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गुरुवार, 4 जुलाई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०५)
बुधवार, 3 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
भजे
कृष्णक्रोडे भृगुमुनिपदं श्रीगृहमलं
तथा श्रीवत्साङ्कं निकषरुचियुक्तं
द्युतिपरम् ।
गले हीराहारान् कनकमणिमुक्तावलिधरान्
स्फुरत् ताराकारान् भ्रमरवलिभारान्
ध्वनिकरान् ॥ २५ ॥
वंशीविभूषितमलं द्विजदानशीलं
सिंद्रूरवर्णमतिकीचकरावलीलम् ।
हेमांगुलीयनिकरं नखचंद्रयुक्तं
हस्तद्वयं स्मर कदम्बसुगन्धपृक्तम् ॥
२६ ॥
शनैश्चलन् मानसराजहंस-
ग्रीवाकृतौ कन्धर उच्चदेशे ।
कादम्बिनीमानहरौ करौ च
भजामि नित्यं हरिकाकपक्षौ ॥ २७ ॥
कलदर्पणवद्विशदं सुखदं
नवयौवनरूपधरं नृपतिम् ।
मणिकुण्डलकुन्तलशालिरतिं
भज गण्डयुगं रविचन्द्ररुचिम् ॥ २८ ॥
खचितकनकमुक्ता रक्तवैदूर्यवासं
मदनवदनलीला सर्वसौन्दर्यरासम् ।
अरुणविधुसकाशं कोटिसूर्यप्रकाशं
घटितशिखिसुवीटं नौमि विष्णोः किरीटम्
॥ २९ ॥
यद्द्वारिदेशे न गतिर्गुहेन्द्र
गणेशतारीरेशदिवाकराणाम् ।
आज्ञां विना यान्ति न कुञ्जमण्डलं
तं कृष्णचन्द्रं जगदीश्वरं भजे ॥ ३०
॥
इति कृत्वा स्तुतिं ब्रह्मा श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
पुनः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्वविज्ञप्तिं चकार ह ॥ ३१ ॥
अपराधं तु पुत्रस्य मातृवत्त्वं क्षमस्व च ।
अहं त्वन्नाभिकमलात्सम्भवोऽहं जगत्पते ॥ ३२ ॥
काहं लोकपतिः क्व त्वं कोटिब्रह्माण्डनायकः ।
तस्माद्व्रजपते देव रक्ष मां मधुसूदन ॥ ३३ ॥
जिनके
कान्तिमान् कसौटी- सदृश एवं भृगुपद- अङ्कित विशाल वक्षःस्थलपर लक्ष्मी विलास करती हैं,
जिनके गलेमें स्वर्णमणि एवं मोतियोंकी लड़ियोंसे युक्त तथा तारोंके समान झिलमिल प्रकाश
करनेवाले तथा भ्रमरोंकी ध्वनिसे युक्त हीरोंके हार हैं, जो सिन्दूरवर्णकी सुन्दर अँगुलियोंसे
वंशी बजा रहे हैं, जिनकी अँगुलियों में सोनेकी अंगूठियाँ सुशोभित हैं, जिनके दोनों
हाथ द्विजोंको दान देनेवाले, चन्द्रमाके समान नखोंसे युक्त एवं कामदेवके वनके कदम्बवृक्षोंके
पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं, जिनकी मन्दगति राजहंसकी भाँति सुन्दर है, जिनके कंधे
गलेतक ऊँचे उठे हुए हैं, उन श्रीहरि- की मेघमालाका मान हरण करनेवाली मनोहर काकुल का मैं स्मरण करता हूँ। जो स्वच्छ दर्पणकी भाँति निर्मल, सुखद, नवयौवनकी
कान्तिसे युक्त, मनुष्योंके रक्षक तथा मणिकुण्डलों एवं सुन्दर घुँघराले बालोंसे सुशोभित
हैं, श्रीहरि के सूर्य तथा चन्द्रमा की
भाँति प्रभा से युक्त उन दोनों कपोलों का
मैं स्मरण करता हूँ ।। २५-२८ ॥
जो
सुवर्ण तथा मुक्ता एवं वैदूर्यमणिसे जटित लाल वस्त्रका बना हुआ है, जो कामदेवके मुख-
पर क्रीड़ा करनेवाले सम्पूर्ण सौन्दर्यसे विलसित है— जो अरुण - कान्ति तथा चन्द्र एवं
करोड़ों सूर्येक समान प्रभा- सम्पन्न है और मयूरपिच्छसे अलंकृत है, श्रीकृष्णके उस
मुकुटको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके द्वारदेशपर स्वामिकार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, चन्द्र
एवं सूर्यकी भी गति नहीं है; जिनकी आज्ञाके बिना कोई निकुञ्जमें प्रवेश नहीं कर सकता,
उन जगदीश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं आराधना करता हूँ ॥ २९–३० ॥
ब्रह्माजी
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन करके पुनः हाथ जोड़कर कहने लगे- 'जगत्के स्वामी
! मैं आपके नाभि-कमलसे उत्पन्न हूँ; अतएव जिस प्रकार माता अपने पुत्रके अपराधोंको क्षमा
कर देती है, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराधोंको क्षमा कर दें। व्रजपते ! कहाँ तो मैं
एक लोकका अधिपति और कहाँ आप करोड़ों ब्रह्माण्डोंके नायक ! अतएव व्रजेश, मधुसूदन !
देव ! आप मेरी रक्षा करें ॥ ३१–३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०४)
मंगलवार, 2 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
सुन्दरं
तु तव रूपमेव हि
मन्मथस्य मनसो हरं परम्
आविरस्तु मम नेत्रयोः सदा
श्यामलं मकरकुण्डलावृतम् ॥ १८ ॥
वैकुण्ठलीलाप्रवरं मनोहरं
नमस्कृतं देवगणैः परं वरम् ।
गोपाललीलाभियुतं भजाम्यहं
गोलोकनाथं शिरसा नमाम्यहम् ॥ १९ ॥
युक्तं वसन्तकलकण्ठविहंगमैश्च
सौगन्धिकं त्वरणपल्लवशाखिसंगम् ।
वृन्दावनं सुधितधीरसमीरलीलं
गच्छन् हरिर्जयति पातु सदैव भक्तान्
॥ २० ॥
हरति कमलमानं लोलमुक्ताभिमानं
धरणिरसिकदानं कामदेवस्य बाणम् ।
श्रवणविदितयानं नेत्रयुग्मप्रयाणं
भज यदुत समक्षं दानदक्षं कटाक्षम् ॥
२१ ॥
शरच्चन्द्राकारं नखमणिसमूहं सुखकरं
सुरक्तं हृत्पूर्णं
प्रकटिततमःखण्डनकरम् ।
भजेऽहं ब्रह्माण्डेसकलनरपापाभिदलनं
हरेर्विष्णोर्देवैर्दिवि भरतखण्डे
स्तुतमलम् ॥ २२ ॥
महापद्मे किं वा परिधिरिव चाभाति सततं
कदादित्यस्फूर्जद्रथचरण इत्थं
ध्वनिधरः ।
यथा न्यस्तं चक्रं शतकिरणयुक्तं तु हरिणा
स्फुरच्छ्रीमञ्जीरं हरिचरणपद्मे
त्वधिगतम् ॥ २३ ॥
कट्यां पीताम्बरं दिव्यं क्षुद्रघण्टिकयाऽन्वितम् ।
भजाम्यहं चित्तहरं कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ २४ ॥
आपका
परम सुन्दर रूप मन्मथ के मन को भी हरनेवाला
है। मेरे नेत्रों में सर्वदा मकरकुण्डलधारी श्यामकलेवर श्रीकृष्णके
उस रूपका प्रकाश होता रहे। जिनकी लीला वैकुण्ठ - लीलाकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और जिनके
परम श्रेष्ठ मनोहर रूपको देवगण भी नमस्कार करते हैं, उन गोपलीलाकारी गोलोकनाथको मैं
मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ । वसन्तकालीन सुन्दर कण्ठ- वाले कोकिलादि पक्षियोंसे युक्त,
सुगन्धित, नवीन पल्लवयुक्त वृक्षोंसे अलंकृत, सुधाके समान शीतल, धीर (मन्द) पवनकी क्रीड़ासे
सुशोभित वृन्दावनमें विचरण करनेवाले श्रीकृष्णकी जय हो ! वे सदा भक्तों की रक्षा करें ॥। १८ – २० ॥
"आपके
कान तक फैले हुए विशाल नेत्र तथा उनकी तिरछी चितवन कमलपुष्पोंका
मान और झूलते हुए मोतियों का अभिमान दूर करनेवाली है, भूतल के समस्त रसिकों- को रस का दान करती है तथा कामदेवके
बाणोंके समान पैनी एवं प्रीतिदान में निपुण है। जिनकी नखमणियाँ
शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुखकर, सुरक्त, हृदयग्राहिणी, गाढ़ अन्धकार का नाश करनेवाली और जगत् के समस्त प्राणियोंके पापोंका ध्वंस करनेवाली
हैं तथा स्वर्ग में देवमण्डली जिनका श्रीविष्णु एवं हरि की नखावली के रूप में स्तवन
करती है, मैं उनकी आराधना करता हूँ ।। २१-२२ ॥
आपके
पादपद्मों की सर्वदा बजनेवाली, श्रीहरि के
सैकड़ों किरणोंसे युक्त (सुदर्शन) चक्र के समान आकारवाली पैजनियाँ
ऐसी हैं, जिनसे गोल घेरे की भाँति किरणें इस प्रकार निकलती हैं,
जैसे सूर्य के प्रकाशयुक्त रथचक्र की परिधि
हो, अथवा जो आपके पादपद्मों की परिधि के
समान सुशोभित हैं। आपकी कमर में छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त दिव्य
पीताम्बर जगमगा रहा है । मैं अक्लिष्टकर्मा भगवान् श्रीकृष्ण
(आप) के उस मनोहर रूपकी आराधना करता हूँ ।। २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०३)
सोमवार, 1 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
दुःखं
सुखञ्च मनसा प्रभवञ्च सुप्ते
मिथ्या भवेत्पुनरहो भुवि जागरेऽस्य ।
इत्थं विवेकघटितस्य जनस्य सर्वं
स्वप्नभ्रमादृतजगत्सततं भवेद्धि ॥ ९
॥
ज्ञानी विसृज्य ममतामभिमानयोगं
वैराग्यभावरसिकः सततं निरीहः ।
दीपेन दीपकशतञ्च यथा प्रजातं
पश्येत् तथाऽऽत्मविभवं भुवि
चैकतत्त्वम् ॥ १० ॥
भक्तो भजेदजपतिं हृदि वासुदेवं
निर्धूमवह्निरिव मुक्तगुणस्वभावः ।
पश्यन् घटेषु सजलेषु यथेन्दुमेकं
एतादृशः परमहंसवरः कृतार्थः ॥ ११ ॥
स्तुवन्ति वेदाः सततञ्च यं सदा
हरेर्महिम्नः किल षोडशीं कलाम् ।
कदापि जानन्ति न ते त्रिलोके
वक्तुं गुणांस्तस्य जनोऽस्ति कः परः
॥ १२ ॥
वक्त्रैश्चतुर्भिस्त्वहमेव देवः
श्रीपञ्चवक्त्रः किल पञ्चवक्त्रैः ।
सहस्रशीर्षास्तु सहस्रवक्त्रैः
य स्तौति सेवां कुरुते च तस्य ॥ १३ ॥
विष्णुश्च वैकुण्ठनिवासकृच्च
क्षिरोदवासी हरिरेव साक्षात् ।
नारायणो धर्मसुतस्तथापि
गोलोकनाथं भजते भवन्तम् ॥ १४ ॥
अहोऽतिधन्यो महिमा मुरारे-
र्जानन्ति भूमौ मुनयो न मानवाः ।
सुरासुरा वा मनवो बुधाः पुनः
स्वप्नेऽपि पश्यन्ति न तत्पदद्वयम् ॥
१५ ॥
वरं हरिं गुणाकरं सुमुक्तिदं परात्परम् ।
रमेश्वरं गुणेश्वरं व्रजेश्वरं नमाम्यहम् ॥ १६ ॥
ताम्बूलसुन्दरमुखं मधुरं ब्रुवन्तं
बिम्बाधरं स्मितयुतं सितकुन्ददन्तम् ।
नीलालकावृतकपोलमनोहराभं
वन्दे चलत्कनककुण्डलमण्डनार्हम् ॥ १७
॥
सुख
एवं दुःख मनसे उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्थामें वे लुप्त हो जाते हैं और जागनेपर पुनः
उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकारका विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत् निरन्तर
स्वप्नावस्थाके भ्रमके समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमानका त्याग करके सदा
वैराग्यसे प्रीति करनेवाले तथा शान्त होते हैं। जैसे एक दियेसे सैकड़ों दिये उत्पन्न
होते हैं, वैसे ही एक परमात्मासे सब कुछ उत्पन्न हुआ है — ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी
रहती है ॥
भक्त
निर्धूम अग्निशिखाकी भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदयमें ब्रह्माके भी स्वामी
भगवान् वासुदेवका भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्बको अनेकों घड़ोंके
जल में देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा के
एकत्व का दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं ।। ९-११ ॥
निरन्तर
स्तवन करते रहनेपर भी वेद जिनके माहात्म्यके षोडशांशका भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर
सके, तब त्रिलोकीमें उन श्रीहरिके गुणोंका वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है ? मैं चार
मुखोंसे, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखोंसे तथा हजार मुखवाले शेषजी अपने सहस्र मुखोंसे
जिनकी स्तुति सेवा करते हैं; वैकुण्ठनिवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात् हरि और धर्मसुत
नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं ।। १२-१४ ॥
अहा
! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है । भूतलपर उस महिमा को न मुनिगण
जानते हैं न मनुष्य ही । सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जाननेमें
असमर्थ हैं। ये सब स्वप्नमें भी आपके चरणकमलों के दर्शन पानेमें
असमर्थ हैं। गुणोंके सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, व्रजेश्वर श्रीहरिको
मैं नमस्कार करता हूँ । ताम्बूल-रागरञ्जित सुन्दर मुखसे सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए
बिम्बफलके समान लाल-लाल अधरोंवाले, स्मिताहास्ययुक्त, कुन्दकलीके समान शुभ्र दन्तपंक्तिसे
जगमगाते हुए, नील अलकोंसे आवृत्त कपोलोंवाले, मनोहर - कान्ति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलोंसे
मण्डित श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।। १५-१७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०२)
रविवार, 30 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
ब्रह्मोवाच
-
कृष्णाय मेघवपुषे चपलाम्बराय
पियूषमिष्टवचनाय परात्पराय ।
वंशीधराय शिखिचंद्रिकयान्विताय
देवाय भ्रातृसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥
१ ॥
कृष्णस्तु साक्षात्पुरुषोतमः स्वयं
पूर्णः परेशः प्रकृतेः परो हरिः ।
यस्यावतारांशकला वयं सुरा
सृजाम विश्वं क्रमतोऽस्य शक्तिभिः ॥
२ ॥
स त्वं साक्षात्कृष्णचन्द्रावतारो
नन्दस्यापि पुत्रतामागतः कौ ।
वृन्दारण्ये गोपवेशेन वत्सान्
गोपैर्मुख्यैश्चारयन् भ्राजसे वै ॥ ३
॥
हरिं कोटिकन्दर्पलीलाभिरामं
स्फुरत्कौस्तुभं श्यामलं पीतवस्त्रम्
।
व्रजेशं तु वंशीधरं राधिकेशं
परं सुन्दरं तं निकुंजे नमामि ॥ ४ ॥
तं कृष्णं भज हरिमादिदेवमस्मिन्
क्षेत्रज्ञं कमिव विलिप्तमेघमेव ।
स्वच्छाङ्गं परमधियाज्ञचैत्यरूपं
भक्त्याद्यैर्विशदविरागभावसंघैः ॥ ५
॥
यावन्मनश्च रजसा प्रबलेन विद्वन्
संकल्प एव तु विकल्पक एव तावत् ।
ताभ्यां भवेन्मनसिजस्त्वभिमानयोग-
स्तेनापि बुद्धिविकृतिं क्रमतः
प्रयान्ति ॥ ६ ॥
विद्युद्द्युतिस्त्वृतुगुणो जलमध्यरेखा
भूतोल्मुकः कपटपान्थरतिर्यथा च ।
इत्थं तथाऽस्य जगतस्तु सुखं मृषेति
दुःखावृतं विषयघूर्णमलातचक्रम् ॥ ७ ॥
वृक्षा जलेन चलतापि चला इवात्र
नेत्रेण भूरिचलितेन चलेव भूश्च ।
एवं गुणः प्रकृतिजैर्भ्रमतो जनस्थं
सत्यं वदेद्गुणसुखादिदमेव कृष्ण ॥ ८
॥
ब्रह्माजी
बोले – “मेघकी-सी कान्तिसे युक्त विद्युत्-वर्णका वस्त्र धारण करनेवाले, अमृत तुल्य
मीठी वाणी बोलनेवाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर पिच्छको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको
उनके भ्राता बलरामसहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात् स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण
परमेश्वर, प्रकृतिसे अतीत श्रीहरि हैं । हम देवता जिनके अंश और कलावतार हैं, जिनकी
शक्तिसे हमलोग क्रमशः विश्वकी सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात्
कृष्णचन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होकर धराधामपर नन्दका पुत्र होना स्वीकार किया है। आप
प्रधान- प्रधान गोप-बालकोंके साथ गोपवेषसे वृन्दावनमें गोचारण करते हुए विराज रहे हैं।
करोड़ों कामदेवके समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर,
व्रजेश, राधिकापति, निकुञ्ज-विहारी परमसुन्दर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ।। १-४ ॥
जो
मेघ से निर्लिप्त आकाश के समान प्राणियों की देह में क्षेत्रज्ञ रूपसे स्थित हैं, जो अधियज्ञ
एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावों से प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरि की मैं वन्दना
करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मनमें प्रबल रजोगुण का उदय होता
है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है संकल्प - विकल्पके वशीभूत मन में ही अभिमान की उत्पत्ति होती है और वही अभिमान
धीरे-धीरे बुद्धिको विकृत कर देता है ।। ५-६ ॥
क्षणस्थायी
बिजली के समान, बदलते हुए ऋतुगुणों के समान,
जलपर खींची गयी रेखा के समान, पिशाच के
द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारों के समान और कपटी यात्री की प्रीति के समान जगत् के सुख
मिथ्या हैं। विषय-सुख दुःखोंसे घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत् (जलते हुए अंगारको वेगसे
चक्राकार घुमानेपर जो क्षणस्थायी वृत्त बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते
हुए भी, जलके चलनेके कारण चलते हुए-से दीखते हैं, नेत्रोंको वेगसे घुमानेपर अचल पृथ्वी
भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण ! उसी प्रकार प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके वशमें होकर
भ्रान्त जीव उस प्रकृतिजन्य सुखको सत्य मान लेता है ।। ७-८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण -द्वितीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट ०१)
शनिवार, 29 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
आठवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन
वत्सपालापहरणात् किमभूज्जगत. पतेः ।
हो खद्योतवद्वधा श्रीकृष्णरविसम्मुखे ||
३७
एवं विमुह्यति सति जडीभूते च ब्रह्मणि
।
स्वमायां कृपयाकृष्य कृष्णः स्वं
दर्शनं ददौ ॥ ३८
एवं तत्र सकृद् ब्रह्मा गोवत्सान्
गोपदारकान् ।
सर्वानाचष्ट श्रीकृष्णं भक्त्या
विज्ञानलोचनैः || ३९
ददर्शाथ विधिस्तत्र बहिरन्त शरीरतः ।
स्वात्मना सहितं राजन् सर्व विष्णुमयं
जगत् ॥ ४०
एवं विलोक्य ब्रह्मा तु जडो भूत्वा
स्थिरोऽभवत् ।
वृन्दावद् वृन्दारण्ये प्रदृश्येत यथा
तथा ।। ४१
स्वात्मनो महिमां द्रष्टुं नीशेऽपि च
ब्रह्मणि ।
चच्छाद सपदि ज्ञात्वा मायाजवनिकां
हरिः ॥ ४२
ततः प्रलब्धनयनः स्रष्टा सुप्त
इवोत्थितः,
उन्मील्य नयने कृच्छ्राद्ददर्शेद
सहात्मना ॥ ४३
समाहितस्तत्र भूत्वा सद्योऽपश्यद्दिशो
दश ।
श्रीमद्बृन्दावनं रम्यं
वासन्तीलतिकान्वितम् ॥ ४४
शार्दूलबालकैर्यत्र क्रीडन्ति
मृगबालकाः ।
श्येनैः कपोता नकुलै. सर्पा
वैरविवर्जिताः ॥ ४५
ततश्च वृन्दकारण्ये सपाणिकवलं विधिः ।
वत्सान् सखीन् विचिन्वन्तमेकं कृष्णं
ददर्श सः ॥ ४६
दृष्ट्वा गोपालवेषेण गुप्तं
गोलोकवल्लभम् ।
ज्ञात्वा साक्षाद्धरि ब्रह्मा
भीतोऽभूत् स्वकृतेन च ॥ ४७
तं प्रसादयितुं राजन् ज्वलन्तं सर्वतो
दिशम् ।
लज्जयावाङ्मुखो भूत्वा ह्यवतीर्य
स्ववाहनात् ॥ ४८
शनैरुपससारेशं प्रसीदेति वदन् नमन् ।
स्रवद्वर्षात्ताः स षपाताथ दण्डवत् ॥
४९
उत्थाप्याश्वास्य तं कृष्णः प्रियं
प्रिय इव स्पृशन् ।
सुरान् सुभुवि दूरस्थानालुलोक
सुधार्द्रटक ॥ ५०
ततो जयजयेत्युच्चैः स्तुवतां नमतां
समम् ।
तहयादृष्टदृष्टानां सानन्दः
सम्भ्रमोऽभवत् ॥ ५१
दृष्ट्वा हरिं तत्र समास्थितं विधि
र्ननाम भक्तमनाः कृताञ्जलिः ।
स्तुति चकाराशु स दण्डवल्लुठन्
प्रहृष्टरोमा भुवि गद्मदातरः ||
५२
गोप-बालकों के हरण से जगत्पति की तो
कुछ हानि हुई नहीं, अपितु श्रीकृष्णरूप सूर्यके सम्मुख ब्रह्माजी ही जुगनू से दीखने लगे। ब्रह्माके इस प्रकार मोहित
एवं जडीभूत हो जानेपर श्रीकृष्णने कृपापूर्वक अपनी मायाको हटाकर उनको अपने स्वरूपका
दर्शन कराया। भक्तिके द्वारा ब्रह्माजीको ज्ञाननेत्र प्राप्त हुए । उन्होंने एक बार
गोवत्स एवं गोप-बालक—सबको श्रीकृष्णरूप देखा । राजन् ! ब्रह्माजीने शरीरके भीतर और
बाहर अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को विष्णुमय देखा ॥ ३७ – ४० ॥
इस
प्रकार दर्शन करके ब्रह्माजी तो जडताको प्राप्त होकर निश्चेष्ट हो गये। ब्रह्माजीको
वृन्दादेवी द्वारा अधिष्ठित वृन्दावनमें जहाँ-तहाँ दीखनेवाली भगवान्- की महिमा देखनेमें
असमर्थ जानकर श्रीहरिने मायाका पर्दा हटा लिया ।। ४१-४२ ॥
तब
ब्रह्माजी नेत्र पाकर, निद्रा से जगे हुए की
भाँति उठकर, अत्यन्त कष्ट से नेत्र खोलकर अपनेसहित वृन्दावन को देखने में समर्थ हुए। वहाँपर वे उसी समय एकाग्र
होकर दसों दिशाओं में देखने लगे और वसन्तकालीन सुन्दर लताओं से युक्त रमणीय श्रीवृन्दावन का उन्होंने दर्शन
किया ।। ४३-४४ ॥
वहाँ
बाघके बच्चोंके साथ मृग शावक खेल रहे थे। बाज और कबूतरमें, नेवला और साँपमें वहाँ जन्मजात
वैरभाव नहीं था। ब्रह्माजीने देखा कि एकमात्र श्रीकृष्ण ही हाथमें भोजनका कौर लिये
हुए प्यारे गोवत्सोंको वृन्दावनमें ढूँढ़ रहे हैं। गोलोकपति साक्षात् श्रीहरिको गोपाल-वेषमें
अपनेको छिपाये हुए देखकर तथा ये साक्षात् श्रीहरि हैं - यह पहचानकर ब्रह्माजी अपनी
करतूतको स्मरण करके भयभीत हो गये ।। ४५-४७ ॥
राजन्
! उन चारों ओर प्रज्वलित दीखनेवाले श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्माजी अपने
वाहनसे उतरे और लज्जाके कारण उन्होंने सिर नीचा कर लिया। वे भगवान्को प्रणाम करते
हुए और 'प्रसन्न हों - यह कहते हुए धीरे-धीरे उनके निकट पहुँचे। यों भगवान्- को अपनी
आँखों से झरते हुए हर्ष के आँसुओं का अर्ध्य देकर दण्ड की भाँति वे भूमिपर गिर
पड़े ।।४८-४९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको उठाकर आश्वस्त किया और उनका इस प्रकार स्पर्श किया, जैसे कोई
प्यारा अपने प्यारेका स्पर्श करे । तत्पश्चात् वे सुधासिक्त दृष्टिसे उसी सुन्दर भूमिपर
दूर खड़े देवताओंकी ओर देखने लगे। तब वे सभी उच्चस्वरसे जय-जयकार करते हुए उनका स्तवन
करने लगे । साथ-साथ प्रणाम भी करने लगे। श्रीकृष्णकी दयादृष्टि पाकर सभी आनन्दित हुए
और उनके प्रति आदरसे भर गये ।। ५०-५१ ॥
ब्रह्माजीने भगवान् को उस
स्थानपर देखकर भक्तियुक्त मनसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रोमाञ्चित होकर दण्डकी भाँति
वे भूमिपर गिर पुनः वे गद्गद वाणीसे भगवान् का स्तवन लगे ॥ ५२
॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके
सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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