गुरुवार, 5 सितंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

शश्वत् प्रशान्तमभयं प्रतिबोधमात्रं ।
    शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम् ।
शब्दो न यत्र पुरुकारकवान् क्रियार्थो ।
    माया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना ॥ ४७ ॥
तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो ।
    ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम् ।
सध्र्यङ् नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं ।
    जह्युः स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्रः ॥ ४८ ॥

परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरूप है। न उसमें मायाका मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनोंसे परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहाँ तक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने वाले कर्मों का फल भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है ॥ ४७ ॥ परमपुरुष भगवान्‌ का वही परमपद है। महात्मालोग उसीका शोकरहित अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म के रूपमें साक्षात्कार करते हैं। संयमशील पुरुष उसीमें अपने मनको समाहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघरूपसे विद्यमान होनेके कारण जलके लिये कुआँ खोदनेकी कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करनेवाले ज्ञान- साधनोंको भी छोड़ देते हैं ॥ ४८ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 4 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

चौथा अध्याय (पोस्ट 01)

 

इन्द्र द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति तथा सुरभि और ऐरावत द्वारा उनका अभिषेक

 

श्रीनारद उवाच -
अथ देवगणैः सार्द्धं शक्रस्तत्र समागतः ।
गतमानो गिरौ कृष्णं रहसि प्रणनाम ह ॥१॥


इन्द्र उवाच -
त्वं देवदेवः परमेश्वरः प्रभुः
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः ।
परात्परस्त्वं प्रकृतेः परो हरि-
र्मां पाहि पाहि द्युपते जगत्पते ॥२॥
दशावतारो भगवांस्त्वमेव
रिरक्षया धर्मगवां श्रुतेश्च ।
अद्यैव जातः परिपूर्णदेवः
कंसादि दैत्येन्द्रविनाशनाय ॥३॥
त्वन्मायया मोहितचित्तवृत्तिं
मदोद्धतं हेलनभाजनं माम् ।
पितेव पुत्रं द्युपते क्षमस्व
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४॥
ॐनमो गोवर्धनोद्धरणाय गोविन्दाय गोकुलनिवासाय
गोपालाय गोपालपतये गोपीजनभर्त्रे गिरिगजोद्धर्त्रे
करुणानिधये जगद्विधये जगन्मङ्गलाय जगन्निवासाय
जगन्मोहनाय कोटिमन्मथमन्मथाय वृषभानुसुतावराय
श्रीनन्दराजकुलप्रदीपाय श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय
तेऽसंख्यब्रह्माण्डपतये गोलोकधामधिषणाधिपतये
स्वयम्भगवते सबलाय नमस्ते नमस्ते ॥५॥


श्रीनारद उवाच -
इति शक्रकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
सर्वा सिद्धिर्भवेत्तस्य संकटान्न भयं भवेत् ॥६॥
इतिस्तुत्वा हरिं देवं सर्वैर्देवगणैः सह ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रणनाम पुरन्दरः ॥७॥
अथ गोवर्धने रम्ये सुरभिर्गौः समुद्रजा ।
स्नापयामास गोपेशं दुग्धधाराभिरात्मनः ॥८॥
शुंडादण्डैश्चतुर्भिश्च द्युगंगाजलपूरितैः ।
श्रीकृष्णं स्नापयामास मत्त ऐरावतो गजः ॥९॥
ऋषिभिः श्रुतिभिः सर्वैर्देवगन्धर्वकिन्नराः ।
तुष्टुवुस्ते हरिं राजन् हर्षिताः पुष्पवर्षिणः ॥१०॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्व गल जानेके कारण देवराज इन्द्र देवताओंके साथ उस पर्वतपर आये और एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम करके उनसे बोले ॥ १ ॥

इन्द्र ने कहा- आप देवताओंके भी देवता, सर्वसमर्थ, पूर्ण परमेश्वर, पुराण पुरुष, पुरुषोत्तमोत्तम प्रकृतिसे परे तथा परात्पर श्रीहरि हैं। स्वर्गके स्वामी जगत्पते ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । धर्म, गौ तथा वेद की रक्षा करनेके लिये दस अवतार धारण करने वाले भगवान् आप ही हैं। इस समय भी आप परिपूर्णतम देवता कंसादि दैत्यराजों के विनाश के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं ॥ २-३

आपकी मायासे जिसकी चित्तवृत्ति मोहित है, जो मदसे उन्मत्त और अवहेलनाका पात्र है, वही मैं आपका अपराधी इन्द्र हूँ । द्युपते ! जैसे पिता पुत्रके अपराधको क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप मुझ अपराधीको क्षमा करें। देवेश्वर ! जगन्निवास ! मुझपर प्रसन्न होइये । गोवर्धनको उठानेवाले आप गोविन्दको नमस्कार है । गोकुलनिवासी गोपालको नमस्कार है। गोपालोंके पति, गोपीजनोंके भर्ता और गिरिराजके उद्धर्ताको नमस्कार है। करुणाकी निधि तथा जगत् के विधाता, विश्वमङ्गलकारी तथा जगत् के निवासस्थान आप परमात्माको प्रणाम है। जो विश्व- मोहन तथा करोड़ों कामदेवोंके भी मनको मथ देनेवाले हैं, उन वृषभानुनन्दिनीके स्वामी नन्दराजकुलदीपक परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। असंख्य ब्रह्माण्डोंके पति, गोलोकधामके अधिपति एवं बलरामके साथ रहनेवाले आप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है ।। --५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— इन्द्रद्वारा किये गये इस स्तोत्रका जो प्रातः काल उठकर पाठ करेगा, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ सुलभ होंगी और उसे किसी संकटसे भय नहीं होगा। इस प्रकार भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने हाथ जोड़कर समस्त देवताओंके साथ उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद क्षीरसागरसे उत्पन्न हुई सुरभि गौ ने उस सुरम्य गोवर्धन पर्वतपर आकर अपनी दुग्धधारासे गोपेश्वर श्रीकृष्णको स्नान कराया। फिर मत्त गजराज ऐरावतने गङ्गाजलसे भरी हुई चार सूँड़ोंद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक किया। राजन् ! फिर हर्षोल्लास से भरे हुए सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व और किंनर ऋषियोंको साथ ले वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक पुष्पवर्षा करते हुए श्रीहरिकी स्तुति करने लगे । ६ – १० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

वेदाहमङ्ग परमस्य हि योगमायां ।
    यूयं भवश्च भगवानथ दैत्यवर्यः ।
पत्‍नी मनोः स च मनुश्च तदात्मजाश्च ।
    प्राचीनबर्हि ऋभुरङ्ग उत ध्रुवश्च ॥ ४३ ॥
इक्ष्वाकुरैलमुचुकुन्दविदेहगाधि ।
    रघ्वम्बरीषसगरा गयनाहुषाद्याः ।
मान्धात्रलर्कशतधन्वनुरन्तिदेवा ।
    देवव्रतो बलिरमूर्त्तरयो दिलीपः ॥ ४४ ॥
सौभर्युतङ्कशिबिदेवलपिप्पलाद ।
    सारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः ।
येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेन्द्रदत्त ।
    पार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेव वर्याः ॥ ४५ ॥
ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां ।
    स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः ।
यद्यद्‍भुतक्रम परायणशीलशिक्षाः ।
    तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥ ४६ ॥

(ब्रह्माजी कह रहे हैं) प्यारे नारद ! परम पुरुष की उस योगमायाको मैं जानता हूँ तथा तुमलोग, भगवान्‌ शङ्कर, दैत्यकुलभूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, मनुपुत्र प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं ॥ ४३ ॥ इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरूरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्त्य, दिलीप, सौभरि, उत्तङ्क, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर भूरिषेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं ॥ ४४-४५ ॥ जिन्हें भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंका-सा स्वभाव बनानेकी शिक्षा मिली है, वे स्त्री, शूद्र, हूण, भील और पाप के कारण पशु-पक्षी आदि योनियों में रहनेवाले भी भगवान्‌ की माया का रहस्य जान जाते हैं और इस संसार-सागर से सदा के लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक सदाचारका पालन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ४६ ॥

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मंगलवार, 3 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना

 

मत्तमैरावतं नागं समारुह्य पुरन्दरः ।
ससैन्यः क्रोधसंयुक्तो व्रजमण्डलमाययौ ॥२४॥
दूराच्चिक्षेप वज्रं स्वं नंदगोष्ठजिघांसया ।
स्तंभयामास शक्रस्य सवज्रं माधवो भुजम् ॥२५॥
भयभीतस्तदा शक्रः सांवर्तकगणैः सह ।
दुद्राव सहसा देवैर्यथेभः सिंहताडितः ॥२६॥
तदैवार्कोदयो जातो गता मेघा इतस्ततः ।
वाता उपरताः सद्यो नद्यः स्वल्पजला नृप ॥२७॥
विपंकं भूतलं जातं निर्मलं खं बभूव ह ।
चतुष्पदाः पक्षिणश्च सुखमापुस्ततस्ततः ॥२८॥
हरिणोक्तास्तदा गोपा निर्ययुर्गिरिगर्ततः ।
स्वं स्वं धनं गोधनं च समादाय शनैः शनैः ॥२९॥
निर्यातेति वयस्यांश्च प्राह गोवर्धनोद्धरः ।
ते तमाहुश्च निर्गच्छ धारयामोऽद्रिमोजसा ॥३०॥
इति वादपरान् गोपान् गोवर्धनधरो हरिः ।
तदर्द्धं च गिरेर्भारं प्रादात्तेभ्यो महामनाः ॥३१॥
पतितास्तेन भारेण गोपबालाश्च निर्बलाः ॥३२॥
करेण तान् समुत्थाप्य स्वस्थाने पूर्ववद्‌गिरिम् ।
सर्वेषां पश्यतां कृष्णः स्थापयामास लीलया ॥३३॥
तदैव गोपीगणगोपमुख्याः
सम्पूज्य कृष्णं नृप नन्दसूनुम् ।
गन्धाक्षताद्यैर्दधिदुग्धभोगै-
र्ज्ञात्वा परं नेमुरतीव सर्वे ॥३४॥
नन्दो यशोदा नृप रोहिणी च
बलश्च सन्नन्दमुखाश्च वृद्धाः।
आलिंग्य कृष्णं प्रददुर्धनानि
शुभाशिषा संयुयुजुर्घृणार्ताः ॥३५॥
संश्लाघ्य तं गायनवाद्यतत्परा
नृत्यन्त आरान्नृप नन्दनन्दनम् ।
आजग्मुरेव स्वगृहान्व्रजौकसो
हरिं पुरस्कृत्य मनोरथं गताः ॥३६॥
तदैव देवा ववृषुः प्रहर्षिताः
पुष्पैः शुभैः सुन्दरनन्दनोद्‌भवैः ।
जगुर्यशः श्रीगिरिराजधारिणो
गन्धर्वमुख्या दिवि सिद्धसङ्घाः ॥३७॥

तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथीपर चढ़कर, अपनी सेना साथ ले, रोषसे भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने दूरसे ही नन्दनजको नष्ट कर डालनेकी इच्छासे अपना वज्र चलानेकी चेष्टा की। किंतु माधवने वज्रसहित उनकी भुजाको स्तम्भित कर दिया। फिर तो इन्द्र भयभीत हो गये और जैसे सिंहकी चोट खाकर हाथी भागे, उसी प्रकार वे सांवर्तकगणों तथा देवताओंके साथ सहसा भाग चले ॥ २४-२६

नरेश्वर ! उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छँट गये। हवा का वेग रुक गया और नदियोंमें बहुत थोड़ा पानी रह गया । पृथ्वीपर पङ्कका नाम भी नहीं था । आकाश निर्मल हो गया । चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी हो गये। तब भगवान्‌की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वत के गर्त- से अपना-अपना गोधन लेकर धीरे-धीरे बाहर निकले ॥२७–२९॥

उसके बाद गोवर्धनधारीने अपने सखाओंसे कहा— 'तुमलोग भी निकलो ।' तब वे बोले-नहीं, हम लोग अपने बलसे पर्वतको रोके हुए हैं; तुम्हीं निकल जाओ।' उन सबको इस तरहकी बातें करते देख महामना गोवर्धनधारी श्रीहरिने पर्वतका आधा भार उन- पर डाल दिया। बेचारे निर्बल गोप-बालक उस भारसे दबकर गिर पड़े। तब उन सबको उठाकर श्रीकृष्णने उनके देखते-देखते पर्वतको पहलेकी ही भाँति लीलापूर्वक रख दिया ॥ ३०-३३

नरेश्वर ! उस समय प्रमुख गोपियों और प्रधान प्रधान गोपोंने नन्दनन्दनका गन्ध और अक्षत आदिसे पूजन करके उन्हें दही-दूधका भोग अर्पित किया और उनको परमात्मा जानकर सबने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। राजन् ! नन्द, यशोदा, रोहिणी, बलराम तथा सन्नन्द आदि वृद्ध गोपोंने श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर धनका दान किया और दयासे द्रवित हो, उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किये ॥ ३४-३५

तदनन्तर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके, समस्त व्रजवासी सफल-मनोरथ हो नन्दनन्दनके समीप गाने, बजाने और नाचने लगे तथा उन श्रीहरिको आगे करके अपने घरको लौटे। उसी समय हर्षसे भरे हुए देवता वहाँ नन्दन-वनके सुन्दर-सुन्दर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए प्रधान- प्रधान गन्धर्व और सिद्धोंके समुदाय गोवर्धनधारीके यश गाने लगे ॥ ३६-३७

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें 'गोवर्धनोद्धारण' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ || ३ ||

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह ।
    यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि ।
चस्कम्भ यः स्वरहसास्खलता त्रिपृष्ठं ।
    यस्मात् त्रिसाम्यसदनाद् उरुकम्पयानम् ॥ ४० ॥
नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते ।
    मायाबलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये ।
गायन् गुणान् दशशतानन आदिदेवः ।
    शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम् ॥ ४१ ॥
येषां स एष भगवान् दययेदनन्तः ।
    सर्वात्मनाऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम् ।
ते दुस्तरामतितरन्ति च देवमायां ।
    नैषां ममाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये ॥ ४२ ॥

अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलि-कण को गिन चुकनेपर भी जगत् में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान्‌ की शक्तियों की गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलोकी को नाप रहे थे, उस समय उनके चरणों के अदम्य वेग से प्रकृतिरूप अन्तिम आवरण से लेकर सत्यलोक तक सारा ब्रह्माण्ड काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्ति से उसे स्थिर किया था ॥ ४० ॥ समस्त सृष्टिकी रचना और संहार करनेवाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियोंके आश्रय उनके स्वरूपको न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरोंका तो कहना ही क्या है। आदिदेव भगवान्‌ शेष सहस्र मुखसे उनके गुणोंका गायन करते आ रहे हैं; परन्तु वे अब भी उसके अन्तकी कल्पना नहीं कर सके ॥ ४१ ॥ जो निष्कपटभाव से अपना सर्वस्व और अपने आपको भी उनके चरणकमलों में निछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान्‌ स्वयं ही अपनी ओर से दया करते हैं और उनकी दयाके पात्र ही उनकी दुस्तर माया का स्वरूप जानते हैं और उसके पार जा पाते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारों के कलेवारूप अपने और पुत्रादि के शरीरमें ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ॥४२॥ 

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सोमवार, 2 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना

 

श्रीनारद उवाच -
व्याकुलं गोकुलं वीक्ष्य गोपीगोपालसंकुलम् ।
सवत्सकं गोकुलं च गोपानाह निराकुलः ॥१३॥


श्रीभगवानुवाच -
मा भैष्ट याताद्रितटं सर्वैः परिकरैः सह ।
वः पूजा प्रहृता येन स रक्षां संविधास्यति ॥१४॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्द्धमेत्य गोवर्धनं हरिः ।
समुत्पाट्य दधाराद्रिं हस्तेनैकेन लीलया ॥१५॥
यथोच्छिलींध्रं शिशुरश्रमो गजः
स्वपुष्करेणैव च पुष्करं गिरिम् ।
धृत्वा बभौ श्रीव्रजराजनन्दनः
कृपाकरोऽसौ करुणामयः प्रभुः ॥१६॥
अथाह गोपान्विशताद्रिगर्तं
हे तात मातर्व्रजवल्लभेशाः ।
सोपस्करैः सर्वधनैश्च गोभि-
रत्रैव शक्रस्य भयं न किंचित् ॥१७॥
इत्थं हरेर्वचः श्रुत्वा गोपा गोधनसंयुताः ।
सकुटुम्बोपस्करैश्च विविशुः श्रीगिरेस्तलम् ॥१८॥
वयस्या बालकाः सर्वे कृष्णोक्ताः सबला नृप ।
स्वान्स्वांश्च लगुडानद्रेरवष्टंभान्प्रचक्रिरे ॥१९॥
जलौघमागतं वीक्ष्य भगवांस्तद्‌गिरेरधः ।
सुदर्शनं तथा शेषं मनसाऽऽज्ञां चकार ह ॥२०॥
कोटिसूर्यप्रभं चाद्रेरूर्ध्वं चक्रं सुदर्शनम् ।
धारासंपातमपिबदगस्त्य इव मैथिल ॥२१॥
अधोऽधस्तं गिरेः शेषः कुण्डलीभूत आस्थितः ।
रुरोध तज्जलं दीर्घं यथा वेला महोदधिम् ॥२२॥
सप्ताहं सुस्थिरस्तस्थौ गोवर्धनधरो हरिः ।
श्रीकृष्णचंद्रं पश्यंतश्चकोरा इव ते स्थिताः ॥२३॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! गोपी और वालोंसे युक्त गोकुलको व्याकुल देख तथा बछड़ों- सहित गो समुदायको भी पीड़ित निहार, भगवान् बिना किसी घबराहटके बोले ।। १३ ।।

श्रीभगवान् ने कहा- आपलोग डरें नहीं । समस्त परिकरोंके साथ गिरिराजके तटपर चलें जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे ॥ १४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं—- राजन् ! यों कहकर श्रीहरि स्वजनोंके साथ गोवर्धनके पास गये और उस पर्वतको उखाड़कर एक ही हाथसे खेल-खेल में ही "धारण कर लिया। जैसे बालक बिना श्रमके ही गोबर- छत्ता उठा लेता है; अथवा जैसे हाथी अपनी सूँड़से कमलको अनायास उखाड़ लेता है; उसी प्रकार कृपालु करुणामय प्रभु श्रीव्रजराजनन्दन गोवर्धन पर्वतको धारण करके सुशोभित हुए ।। १५-१६ ।।

फिर वे गोपोंसे बोले— 'मैया ! बाबा! व्रज- वल्लभेश्वरगण! आप सब लोग सारी सामग्री, सम्पूर्ण धन तथा गौओंके साथ गिरिराजके गर्तमें समा जाइये । यही एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन्द्रका कोई भय नहीं है ॥ १७ ॥

श्रीहरिका यह वचन सुनकर गोधन, कुटुम्ब तथा अन्य समस्त उपकरणोंके साथ वे गोवर्धन पर्वतके गड्ढे में समा गये। नरेश्वर ! श्रीकृष्णका अनुमोदन पाकर बलरामजीसहित समस्त सखा ग्वाल-बालोंने पर्वतको रोकने के लिये अपनी-अपनी लाठियोंको भी लगा लिया। पर्वतके नीचे जलप्रवाहको आता देख भगवान्ने मन-ही-मन सुदर्शनचक्र तथा शेषका स्मरण करके उसके निवारणके लिये आज्ञा प्रदान की १८-२०

मिथिलेश्वर ! उस पर्वतके ऊपर स्थित हो, कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी सुदर्शनचक्र गिरती हुई जलकी धाराओं- को उसी प्रकार पीने लगा, जैसे अगस्त्यमुनिने समुद्रको पी लिया था। उस पर्वतके नीचे शेषनाग ने चारों ओ रसे गोलाकार स्थित हो, उधर आते हुए जलप्रवाहको उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोके रहती है। गोवर्धनधारी श्रीहरि एक सप्ताहतक सुस्थिरभावसे खड़े रहे और समस्त गोप चकोरोंकी भाँति श्रीकृष्णचन्द्रकी ओर निहारते हुए बैठे रहे ॥ २१-२३

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

यर्ह्यालयेष्वपि सतां न हरेः कथाः स्युः ।
    पाषण्डिनो द्विजजना वृषला नृदेवाः ।
स्वाहा स्वधा वषडिति स्म गिरो न यत्र ।
    शास्ता भविष्यति कलेर्भगवान् युगान्ते ॥ ३८ ॥
सर्गे तपोऽहमृषयो नव ये प्रजेशाः ।
    स्थाने च धर्ममखमन्वमरावनीशाः ।
अन्ते त्वधर्महरमन्युवशासुराद्या ।
    मायाविभूतय इमाः पुरुशक्तिभाजः ॥ ३९ ॥

कलियुग के अन्त में जब सत्पुरुषों के घर भी भगवान्‌ की कथा होने में बाधा पडऩे लगेगी; ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शूद्र राजा हो जायँगे, यहाँ तक कि कहीं भी ‘स्वाहा’, ‘स्वधा’ और ‘वषट्कार’ की ध्वनि—देवता-पितरों के यज्ञ-श्राद्ध की बात तक नहीं सुनायी पड़ेगी, तब कलियुग का शासन करने के लिये भगवान्‌ कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे ॥ ३८ ॥
जब संसार की रचना का समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे रूपमें; जब सृष्टि की रक्षाका समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओंके रूपमें, तथा जब सृष्टिके प्रलयका समय होता है, तब अधर्म, रुद्र तथा क्रोधवश नाम के सर्प एवं दैत्य आदिके रूपमें सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ की माया-विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं ॥ ३९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 1 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना

 

श्रीनारद उवाच -
अथ मन्मुखतः श्रुत्वा स्वात्मयागस्य नाशनम् ।
गोवर्धनोत्सवं जातं कोपं चक्रे पुरन्दरः ॥१॥
सांवर्तकं नाम गणं प्रलये मुक्तबंधनम् ।
इन्द्रो व्रजविनाशाय प्रेषयामास सत्वरम् ॥२॥
अथ मेघगणाः क्रुद्धा ध्वनंतश्चित्रवर्णिनः ।
कृष्णाभाः पीतभाः केचित्केचिच्च हरितप्रभाः ॥३॥
इन्द्रगोपनिभाः केचित्केचित्कर्पूरवत्प्रभाः ।
नानाविधाश्च ये मेघा नीलपंकजसुप्रभाः ॥४॥
हस्तितुल्यान्वारिबिन्दून् ववृषुस्ते मदोद्धताः ।
हस्तिशुंडासमाभिश्च धाराभिश्चंचलाश्च ये ॥५॥
निपेतुः कोटिशश्चाद्रिकूटतुल्योपला भृशम् ।
वाता ववुः प्रचण्डाश्च क्षेपयन्तस्तरून् गृहान् ॥६॥
प्रचण्डा वज्रपातानां मेघानामन्तकारिणाम् ।
महाशब्दोऽभवद्‌भूमौ मैथिलेन्द्र भयंकरः ॥७॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्तलोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन्भूमिमण्डलम् ॥८॥
भयभीता गोपमुख्याः सकुटुम्बा जिगीषवः ।
शिशुन्स्वान्स्वान्पुरस्कृत्य नन्दमन्दिरमाययुः ॥९॥
श्रीनन्दनन्दनं नत्वा सबलं परमेश्वरम् ।
उचुर्व्रजौकसः सर्वे भयार्ताः शरणं गताः ॥१०॥


गोपा उचुः -
राम राम महाबाहो कृष्ण कृष्ण व्रजेश्वर ।
पाहि पाहि महाकष्टादिन्द्रदत्तान्निजान्जनान् ॥११॥
हित्वेन्द्रयागं त्वद्वाक्यात्कृतो गोवर्धनोत्सवः ।
अद्य शक्रे प्रकुपिते कर्तव्यं किं वदाशु नः ॥१२॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर मेरे मुखसे अपने यज्ञका लोप तथा गोवर्धन पूजनोत्सवके सम्पन्न होनेका समाचार सुनकर देवराज इन्द्रने बड़ा क्रोध किया। उन्होंने उस सांवर्तक नामक मेघगणको, जिसका बन्धन केवल प्रलयकालमें खोला जाता है, वुलाकर तत्काल व्रजका विनाश कर डालनेके लिये भेजा ।। १-२

आज्ञा पाते ही विचित्र वर्णवाले मेघगण रोषपूर्वक गर्जना करते हुए चले। उनमें कोई काले, कोई पीले और कोई हरे रंगके थे। किन्हींको कान्ति इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ोंकी तरह लाल थी। कोई कपूरके समान सफेद थे और कोई नील कमलके समान नीली प्रभासे युक्त थे। इस तरह नाना रंगोंके मेघ मदोन्मत्त हो हाथीके समान मोटी वारि- धाराओंकी वर्षा करने लगे। कुछ चञ्चल मेघ हाथीकी सूँड़के समान मोटी धाराएँ गिराने लगे। पर्वतशिखरके समान करोड़ों प्रस्तरखण्ड वहाँ बड़े वेगसे गिरने लगे साथ ही प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जो वृक्षों और घरोंको उखाड़ फेंकती थी । मैथिलेन्द्र ! प्रलयंकर मेघों तथा वज्रपातोंका महाभयंकर शब्द व्रजभूमिपर व्याप्त हो गया। उस भयंकर नादसे सातों लोकों और पातालों सहित ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और आकाशसे भूतलपर तारे टूट-टूटकर गिरने लगे ।। ३-८

अब तो प्रधान प्रधान गोप भयभीत हो, प्राण बचाने की इच्छासे अपने-अपने शिशुओं और कुटुम्बको आगे करके नन्दमन्दिरमें आये । बलरामसहित परमेश्वर श्रीनन्दनन्दनकी शरण में जाकर समस्त भयभीत व्रजवासी उन्हें प्रणाम करके कहने लगे ॥ - १० ॥

गोप बोले- महाबाहु राम ! राम !! और व्रजेश्वर कृष्ण ! कृष्ण !! इन्द्रके दिये हुए इस महान् कष्टसे आप अपने जनोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । तुम्हारे कहनेसे हमलोगोंने इन्द्रयाग छोड़कर गोवर्धन- पूजाका उत्सव मनाया, इससे आज इन्द्रका कोप बहुत बढ़ गया है। अब शीघ्र बताओ, हमें क्या करना चाहिये ? ॥ ११-१२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

कालेन मीलितधियामवमृश्य नॄणां ।
    स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः ।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां ।
    वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म ॥ ३६ ॥
देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां ।
    पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः ।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं ।
    वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम् ॥ ३७ ॥

समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान्‌ देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्त्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में सत्यवती के गर्भसे व्यास के रूपमें प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूपमें विभाजन कर देते हैं ॥ ३६ ॥
देवताओं के शत्रु दैत्यलोग भी वेदमार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेगवाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान्‌ लोगोंकी बुद्धि में मोह और अत्यन्त लोभ उत्पन्न करने वाला वेष धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत-से उपधर्मों का उपदेश करेंगे ॥ ३७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 31 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपों द्वारा गिरिराज-पूजन का महोत्सव

 

द्विजैश्च गोवर्धनदेवपूजनं
कृत्वाऽच्युतोक्तं द्विजवह्निगोधनम् ।
सम्पूज्य धृत्वा सुधनं महाधनं
बलिं ददौ श्रीगिरये व्रजेश्वरः ॥१८॥
नन्दोपनन्दैर्वृषभानुभिश्च
गोपीगणैर्गोपगणैः प्रहर्षितः ।
गायद्‌भिरानर्तनवाद्यतत्परै-
श्चकार कृष्णोऽद्रिवरप्रदक्षिणाम् ॥१९॥
देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षं
जनेषु वर्षत्सु च लाजसङ्घम् ।
रेजे महाराज इवाध्वरे जनै-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट् ॥२०॥
कृष्णोऽपि साक्षाद्‌व्रजशैलमध्या-
द्धृत्वाऽतिदीर्घं किल चान्यरूपम् ।
शैलोऽस्मि लोकानिति भाषयन्सन्
जघास सर्वं कृतमन्नकूटम् ॥२१॥
गोपालगोपीगणवृन्दमुख्या
ऊचुः स्वयं वीक्ष्य गिरेः प्रभावम् ।
दातुं वरं तत्र समुद्यतं तं
सुविस्मिता हर्षितमानसास्ते ॥२२॥
ज्ञातोऽसि गोपैर्गिरिराजदेवः
प्रदर्शितो नन्दसुतेन साक्षात् ।
नो गोधनं वा किल बन्धुवर्यो
वृद्धिं समायातु दिने दिने कौ ॥२३॥
तथाऽस्तु चोक्त्वा गिरिराजराजो
गोवर्धनो दिव्यवपुर्दधानः ।
किरीटकेयूरमनोहराङ्गः
क्षणेन तत्रान्तरधीयतारात् ॥२४॥
नन्दोपनन्दा वृषभानवश्च
बलः सुचन्द्रो वृषभानुराजः ।
श्रीनन्दराजश्च हरिश्च गोपा
गोप्यश्च सर्वा निजगोधनैश्च ॥२५॥
द्विजाश्च योगेश्वरसिद्धसङ्घाः
शिवादयश्चान्यजनाश्च सर्वे ।
नत्वाऽथ सम्पूज्य गिरिं प्रसन्नाः
स्वं स्वं गृहं जग्मुरनिच्छया च ॥२६॥
श्रीकृष्णचन्द्रस्य परं चरित्रं
गिरीन्द्रराजस्य महोत्सवं च ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
नॄणां महापापहरं पवित्रम् ॥२७॥

भगवान् श्रीकृष्णकी बतायी हुई विधिके अनुसार द्विजोंद्वारा गोवर्धन पूजन सम्पन्न करके, ब्राह्मणों, अग्नियों तथा गोधनकी सम्यक् पूजा करनेके पश्चात्, व्रजेश्वर नन्दने गिरिराजकी सेवामें बहुत सा धन तथा बहुमूल्य भेंट- सामग्री प्रस्तुत की । नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोपीवृन्द तथा गोपगण नाचने गाने और बाजे बजाने लगे। उन सबके साथ हर्षसे भरे हुए श्रीकृष्णने गिरिराजकी परिक्रमा की । आकाशसे देवता फूल बरसाने लगे और भूतलवासी जनसमुदाय लाजा लावा या खील) छींटने लगा। उस यज्ञमें गिरीन्द्रोंका सम्राट् गोवर्धन लोगोंसे घिरकर किसी महाराजके समान सुशोभित होने लगा ।। १८-२

साक्षात् श्रीकृष्ण भी व्रजस्थित शैल गोवर्धनके बीचसे एक दूसरा विशाल रूप धारण करके निकले और 'मैं गिरिराज गोवर्धन हूँलोगों से यों कहते हुए वहाँ का सारा अन्नकूट भोग लगाने लगे। गोपालों और गोपियोंके समुदायमें जो मुख्य- मुख्य लोग थे, उन्होंने गिरिका यह प्रभाव अपनी आँखों देखा तथा गिरिराजको वहाँ वर देने के लिये उद्यत देख सब-के-सब आश्चर्यचकित हो उठे । सब के मन में अपूर्व उल्लास छा गया ।। २-२

उस समय गोपोंने कहा—प्रभो! आज हमने जान लिया कि आप साक्षात् गिरिराज देवता हैं। स्वयं नन्दनन्दनने हमें आपके दर्शनका अवसर दिया है। आपकी कृपासे हमारा गोधन और बन्धुवर्ग प्रतिदिन इस भूतलपर वृद्धिको प्राप्त हो। 'ऐसा ही होगा' —यों कहकर किरीट और केयूर आदि आभूषणोंसे मनोहर अङ्गवाले दिव्यरूपधारी गिरिराजराज गोवर्धन क्षण- भरमें वहाँ उनके निकट ही अन्तर्धान हो गये ।। २३-२

तब नन्द-उपनन्द, वृषभानु, बलराम, वषृभानुराज सुचन्द्र, श्रीनन्दराज, श्रीहरि एवं समस्त गोप-गोपीगण अपने गोधनोंके साथ वहाँसे चले। ब्राह्मण, योगेश्वर- समुदाय, सिद्धसंघ, शिव आदि देवता तथ अन्य सब लोग गिरिराजको प्रणाम और उनका पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक अनिच्छासे अपने-अपने घरको गये । राजन्! श्रीकृष्णचन्द्रके इस उत्तम चरित्रका तथा गिरिराजराजके उस विचित्र महोत्सवका मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया। यह पावन प्रसङ्ग बड़े-बड़े पापोंको हर लेनेवाला है ।। २-२७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराज महोत्सवका वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...