सोमवार, 29 जुलाई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
    विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् ।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
    स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः ॥ १४ ॥
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
    यद् वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १५ ॥
विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्
    सङ्गं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः ।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमाः
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १६ ॥

जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसीका ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्यसे युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्मस्वरूप अपने धाममें विहार करते रहते हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवोंके पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णको बार-बार नमस्कार है ॥ १५ ॥ विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलोंकी शरण लेकर अपने हृदयसे इस लोक और परलोककी आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रमके ही ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेते हैं, उन मङ्गलमय कीर्तिवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णको अनेक बार नमस्कार है ॥ १६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 28 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
राधाकृष्णस्य चरितं शृण्वतो मे मनो मुने ।
न तृप्तिं याति शरदः पंकजे भ्रमरो यथा ॥ १ ॥
रासेश्वर्या कृष्णपत्‍न्या तुलसीसेवने कृते ।
यद्‍बभूव ततो ब्रह्मन् तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
राधिकायाश्च विज्ञाय तुलसीसेवने तपः ।
प्रीतिं परीक्षन् श्रीकृष्णो वृषभानुपुरं ययौ ॥ ३ ॥
अद्‌भुतं गोपिकारूपं चलज्झंकारनूपुरम् ।
किंकिणीघण्टिकाशब्दमंगुलीयकभूषितम् ॥ ४ ॥
रत्‍नकंकणकेयूर मुक्ताहारविराजितम् ।
बालार्कताटंकलसत्कबरीपाशकौशलम् ॥ ५ ॥
नासामौक्तिकदिव्याभं श्यामकुन्तलसंकुलम् ।
धृत्वाऽसौ वृषभानोश्च मन्दिरं सन्ददर्श ह ॥ ६ ॥
प्राकारपरिखायुक्तं चतुर्द्वारसमन्वितम् ।
करीन्द्रैः कंजलाकारैर्द्वारि द्वारि मनोहरम् ॥ ७ ॥
वायुवेगैर्मनोवेगैश्चित्रवर्णैस्तुरंगमैः ।
हारचामरसंयुक्तं प्रोल्लसन्मण्डपाजिरम् ॥ ८ ॥
गवां गणैः सवत्सैश्च वृषैर्धर्मधुरन्धरैः ।
गोपाला यत्र गायन्ते वंशीवेत्रधरा नृप ॥ ९ ॥
वृषभानुवरस्यैवं पश्यन् मन्दिरकौशलम् ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ततो ह्यन्तःपुरं ययौ ॥ १० ॥
यत्र कोटिरविस्फूर्जत्कपाटस्तम्भपंक्तयः ।
रत्‍नाजिरेषु शोभन्ते ललनारत्‍नसंयुताः ॥ ११ ॥
वीणातालमृदंगादीन् वादयन्त्यो मनोहराः ।
पुष्पयष्टिसमायुक्ता गायन्त्यो राधिकागुणम् ॥ १२ ॥
तस्मिन्नन्तःपुरे दिव्यं भ्राजच्चोपवनं महत् ।
दाडिमीकुन्दमन्दारनिंबून्नतद्रुमावृतम् ॥ १३ ॥
केतकीमालतीवृंदैः माधवीभिः विराजितम् ।
तत्र राधानिकुंजोऽस्ति कल्पवृक्षसुगन्धिभृत् ॥ १४ ॥

राजा बहुलाश्व बोले—मुने ! श्रीराधाकृष्णके चरित्रको सुनते-सुनते मेरा मन अघाता नहीं — ठीक उसी तरह जैसे शरदऋतुके प्रफुल्ल कमलका रसपान करते समय भ्रमरोंको तृप्ति नहीं होती । ब्रह्मन् ! तपोधन ! श्रीकृष्णपत्नी रासेश्वरीद्वारा तुलसी सेवनका व्रत पूर्ण कर लिये जानेके बाद जो वृत्तान्त घटित हुआ, वह मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! श्रीराधिकाकी तुलसी सेवाके निमित्त की गयी तपस्याको जानकर, उनकी प्रीतिकी परीक्षा लेनेके लिये एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण वृषभानुपुरमें गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपाङ्गनाका रूप धारण कर लिया था। चलते समय उनके पैरोंसे नूपुरोंकी मधुर झनकार हो रही थी । कटिकी करधनीमें लगी हुई क्षुद्रघण्टिकाओंकी भी मधुर खनखनाहट सुनायी पड़ती थी । अङ्गुलियोंमें मुद्रिकाओंकी अपूर्व शोभा थी। कलाइयोंमें रत्नजटित कंगन, बाँहोंमें भुजबंद तथा कण्ठ एवं वक्षःस्थलमें मोतियोंके हार शोभा दे रहे थे। बालरविके समान दीप्तिमान् शीशफूलसे सुशोभित केश-पाशोंकी वेणी -रचनामें अपूर्व कुशलताका परिचय मिलता था। नासिकामें मोतीकी बुलाक हिल रही थी । शरीरकी दिव्य आभा स्निग्ध अलकोंके समान ही श्याम थी। ऐसा रूप धारण करके श्रीहरिने वृषभानुके मन्दिरको देखा । खाई और परकोटोंसे युक्त वह वृषभानु-भवन चार दरवाजोंसे सुशोभित था तथा प्रत्येक द्वारपर काजल वर्णके समानवाले गजराज झूमते थे, जिससे उस राजभवनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। उस मण्डपका प्राङ्गण वायु तथा मनके समान वेगशाली एवं हार और चँवरोंसे सुसज्जित विचित्र वर्णवाले अश्वोंसे शोभा पा रहा था । ३-८ ॥

नरेश्वर ! सवत्सा गौओंके समुदाय तथा धर्मधुरंधर वृषभवृन्दसे भी उस भवनकी बड़ी शोभा हो रही थी । बहुत-से गोपाल वहाँ वंशी और बेंत धारण किये गीत गा रहे थे। मायामयी युवतीका वेष धारण किये श्यामसुन्दर उस प्राङ्गणसे अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुए, जहाँ कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान् कपाटों और खंभोंकी पंक्तियाँ प्रकाश फैला रही थीं । वहाँके रत्न- मण्डित आँगनोंमें बहुत-सी रत्नस्वरूपा ललनाएँ सुशोभित हो रही थीं। वीणा, ताल और मृदङ्ग आदि बाजे बजाती हुई वे मनोहारिणी गोप- सुन्दरियाँ फूलोंकी छड़ी लिये श्रीराधिकाके गुण गा रही थीं। उस अन्तःपुरमें दिव्य एवं विशाल उपवनकी छटा छा रही थी। उसके भीतर अनार, कुन्द, मन्दार, नींबू तथा अन्य ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लहलहा रहे थे। केतकी, मालती और माधवी लताएँ उस उपवनको सुशोभित करती थीं। वहीं श्रीराधाका निकुञ्ज था, जिसमें कल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगन्ध भरी थी ॥ -१४

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

सूत उवाच ।

इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः ।
हृषीकेशं अनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे ॥ ११ ॥

श्रीशुक उवाच ।

नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे
    सदुद्‍भवस्थाननिरोधलीलया ।
गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनां
    अंतर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने ॥ १२ ॥
भूयो नमः सद्‌वृजिनच्छिदेऽसतां
    असंभवायाखिलसत्त्वमूर्तये ।
पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे
    व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे ॥ १३ ॥

सूतजी कहते हैं—जब राजा परीक्षित्‌ ने भगवान्‌के गुणोंका वर्णन करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णका बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—उन पुरुषोत्तम भगवान्‌के चरणकमलोंमें मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करनेके लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियोंको स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करका रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हैं, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धिका मार्ग बुद्धिके विषय नहीं हैं; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है ॥ १२ ॥ हम पुन: बार-बार उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषोंका दु:ख मिटाकर उन्हें अपने प्रेमका दान करते हैं, दुष्टोंकी सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रममें स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तुका दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हींकी मूर्ति हैं, इसलिये किसीसे भी उनका पक्षपात नहीं है ॥ १३ ॥ 

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शनिवार, 27 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

तुलसीका माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं चंद्राननावाक्यं श्रुत्वा रासेश्वरी नृप ।
तुलसीसेवनं साक्षादारेभे हरितोषणम् ॥ २० ॥
केतकीवनमध्ये च शतहस्तं सुवर्तुलम् ।
उच्चैर्हेमखचिद्‌भित्ति पद्मरागतटं शुभम् ॥ २१ ॥
हरिद्धीरकमुक्तानां प्राकारेण महोल्लसत् ।
सर्वतस्तोलिकायुक्तं चिंतामणिसुमंडितम् ॥ २२ ॥
हेमध्वजसमायुक्तं उत्तोरणविराजितम् ।
हैमैर्वितानैः परितो वैजयन्तमिव स्फुरत् ॥ २३ ॥
एतादृशं श्रीतुलसीमन्दिरं सुमनोहरम् ।
तन्मध्ये तुलसीं स्थाप्य हरित्पल्लवशोभितम् ॥ २४ ॥
अभिजिन्नमनक्षत्रे तत्सेवां सा चकार ह ।
समाहूतेन गर्गेण दिष्टेन विधिना सती ॥ २५ ॥
श्रीकृष्णतोषणार्थाय भक्त्या परमया सती ।
इषुपूर्णां समारभ्य चैत्रपूर्णावधि व्रतम् ॥ २६ ॥
पंचामृतेन तुलसीं मासे मासे पृथक् पृथक् ।
उद्यापनसमारंभं वैशाखप्रतिपद्दिने ॥ २८ ॥
गर्गदिष्टेन विधिना वृषभानुसुता नृप ।
षट्पंचाशत्तमैर्भोगैः ब्राह्मणानां द्विलक्षकम् ॥ २९ ॥
संतर्प्य वस्त्रभूषाद्यैः दक्षिणां राधिका ददौ ।
दिव्यानां स्थूलमुक्तानां लक्षभारं विदेहराट् ॥ ३० ॥
कोटिभारं सुवर्णानां गर्गाचार्याय सा ददौ ।
शतभारं सुवर्णानां मुक्तानाञ्च तथैव हि ॥ ३१ ॥
भक्त्या परमया राधा ब्राह्मणे ब्राह्मणे ददौ ।
देवदुन्दुभयो नेदुः ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
तन्मन्दिरोपरि सुरा पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ॥ ३२ ॥
तदाऽऽविरासीत् तुलसी हरिप्रिया
     सुवर्णपीठोपरि शोभितासना ।
चतुर्भुजा पद्मपलाशवीक्षणा
     श्यामा फुरद्धेमकिरीटकुण्डला ॥ ३३ ॥
पीतांबराच्छादितसर्पवेणीं
     स्रजं दधानां नववैजयन्तीम् ।
खगात्समुत्तीर्य च रंगवल्ली
     चुचुम्ब राधां परिरभ्य बाहुभिः ॥ ३४ ॥


तुलस्युवाच -
अहं प्रसनाऽस्मि कलावतीसुते
     तद्‌भक्तिभावेन जिता निरन्तरम् ।
कृतं च लोकव्यवहारसंग्रहा-
     त्त्वया व्रतं भामिनि सर्वतोमुखम् ॥ ३५ ॥
मनोरथस्ते सफलोऽत्र भूयाद्
     बुद्धीन्द्रियैश्चित्तमनोभिरग्रतः ।
सदानुकूलत्वमलं पतेः परं
     सौभाग्यमेवं परिकीर्तनीयम् ॥ ३६ ॥
एवं वदन्तीं तुलसीं हरिप्रियां
     नत्वाऽथ राधा वृषभानुनन्दिनी ।
प्रत्याह गोविन्दपदारविन्दयोः
     भक्तिर्भवेन्मे विदिता ह्यहैतुकी ॥ ३७ ॥
तथाऽस्तु चोक्ता तुलसी हरिप्रिया
     ऽथान्तर्दधे मैथिल राजसत्तम ।
तदैव राधा वृषभानुनन्दिनी
     प्रसन्नचित्ता स्वपुरे बभुव ह ॥ ३८ ॥
श्रीराधिकाख्यानमिदं विचित्रं
     शृणोति यो भक्तिपरः पृथिव्याम् ।
त्रैवर्ग्यभावं मनसा समेत्य राजन्
     ततो याति नरः कृतार्थाम् ॥ ३९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार चन्द्राननाकी कही हुई बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने साक्षात् श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले तुलसी सेवनका व्रत आरम्भ किया। केतकीवनमें सौ हाथ गोलाकार भूमिपर बहुत ऊँचा और अत्यन्त मनोहर श्रीतुलसीका मन्दिर बनवाया, जिसकी दीवार सोनेसे जड़ी थी और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी । वह सुन्दर मन्दिर पन्ने, हीरे और मोतियोंके परकोटेसे अत्यन्त सुशोभित था तथा उसके चारों ओर परिक्रमाके लिये गली बनायी गयी थी, जिसकी भूमि चिन्तामणिसे मण्डित थी ॥२०-२२

बहुत ऊँचा तोरण (मुख्यद्वार या गोपुर) उस मन्दिरकी शोभा बढ़ाता था। वहाँ सुवर्णमय ध्वजदण्डसे युक्त पताका फहरा रही थी। चारों ओर ताने हुए सुनहले वितानों (चंदोवों) के कारण वह तुलसी-मन्दिर वैजयन्ती पताका से युक्त इन्द्रभवन - सा देदीप्यमान था । ऐसे

तुलसी- मन्दिर के मध्यभागमें  हरे पल्लवों से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्रीराधाने अभिजित् मुहूर्तमें उनकी सेवा प्रारम्भ की। श्रीगर्गजीको बुलाकर उनकी बतायी हुई विधिसे सती श्रीराधाने बड़े भक्तिभावसे श्रीकृष्णको संतुष्ट करनेके लिये आश्विन शुक्ला पूर्णिमा से 'लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन-व्रत का अनुष्ठान किया । २३ - २

व्रत आरम्भ करके उन्होंने प्रतिमास पृथक्-पृथक् रससे तुलसीको सींचा। कार्तिकमें दूधसे, मार्गशीर्षमें ईखके रससे, पौषमें द्राक्षारससे, माघमें बारहमासी आमके रससे, फाल्गुन मासमें अनेक वस्तुओंसे मिश्रित मिश्रीके रससे और चैत्र मासमें पञ्चामृत से उसका सेचन किया। नरेश्वर ! इस प्रकार व्रत पूरा करके वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने गर्गजीकी बतायी हुई विधिसे वैशाख कृष्णा प्रतिपदाके दिन उद्यापनका उत्सव किया। उन्होंने दो लाख ब्राह्मणोंको छप्पन भोगोंसे तृप्त करके वस्त्र और आभूषणोंके साथ दक्षिणा दी। विदेहराज ! मोटे-मोटे दिव्य मोतियोंका एक लाख भार और सुवर्णका एक कोटि भार श्रीगर्गाचार्यजीको दिया। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं, अप्सराओंका नृत्य होने लगा और देवतालोग उस तुलसी-मन्दिरके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।। २ – ३

उसी समय सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हरिप्रिया तुलसीदेवी प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं। कमलदलके समान विशाल नेत्र थे । सोलह वर्षकी सी अवस्था एवं श्याम कान्ति थी । मस्तकपर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानों में काञ्चनमय कुण्डल झलमला रहे थे। पीताम्बरसे आच्छादित केशोंकी बँधी हुई नागिन-जैसी वेणीमें वैजयन्ती माला धारण किये, गरुडसे उतरकर तुलसीदेवीने रङ्गवल्ली-जैसी श्रीराधाको अपनी भुजाओंसे अङ्कमें भर लिया और उनके मुखचन्द्रका चुम्बन किया  ।। ३-३

तुलसी बोलीं- कलावती कुमारी राधे ! मैं तुम्हारे भक्ति-भावसे वशीभूत हो निरन्तर प्रसन्न हूँ । भामिनि ! तुमने केवल लोकसंग्रहकी भावनासे इस सर्वतोमुखी व्रतका अनुष्ठान किया है (वास्तवमें तो तुम पूर्णकाम हो) । यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्तद्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है, वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो। पति सदा तुम्हारे अनुकूल हों और इसी प्रकार कीर्तनीय परम सौभाग्य बना रहे ॥ ३-३

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहती हुई हरिप्रिया तुलसीको प्रणाम करके वृषभानुनन्दिनी राधा ने उनसे कहा – 'देवि ! गोविन्द के युगल चरणारविन्दों में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे ।' मैथिलराजशिरोमणे ! तब हरिप्रिया तुलसी 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयीं। तबसे वृषभानुनन्दिनी राधा अपने नगरमें प्रसन्न चित्त रहने लगीं। राजन् ! इस पृथ्वीपर जो मनुष्य भक्तिपरायण हो श्रीराधिकाके इस विचित्र उपाख्यानको सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुखका अनुभव करके अन्तमें भगवान्‌ को पाकर कृतकृत्य हो जाता है ।। ३-३।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'तुलसीपूजन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न   और शुकदेवजी का कथारम्भ

राजोवाच ॥

समीचीनं वचो ब्रह्मन् सर्वज्ञस्य तवानघ ।
तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम् ॥ ५ ॥
भूय एव विवित्सामि भगवान् आत्ममायया ।
यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरैः ॥ ६ ॥
यथा गोपायति विभुः यथा संयच्छते पुनः ।
यां यां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुशक्तिः परः पुमान् ।
आत्मानं क्रीडयन्क्रीडन् करोति विकरोति च ॥ ७ ॥
नूनं भगवतो ब्रह्मन् हरेरद्‍भुतकर्मणः ।
दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम् ॥ ८ ॥
यथा गुणांस्तु प्रकृतेः युगपत् क्रमशोऽपि वा ।
बिभर्ति भूरिशस्त्वेकः कुर्वन् कर्माणि जन्मभिः ॥ ९ ॥
विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान् यथा ।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिंश्च भवान्खलु ॥ १० ॥

परीक्षित्‌ने पूछा—भगवत्स्वरूप मुनिवर ! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान्‌की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञानका परदा फटता जा रहा है ॥ ५ ॥ मैं आपसे फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान्‌ अपनी मायासे इस संसारकी सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसारकी रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि ब्रह्मादि समर्थ लोकपाल भी इसके समझनेमें भूल कर बैठते हैं ॥ ६ ॥ भगवान्‌ कैसे इस विश्वकी रक्षा और फिर संहार करते हैं ? अनन्तशक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियोंका आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं ? वे बच्चों के बनाये हुए घरौंदों की तरह ब्रह्माण्डों को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-की-बात में मिटा देते हैं ? ॥ ७ ॥ भगवान्‌ श्रीहरि की लीलाएँ बड़ी ही अद्भुत—अचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी उनकी लीला का रहस्य समझना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है ॥ ८ ॥ भगवान्‌ तो अकेले ही हैं । वे बहुत-से कर्म करने के लिये पुरुषरूप से प्रकृति के विभिन्न गुणों को एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमश: धारण करते हैं ? ॥ ९ ॥ मुनिवर ! आप वेद और ब्रह्मतत्त्व दोनों के पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देहका निवारण कीजिये ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

तुलसीका माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना

 

श्रीनारद उवाच -
राधावाक्यं ततः श्रुत्वा राज सर्वसखीवरा ।
चन्द्रानना प्रत्युवाच संविचार्य क्षणं हृदि ॥ १ ॥


चन्द्राननोवाच -
परं सौभाग्यदं राधे महापुण्यं वरप्रदम् ।
श्रीकृष्णस्यापि लब्ध्यर्थं तुलसीसेवनं मतम् ॥ २ ॥
दृष्ट्वा स्पृष्ट्वाऽथवा ध्याता कीर्तिता नमिता स्तुता ।
रोपिता सिंचिता नित्यं पूजिता तुलसीष्टदा ॥ ३ ॥
नवधा तुलसीभक्तिं ये कुर्वन्ति दिने दिने ।
युगकोटिसहस्राणि ते यांति सुकृतं शुभे ॥ ४ ॥
यावच्छाखाप्रशाखाभिर्बीजपुष्पदलैः शुभैः ।
रोपिता तुलसी मर्त्यैः वर्धते वसुधातले ॥ ५ ॥
तेषां वंशेषु ये जाता ये भविष्यंति ये गताः ।
आकल्पयुगसाहस्रं तेषां वासो हरेर्गृहे ॥ ६ ॥
यत्फलं सर्वपत्रेषु सर्वपुष्पेषु राधिके ।
तुलसीदलेन चैकेन सर्वदा प्राप्यते तु तत् ॥ ७ ॥
तुलसीप्रभवैः पत्रैर्यो नरः पूजयेत् हरिम् ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ८ ॥
सुवर्णभारशतकं रजतं यच्चतुर्गुणम् ।
तत्फलं समवाप्नोति तुलसीवनपालनात् ॥ ९ ॥
तुलसीकाननं राधे गृहे यस्यावतिष्ठति ।
तद्‌गृहं तीर्थरूपं हि न यांति यमकिंकराः ॥ १० ॥
सर्वपापहरं पुण्यं कामदं तुलसीवनम् ।
रोपयंति नराः श्रेष्ठास्ते न पश्यंति भास्करिम् ॥ ११ ॥
रोपणात्पालनात्सेकाद्दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम् ।
तुलसी दहते पापं वाङ्‌मनःकायसंचितम् ॥ १२ ॥
पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा ।
वासुदेवादयो देवा वसन्ति तुलसीदले ॥ १३ ॥
तुलसीमंजरीयुक्तो यस्तु प्राणान्विमुंचति ।
यमोऽपि नेक्षितुं शक्तो युक्तं पापशतैरपि ॥ १४ ॥
तुलसीकाष्टजं यस्तु चंदनं धारयेन्नरः ।
तद्देहं न स्पृशेत्पापं क्रियमाणमपीह यत् ॥ १५ ॥
तुलसीविपिनच्छाया यत्र यत्र भवेच्छुभे ।
तत्र श्राद्धं प्रकर्तव्यं पितॄणां दत्तमक्षयम् ॥ १६ ॥
तुलस्याः सखि माहात्म्यं आदिदेवश्चतुर्मुखः ।
न समर्थो भवेद्वक्तुं यथा देवस्य शार्ङ्‌गिणः ॥ १७ ॥
श्रीकृष्णचंद्रचरणे तुलसीं चन्दनैर्युताम् ।
यो ददाति पुमान् स्त्री वा यथोक्तं फलमाप्नुयात् ॥ १८ ॥
तुलसीसेवनं नित्यं कुरु त्वं गोपकन्यके ।
श्रीकृष्णो वश्यतां याति येन वा सर्वदैव हि ॥ १९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! श्रीराधाकी बात सुनकर समस्त सखियोंमें श्रेष्ठ चन्द्राननाने अपने हृदयमें एक क्षणतक कुछ विचार किया फिर इस प्रकार उत्तर दिया ॥ १ ॥

चन्द्रानना बोलीं- राधे ! परमसौभाग्यदायक, महान् पुण्यजनक तथा श्रीकृष्णकी भी प्राप्तिके लिये वरदायक व्रत है— तुलसीकी सेवा। मेरी रायमें तुलसी सेवनका ही नियम तुम्हें लेना चाहिये; क्योंकि तुलसीका यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम-कीर्तन, नमन,स्तवन, आरोपण, सेचन और तुलसीदलसे ही नित्य पूजन किया जाय तो वह महान् पुण्यप्रद होता है। शुभे ! जो प्रतिदिन तुलसीकी नौ प्रकारसे भक्ति करते हैं, वे कोटि सहस्र युगोंतक अपने उस सुकृत्यका उत्तम फल भोगते हैं। मनुष्योंकी लगायी हुई तुलसी जबतक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प और सुन्दर दलोंके साथ पृथ्वीपर बढ़ती रहती है, तबतक उनके वंशमें जो-जो जन्म लेते हैं, वे सब उन आरोपण करनेवाले मनुष्योंके साथ दो हजार कल्पोंतक श्रीहरिके धाममें निवास करते हैं ॥ २-६

राधिके ! सम्पूर्ण पत्रों और पुष्पोंको भगवान्‌ के चरणों में चढ़ाने से जो फल मिलता है, वह सदा एकमात्र तुलसीदल के अर्पण से प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य तुलसीदलों से श्रीहरि की पूजा करता है, वह जलमें पद्मपत्र की भाँति पाप से कभी लिप्त नहीं होता ॥ ७-८  

सौ भार सुवर्ण तथा चार सौ भार रजतके दानका जो फल है, वही तुलसीवनके पालनसे मनुष्यको प्राप्त हो जाता है। राधे ! जिसके घरमें तुलसीका वन या बगीचा होता है, उसका वह घर तीर्थरूप है। वहाँ यमराजके दूत कभी नहीं जाते। जो श्रेष्ठ मानव सर्वपापहारी, पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले तुलसीवनका रोपण करते हैं, वे कभी सूर्यपुत्र यमको नहीं देखते ॥९-११

रोपण, पालन, सेचन, दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मनुष्योंके मन, वाणी और शरीरद्वारा संचित समस्त पापोंको दग्ध कर देती । पुष्कर आदि तीर्थ, गङ्गा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता तुलसीदलमें सदा निवास करते हैं। जो तुलसीकी मञ्जरी सिरपर रखकर प्राण त्याग करता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त क्यों न हो, यमराज उसकी ओर देख भी नहीं सकते ॥१२ -१४

जो मनुष्य तुलसी – काष्ठ का घिसा हुआ चन्दन लगाता है, उसके शरीर को यहाँ क्रियमाण पाप भी नहीं छूता । शुभे ! जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहाँ-वहाँ पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये । वहाँ दिया हुआ श्राद्ध-सम्बन्धी दान अक्षय होता है। सखी! आदिदेव चतुर्भुज ब्रह्माजी भी शार्ङ्गधन्वा श्रीहरिके माहात्म्यकी भाँति तुलसीके माहात्म्यको भी कहने में समर्थ नहीं हैं। अतः गोप- नन्दिनि ! तुम भी प्रतिदिन तुलसीका सेवन करो, जिससे श्रीकृष्ण सदा ही तुम्हारे वशमें रहें  ॥ १५- 19

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्र और शुकदेवजी का कथारम्भ

सूत उवाच ।

वैयासकेरिति वचः तत्त्वनिश्चयमात्मनः ।
उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेयः सतीं व्यधात् ॥ १ ॥
आत्मजायासुतागार पशुद्रविणबन्धुषु ।
राज्ये चाविकले नित्यं विरूढां ममतां जहौ ॥ २ ॥
पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमाः ।
कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामनाः ॥ ३ ॥
संस्थां विज्ञाय सन्न्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत् ।
वासुदेवे भगवति आत्मभावं दृढं गतः ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैं—शुकदेवजी के वचन भगवत्तत्त्व का निश्चय करानेवाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षित्‌ ने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्यभावसे समर्पित कर दी ॥ १ ॥ शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, पशु, धन, भाई-बन्धु और निष्कण्टक राज्यमें नित्यके अभ्यासके कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षणमें ही उन्होंने उस ममताका त्याग कर दिया ॥ २ ॥ शौनकादि ऋषियो ! महामनस्वी परीक्षित्‌ ने अपनी मृत्युका निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और कामसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने भी कर्म थे, उनका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णमें सुदृढ़ आत्मभावको प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धासे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमा सुननेके लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजीसे यही प्रश्न किया, जिसे आपलोग मुझसे पूछ रहे हैं ॥ ३-४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 25 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म करनेकी प्रेरणा देना

 

श्रीभगवानुवाच -
सर्वं हि भावं मनसः परस्परं
     नह्येकतो भामिनि जायते तअतः ।
प्रेमैव कर्तव्यमतो मयि स्वतः
     प्रेम्णा समानं भुवि नास्ति किंचित् ॥ ३० ॥
यथा हि भाण्डीरवने मनोरथो
     बभूव तस्या हि तथा भविष्यति ।
अहैतुकं प्रेम च सद्‌भिराश्रितं
     तच्चापि सन्तः किल निर्गुणं विदुः ॥ ३१ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्
     भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति
     तदहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥ ३२ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
     कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि ।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता
रम्भोरु यावत्किल चंद्रभास्करौ ॥ ३३ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं श्रुत्वा वचः कृत्स्नं नत्वा तं ललिता सखी ।
राधां समेत्य रहसि प्राह प्रहसितानना ॥ ३४ ॥


ललितोवाच -
त्वमिच्छसि यथा कृष्णं तथा त्वां मधुसूदनः ।
युवयोर्भेदरहितं तेजस्त्वैकं द्विधा जनैः ॥ ३५ ॥
तथापि देवि कृष्णाय कर्म निष्कारणं कुरु ।
येन ते वांछितं भूयाद्‌भक्त्या परमया सति ॥ ३६ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सखीवाक्यं राधा रासेश्वरी नृप ।
चंद्राननां प्राह सखीं सर्वधर्मविदां वराम् ॥ ३७ ॥
श्रीकृष्णस्य प्रसन्नार्थं परं सौभाग्यवर्धनम् ।
महापुण्यं वांछितदं पूजनं वद कस्यचित् ॥ ३८ ॥
त्वया भद्रे धर्मशास्त्रं गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
तस्माद्‌व्रतं पूजनं वा ब्रूहि मह्यं महामते ॥ ३९ ॥

 

श्रीभगवान् ने कहा- भामिनि ! मन का सारा भाव स्वतः एकमात्र मुझ परात्पर पुरुषोत्तम की ओर नहीं प्रवाहित होता; अतः सबको अपनी ओरसे मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतलपर प्रेमके समान दूसरा कोई साधन नहीं है (मैं प्रेमसे ही सुलभ होता हूँ) । भाण्डीरवनमें श्रीराधाके हृदयमें जैसे मनोरथका उदय हुआ था, वह उसी रूपमें पूर्ण होगा। सत्पुरुष अहैतुक प्रेमका आश्रय लेते हैं। संत, महात्मा उस निर्हेतुक प्रेमको निश्चय ही निर्गुण (तीनों गुणोंसे अतीत) मानते हैं ॥ ३० - ३

जो मुझ केशवमें और श्रीराधिकामें थोड़ा-सा भी भेद नहीं देखते, बल्कि दूध और उसकी शुक्लताके समान हम दोनोंको सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्होंके अन्तःकरणमें अहैतुकी भक्तिके लक्षण प्रकट होते हैं तथा वे ही मेरे ब्रह्मपद (गोलोकधाम) में प्रवेश पाते हैं। रम्भोरु ! इस भूतलपर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव हरिमें तथा श्रीराधिकामें भेदभाव रखते हैं, वे जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतक निश्चय ही कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर

दुःख भोगते हैं  ॥ ३ - ३३ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकी यह सारी बात सुनकर ललिता सखी उन्हें प्रणाम करके श्रीराधाके पास गयी और एकान्तमें बोली । बोलते समय उसके मुखपर मधुर हासकी छटा छा रही थी ॥ ३४ ॥

ललिताने कहा- सखी! जैसे तुम श्रीकृष्णको चाहती हो, उसी तरह वे मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते हैं । तुम दोनों का तेज भेद-भावसे रहित, एक है । लोग अज्ञानवश ही उसे दो मानते हैं। तथापि सती-साध्वी देवि! तुम श्रीकृष्णके लिये निष्काम कर्म करो, जिससे पराभक्तिके द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो । ।। ३५-३६ ।।

नारदजी कहते हैं-नरेश्वर ! ललिता सखीकी यह बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने सम्पूर्ण धर्म- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ चन्द्रानना सखीसे कहा ॥ ३७ ॥

श्रीराधा बोलीं- सखी! तुम श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये किसी देवताकी ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यवर्द्धक, महान् पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाली हो । भद्रे ! महामते ! तुमने गर्गाचार्यजीके मुखसे शास्त्रचर्चा सुनी है। इसलिये तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ ॥ ३८-३९ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाकृष्णके प्रेमोद्योगका वर्णन' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १५ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण

जीवन् शवो भागवताङ्‌घ्रिरेणुं
    न जातु मर्त्योऽभिलभेत यस्तु ।
श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः
    श्वसन् शवो यस्तु न वेद गन्धम् ॥ २३ ॥
तदश्मसारं हृदयं बतेदं
    यद्‍गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।
न विक्रियेताथ यदा विकारो
    नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ॥ २४ ॥
अथाभिधेह्यङ्ग मनोऽनुकूलं
    प्रभाषसे भागवतप्रधानः ।
यदाह वैयासकिरात्मविद्या
    विशारदो नृपतिं साधु पृष्टः ॥ २५ ॥

जिस मनुष्यने भगवत्प्रेमी संतोंके चरणोंकी धूल कभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है। जिस मनुष्यने भगवान्‌ के चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी की सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है ॥ २३ ॥ सूतजी ! वह हृदय नहीं, लोहा है, जो भगवान्‌ के मंगलमय नामोंका श्रवण-कीर्तन करनेपर भी पिघलकर उन्हींकी ओर बह नहीं जाता। जिस समय हृदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रोंमें आँसू छलकने लगते हैं और शरीरका रोम-रोम खिल उठता है ॥ २४ ॥ प्रिय सूतजी ! आपकी वाणी हमारे हृदयको मधुरतासे भर देती है। इसलिये भगवान्‌ के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजीने परीक्षित्‌ के सुन्दर प्रश्र करनेपर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हमलोगोंको सुनाइये ॥ २५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 24 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधाको श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म करनेकी प्रेरणा देना

 

श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्या ललिता भयविह्वला ।
श्रीकृष्णपार्श्वं प्रययौ कृष्णातीरे मनोहरे ॥ २३ ॥
माधवीजालसंयुक्ते मधुरध्वनिसंकुले ।
कदम्बमूले रहसि प्राह चैकाकिनं हरिम् ॥ २४ ॥


ललितोवाच -
यस्मिन् दिने च ते रूपं राधया दृष्टमद्‌भुतम् ।
तद्दीनात्स्तंभतां प्राप्ता पुत्रिकेव न वक्ति किम् ॥ २५ ॥
अलंकारस्त्वर्चिरिव वस्त्रं भर्जरजो यथा ।
सुगंधि कटुवद्यस्या मन्दिरं निर्जनं वनम् ॥ २६ ॥
पुष्पं बाणं चंद्रबिंबं विषकंदमवेहि भोः ।
तस्यै संदर्शनं देहि राधायै दुःखनाशनम् ॥ २७ ॥
ते साक्षिणं किं विदितं न भूतले
सृजस्यलं पासि हरस्यथो जगत् ।
यदा समानोऽसि जनेषु सर्वतः
तथापि भक्तान् भजसे परेश्वर ॥ २८ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा हरिः साक्षाल्ललितं ललितावचः ।
उवाच भगवान् देवो मेघगंभीरया गिरा ॥ २९ ॥

नारदजी कहते हैं - मिथिलेश्वर ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर ललिता भयसे विह्वल हो, यमुनाके मनोहर तटपर श्रीकृष्णके पास गयी। वे माधवीलताके जालसे आच्छन्न और भ्रमरोंकी गुंजारोंसे व्याप्त एकान्त प्रदेशमें कदम्बकी जड़के पास अकेले बैठे थे। वहाँ ललिताने श्रीहरि से कहा ॥ २३-२४ ॥

ललिता बोली - श्यामसुन्दर ! जिस दिनसे श्रीराधाने तुम्हारे अद्भुत मोहनरूपको देखा है, उसी दिनसे वह स्तम्भनरूप सात्त्विकभावके अधीन हो गयी है। काठ की पुतली की भाँति किसीसे कुछ बोलती नहीं। अलंकार उसे अग्नि की ज्वालाकी भाँति दाहक प्रतीत होते हैं। सुन्दर वस्त्र भाड़की तपी हुई बालूके समान जान पड़ते हैं। उसके लिये हर प्रकारकी सुगन्ध कड़वी तथा परिचारिकाओंसे भरा हुआ भवन भी निर्जन वन हो गया है। हे प्यारे ! तुम यह जान लो कि तुम्हारे विरह में मेरी सखी को फूल बाण-सा तथा चन्द्र-बिम्ब विषकंद-सा प्रतीत होता है। अतः श्रीराधा को तुम शीघ्र दर्शन दो। तुम्हारा दर्शन ही उसके दुःखों को दूर कर सकता है ॥२५ - २

तुम सबके साक्षी हो | भूतलपर कौन-सी ऐसी बात है, जो तुम्हें विदित न हो। तुम्हीं इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हो। यद्यपि परमेश्वर होनेके कारण तुम सब लोगोंके प्रति समानभाव रखते हो, तथापि अपने भक्तोंका भजन करते हो (उनके प्रति अधिक प्रेम- भाव रखते हो ) ॥२८॥

नारदजी कहते हैं— राजन् ! ललिताकी यह ललित, बात सुनकर व्रजके साक्षात् देवता भगवान् श्रीकृष्ण मेघगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें बोले ॥ २९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...