इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
लेबल
- आसुरि
- गीता
- परलोक और पुनर्जन्म
- पुरुषसूक्त
- प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’
- मानस में नाम-वन्दना
- विविध
- विवेक चूडामणि
- वैदिक सूक्त
- श्रीगर्ग-संहिता
- श्रीदुर्गासप्तशती
- श्रीमद्भगवद्गीता
- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
बुधवार, 17 जुलाई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०९)
मंगलवार, 16 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट
02 )
श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान
नागपत्न्य ऊचुः -
नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः ।
असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नमः ।
नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥
पाहि पाहि परदेव पन्नगं
त्वत्परं न शरणं जगत्त्रये ।
त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं
लीलया किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
नागपत्नीस्तुतः कृष्णः कालियं विगतस्मयम् ।
विससर्ज हरिः साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ २१ ॥
पाहीति प्रवदंतं तं कालियं भगवान् हरिः ।
प्रणतं संमुखे प्राप्तं प्राह देवो जनार्दनः ॥ २२ ॥
श्रीभगवानुवाच -
द्वीपं रमणकं गच्छ सकलत्रसुहृद्वृतः ।
सुपर्णोद्यतनात्त्वां वै नाद्यान् मत्पादलांछितम् ॥ २३ ॥
श्रीनारद उवाच -
सर्पः कृष्णं तु संपूज्य परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।
कलत्रपुत्रसहितो द्वीपं रमणकं ययौ ॥ २४ ॥
अथ श्रुत्वा कालियेन संग्रस्तं नंदनंदनम् ।
तत्राजग्मुर्गोपगणा नंदाद्याः सकला जनाः ॥ २५ ॥
जलाद्विनिर्गतं कृष्णं दृष्ट्वा मुमुदिरे जनाः ।
आश्लिष्य स्वसुतं नंदः परां मुदमवाप ह ॥ २६ ॥
सुतं लब्ध्वा यशोदा सा सुतकल्याणहेतवे ।
ददौ दानं द्विजातिभ्यः स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ २७ ॥
तत्रैव शयनं चक्रुर्गोपाः सर्वे परिश्रमात् ।
कालिंदीनिकटे राजन् गोपीगोपगणैः सह ॥ २८ ॥
वेणुसंघर्षणोद्भूतो दावाग्निः प्रलयाग्निवत् ।
निशीथे सर्वतो गोपान् दग्धुमागतवान् स्फुरन् ॥ २९ ॥
गोपा वयस्याः श्रीकृष्णं सबलं शरणं गताः ।
नत्वा कृतांजलिं कृत्वा तमूचुर्भयकातराः ॥ ३० ॥
गोपा ऊचुः -
कृष्ण कृष्ण महाबाहो शरणागतवत्सल ।
पाहि पाहि वने कष्टाद्दावाग्नेः स्वजनान् प्रभो ॥ ३१ ॥
श्रीनारद उवाच -
स्वलोचनानि माभैष्ट न्यमीलयत माधवः ।
इत्युक्त्वा वह्निमपिबद्देवो योगेश्वरेश्वरः ॥ ३२ ॥
प्रातर्गोपगणैः सार्द्धं विस्मितैर्नंदनंदनः ।
गोगणैः सहितः श्रीमद्व्रजमंडलमाययौ ॥ ३३ ॥
नापपत्त्रियाँ
बोलीं- भगवन्! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति हैं । आप गोलोकनाथ
श्रीकृष्णचन्द्रको हमारा बारंबार नमस्कार है । व्रजके अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभको नमस्कार
है । नन्दके लाला एवं यशोदानन्दनको नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नागकी रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये । तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देनेवाला नहीं है। आप
स्वयं साक्षात् परात्पर श्रीहरि हैं और लीलासे ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकारके
श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं ॥ १८-२०
॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— अबतक कालियनागका गर्व चूर्ण हो गया था । नागपत्नियोंद्वारा किये गये इस स्तवनके
पश्चात् वह श्रीकृष्णसे बोला- 'भगवन् ! पूर्णकाम परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये।' 'पाहि
पाहि कहता हुआ कालियनाग भगवान् श्रीहरिके सम्मुख आकर उनके चरणोंमें गिर पड़ा। तब उन
जनार्दनदेवने उससे कहा ।। २१-२२ ॥
श्रीभगवान्
बोले- तुम अपनी पत्नियों और सुहृदोंके साथ रमणकद्वीपमें चले जाओ। तुम्हारे मस्तकपर
मेरे चरणोंके चिह्न बन गये हैं, इसलिये अब गरुड तुम्हें अपना आहार नहीं बनायेगा ||
२३ ॥
नारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब उस सर्पने श्रीकृष्णकी पूजा और परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम
करनेके अनन्तर, स्त्री-पुत्रोंके साथ रमणकद्वीपको प्रस्थान किया। इधर 'नन्दनन्दनको
कालियनाग ने अपना ग्रास बना लिया है' अपना ग्रास बना लिया है'
– यह समाचार सुनकर नन्द आदि समस्त गोपगण वहाँ आ गये थे। श्रीकृष्ण- को जलसे निकलते
देख उन सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने बेटेको छातीसे लगाकर
नन्दजी परमानन्दमें निमग्न हो गये। यशोदा ने अपने खोये पुत्रको
पाकर उसके कल्याणकी कामनासे ब्राह्मणोंको हुए धन का दान किया।
उस समय उनके स्तनोंसे स्नेहाधिक्यके कारण दूध झर रहा था। राजन् ! उस दिन रात में अधिक श्रमके कारण गोपाङ्गनाओं और ग्वाल-बालोंके साथ समस्त गोप
यमुनाके निकट उसी स्थानपर सो गये। निशीथकालमें बाँसोंकी रगड़से प्रलयाग्निके समान दावानल
प्रकट हो गया, जो सब ओरसे मानो गोपोंको दग्ध करनेके लिये उधर फैलता आ रहा था। उस समय
मित्रकोटि के गोप बलराम- सहित श्रीकृष्णकी शरणमें गये और भयसे
कातर हो दोनों हाथ जोड़कर बोले ।। २४ - ३० ।।
गोपोंने
कहा- शरणागतवत्सल महाबाहु कृष्ण ! कृष्ण ! प्रभो ! वनके भीतर दावाग्निके कष्टमें पड़े
हुए स्वजनोंको बचाओ ! बचाओ !! ॥ ३१ ॥
नारदजी
कहते हैं— तब योगेश्वरेश्वर देव माधव उनसे बोले – 'डरो मत। अपनी-अपनी आँखें मूँद लो
।' यों कहकर वे सारा दावानल स्वयं ही पी गये। फिर- प्रातः काल विस्मित हुए गोपगणों
तथा गौओंके साथ नन्दनन्दन शोभाशाली व्रजमण्डलमें आये ।। ३२-३३ ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियदमन तथा दावानल-पान' नामक
बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
सोमवार, 15 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीकृष्णद्वारा
कालियदमन तथा दावानल-पान
बलं
विनाथ गोपालैश् चारयन् गा हरिः स्वयम् ।
कालिन्दीकूलमागत्य ययौ वारिविषावृतम् ॥ १ ॥
कालियेन फणीन्द्रेण जलं यत्र विदूषितम् ।
पीत्वा निपेतुर्वसवो गावो गोपा जलान्तिके ॥ २ ॥
तदा तान् जीवयामास दृष्ट्या पीयूषपूर्णया ।
आर्द्रचित्तो हरिः साक्षाद्भगवान् वृजिनार्दनः ॥ ३ ॥
कटौ पीतपटं बद्ध्वा नीपमारुह्य माधवः ।
पपातोत्तुंगविटपात्तत्तोये विषदूषिते ॥ ४ ॥
उच्चचाल जलं दुष्टं कृष्णसंघातघूर्णितम् ।
तत्सर्पमन्दिरे नद्यां भृंगीभूतं बभूव ह ॥ ५ ॥
तदैव कालियः क्रुद्धः फणी फणशतावृतः ।
दशन्दन्तैश्च भुजया चच्छाद नृप माधवम् ॥ ६ ॥
कृष्णो दीर्घं वपुः कृत्वा बन्धनान्निर्गतश्च तम् ।
पुच्छे गृहीत्वा सर्पेंद्रं भ्रामयित्वा त्वितस्ततः ॥ ७ ॥
जलेनिपात्य हस्ताभ्यां चिक्षेपाशु धनुःशतम् ।
पुनरुत्थाय सर्पेन्द्रो लेलिहानो भयंकरः ॥ ८ ॥
वामहस्ते हरिं सर्पो रुषा जग्राह माधवम् ।
हरिर्दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा तं महाखलम् ॥ ९ ॥
तज्जले पोथयामास सुपर्ण इव पन्नगम् ।
सर्पो मुखशतं दीर्घं प्रसार्य पुनरागतः ॥ १० ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः चकर्षाशु धनुःशतम् ।
कृष्णहस्ताद्विनिष्क्रम्य सर्पस्तं व्यदशत्पुनः ॥ ११ ॥
तताड मुष्टिना सर्पं त्रैलोक्यबलधारकः ।
कृष्णमुष्टिप्रहारेण मूर्च्छितो विगतस्मृतिः ॥ १२ ॥
नतं कृत्वाऽऽननशतं स्थितोऽभूत् कृष्णसंमुखे ।
आरुह्य तत्फणिशतं मणिवृन्दमनोहरम् ॥ १३ ॥
ननर्त नटवत्कृष्णो नटवेषो मनोहरः ।
गायन् सप्तस्वरै रागं संगीतं च सतालकम् ॥ १४ ॥
पुष्पैर्देवेषु वर्षत्सु तांडवे नटराजवत् ।
वादयन् स मुदा वीणाऽऽनकदुन्दुभिवेणुकान् ॥ १५ ॥
सतालं पदविन्यासैस्तत्फणां सोज्ज्वलान् बहून् ।
बभंज श्वसतः कृष्णः कालियस्य महात्मनः ॥ १६ ॥
तदैव नागपत्न्यस्ता आगता भयविह्वलाः ।
नत्वा कृष्णपदं देवमूचुर्गद्गदया गिरा ॥ १७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश्वर ! एक दिन बलरामजीको साथमें लिये बिना ही श्रीहरि स्वयं ग्वाल-
बालोंके साथ गाय चराने चले आये। यमुनाके तटपर आकर उन्होंने उस विषाक्त जलको पी लिया,
जिसे नागराज कालियने अपने विषसे दूषित कर दिया था। उस जलको पीकर बहुत-सी गायें और गोपगण
प्राणहीन होकर पानीके निकट ही गिर पड़े। यह देख सर्वपापहारी साक्षात् भगवान् श्रीहरिका
चित्त दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी पीयूषपूर्ण दृष्टिसे देखकर उन सबको जीवित
कर दिया ॥ १-३ ॥
इसके
बाद पीताम्बर को कमर में कसकर बाँध लिया।
फिर वे माधव तटवर्ती कदम्ब वृक्षपर चढ़ गये और उसकी ऊँची डाल से
उस विष-दूषित जलमें कूद पड़े। भगवान् श्रीकृष्णके कूदनेसे वह दूषितजल चक्कर काटकर ऊपरको
उछला। यमुनाके उस भागमें कालियनाग रहता था । भँवर उठनेसे उस सर्पका भवन इस तरह चक्कर
काटने लगा, जैसे जलमें पानीके भौरे घूमते हैं। नरेश्वर । उस समय सौ फणोंसे युक्त फणिराज
कालिय क्रुद्ध हो उठा और माधवको दाँतोंसे डँसते हुए उसने अपने शरीरसे उन्हें आच्छादित
कर लिया ॥ ४-६ ॥
तब
श्रीकृष्ण अपने शरीरको बड़ा करके उसके बन्धनसे छूट गये और उस सर्पराजकी पूँछ पकड़कर
उसे इधर-उधर घुमाने लगे । घुमाते - घुमाते उन्होंने उसे पानीमें गिराकर पुनः दोनों
हाथोंसे उठा लिया और तुरंत उसे सौ धनुष दूर फेंक दिया। उस भयानक नागराजने पुनः उठकर
जीभ लपलपाते हुए रोषपूर्वक माधव श्रीहरिका बायाँ हाथ पकड़ लिया। तब श्रीहरिने उस महादुष्टको
दाहिने हाथसे पकड़कर उस जलमें उसी प्रकार दबा दिया, जैसे गरुड किसी नागको रगड़ दे।
और अपने सौ मुखोंको बहुत अधिक फैलाकर वह सर्प उनके पास आ गया।
तब उसकी पूँछ पकड़कर श्रीकृष्ण उसे सौ धनुष दूर खींच ले गये। श्रीकृष्णके हाथसे सहसा
निकलकर उसने पुनः उन्हें डँस लिया ॥ ७-११ ॥
यह देख
अपनेमें त्रिभुवन का बल धारण करनेवाले श्रीहरि
ने उस सर्प को एक मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्के की चोट खाकर वह सर्प मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। तदनन्तर अपने
सौ मुखोंको आनत करके वह श्रीकृष्णके सामने स्थित हुआ। उसके सौ फन सौ मणियोंके प्रकाशसे
अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण उन फनोंपर चढ़ गये और मनोहर नट-वेष धारण करके
नटकी भाँति नृत्य करने लगे। साथ ही वे सातों स्वरोंसे किसी रागका अलाप करते हुए तालके
साथ संगीत प्रस्तुत करने लगे। उस समय नटराजकी भाँति सुन्दर ताण्डव करनेवाले श्रीकृष्णके
ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे और प्रसन्नतापूर्वक वीणा, ढोल, नगारे तथा बाँसुरी बजाने
लगे । तालके साथ पदविन्यास करनेसे श्रीकृष्णने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालियके
बहुत-से उज्ज्वल फनोंको भग्न कर दिया। उसी समय भयसे विह्वल हुई नागपत्नियाँ आ पहुँचीं
और भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करके गद्गद वाणीद्वारा इस प्रकार स्तुति करने
लगीं ॥। १२ - १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०८)
रविवार, 14 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
ग्यारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
धेनुकासुर का उद्धार
राजोवाच ।।
मुने मुक्तिं कथं प्राप्तः पूर्वं को धेनुकासुरः ।।
कथं खरत्वमापन्न एतन्मे ब्रूहि तत्त्वतः ।। ३३ ।।
श्रीनारद उवाच ।।
वैरोचनेर्बलेः पुत्रो नाम्ना साहसिको बली ।।
नारीणां दशसाहस्रै रेमे वै गन्धमादने।।३४।।
वादित्राणां नूपुराणां शब्दोभूत्तद्वने महान्।।
गुहायामास्थितस्यापि श्रीकृष्णं स्मरतो मुनेः ।। ३५ ।।
दुर्वाससोऽथ तेनापि ध्यानभंगो बभूव ह ।।
निर्गतः पादुकारूढो दुर्वासाः कृशविग्रहः ।। ३६ ।।
दीर्घश्मश्रुर्यष्टि धरः क्रोधपुंजोनलद्युतिः ।।
यस्य शापाद्विश्वमिदं कंपते स जगाद ह ।। ३७ ।।
दुर्वासा उवाच ।।
उत्तिष्ठ गर्दभाकार गर्दभो भव दुर्मते ।।
वर्षाणां तु चतुर्लक्षं व्यतीते भारते पुनः ।। ३८ ।।
माधुरे मंडले दिव्ये पुण्ये तालवने वने ।।
बलदेवस्य हस्तेन मुक्तिस्ते भविताऽसुर ।। ३९ ।।
श्रीनारद उवाच ।।
तस्माद्बलस्य हस्तेन श्रीकृष्णस्तं जघान ह ।।
प्रह्लादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ।। ४० ।।
राजाने
पूछा- मुने ! धेनुकासुर पूर्वजन्ममें कौन
था ? उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? तथा उसे गधेका शरीर क्यों मिला ? यह सब मुझे ठीक-ठीक
बताइये ॥ ३३ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- विरोचनकुमार बलिका एक बलवान् पुत्र था, जिसका नाम था — साहसिक । वह दस हजार स्त्रियोंके
साथ गन्धमादन पर्वतपर विहार कर रहा था। वहाँ वनमें नाना प्रकारके वाद्यों तथा रमणियोंके
नूपुरोंका महान् शब्द होने लगा, जिससे उस पर्वतकी कन्दरामें रहकर श्रीकृष्णका चिन्तन
करनेवाले दुर्वासा मुनिका ध्यान भङ्ग हो गया । वे खड़ाऊँ पहनकर बाहर निकले। उस समय
मुनिवर दुर्वासाका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दाढ़ी-मूँछ बहुत बढ़ गयी थीं। वे
लाठीके सहारे चलते थे । क्रोधकी तो वे मूर्तिमान् राशि ही थे और अग्निके समान तेजस्वी
जान पड़ते थे। दुर्वासा उन ऋषियोंमेंसे हैं, जिनके शापके भयसे यह सारा विश्व काँपता
रहता है | वे बोले ।। ३४-३७ ॥
दुर्वासा ने कहा- दुर्बुद्धि असुर ! तू गदहेके समान भोगासक्त है, इसलिये गदहा हो जा। आज से चार लाख वर्ष बीतने
पर भारत में दिव्य माथुर मण्डलके अन्तर्गत पवित्र तालवन में बलदेवजी के हाथ से
तेरी मुक्ति होगी ।। ३८-३९ ॥
नारदजी
कहते हैं- राजन् ! उस शापके कारण ही भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके हाथसे उसका वध करवाया;
क्योंकि उन्होंने प्रह्लादजीको यह वर दे रखा है कि तुम्हारे वंशका कोई दैत्य मेरे हाथसे
नहीं मारा जायगा ॥ ४० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के
अन्तर्गत 'धेनुकासुर का उद्धार' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०७)
शनिवार, 13 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
ग्यारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
धेनुकासुर का उद्धार
गोवर्धनं
समुत्पाट्य श्रीकृष्णे प्राहिणोत्खरः ।।
गिरिं गृहीत्वा श्रीकृष्णः णाक्षिपत्त स्य मस्तके ।।२१।।
दैत्यो गिरिं गृहीत्वाथ श्रीकृष्णे प्राहिणोद्बली।।
कृष्णो गोवर्धनं नीत्वा पूर्वस्थाने समाक्षिपत् ।।२२।।
पुनर्धावन्महादैत्यः शृङ्गाभ्यां । दारयन्भुवम्।।
बलं पश्चिमपादाभ्यां ताडयित्वा जगर्ज ह।२३।
ननाद तेन ब्रह्मांडं प्रैजद्भूखण्डमण्डलम्।।
हस्ताभ्यां संगृहीत्वा तं बलदेवो महाबलः।।२४।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितं भग्नमस्तकम् ।।
पुनस्तताड तं दैत्यं मुष्टिना ह्यच्युताग्रजः ।।२५।।
तेन मुष्टिप्रहारेण सद्यो वै निधनं गतः ।।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ।। २६ ।।
देहाद्विनिर्गतः सोऽपि श्यामसुन्दरविग्रहः ।।
स्रग्वी पीतांबरो देवो वनमालाविभूषितः ।।२७।।
लक्षपार्षदसंयुक्तः सहस्र ध्वजशोभितः ।।
सहस्रचक्रध्वनिभृद्धयायुतसमन्वितः ।। २८ ।।
लक्षचामरशोभाढ्योऽरुणवर्णोऽतिरत्नभृत् ।।
दिव्ययोजनविस्तीर्णो मनोयायी मनोहरः ।।२९।।
किंकिणीजालसंयुक्तो घटामंजीरसंयुतः ।।
हरिं प्रदक्षिणीकृत्य सबलं दिव्यरूपधृक् ।। ३० ।।
दिव्यं रथं समारुह्य द्योतयन्मंडलन्दिशाम् ।।
जगाम दैत्यो हे राजन्गोलोकं प्रकृतेः परम् ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णो धेनुकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।।
तद्यशस्तु प्रगायद्भिर्बभौ गोकुलगोगणैः ।। ३२ ।।
श्रीकृष्णने
पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको
हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके
पूर्व स्थानपर रख दिया ॥ २१-२२ ॥
तदनन्तर
फिर धावा करके महादैत्य धेनुक ने दोनों सींगों
से पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरों से पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे
समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा । तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे
उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश- हवास जाता
रहा। इसके बाद श्रीकृष्ण के बड़े भाई ने
पुनः उस दैत्यपर मुक्के से प्रहार किया ॥ २३-२५
॥
उस
मुष्टिप्रहार से धेनुकासुर की तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओं ने नन्दनवन के फूल बरसाये ॥ २६ ॥
देह से पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर - विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर
तथा वनमाला से समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवा में जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथ की शोभा
बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे।
लाखों चँवरों की वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रत्नों से जटित था। उसका विस्तार
एक दिव्य योजन का था। वह मन के समान तीव्रगति से चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था ॥ २७-२९ ॥
राजन्
! उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे । दिव्यरूपधारी दैत्य धेनुक
बलरामसहित श्रीकृष्ण- की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको देदीप्यमान
करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार धेनुक- का वध करके
बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंके साथ व्रजको लौटे। उनके साथ
गौओंका समुदाय भी था ॥ ३०-३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०६)
शुक्रवार, 12 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
ग्यारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
धेनुकासुर का उद्धार
योजनं
नोदयामास गजं प्रति गजो यथा ।।
गृहीत्वा तं बलः सद्यो भ्रामयित्वाथ धेनुकम् ।। १० ।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितो भग्नमस्तकः ।।
क्षणेन पुनरुत्थाय क्रोधसंयुक्तविग्रहः ।।११।।
मूर्ध्नि कृत्वा चतुःशृंगं धृत्वा रूपं भयंकरम् ।।
गोपान्विद्रावयामास शृंगैस्तीक्ष्णैर्भयंकरैः ।।१२।।
अग्रे पलायितान्गोपान्दुद्रावाशु मदोत्कटः ।।
श्रीदामा तं च दंडेन सुबलो मुष्टिना तथा ।।१३।।
स्तोकः पाशेन तं दैत्यं संतताड महाबलम् ।।
क्षेपणेनार्जुनोंशुश्च दैत्यं लत्तिकया खरम् ।।१४।।
विशालर्षभ एत्याशु पादेन स्वबलेन च ।।
तेजस्वी ह्यर्द्धचन्द्रेण देवप्रस्थ श्च पेटकैः ।।१५।।
वरूथपः कंदुकेन संतताड महाखरम् ।।
अथ कृष्णोपि तं नीत्वा हस्ताभ्यां धेनुकासुरम् ।।१६।।
भ्रामयित्वाशु चिक्षेप गिरिगोवर्द्ध- नोपरि ।।
श्रीकृष्णस्य प्रहारेण मूर्च्छितो घटिकाद्वयम् ।। १७ ।।
पुनरुत्थाय स्वतनुं विधुन्वन्दारयन्मुखम् ।।
शृङ्गाभ्यां श्रीहरिं नीत्वा धावन्दैत्यो न भोगतः ।।१८।।
चचार तेन खे युद्धमूर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।।
गृहीत्वा धेनुकं दैत्यं श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।। १९ ।।
चिक्षेपाधो भूमिमध्ये चूर्णितास्थिः स मूर्च्छितः ।।
पुनरुत्थाय शृङ्गाभ्यां नादं कृत्वातिभैरवम् ।।२०।।
तब
बलराम,जी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना आरम्भ किया और घुमाकर उसे भूतल पर दे मारा। तब उसे मूर्च्छा आ गयी और उसका मस्तक फट गया। तो भी
वह क्षणभरमें उठकर खड़ा हो गया। उसके शरीरसे भयानक क्रोध टपक रहा था ॥ १०-११ ॥
इसके
बाद उस दैत्य ने अपने मस्तक में चार सींग
प्रकट करके, भयानक रूप धारण कर उन तीखे और भयंकर सींगों से गोपों को खदेड़ना आरम्भ किया ॥ १२ ॥
गोपोंको
आगे-आगे भागते देख वह मदमत्त असुर तुरंत ही उनके पीछे दौड़ा ॥ उस समय श्रीदामा ने उसपर डंडेसे प्रहार
किया, सुबलने उसको मुक्केसे मारा, स्तोककृष्ण ने उस महाबली दैत्यपर
पाश से प्रहार किया, अर्जुन ने क्षेपण से और अंशु ने उस गर्दभाकार दैत्यपर लात से आघात किया। इसके बाद विशालर्षभ ने आकर शीघ्रतापूर्वक
अपने पैर से और बल से भी उस दैत्य को दबाया। तेजस्वी ने अर्द्धचन्द्र (गर्दनियाँ)
देकर उसे पीछे हटाया और देवप्रस्थ ने उस असुर के
कई तमाचे जड़ दिये ॥ १३-१५ ॥
वरूथप ने उस विशालकाय गधे को गेंद से
मारा। तदनन्तर श्रीकृष्णने भी धेनुकासुरको दोनों हाथोंसे उठाकर घुमाया और तुरंत ही
गोवर्धन पर्वतके ऊपर फेंक दिया। श्रीकृष्णके उस प्रहारसे धेनुक दो घड़ीतक मूर्च्छित
पड़ा रहा। फिर उठकर अपने शरीरको कँपाता हुआ मुँह फाड़कर आगे बढ़ा और दोनों सींगों से श्रीहरिको उठाकर वह दैत्य दौड़कर आकाशमें चला गया ॥ १६-१८ ॥
आकाश में एक लाख योजन ऊँचे जाकर उनके साथ युद्ध करने लगा । भगवान् श्रीकृष्ण ने धेनुकासुर- को पकड़कर नीचे भूमि को ओर फेंका।
इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और वह मूर्च्छित हो गया। तथापि पुनः उठकर अत्यन्त
भयंकर सिंहनाद करते हुए उसने दोनों सींगों से गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और श्रीकृष्ण के ऊपर चलाया ॥ १९-२० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०५)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति स त्...
-
सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
-
हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
-
||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
-
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) श्रीकृष्ण के विरह में गोपियो...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
-
☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
-
शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...