गुरुवार, 18 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

 

श्रीनारद उवाच -
उत्युक्त्वाथ गते विष्णौ मुनिरश्वशिरा नृप ।
साक्षात्काकभुषंडोऽभूद्‌योगींद्रो नीलपर्वते ॥ १५ ॥
रामभक्तो महातेजाः सर्वशास्त्रार्थदीपकः ।
रामायणं जगौ यो वै गरुडाय महात्मने ॥ १६ ॥
चाक्षुषे ह्यन्तरे प्राप्ते दक्षः प्राचेतसो नृप ।
कश्यपाय ददौ कन्या एकादश मनोहराः ॥ १७ ॥
तासां कद्रूश्च या श्रेष्ठा साऽद्यैव रोहिणी स्मृता ।
वसुदेवप्रिया यस्यां बलदेवोऽभवत्सुतः ॥ १८ ॥
सा कद्रूश्च महासर्पान् जनयामास कोटिशः ।
महोद्‌भटान् विषबलानुग्रान् पंचशताननान् ॥ १९ ॥
महाफणिधरान् कांश्चिद्दुःसहांश्च शताननान् ।
तेषां वेदशिरा नाम कालियोऽभून्महाफणी ॥ २० ॥
तेषामादौ फणीन्द्रोऽभूच्छेषोऽनन्तः परात्परः ।
सोऽद्यैव बलदेवोऽस्ति रामोऽनन्तोऽच्युताग्रजः ॥ २१ ॥
एकदा श्रीहरिः साक्षाद्‌भगवान् प्रकृतेः परः ।
शेषं प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ २२ ॥


श्रीभगवानुवाच –

भूमंडलं समाधातुं सामर्थ्यं कस्यचिन्न हि ।
तस्मादेनं महीगोलं मूर्ध्नि तं हि समुद्धर ॥ २३ ॥
अनंतविक्रमस्त्वं वै यतोऽनन्त इति स्मृतः ।
इदं कार्यं प्रकर्तव्यं जनकल्याणहेतवे ॥ २४ ॥

नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यों कहकर भगवान् विष्णु जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात् योगीन्द्र काकभुशुण्ड हो गये और नीलपर्वतपर रहने लगे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको प्रकाशित करनेवाले महातेजस्वी रामभक्त हो गये। उन्होंने ही महात्मा गरुडको रामायणकी कथा सुनायी थी ।। १५-१६॥

 

मिथिलानरेश ! चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान कीं। उन कन्याओं में जो श्रेष्ठ कद्रू थी, वही इस समय वसुदेवप्रिया रोहिणी होकर प्रकट हुई हैं, जिनके पुत्र बलदेवजी हैं। उस कद्रूने करोड़ों महासर्पों को जन्म दिया। वे सभी सर्प अत्यन्त उद्भट, विषरूपी बलसे सम्पन्न, उग्र तथा पाँच सौ फनों से युक्त थे ॥ १७-१९

 

वे महान् मणिरत्न धारण किये रहते थे। उनमें से कोई-कोई सौ मुखोंवाले एवं दुस्सह विषधर थे। उन्हींमें वेदशिरा 'कालिय' नामसे प्रसिद्ध महानाग हुए। उन सबमें प्रथम राजा फणिराज शेष हुए, जो अनन्त एवं परात्पर परमेश्वर हैं। वे ही आजकल 'बलदेव' के नामसे प्रसिद्ध हैं। वे ही राम, अनन्त और अच्युताग्रज आदि नाम धारण करते हैं ।। २० - २१ ॥

 

एक दिनकी बात है। प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् श्रीहरिने प्रसन्नचित्त होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें शेषसे कहा ॥ २२ ॥

 

श्रीभगवान् बोले- इस भूमण्डलको अपने ऊपर धारण करनेकी शक्ति दूसरे किसीमें नहीं है, इसलिये इस भूगोलको तुम्हीं अपने मस्तकपर धारण करो। तुम्हारा पराक्रम अनन्त है, इसीलिये तुम्हें 'अनन्त' कहा गया है। जन-कल्याणके हेतु तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिये ।। २३-२४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट १०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तं
    आनंदमानंदमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः
    स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
एते सृती ते नृप वेदगीते
    त्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट
    आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२ ॥
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् ॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! महाप्रलय के समय प्रकृतिरूप आवरण का भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूपसे आनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है, उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान्‌ वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रह्माजीसे कही थी ॥ ३२ ॥
संसार-चक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये, जिस साधनके द्वारा उसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ॥ ३३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 17 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

 

वैदेह उवाच -
यद्‌रजो दुर्लभं लोके योगिनां बहुजन्मभिः ।
तत्पादाब्जं हरेः साक्षाद्‌बभौ कालियमूर्द्धसु ॥ १ ॥
कोऽयं पूर्वं कुशलकृत्कालियो फणिनां वरः ।
एनं वेदितुमिच्छामि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
स्वायंभुवान्तरे पूर्वं नाम्ना वेदशिरा मुनिः ।
विंध्याचले तपोऽकार्षीद्‌भृगुवंशसमुद्‌भवः ॥ ३ ॥
तदाश्रमे तपः कर्तुं प्राप्तो ह्यश्वशिरा मुनिः ।
तं वीक्ष्य रक्तनयनः प्राह वेदशिरा रुषा ॥ ४ ॥


वेदशिरा उवाच -
ममाश्रमे तपो विप्र मा कुर्याः सुखदं न हि ।
अन्यत्र ते तपोयोग्या भूमिर्नास्ति तपोधन ॥ ५ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाऽथ वेदशिरसो वाक्यं ह्यश्वशिरा मुनिः ।
क्रोधयुक्तो रक्तनेत्रः प्राह तं मुनिपुंगवम् ॥ ६ ॥


अश्वशिरा उवाच -
महाविष्णोरियं भूमिः न ते मे मुनिसत्तम ।
कतिभिर्मुनिभिश्चात्र न कृतं तप उत्तमम् ॥ ७ ॥
श्वसन् सर्प इव त्वं भो वृथा क्रोधं करोषि हि ।
तदा सर्पो भव त्वं हि भूयात्ते गरुडाद्‌भयम् ॥ ८ ॥


वेदशिरा उवाच -
त्वं महादुरभिप्रायो लघुद्रोहे महोद्यमः ।
कार्यार्थी काम इव कौ त्वं काको भव दुर्मते ॥ ९ ॥
आविरासीत्ततो विष्णुरित्थं च शपतोस्तयोः ।
स्वस्वशापाद्दुःखितयोः सांत्वयामास तौ गिरा ॥ १० ॥


श्रीभगवानुवाच -
युवां तु मे समौ भक्तौ भुजाविव तनौ मुनी ।
स्ववाक्यं तु मृषा कर्तुं समर्थोऽहं मुनीश्वरौ ॥ ११ ॥
भक्तवाक्यं मृषा कर्तुं नेच्छामि शपथो मम ।
ते मूर्ध्नि हे वेदशिरः चरणौ मे भविष्यतः ॥ १२ ॥
तदा ते गरुडाद्‌भीतिः न भविष्यति कर्हिचित् ।
शृणु मेऽश्वशिरो वाक्यं शोचं मा कुरु मा कुरु ॥ १३ ॥
काकरूपेऽपि सुज्ञानं ते भविष्यति निश्चितम् ।
परं त्रैकालिकं ज्ञानं संयुतं योगसिद्धिभिः ॥ १४ ॥

विदेहराज बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! संसारमें जिनकी धूलि अनेक जन्मोंमें योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, भगवान्‌के साक्षात् वे ही चरणारविन्द कालियके मस्तकोंपर सुशोभित हुए। नागोंमें श्रेष्ठ यह = कालिय पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्य कर्म कर चुका था, जिससे इसको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ— यह मैं जानना चाहता हूँ। देवर्षिशिरोमणे ! यह बात मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

 

नारदजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालकी बात है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगुवंशमें हुई थी, विन्ध्य पर्वतपर तपस्या करते थे। उन्हींके आश्रमपर तपस्या करनेके लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनिके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे रोषपूर्वक बोले ।। ३-४ ॥

 

वेदशिराने कहा - ब्रह्मन् ! मेरे आश्रममें तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी । तपोधन ! क्या और कहीं तुम्हारे तपके योग्य भूमि नहीं है ? ॥ ५ ॥

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! वेदशिराकी यह बात सुनकर अश्वशिरा मुनिके भी नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे मुनिपुंगवसे बोले ॥ ६ ॥

 

अश्वशिराने कहा – मुनिश्रेष्ठ ! यह भूमि तो महाविष्णुकी है; न तुम्हारी है न मेरी यहाँ कितने

मुनियोंने उत्तम तपका अनुष्ठान नहीं किया है ? तुम व्यर्थ ही सर्पकी तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसलिये सदाके लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुडसे भय प्राप्त हो । ७-८ ।।

 

वेदशिरा बोले- दुर्मते ! तुम्हारा भाव बड़ा ही बडा दूषित हैं। तुम छोटे-से द्रोह या अपराधपर भी महान् दण्ड देनेके लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनानेके लिये कौएकी तरह इस पृथ्वीपर डोलते-फिरते हो; अतः तुम भी कौआ हो जाओ ।। ९ ।।

नारदजी कहते हैं— इसी समय भगवान् विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियोंके बीच प्रकट हो गये वे दोनों अपने-अपने शापसे बहुत दुखी थे । भगवान् ने अपनी वाणीद्वारा उन दोनोंको सान्त्वना दी ॥ १० ॥

 

श्रीभगवान् बोले – मुनियो ! जैसे शरीरमें दोनों भुजाएँ समान हैं, उसी प्रकार तुम दोनों समानरूपसे मेरे भक्त हो । मुनीश्वरो ! मैं अपनी बात तो झूठी कर सकता हूँ, परंतु भक्तकी बातको मिथ्या करना नहीं चाहता यह मेरी प्रतिज्ञा है । वेदशिरा ! सर्पकी अवस्थामें तुम्हारे मस्तकपर मेरे दोनों चरण अङ्कित होंगे। उस समयसे तुम्हें गरुडसे कदापि भय नहीं होगा । अश्वशिरा ! अब तुम मेरी बात सुनो। सोच न करो, सोच न करो । काकरूपमें रहनेपर भी तुम्हें निश्चय ही उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा। योगसिद्धियोंसे युक्त उच्चकोटिका त्रिकालदर्शी ज्ञान सुलभ होगा ।। ११ – १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयः
    तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
    वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८ ॥
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
    रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं
    प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९ ॥
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं
    मनोमयं देवमयं विकार्यम् ।
संसाद्य गत्या सह तेन याति
    विज्ञानतत्त्वं गुणसंनिरोधम् ॥ ३० ॥

सत्यलोकमें पहुँचनेके पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीरको पृथ्वीसे मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणोंका भेदन करता है। पृथ्वीरूपसे जलको और जलरूपसे अग्निमय आवरणोंको प्राप्त होकर वह ज्योतिरूपसे वायुरूप आवरणमें आ जाता है और वहाँ से समयपर ब्रह्म की अनन्तता का बोध कराने वाले आकाशरूप आवरण को प्राप्त करता है ॥२८॥ इस प्रकार स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रामें, नेत्र रूपतन्मात्रामें, त्वचा स्पर्शतन्मात्रामें, श्रोत्र शब्दतन्मात्रामें और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया-शक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्म- स्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस प्रकार योगी पञ्चभूतोंके स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहंकारमें, इन्द्रियोंको राजस अहंकारमें तथा मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवताओंको सात्त्विक अहंकारमें लीन कर देता है। इसके बाद अहंकारके सहित लयरूप गतिके द्वारा महत्तत्त्व में प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ॥ ३० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 16 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान

 

नागपत्‍न्य ऊचुः -
नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः ।
असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नमः ।
नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥
पाहि पाहि परदेव पन्नगं
    त्वत्परं न शरणं जगत्त्रये ।
त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं
    लीलया किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥


श्रीनारद उवाच -
नागपत्‍नीस्तुतः कृष्णः कालियं विगतस्मयम् ।
विससर्ज हरिः साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ २१ ॥
पाहीति प्रवदंतं तं कालियं भगवान् हरिः ।
प्रणतं संमुखे प्राप्तं प्राह देवो जनार्दनः ॥ २२ ॥


श्रीभगवानुवाच -
द्वीपं रमणकं गच्छ सकलत्रसुहृद्‌वृतः ।
सुपर्णो‍द्यतनात्त्वां वै नाद्यान् मत्पादलांछितम् ॥ २३ ॥


श्रीनारद उवाच -
सर्पः कृष्णं तु संपूज्य परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।
कलत्रपुत्रसहितो द्वीपं रमणकं ययौ ॥ २४ ॥
अथ श्रुत्वा कालियेन संग्रस्तं नंदनंदनम् ।
तत्राजग्मुर्गोपगणा नंदाद्याः सकला जनाः ॥ २५ ॥
जलाद्‌विनिर्गतं कृष्णं दृष्ट्वा मुमुदिरे जनाः ।
आश्लिष्य स्वसुतं नंदः परां मुदमवाप ह ॥ २६ ॥
सुतं लब्ध्वा यशोदा सा सुतकल्याणहेतवे ।
ददौ दानं द्विजातिभ्यः स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ २७ ॥
तत्रैव शयनं चक्रुर्गोपाः सर्वे परिश्रमात् ।
कालिंदीनिकटे राजन् गोपीगोपगणैः सह ॥ २८ ॥
वेणुसंघर्षणोद्‌भूतो दावाग्निः प्रलयाग्निवत् ।
निशीथे सर्वतो गोपान् दग्धुमागतवान् स्फुरन् ॥ २९ ॥
गोपा वयस्याः श्रीकृष्णं सबलं शरणं गताः ।
नत्वा कृतांजलिं कृत्वा तमूचुर्भयकातराः ॥ ३० ॥


गोपा ऊचुः -
कृष्ण कृष्ण महाबाहो शरणागतवत्सल ।
पाहि पाहि वने कष्टाद्दावाग्नेः स्वजनान् प्रभो ॥ ३१ ॥


श्रीनारद उवाच -
स्वलोचनानि माभैष्ट न्यमीलयत माधवः ।
इत्युक्त्वा वह्निमपिबद्देवो योगेश्वरेश्वरः ॥ ३२ ॥
प्रातर्गोपगणैः सार्द्धं विस्मितैर्नंदनंदनः ।
गोगणैः सहितः श्रीमद्‌व्रजमंडलमाययौ ॥ ३३ ॥

 

नापपत्त्रियाँ बोलीं- भगवन्! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति हैं । आप गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्रको हमारा बारंबार नमस्कार है । व्रजके अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभको नमस्कार है । नन्दके लाला एवं यशोदानन्दनको नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नागकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देनेवाला नहीं है। आप स्वयं साक्षात् परात्पर श्रीहरि हैं और लीलासे ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकारके श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं  ॥ १८-२० ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— अबतक कालियनागका गर्व चूर्ण हो गया था । नागपत्नियोंद्वारा किये गये इस स्तवनके पश्चात् वह श्रीकृष्णसे बोला- 'भगवन् ! पूर्णकाम परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये।' 'पाहि पाहि कहता हुआ कालियनाग भगवान् श्रीहरिके सम्मुख आकर उनके चरणोंमें गिर पड़ा। तब उन जनार्दनदेवने उससे कहा ।। २१-२२ ॥

 

श्रीभगवान् बोले- तुम अपनी पत्नियों और सुहृदोंके साथ रमणकद्वीपमें चले जाओ। तुम्हारे मस्तकपर मेरे चरणोंके चिह्न बन गये हैं, इसलिये अब गरुड तुम्हें अपना आहार नहीं बनायेगा || २३ ॥

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब उस सर्पने श्रीकृष्णकी पूजा और परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर, स्त्री-पुत्रोंके साथ रमणकद्वीपको प्रस्थान किया। इधर 'नन्दनन्दनको कालियनाग ने अपना ग्रास बना लिया है' अपना ग्रास बना लिया है' – यह समाचार सुनकर नन्द आदि समस्त गोपगण वहाँ आ गये थे। श्रीकृष्ण- को जलसे निकलते देख उन सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने बेटेको छातीसे लगाकर नन्दजी परमानन्दमें निमग्न हो गये। यशोदा ने अपने खोये पुत्रको पाकर उसके कल्याणकी कामनासे ब्राह्मणोंको हुए धन का दान किया। उस समय उनके स्तनोंसे स्नेहाधिक्यके कारण दूध झर रहा था। राजन् ! उस दिन रात में अधिक श्रमके कारण गोपाङ्गनाओं और ग्वाल-बालोंके साथ समस्त गोप यमुनाके निकट उसी स्थानपर सो गये। निशीथकालमें बाँसोंकी रगड़से प्रलयाग्निके समान दावानल प्रकट हो गया, जो सब ओरसे मानो गोपोंको दग्ध करनेके लिये उधर फैलता आ रहा था। उस समय मित्रकोटि के गोप बलराम- सहित श्रीकृष्णकी शरणमें गये और भयसे कातर हो दोनों हाथ जोड़कर बोले ।। २४ - ३० ।।

 

गोपोंने कहा- शरणागतवत्सल महाबाहु कृष्ण ! कृष्ण ! प्रभो ! वनके भीतर दावाग्निके कष्टमें पड़े हुए स्वजनोंको बचाओ ! बचाओ !! ॥ ३१ ॥

 

नारदजी कहते हैं— तब योगेश्वरेश्वर देव माधव उनसे बोले – 'डरो मत। अपनी-अपनी आँखें मूँद लो ।' यों कहकर वे सारा दावानल स्वयं ही पी गये। फिर- प्रातः काल विस्मित हुए गोपगणों तथा गौओंके साथ नन्दनन्दन शोभाशाली व्रजमण्डलमें आये ।। ३२-३३ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियदमन तथा दावानल-पान' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



सोमवार, 15 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान

 

बलं विनाथ गोपालैश् चारयन् गा हरिः स्वयम् ।
कालिन्दीकूलमागत्य ययौ वारिविषावृतम् ॥ १ ॥
कालियेन फणीन्द्रेण जलं यत्र विदूषितम् ।
पीत्वा निपेतुर्वसवो गावो गोपा जलान्तिके ॥ २ ॥
तदा तान् जीवयामास दृष्ट्या पीयूषपूर्णया ।
आर्द्रचित्तो हरिः साक्षाद्‌भगवान् वृजिनार्दनः ॥ ३ ॥
कटौ पीतपटं बद्ध्वा नीपमारुह्य माधवः ।
पपातोत्तुंगविटपात्तत्तोये विषदूषिते ॥ ४ ॥
उच्चचाल जलं दुष्टं कृष्णसंघातघूर्णितम् ।
तत्सर्पमन्दिरे नद्यां भृंगीभूतं बभूव ह ॥ ५ ॥
तदैव कालियः क्रुद्धः फणी फणशतावृतः ।
दशन्दन्तैश्च भुजया चच्छाद नृप माधवम् ॥ ६ ॥
कृष्णो दीर्घं वपुः कृत्वा बन्धनान्निर्गतश्च तम् ।
पुच्छे गृहीत्वा सर्पेंद्रं भ्रामयित्वा त्वितस्ततः ॥ ७ ॥
जलेनिपात्य हस्ताभ्यां चिक्षेपाशु धनुःशतम् ।
पुनरुत्थाय सर्पेन्द्रो लेलिहानो भयंकरः ॥ ८ ॥
वामहस्ते हरिं सर्पो रुषा जग्राह माधवम् ।
हरिर्दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा तं महाखलम् ॥ ९ ॥
तज्जले पोथयामास सुपर्ण इव पन्नगम् ।
सर्पो मुखशतं दीर्घं प्रसार्य पुनरागतः ॥ १० ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः चकर्षाशु धनुःशतम् ।
कृष्णहस्ताद्‌विनिष्क्रम्य सर्पस्तं व्यदशत्पुनः ॥ ११ ॥
तताड मुष्टिना सर्पं त्रैलोक्यबलधारकः ।
कृष्णमुष्टिप्रहारेण मूर्च्छितो विगतस्मृतिः ॥ १२ ॥
नतं कृत्वाऽऽननशतं स्थितोऽभूत् कृष्णसंमुखे ।
आरुह्य तत्फणिशतं मणिवृन्दमनोहरम् ॥ १३ ॥
ननर्त नटवत्कृष्णो नटवेषो मनोहरः ।
गायन् सप्तस्वरै रागं संगीतं च सतालकम् ॥ १४ ॥
पुष्पैर्देवेषु वर्षत्सु तांडवे नटराजवत् ।
वादयन् स मुदा वीणाऽऽनकदुन्दुभिवेणुकान् ॥ १५ ॥
सतालं पदविन्यासैस्तत्फणां सोज्ज्वलान् बहून् ।
बभंज श्वसतः कृष्णः कालियस्य महात्मनः ॥ १६ ॥
तदैव नागपत्‍न्यस्ता आगता भयविह्वलाः ।
नत्वा कृष्णपदं देवमूचुर्गद्‌गदया गिरा ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! एक दिन बलरामजीको साथमें लिये बिना ही श्रीहरि स्वयं ग्वाल- बालोंके साथ गाय चराने चले आये। यमुनाके तटपर आकर उन्होंने उस विषाक्त जलको पी लिया, जिसे नागराज कालियने अपने विषसे दूषित कर दिया था। उस जलको पीकर बहुत-सी गायें और गोपगण प्राणहीन होकर पानीके निकट ही गिर पड़े। यह देख सर्वपापहारी साक्षात् भगवान् श्रीहरिका चित्त दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी पीयूषपूर्ण दृष्टिसे देखकर उन सबको जीवित कर दिया ॥ १-३

 

इसके बाद पीताम्बर को कमर में कसकर बाँध लिया। फिर वे माधव तटवर्ती कदम्ब वृक्षपर चढ़ गये और उसकी ऊँची डाल से उस विष-दूषित जलमें कूद पड़े। भगवान् श्रीकृष्णके कूदनेसे वह दूषितजल चक्कर काटकर ऊपरको उछला। यमुनाके उस भागमें कालियनाग रहता था । भँवर उठनेसे उस सर्पका भवन इस तरह चक्कर काटने लगा, जैसे जलमें पानीके भौरे घूमते हैं। नरेश्वर । उस समय सौ फणोंसे युक्त फणिराज कालिय क्रुद्ध हो उठा और माधवको दाँतोंसे डँसते हुए उसने अपने शरीरसे उन्हें आच्छादित कर लिया ॥ ४-६

 

तब श्रीकृष्ण अपने शरीरको बड़ा करके उसके बन्धनसे छूट गये और उस सर्पराजकी पूँछ पकड़कर उसे इधर-उधर घुमाने लगे । घुमाते - घुमाते उन्होंने उसे पानीमें गिराकर पुनः दोनों हाथोंसे उठा लिया और तुरंत उसे सौ धनुष दूर फेंक दिया। उस भयानक नागराजने पुनः उठकर जीभ लपलपाते हुए रोषपूर्वक माधव श्रीहरिका बायाँ हाथ पकड़ लिया। तब श्रीहरिने उस महादुष्टको दाहिने हाथसे पकड़कर उस जलमें उसी प्रकार दबा दिया, जैसे गरुड किसी नागको रगड़ दे। और अपने सौ मुखोंको बहुत अधिक फैलाकर वह सर्प उनके पास आ गया। तब उसकी पूँछ पकड़कर श्रीकृष्ण उसे सौ धनुष दूर खींच ले गये। श्रीकृष्णके हाथसे सहसा निकलकर उसने पुनः उन्हें डँस लिया ॥ ७-११

 

यह देख अपनेमें त्रिभुवन का बल धारण करनेवाले श्रीहरि ने उस सर्प को एक मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्के की चोट खाकर वह सर्प मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। तदनन्तर अपने सौ मुखोंको आनत करके वह श्रीकृष्णके सामने स्थित हुआ। उसके सौ फन सौ मणियोंके प्रकाशसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण उन फनोंपर चढ़ गये और मनोहर नट-वेष धारण करके नटकी भाँति नृत्य करने लगे। साथ ही वे सातों स्वरोंसे किसी रागका अलाप करते हुए तालके साथ संगीत प्रस्तुत करने लगे। उस समय नटराजकी भाँति सुन्दर ताण्डव करनेवाले श्रीकृष्णके ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे और प्रसन्नतापूर्वक वीणा, ढोल, नगारे तथा बाँसुरी बजाने लगे । तालके साथ पदविन्यास करनेसे श्रीकृष्णने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालियके बहुत-से उज्ज्वल फनोंको भग्न कर दिया। उसी समय भयसे विह्वल हुई नागपत्नियाँ आ पहुँचीं और भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करके गद्गद वाणीद्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगीं ॥। १ - १७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा 
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

वैश्वानरं याति विहायसा गतः
    सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्
    प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४ ॥
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः
    अणीयसा विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
    कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
अथो अनन्तस्य मुखानलेन
    दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
    यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः
    न आर्तिः न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां
    दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्गसे अग्निलोकमें जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान्‌ श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ॥ २४ ॥ भगवान्‌ विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्वब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महर्लोकमें जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानोंपर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्ध की है ॥ २६ ॥ वहाँ न शोक है न दु:ख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दु:ख है तो केवल एक बातका। वह यही कि इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्ममृत्युमय अत्यन्त घोर सङ्कटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है ॥ २७ ॥ 

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रविवार, 14 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

राजोवाच ।।
मुने मुक्तिं कथं प्राप्तः पूर्वं को धेनुकासुरः ।।
कथं खरत्वमापन्न एतन्मे ब्रूहि तत्त्वतः ।। ३३ ।।


श्रीनारद उवाच ।।
वैरोचनेर्बलेः पुत्रो नाम्ना साहसिको बली ।।
नारीणां दशसाहस्रै रेमे वै गन्धमादने।।३४।।
वादित्राणां नूपुराणां शब्दोभूत्तद्वने महान्।।
गुहायामास्थितस्यापि श्रीकृष्णं स्मरतो मुनेः ।। ३५ ।।
दुर्वाससोऽथ तेनापि ध्यानभंगो बभूव ह ।।
निर्गतः पादुकारूढो दुर्वासाः कृशविग्रहः ।। ३६ ।।
दीर्घश्मश्रुर्यष्टि धरः क्रोधपुंजोनलद्युतिः ।।
यस्य शापाद्विश्वमिदं कंपते स जगाद ह ।। ३७ ।।


दुर्वासा उवाच ।।
उत्तिष्ठ गर्दभाकार गर्दभो भव दुर्मते ।।
वर्षाणां तु चतुर्लक्षं व्यतीते भारते पुनः ।। ३८ ।।
माधुरे मंडले दिव्ये पुण्ये तालवने वने ।।
बलदेवस्य हस्तेन मुक्तिस्ते भविताऽसुर ।। ३९ ।।


श्रीनारद उवाच ।।
तस्माद्बलस्य हस्तेन श्रीकृष्णस्तं जघान ह ।।
प्रह्लादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ।। ४० ।।

 

राजाने पूछा- मुने ! धेनुकासुर पूर्वजन्ममें कौन था ? उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? तथा उसे गधेका शरीर क्यों मिला ? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये ॥ ३३ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- विरोचनकुमार बलिका एक बलवान् पुत्र था, जिसका नाम था — साहसिक । वह दस हजार स्त्रियोंके साथ गन्धमादन पर्वतपर विहार कर रहा था। वहाँ वनमें नाना प्रकारके वाद्यों तथा रमणियोंके नूपुरोंका महान् शब्द होने लगा, जिससे उस पर्वतकी कन्दरामें रहकर श्रीकृष्णका चिन्तन करनेवाले दुर्वासा मुनिका ध्यान भङ्ग हो गया । वे खड़ाऊँ पहनकर बाहर निकले। उस समय मुनिवर दुर्वासाका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दाढ़ी-मूँछ बहुत बढ़ गयी थीं। वे लाठीके सहारे चलते थे । क्रोधकी तो वे मूर्तिमान् राशि ही थे और अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। दुर्वासा उन ऋषियोंमेंसे हैं, जिनके शापके भयसे यह सारा विश्व काँपता रहता है | वे बोले ।। ३४-३७ ॥

 

दुर्वासा ने कहा- दुर्बुद्धि असुर ! तू गदहेके  समान भोगासक्त है, इसलिये गदहा हो जा। आज से चार लाख वर्ष बीतने पर भारत में दिव्य माथुर मण्डलके अन्तर्गत पवित्र तालवन में बलदेवजी के हाथ से तेरी मुक्ति होगी ।। ३८-३९ ॥

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस शापके कारण ही भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके हाथसे उसका वध करवाया; क्योंकि उन्होंने प्रह्लादजीको यह वर दे रखा है कि तुम्हारे वंशका कोई दैत्य मेरे हाथसे नहीं मारा जायगा ॥ ४० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत 'धेनुकासुर का उद्धार' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
    वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
    सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः
    बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
    विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोकमें जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ, तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥ २२ ॥ योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ २३ ॥ 

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शनिवार, 13 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

गोवर्धनं समुत्पाट्य श्रीकृष्णे प्राहिणोत्खरः ।।
गिरिं गृहीत्वा श्रीकृष्णः णाक्षिपत्त स्य मस्तके ।।२१।।
दैत्यो गिरिं गृहीत्वाथ श्रीकृष्णे प्राहिणोद्बली।।
कृष्णो गोवर्धनं नीत्वा पूर्वस्थाने समाक्षिपत् ।।२२।।
पुनर्धावन्महादैत्यः शृङ्गाभ्यां । दारयन्भुवम्।।
बलं पश्चिमपादाभ्यां ताडयित्वा जगर्ज ह।२३।
ननाद तेन ब्रह्मांडं प्रैजद्भूखण्डमण्डलम्।।
हस्ताभ्यां संगृहीत्वा तं बलदेवो महाबलः।।२४।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितं भग्नमस्तकम् ।।
पुनस्तताड तं दैत्यं मुष्टिना ह्यच्युताग्रजः ।।२५।।
तेन मुष्टिप्रहारेण सद्यो वै निधनं गतः ।।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ।। २६ ।।
देहाद्विनिर्गतः सोऽपि श्यामसुन्दरविग्रहः ।।
स्रग्वी पीतांबरो देवो वनमालाविभूषितः ।।२७।।
लक्षपार्षदसंयुक्तः सहस्र ध्वजशोभितः ।।
सहस्रचक्रध्वनिभृद्धयायुतसमन्वितः ।। २८ ।।
लक्षचामरशोभाढ्योऽरुणवर्णोऽतिरत्नभृत् ।।
दिव्ययोजनविस्तीर्णो मनोयायी मनोहरः ।।२९।।
किंकिणीजालसंयुक्तो घटामंजीरसंयुतः ।।
हरिं प्रदक्षिणीकृत्य सबलं दिव्यरूपधृक् ।। ३० ।।
दिव्यं रथं समारुह्य द्योतयन्मंडलन्दिशाम् ।।
जगाम दैत्यो हे राजन्गोलोकं प्रकृतेः परम् ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णो धेनुकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।।
तद्यशस्तु प्रगायद्भिर्बभौ गोकुलगोगणैः ।। ३२ ।।

श्रीकृष्णने पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके पूर्व स्थानपर रख दिया ॥ २१-२२

 

तदनन्तर फिर धावा करके महादैत्य धेनुक ने दोनों सींगों से पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरों से पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा । तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश- हवास जाता रहा। इसके बाद श्रीकृष्ण के बड़े भाई ने पुनः उस दैत्यपर मुक्के से प्रहार किया ॥ २३-२५

 

उस मुष्टिप्रहार से धेनुकासुर की तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओं ने नन्दनवन के फूल बरसाये ॥ २६ ॥

 

देह से पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर - विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर तथा वनमाला से समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवा में जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथ की शोभा बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे। लाखों चँवरों की वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रत्नों से जटित था। उसका विस्तार एक दिव्य योजन का था। वह मन के समान तीव्रगति से चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था ॥ २७-२९

 

राजन् ! उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे । दिव्यरूपधारी दैत्य धेनुक बलरामसहित श्रीकृष्ण- की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको देदीप्यमान करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार धेनुक- का वध करके बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंके साथ व्रजको लौटे। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था ॥ ३०-३२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...