्यचक्षुसे भूत, भविष्य तथा वर्तमानको देखा। बलरामजीने समस्त गोवत्स एवं पहाड़की तलहटीमें खेलनेवाले गोप- बालकोंको वंशी - वेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं गुञ्जाफलोंकी मालासे शोभित, कमल एवं कुमुदिनीकी मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों एवं अलकावली- से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रोंसे निहारकर आनन्द देनेवाले, करोड़ों कामदेवोंकी शोभासे सम्पन्न, नासिकास्थित मुक्ताभरणसे अलंकृत, शिखा- भूषणसे युक्त, दोनों हाथोंमें आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला, कड़े और नूपुरसे शोभित, करोड़ों बाल-रवियोंकी प्रभासे युक्त और मनोहर देखा ।।२२-२७॥

 

बलरामजीने गोवर्धनसे उत्तर की ओर एवं यमुनाजीसे दक्षिणकी ओर स्थित वृन्दावनमें सब कुछ कृष्णमय देखा । वे इस कार्यको ब्रह्माजी और श्रीकृष्णका किया हुआ जानकर पुनः गोवत्सों एवं वत्सपालोंका दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसे बोले— 'ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्ति युक्त होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्यमें करोड़ों ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ हो' ॥ २८ - ३० ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- जिस समय बलरामजी यों कह रहे थे, उसी समय ब्रह्माजी वहाँ आये और उन्होंने गोवत्सों एवं गोप-बालकोंके साथ बलरामजी एवं श्रीकृष्णके दर्शन किये। 'ओहो ! मैं जिस स्थानपर गोवत्स तथा गोप-बालकोंको रख आया था, वहाँसे श्रीकृष्ण उनको ले आये हैं।' –यो कहते हुए ब्रह्माजी उस स्थानपर गये और वहाँपर उन सबको पहलेकी तरह ही पाया ।। ३१-३२ ॥

 

ब्रह्माजी उनको निद्रित देखकर पुनः व्रजमें आये और गोप-बालकोंके साथ श्रीहरिके दर्शन करके विस्मित हो गये। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'ओहो, कैसी विचित्रता है ! ये लोग कहाँसे यहाँ आये और पहलेकी ही भाँति श्रीकृष्णके साथ खेल रहे हैं ? ।। ३३-३४ ॥

 

यह सब खेल करनेमें मुझे एक त्रुटि (क्षण) जितना काल लगा, परंतु इतनेमें इस भूलोकमें एक वर्ष पूरा हो गया । तथापि सभी प्रसन्न हैं, कहीं किसीको इस घटनाका पता भी नहीं चला।' इस प्रकार से ब्रह्माजी मोहातीत विश्वमोहनको मोहित करने गये। परंतु अपनी मायाके अन्धकारमें वे स्वयं अपने शरीरको भी नहीं देख सके ।। ३५-३६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...