शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम् ।
मन्वन्तरेषु मनवः तद् वंश्या ऋषयः सुराः ।
भवन्ति चैव युगपत् सुरेशाश्चानु ये च तान् ॥ २४ ॥
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः ।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभिः ॥ २५ ॥
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः ।
मन्वादिभिरिदं विश्वं अवत्युदितपौरुषः ॥ २६ ॥

प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (७१ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं ॥ २४ ॥ यह ब्रह्मा जी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है ॥ २५ ॥ इन मन्वन्तरों में भगवान्‌ सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं ॥२६॥ 

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गुरुवार, 16 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

संध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसङ्ख्ययोः ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते ॥ २० ॥
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥ २१ ॥
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम् ।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक् ॥ २२ ॥
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते ।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जंश्चतुर्दश ॥ २३ ॥

युगकी आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में सन्ध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीचका जो काल होता है, उसीको कालवेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है ॥ २० ॥ सत्ययुग के मनुष्यों में धर्म अपने चारों चरणोंसे रहता है; फिर अन्य युगोंमें अधर्म की वृद्धि होने से उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ २१ ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकीसे बाहर महर्लोकसे ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत् कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ॥ २२ ॥ उस रात्रिका अन्त होनेपर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रह्माजी का दिन रहता है, तबतक चलता रहता है। उस एक कल्पमें चौदह मनु हो जाते हैं ॥ २३ ॥ 

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बुधवार, 15 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

विदुर उवाच ।
पितृदेवमनुष्याणां आयुः परमिदं स्मृतम् ।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद्ब्हिर्विदः ॥ १६ ॥
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥ १७ ॥

मैत्रेय उवाच ।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम् ॥ १८ ॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सङ्ख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥ १९ ॥

विदुरजीने कहा—मुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परमायु का वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक कालतक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयुका वर्णन कीजिये ॥ १६ ॥ आप भगवान्‌ काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं ॥ १७ ॥
मैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि—ये चार युग अपनी सन्ध्या और सन्ध्यांशों के सहित देवताओं के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ १८ ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमश: चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशों में होते हैं[*] ॥ १९ ॥ 
........................................................
[*] अर्थात् सत्ययुगमें ४००० दिव्य वर्ष युग के और ८०० सन्ध्या एवं सन्ध्यांश के—इस प्रकार ४८०० वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेता में ३६००, द्वापर में २४०० और कलियुग में १२०० दिव्यवर्ष होते हैं। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अत: देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के ३६० वर्ष के बराबर हुआ। इस प्रकार मानवीय मान से कलियुग में ४३२००० वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापर में, तिगुने त्रेता में और चौगुने सत्ययुग में होते हैं।

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मंगलवार, 14 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

ग्रहर्क्षताराचक्रस्थः परमाण्वादिना जगत् ।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः ॥ १३ ॥
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते ॥ १४ ॥
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या ।
    पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वन् ।
    तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय ॥ १५ ॥

चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान्‌ सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ १३ ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनोंके भेदसे यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है ॥ १४ ॥ विदुरजी ! इन पाँच प्रकारके वर्षोंकी प्रवृत्ति करनेवाले भगवान्‌ सूर्यकी तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पञ्चभूतों में से तेज:स्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार से कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से  प्राप्त होने वाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलों का विस्तार करते हैं ॥ १५ ॥

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सोमवार, 13 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः ।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत् प्रस्थजलप्लुतम् ॥ ९ ॥
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद ॥ १० ॥
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥ ११ ॥
अयने चाहनी प्राहुः वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम् ॥ १२ ॥

छ: पल ताँबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पेंदेमें छेद करके उसे जलमें छोड़ दिया जाय। जितने समयमें एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक ‘नाडिका’ कहते हैं ॥ ९ ॥ विदुरजी ! चार-चार पहरके मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया है ॥ १० ॥ इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ‘ऋतु’ और छ: मासका एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेदसे दो प्रकारका है ॥ ११ ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है ॥ १२ ॥

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रविवार, 12 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

अणुर्द्वौ परमाणू स्यात् त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५ ॥
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः ।
शतभागस्तु वेधः स्यात् तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः ॥ ६ ॥
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः ।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च ॥ ७ ॥
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका ।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम् ॥ ८ ॥

दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है ॥ ५ ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेधका एक ‘लव’ होता है ॥ ६ ॥ तीन लवको एक ‘निमेष’ और तीन निमेषको एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षणकी एक ‘काष्ठा’ होती है और पंद्रह काष्ठाका एक ‘लघु’ ॥ ७ ॥ पंद्रह लघुकी एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिकाका एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिनके घटने-बढऩेके अनुसार (दिन एवं रात्रिकी दोनों सन्धियोंके दो मुहूर्तो को छोडक़र) छ: या सात नाडिकाका एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्यके दिन या रातका चौथा भाग होता है ॥ ८ ॥ 

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शनिवार, 11 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

मैत्रेय उवाच ।

चरमः सद्विशेषाणां अनेकोऽसंयुतः सदा ।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः ॥ १ ॥
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत् ।
कैवल्यं परममहान् अविशेषो निरन्तरः ॥ २ ॥
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।
संस्थानभुक्त्या भगवान् अव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः ॥ ३ ॥
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम् ।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान् ॥ ४ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं—विदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्गका जो सूक्ष्मतम अंश है—जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूपको प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलनेसे ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवीकी प्रतीति होती है ॥ १ ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्योंकी एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घट-पटादि वस्तुभेद की ही कल्पना होती है ॥ २ ॥ साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तुके सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूपका विचार हुआ। इसीके सादृश्यसे परमाणु आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थोंको भोगने वाले सृष्टि आदिमें समर्थ, अव्यक्तस्वरूप भगवान्‌ कालकी भी सूक्ष्मता और स्थूलताका अनुमान किया जा सकता है ॥ ३ ॥ जो काल प्रपञ्चकी परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थामें व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टिसे लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओंका भोग करता है, वह परम महान् है ॥ ४ ॥

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शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधाः पितरोऽसुराः ।
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः ॥ २७ ॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्राः किन्नरादयः ।
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः ॥ २८ ॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान् मन्वन्तराणि च ।
एवं रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः ।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥ २९ ॥

देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेदसे देवसृष्टि आठ प्रकारकी है। विदुरजी ! इस प्रकार जगत्- कर्ता श्रीब्रह्माजी की रची हुई यह दस प्रकारकी सृष्टि मैंने तुमसे कही ॥ २७-२८ ॥ अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसङ्कल्प भगवान्‌ हरि ही ब्रह्माके रूपसे प्रत्येक कल्पके आदिमें रजोगुणसे व्याप्त होकर स्वयं ही जगत्के रूपमें अपनी ही रचना करते हैं ॥ २९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

गौरजो महिषः कृष्णः सूकरो गवयो रुरुः ।
द्विशफाः पशवश्चेमे अविरुष्ट्रश्च सत्तम ॥ २१ ॥
खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा ।
एते चैकशफाः क्षत्तः श्रृणु पञ्चनखान् पशून् ॥ २२ ॥
श्वा सृगालो वृको व्याघ्रो मार्जारः शशशल्लकौ ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादयः ॥ २३ ॥
कङ्कगृध्रबकश्येन भासभल्लूकबर्हिणः ।
हंससारसचक्राह्व काकोलूकादयः खगाः ॥ २४ ॥
अर्वाक्स्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृणाम् ।
रजोऽधिकाः कर्मपरा दुःखे च सुखमानिनः ॥ २५ ॥
वैकृतास्त्रय एवैते देवसर्गश्च सत्तम ।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्तः कौमारस्तूभयात्मकः ॥ २६ ॥

साधुश्रेष्ठ! इन तिर्यकों मे गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नामक मृग, भेड़ और ऊँट – ये द्विशफ (दो सुरोंवाले) पशु कहलाते है ॥ २१॥ गधा, घोडा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी- ये एकशफा (एक खुरवाले) है ॥ अब पांच नखवाले पशु पक्षियों के नाम सुनो ॥ २२ ॥ कुत्ता, गीदड़, भेडिया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बन्दर, हाथी, कछुआ,गोह और मगर आदि ( पशु ) हैं ॥ २३ ॥ कंक ( बगुला ), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, बल्लुक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौवा, और उल्लू आदि उड़ने वाले जीव कहलाते हैं ॥ २४ ॥ विदुरजी ! नवीं सृष्टि मनुष्यों की हैं ॥ इसके आहार का प्रवाह ऊपर (मुंह ) से नीचे कि ओर होता है ॥ मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दु:खरूप विषयों में ही सुख माननेवाले होते हैं ॥ २५ ॥ स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य—ये तीनों प्रकारकी सृष्टियाँ तथा आगे कहा जानेवाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमारसर्ग है वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकार का है ॥ २६ ॥

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बुधवार, 8 जनवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्विधस्तस्थुषां च यः ॥ १८ ॥
वनस्पत्योषधिलता त्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः ।
उत्स्रोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः ॥ १९ ॥
तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः ।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः ॥ २० ॥

जो भगवान्‌ अपना चिन्तन करनेवालों के समस्त दु:खों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है। वे ही ब्रह्मा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत् की रचना करते हैं। छ: प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छ: प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है ॥ १८ ॥ वनस्पति, औषधि, लता, त्वक्सार, विरुध् और द्रुम इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपरकी और होता है, इनमें प्राय ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर ही भीतर केवल स्पर्शका अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कोई विशेष गुण रहता है ॥१९॥ आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुणी अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना अदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके हृदय मे विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती ॥२०॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...