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रविवार, 4 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
शनिवार, 3 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
रासक्रीडा का वर्णन
बहुलाश्व उवाच -
राधायै दर्शनं दत्त्वा कृत्वा प्रेमपरीक्षणम् ।
अग्रे चकार कां लीलां भगवानात्मलीलया ॥ १ ॥
श्रीनारद उवाच -
माधवो माधवे मासि माधवीभिः समाकुले ।
वृंदावने समारेभे रासं रासेश्वरः स्वयम् ॥ २ ॥
वैशाखमासि पंचम्यां जाते चन्द्रोदये शुभे ।
यमुनोपवने रेमे रासेश्वर्या मनोहरः ॥ ३ ॥
पुरा मैथिल गोलोकाद् भूमिर्या कौ समागता ।
सर्वा बभूव सौवर्णपद्मरागमयी त्वरम् ॥ ४ ॥
वृन्दावनं दिव्यवपुः दधत् कामदुघैर्द्रुमैः ।
माधवीभिर्लताभिश्च प्राक्षिपन्नन्दनन्दनम् ।
रत्नसोपानसंपन्ना स्फुरत्सौवर्णतोलिका ।
रराज यमुना राजन् हंसपद्मादिसंकुला ॥ ६ ॥
रत्नधातुमयः श्रीमद्रत्नशृङ्गस्फुरद्द्युतिः ।
सपक्षिगणसंयुक्तो लतापुष्पमनोहरः ॥ ७ ॥
निर्झरैः सुन्दरीभिश्च दरीभिर्भ्रमरीवृतः ।
रेजे गोवर्धनो नाम गिरिराजः करीन्द्रवत् ॥ ८ ॥
सर्वे निकुंजाः परितो रेजुर्दिव्यवपुर्धराः ।
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तंभपंक्तिभिः ॥ ९ ॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्नृप ।
स्वेतारुणैः पुष्पदलैः पुष्पमन्दिरवर्तिभिः ॥ १० ॥
वसन्तमाधुर्यधराः कूजत्कोकिलसारसाः ।
पारावतैर्मयूरैश्च यत्र तत्र निकूजिताः ॥ ११ ॥
राधाकृष्णकथां पुण्यां गायमानैर्मधुव्रतैः ।
पतद्भिर्मधुमत्तैश्च कुंजाः सर्वे विराजिताः ॥ १२ ॥
पुलिने शीतलो वायुः मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥ १३ ॥
राजा बहुलाश्वने पूछा-
देवर्षे ! श्रीराधाको और सुन्दरी दरियों (कन्दराओं) तथा भ्रमरियोंसे वह दर्शन दे, उसके
प्रेमकी परीक्षा करके, भगवान् श्रीकृष्णने अपनी लीलाशक्तिके द्वारा आगे चलकर कौन-सी
लीला प्रकट की ? ॥ १ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन्
! माधव (वैशाख) मासमें माधवी लताओंसे व्याप्त वृन्दावनमें रासेश्वर माधवने स्वयं रासका
आरम्भ किया। वैशाख मासकी कृष्णपक्षीया पञ्चमीको जब सुन्दर चन्द्रोदय हुआ, उस समय मनोहर
श्यामसुन्दरने यमुनाके तटवर्ती उपवनमें रासेश्वरी श्रीराधाके साथ रास-विहार किया। मिथिलेश्वर
! इसके पूर्व गोलोकसे जिस भूमिका पृथ्वीपर अवतरण हो चुका था, वह सब की सब तत्काल सुवर्ण
तथा पद्मरागमणिसे मण्डित हो गयी ॥ २-४ ॥
वृन्दावन भी दिव्यरूप
धारण करके, कामपूरक कल्पवृक्षों तथा माधवी लताओंसे समलंकृत हो, अपनी शोभासे नन्दनवनको
भी तिरस्कृत करने लगा। राजन् ! रत्नोंके सोपानों और सुवर्ण-निर्मित तोलिकाओं (गुमटियों)
से मण्डित तथा हंसों और कमल आदिके पुष्पोंसे व्याप्त यमुना नदीकी अपूर्व शोभा हो रही
थी ॥ ५-६॥
गिरिराज गोवर्धन गजराजके
समान शोभा पाता था । जैसे गजराजके गण्डस्थलसे मदकी धाराएँ झरती हैं और उस पर भ्रमरोंकी
भीड़ लगी रहती है, उसी प्रकार गिरिराजकी घाटियोंसे जलके निर्झर प्रवाहित होते थे और सुन्दरी दरियों (कंदराओं) तथा भ्रमरियों से पर्वत व्याप्त था । वहाँ
विभिन्न धातुओंकी जगह नाना प्रकारके रत्न उद्भासित होते थे । उसके रत्नमय शिखरोंकी
दिव्य दीप्ति सब ओर प्रकाशित हो रही थी । वह पक्षियोंके कलरवसे मुखरित तथा लता-पुष्पोंसे
मनोहर जान पड़ता था ॥ ७-८ ॥
गिरिराज के चारों ओर समस्त निकुञ्ज दिव्यरूप धारण करके सुशोभित होने लगे । सभा-मण्डपोंसे मण्डित वीथियाँ, प्राङ्गण और खंभोंकी पतियाँ उनकी शोभा बढ़ाने लगीं। नरेश्वर ! फहराती हुई दिव्य पताकाएँ, सुवर्णमय कलश तथा पुष्पमय मन्दिरोंमें विद्यमान श्वेतारुण पुष्पदल उन निकुञ्जको विभूषित कर रहे थे। उन सबमें वसन्त ऋतुकी माधुरी भरी थी । वहाँ कोकिल और सारस अपने मीठे बोल सुना रहे थे। जहाँ-तहाँ सब ओर कबूतर और मोर आदि पक्षी कलरव करते थे। श्रीराधा-कृष्णकी पुण्यमयी गाथाका गान करते हुए टूट पड़नेवाले मधुमत्त भ्रमरोंसे सभी कुञ्ज विशेष शोभा पाते थे । यमुना - पुलिनपर सहस्रदल कमलोंके पुष्प-पराग को बारंबार बिखेरता हुआ शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर प्रवाहित हो रहा था ।। ९-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
शुक्रवार, 2 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा
श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन
गोपदेवतावाच -
राधे त्वदीयधिषणा धिषणं हसन्ती
वाणीं श्रुतिं प्रकुशलेन विडंबयन्ती
।
अत्रागमिष्यति यदाथ हरिः परेशः
सत्यं ददाति वचनं तव देवि मन्ये ॥ २८
॥
राधोवाच -
यथाऽऽगमिष्यति यदाऽद्य हरिः परेशः
किं कारयामि भवतीं वद तर्हि सुभ्रु ।
चेदागमो न हि भवेद्वनमालिनः स्वं
सर्वं धनं च भवनं च ददामि तुभ्यम् ॥
२९ ॥
श्रीनारद उवाच -
अथ राधा समुत्थाय नत्वा श्रीनन्दनन्दनम् ।
उपविश्यासने दध्यौ ध्यानस्तिमितलोचना ॥ ३० ॥
उत्कंठितां स्वेदयुक्तां बाष्पकंठीं प्रियां हरिः ।
अश्रुपूर्णमुखीं वीक्ष्य बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३१ ॥
पश्यन्तीनां सखीनां च सहसा भक्तवत्सलः ।
राधां प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ ३२ ॥
श्रीकृष्ण उवाच -
रंभोरु चन्द्रवदने व्रजसुन्दरीशे
राधे प्रिये नवलयौवनमानशीले ।
उमील्य नेत्रमपि पश्य समागतं मां
तूर्णं त्वया मधुरया च गिरोपहूतम् ॥
३३ ॥
आगच्छ कृष्ण इति वाक्यमतः श्रुतं मे
सद्यो विसृज्य निजगोकुलगोपवृन्दम् ।
वंशीवटाच्च यमुनानिकटात्प्रधावन्
त्वत्प्रीतयेऽथ ललनेत्र समागतोऽस्मि
॥ ३४ ॥
मय्यागते सति गता सखिरूपिणी का
यक्ष्यासुरीसुरवधू किल किन्नरी वा ।
मायावती छलयितुं भवतीं च तस्मा-
द्विश्वास एव न विधेय उरंगपत्न्याम्
॥ ३५ ॥
श्रीनारद उवाच -
अथ राधा हरिं दृष्ट्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
मुदमाप परं राजन् सद्यः पूर्णमनोरथा ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितान्यद्भुतानि च ।
यः शृणोति नरो भक्त्या स कृतार्थो भवेन्नरः ॥ ३७ ॥
गोपदेवी बोली- श्रीराधे
! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पतिका भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन - कौशलसे वेदवाणीका
अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलानेसे यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ
आ जायँ और तुम्हारी बातका उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है ॥ २८
॥
श्रीराधा बोलीं- शुभ्रु
! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलानेसे यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ,
यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओरसे इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करनेसे वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी
॥ २९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! तदनन्तर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दनको नमस्कार करके आसनपर बैठ गयीं और उनका
ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होनेके कारण निश्चल हो गये थे । श्रीहरिने
देखा - 'प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनके लिये उत्कण्ठित हैं । इनके अङ्ग अङ्गमें स्वेद
(पसीना) हो आया है और मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली है।' यह देख अपना पुरुषरूप धारण करके
भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियोंके देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त
हो घनगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें श्रीराधासे बोले || ३०–३२ ॥
श्रीकृष्णने कहा— रम्भोरु
! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! चन्द्रवदने ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने
अपनी मधुरवाणीसे मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे
देखो। ललने ! 'प्रियतम कृष्ण ! आओ' – यह वाक्य यहाँसे प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर
उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्दको छोड़कर, वंशीवट और यमुनाके तटसे वेगपूर्वक दौड़ता
हुआ तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ । मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी,
आसुरी, देवाङ्गना अथवा किनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलनेके लिये आयी थी, यहाँसे
चल दी। अतः तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये
॥ ३३-३५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
तदनन्तर श्रीराधा श्रीहरिको देखकर उनके चरण-कमलोंमें प्रणत हो परमानन्दमें निमग्न हो
गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे अद्भुत चरित्रोंका जो
भक्तिभावसे श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ।। ३६-३७ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन' नामक अठारहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १८ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
गुरुवार, 1 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा
श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन
गोपदेवतोवाच -
राधे व्रजन्सानुगिरेस्तटीषु
संकोचवीथीषु मनोहरासु ।
यान्तीं स्वतो मां दधिविक्रयार्थं
रुरोध मार्गे नवनन्दपुत्रः ॥ १४ ॥
वंशीधरो वेत्रकरः करे मां
त्वरं गृहीत्वा प्रसहन्विलज्जः ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति जल्पन्विपिने रसज्ञः ॥ १५ ॥
तुभ्यं न दास्यामि कदापि दानं
स्वयंभुवे गोरसलंपटाय ।
एवं मयोक्ते वचनेऽथ भाण्डं
नीत्वा विशीर्णीकृतवान् स दध्नः ॥ १६
॥
भाण्डं स भित्त्वा दधि किं च पीत्वा
नीत्वोत्तरीयं मम चेदुरीयम् ।
नन्दीश्वराद्रेर्विदिशं जगाम
तेनाहमाराद्विमनाः स्म जाता ॥ १७ ॥
जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णो
ऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः ।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीले
त्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ॥ १८ ॥
इत्थं सवैरं परुषं वचस्तत्
श्रुत्वा च राधा वृषभानुनन्दिनी ।
सुविस्मिता वाक्यपदे सरस्वती
पदं स्मयन्ती निजगाद तां प्रति ॥ १९
॥
राधोवाच -
यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥
२० ॥
तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय
जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥
२१ ॥
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां
सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥
२२ ॥
तत्कृष्णवर्णविलसत्सुकलां समीक्ष्य
तस्मिन्विलग्नमनसा सुसुखं विहाय ।
उन्मत्तवद्व्रजति धावति नीलकण्ठो
बिभ्रत्कपर्दविषभस्मकपालसर्पान् ॥ २३
॥
स्वर्लोकसिद्धमुनियक्ष मरुद्गणानां
पालाः समस्तनरकिन्नरनागनाथाः ।
यत्पादपद्ममनिशं प्रणिपत्य भक्त्या
लब्धश्रियः किल बलिं प्रददुः स्म
तस्मै ॥ २४ ॥
वत्साघकालियबकार्जुनधेनुकाना-
माचक्रवातशकटासुरपूतनानाम् ।
एषां वधः किमुत तस्य यशो मुरारे-
र्यः कोटिशोऽण्डनिचयोद्भवनाशहेतुः ॥
२५ ॥
भक्तात्प्रियो न विदितः पुरुषोत्तमस्य
शंभुर्व्हिधिर्न च रमा न च रौहिणेयः
।
भक्ताननुव्रजति भक्ति निबद्ध चित्तः
चुडामणिः सकललोकजनस्य कृष्णः ॥ २६ ॥
गच्छन्निजं जनमनुप्रपुनाति लोका-
नावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा ।
तस्मादतीव भजतां भगवान् मुकुन्दो
मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम्
॥ २७ ॥
गोपदेवीने कहा- राधे
! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण
कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी।
उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए,
उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे- 'सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ । अतः तू मुझे
करके रूपमें दहीका दान दे।' मैंने कहा - 'चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम
जैसे गोरस- लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।' मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे
दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला । मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर
उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी
हो रही हूँ । जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ?
सुशीले! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे
शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो) । इस प्रकार वैरभावसे
युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंके
प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं- ॥
१४–१९ ॥
श्रीराधाने कहा- सखी!
जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीति से पञ्चाग्निसेवनपूर्वक
तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि
और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं
अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन दुःखहारी, भूतल - भूरि-भार- हरणकारी
तथा सत्पुरुषोंके कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती
हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें
नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं,
उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे
बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर
श्रीकृष्णकी श्याम विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण
भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प
धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति व्रजमें दौड़ते फिरते हैं ॥ २०-२३ ॥
स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि,
यक्ष और मरुद्गणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे
जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही
उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर,
कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः
तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है ! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके
लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा
और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता
। शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय
नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल
सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंके सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए
अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंके
प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं । अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द
मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें
भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २४ - २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)
बुधवार, 31 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा
श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन
श्रीनारद
उवाच -
अथ रात्र्यां व्यतीतायां मायायोषिद्वपुर्हरिः ।
राधादुःखप्रशान्त्यर्थं वृषभानोर्गृहं ययौ ॥ १ ॥
राधा तमागतं वीक्ष्य समुत्थायातिहर्षिता ।
दत्तासुना विधानेन पूजयामास मैथिल ॥ २ ॥
श्रीराधोवाच -
त्वया विनाऽहं निशि दुःखिताऽऽसं
त्वय्यागतायां सखि लब्धवस्तुवत् ।
पूर्वं ह्यपथ्यस्य सुखं यथा ततो
दुःखं तथा भामिनि मत्प्रसंगतः ॥ ३ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं विमना गोपदेवता ।
न किंचिदूचे श्रीराधां दुःखितेव व्यवस्थिता ॥ ४ ॥
विज्ञाय खेदसंपन्नां राधिकां गोपदेवताम् ।
सखीभिः संविचार्याथ जगाद स्नेहतत्परा ॥ ५ ॥
राधोवाच -
विमनास्त्वं कथं भद्रे वद मां गोपदेवते ।
मात्रा भर्त्रा ननांद्रा वा श्वश्र्वा क्रोधेन भर्त्सिता ॥ ६ ॥
सपत्नीकृतदोषेण स्वभर्तुर्विरहेण वा ।
अन्यत्र लग्नचित्तेन विमनाः किं मनोहरे ॥ ७ ॥
मार्गखेदेन वा कच्चिद्विह्वलाऽभूद्रुजाऽथवा ।
शीघ्रं वद महाभागे स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ८ ॥
कृष्णभक्तमृते विप्रं येन केनापि कुत्सितम् ।
कथितं तेऽथ रंभोरु तच्चिकित्सां करोम्यहम् ॥ ९ ॥
गजाश्वादीनि रत्नानि वस्त्राणि च धनानि च ।
मन्दिराणि विचित्राणि गृहाण त्वं यदीच्छसि ॥ १० ॥
धनं दत्त्वा तनुं रक्षेत्तनुं दत्त्वा त्रपां व्यधात् ।
धनं तनुं त्रपां दद्यान्मित्रकार्यार्थमेव हि ।
धनं दत्त्वा च सततं रक्षेत्प्राणान्निरन्तरम् ॥ ११ ॥
यो मित्रतां निष्कपटं करोति
निष्कारणमं धन्यतमं स एव ।
विधाय मैत्रीं कपटं विदध्या-
त्तं लंपटं हेतुपटं नटं धिक् ॥ १२ ॥
तस्याः प्रेमवचः श्रुत्वा भगवान् गोपदेवता ।
प्रहसन्नाह राजेन्द्र श्रीराधां कीर्तिनन्दिनीम् ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
मिथिलेश्वर ! तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर मायासे नारीका रूप धारण करनेवाले श्रीहरि श्रीराधाका
दुःख शान्त करनेके लिये वृषभानु-भवनमें गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्षके
साथ भीतर लिवा ले गयीं और आसन देकर विधि विधानके साथ उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥
श्रीराधा बोलीं- सखी!
तुम्हारे बिना मैं रातभर बहुत दुःखी रही और तुम्हारे आ जानेसे मुझे इतनी प्रसन्नता
हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो । जैसे कुपथ्य- सेवनसे पहले तो सुख मालूम
होता है, किंतु पीछे दुःख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्सङ्गसे भी पहले सुख होता है और
पीछे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है ॥ ३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधासे कुछ भी नहीं बोलीं । किसी दुःखिनीकी भाँति चुपचाप बैठी रहीं । गोपदेवीको खिन्न जानकर श्रीराधिकाने सखियोंके साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा ।। ४-५ ॥
श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि
! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सासने
कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौतके दोषसे या अपने पतिके वियोगसे
अथवा अन्यत्र चित्त लग जानेसे तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे
! रास्ता चलनेकी थकावटसे या शरीरमें कोई रोग हो जानेसे तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है
? अपने दुःखका कारण शीघ्र बताओ । रम्भोरु ! किसी कृष्ण- भक्त या ब्राह्मणको छोड़कर
दूसरे जिस किसीने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी
(उसे दण्ड दूँगी) । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकारके
रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो ।
धन देकर शरीरकी रक्षा
करे, शरीरका भी उत्सर्ग करके लाजकी रक्षा करे तथा मित्रके कार्यकी सिद्धिके लिये तन,
धन और लज्जाको भी अर्पित कर दे। धन देकर निरन्तर प्राणोंकी रक्षा करे। जो बिना किसी
कारण या कामनाके निश्छल भावसे मित्रताका निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है ।
जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ-साधनमें पटु लम्पट नटको धिक्कार है।
राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवीके रूपमें आये हुए भगवान् उन कीर्तिनन्दिनी
श्रीराधासे हँसते हुए बोले ।। ६–१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
मंगलवार, 30 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना
श्रीनारद उवाच -
एवं राधावचः श्रुत्वा मायायुवतिवेषधृक् ।
उवाच भगवान् कृष्णो राधां कमललोचनाम् ॥ ३० ॥
श्रीभगवानुवाच -
रम्भोरु नन्दनगरे नन्दगेहस्य चोत्तरे ।
गोकुले वसतिर्मेऽस्ति नाम्नाऽहं गोपदेवता ॥ ३१ ॥
त्वद्रूपगुणमाधुर्यं श्रुतं मे ललितामुखात् ।
तद्द्रष्टुं चंचलापाङ्गि त्वद्गृहेऽहं समागता ॥ ३२ ॥
श्रीमल्लवंगलतिकास्फुटमोदिनीनां
गुञ्जानिकुञ्जमधुप-
ध्वनिकुञ्जपुञ्जम् ।
दृष्टं श्रुतं नवनवं तव कंजनेत्रे
दिव्यं पुरंदरपुरेऽपि न यत्समानम् ॥
३३ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं तयोर्मेलनं तद्बभूव मिथिलेश्वर ।
प्रीतिं परस्परं कृत्वा वने तत्र विरेजतुः ॥ ३४ ॥
हसन्त्यौ ते च गायन्त्यौ पुष्पकन्दुकलीलया ।
पश्यन्त्यौ वनवृक्षांश्च चेरतुर्मैथिलेश्वर ॥ ३५ ॥
कलाकौशल संपन्नां राधां कमललोचनाम् ।
गिरा मधुरया राजन् प्राहेदं गोपदेवता ॥ ३६ ॥
गोपदेवतोवाच -
दूरे वै नन्दनगरं सन्ध्या जाता व्रजेश्वरि ।
प्रभाते चागमिष्यामि त्वत्सकाशं न संशयः ॥ ३७ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचस्तस्य तु तद्व्रजेश्वरीं
निक्षिप्य सद्यो नयनांबुसन्ततिम् ।
रोमांचहर्षोद्गमभावसंवृता
रंभेव भूमौ पतिता मरुद्धता ॥ ३८ ॥
शंकागतास्तत्र सखीगणास्त्वरं
सुवीजयन्त्यो व्यजनैर्व्यवस्थिताः ।
श्रीखण्डपुष्प द्रवचर्चितांऽशुकां
जगाद राधां नृप गोपदेवता ॥ ३९ ॥
गोपदेवतोवाच -
प्रभाते आगमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
गोश्च भ्रातुर्गोरसस्य शपथो मे न चेदिदम् ॥ ४० ॥
श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा हरी राधां समाश्वास्य नृपेश्वर ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ययौ श्रीनन्दगोकुलम् ॥ ४१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! यह सुनकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कमलनयनी राधासे
इस प्रकार कहा- ॥ ३० ॥
श्रीभगवान् बोले – रम्भोरु
! नन्दनगर गोकुलमें नन्दभवनसे उत्तर दिशामें मेरा निवास है । मेरा नाम 'गोपदेवी' है।
मैंने ललिताके मुखसे तुम्हारी रूप- माधुरी और गुण-माधुरीका वर्णन सुना है; अतः चञ्चल
लोचनोंवाली सुन्दरी ! मैं तुम्हें देखनेके लिये यहाँ तुम्हारे घरमें चली आयी हूँ ।
कमललोचने ! जहाँ ललित लवङ्गलता की सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है,
जहाँके गुञ्जा निकुञ्ज में मधुपोंकी मधुर ध्वनिसे युक्त कंजपुष्प
खिल रहे हैं, वह श्रुतिपथमें आया हुआ तुम्हारा नित्य- नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों
देख लिया । इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्रकी पुरी अमरावती भी नहीं होगी ।। ३१–३३
॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
मिथिलेश्वर ! इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतम का मिलन हुआ। वे
परस्पर प्रीतिका परिचय देते हुए वहाँ उपवनमें शोभा पाने लगे । पुष्पमय कन्दुक (गेंद)
के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे। वनके वृक्षोंको देखते हुए वे इधर-उधर
विचरने लगे । राजन् ! कला- कौशलसे सम्पन्न कमललोचना राधाको सम्बोधित करके गोपदेवीने
मधुर वाणीसे कहा || ३४ – ३६॥
गोपदेवी बोली - व्रजेश्वरि
! नन्दनगर यहाँसे दूर है और अब संध्या हो गयी है, अतः जाती हूँ । कल प्रातः काल तुम्हारे
पास आऊँगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! गोपदेवीकी यह बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाके नयनोंसे तत्काल आँसुओंकी धारा
बह चली। वे रोमाञ्च तथा हर्षोद्गमके भावसे आवृत हो कटे हुए कदलीवृक्षकी भाँति पृथ्वीपर
गिर पड़ीं। यह देख वहाँ सखियाँ सशङ्क हो गयीं और तुरंत व्यजन लेकर, पास खड़ी हो, हवा
करने लगीं। उनके वस्त्रोंपर चन्दन-पुष्पोंके इत्र छिड़के गये । उस समय गोपदेवीने श्रीराधासे
कहा ।। ३८-३९ ॥
गोपदेवी बोली- राधिके
! मैं प्रातः काल अवश्य आऊँगी तुम चिन्ता न करो। यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और
अपने भाईकी सौगन्ध है ॥ ४० ॥
नारदजी कहते हैं— नृपेश्वर ! यों कहकर मायासे युवतीका
वेष धारण करनेवाले श्रीहरि राधाको धीरज बँधा- कर श्रीनन्दगोकुल (नन्दगाँव) में चले
गये ॥ ४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधा-कृष्ण-संगम' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७
॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०५)
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