गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जय-विजय को सनकादि का शाप

ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम् ।
आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम् ॥ ६ ॥
तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् ।
लब्धयुष्मत् प्रसादानां न कुतश्चित्पराभवः ॥ ७ ॥
यस्य वाचा प्रजाः सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिताः ।
हरन्ति बलिमायत्ताः तस्मै मुख्याय ते नमः ॥ ८ ॥
स त्वं विधत्स्व शं भूमन् तमसा लुप्तकर्मणाम् ।
अदभ्रदयया दृष्ट्या आपन्नानर्हसीक्षितुम् ॥ ९ ॥
एष देव दितेर्गर्भ ओजः काश्यपमर्पितम् ।
दिशस्तिमिरयन् सर्वा वर्धतेऽग्निरिवैधसि ॥ १० ॥

(देवता ब्रह्माजी से कहरहे हैं) आप में सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च आपका शरीर है; किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं । जो समस्त जीवों के उत्पत्तिस्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और मनको जीत लेनेके कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है ॥ ६-७ ॥ रस्सीसे बँधे हुए बैलों की भाँति आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ भूमन् ! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुखी हो रहे हैं; उनका कल्याण कीजिये और हम शरणागतों की ओर अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये ॥ ९ ॥ देव ! आग जिस प्रकार र्ईंधनमें पडक़र बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यपजीके वीर्यसे स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमश: बढ़ रहा है ॥ १० ॥

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बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

जय-विजय को सनकादि का शाप

मैत्रेय उवाच ।
प्राजापत्यं तु तत्तेजः परतेजोहनं दितिः ।
दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥ १ ॥
लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजसः ।
न्यवेदयन्विश्वसृजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम् ॥ २ ॥

देवा ऊचुः
तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भृशम् ।
न ह्यव्यक्तं भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मनः ॥ ३ ॥
देवदेव जगद्धातः लोकनाथशिखामणे ।
परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित् ॥ ४ ॥
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे ।
गृहीतगुणभेदाय नमस्तेऽव्यक्तयोनये ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! दितिको अपने पुत्रोंसे देवताओं को कष्ट पहुँचने की आशङ्का थी, इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करनेवाले उस कश्यपजी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षों तक अपने उदर में ही रखा ॥ १ ॥ उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है ॥ २ ॥
देवताओं ने कहा—भगवन् ! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं ॥ ३ ॥ देवाधिदेव ! आप जगत् के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव जानते हैं ॥ ४ ॥ देव ! आप विज्ञानबलसम्पन्न हैं; आपने मायासे ही यह चतुर्मुख रूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥ 

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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

दिति का गर्भधारण

स वै महाभागवतो महात्मा
    महानुभावो महतां महिष्ठः ।
प्रवृद्धभक्त्या ह्यनुभाविताशये
    निवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥ ४७ ॥
अलम्पटः शीलधरो गुणाकरो
    हृष्टः परर्ध्या व्यथितो दुःखितेषु ।
अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्ता
    नैदाघिकं तापमिवोडुराजः ॥ ४८ ॥
अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रं
    स्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।
पौत्रस्तव श्रीललनाललामं
    द्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥ ४९ ॥

मैत्रेय उवाच ।
श्रुत्वा भागवतं पौत्रं अमोदत दितिर्भृशम् ।
पुत्रयोश्च वधं कृष्णाद् विदित्वाऽऽसीन् महामनाः ॥ ५० ॥

 (कश्यपजी कहते हैं) दिति ! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषोंका भी पूज्य होगा। तथा प्रौढ़ भक्तिभावसे विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्त:करणमें श्रीभगवान्‌को स्थापित करके देहाभिमानको त्याग देगा ॥ ४७ ॥ वह विषयोंमें अनासक्त, शीलवान्, गुणोंका भंडार तथा दूसरोंकी समृद्धिमें सुख और दु:खमें दु:ख माननेवाला होगा। उसका कोई शत्रु न होगा, तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतुके तापको हर लेता है, वैसे ही वह संसारके शोकको शान्त करनेवाला होगा ॥ ४८ ॥ जो इस संसारके बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तोंके इच्छानुसार समय-समयपर मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललनाकी भी शोभा बढ़ानेवाले हैं, तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है—उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा ॥ ४९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान्‌ का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथसे मारे जायँगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे दितिकश्यपसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

दिति का गर्भधारण

कश्यप उवाच ।
अप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान्मौहूर्तिकादुत ।
मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात् ॥ ३७ ॥
भविष्यतस्तवाभद्रौ अभद्रे जाठराधमौ ।
लोकान्सपालांस्त्रींश्चण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यतः ॥ ३८ ॥
प्राणिनां हन्यमानानां दीनानां अकृतागसाम् ।
स्त्रीणां निगृह्यमाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥ ३९ ॥
तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवान् लोकभावनः ।
हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन् शतपर्वधृक् ॥ ४० ॥

दितिरुवाच ।
वधं भगवता साक्षान् सुनाभोदारबाहुना ।
आशासे पुत्रयोर्मह्यं मा क्रुद्धाद्ब्रारह्मणाद् विभो ॥ ४१ ॥
न ब्रह्मदण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च ।
नारकाश्चानुगृह्णन्ति यां यां योनिमसौ गतः ॥ ४२ ॥

कश्यप उवाच ।
कृतशोकानुतापेन सद्यः प्रत्यवमर्शनात् ।
भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात् ॥ ४३ ॥
पुत्रस्यैव च पुत्राणां भवितैकः सतां मतः ।
गास्यन्ति यद्यशः शुद्धं भगवद्यशसा समम् ॥ ४४ ॥
योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधवः ।
निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥ ४५ ॥
यत्प्रसादादिदं विश्वं प्रसीदति यदात्मकम् ।
स स्वदृग्भगवान् यस्य तोष्यतेऽनन्यया दृशा ॥ ४६ ॥

कश्यपजीने कहा—तुम्हारा चित्त कामवासनासे मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की ॥ ३७ ॥ अमङ्गलमयी चण्डी ! तुम्हारी कोखसे दो बड़े ही अमङ्गलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारोंसे रुलायेंगे ॥ ३८ ॥ जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतोंका दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे ॥ ३९-४० ॥
दितिने कहा—प्रभो ! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रोंका वध हो तो वह साक्षात् भगवान्‌ चक्रपाणिके हाथसे ही हो, कुपित ब्राह्मणोंके शापादिसे न हो ॥ ४१ ॥ जो जीव ब्राह्मणोंके शापसे दग्ध अथवा प्राणियोंको भय देनेवाला होता है, वह किसी भी योनिमें जाय—उसपर नारकी जीव भी दया नहीं करते ॥ ४२ ॥ कश्यपजीने कहा—देवि ! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चात्ताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचितका विचार भी हो गया तथा भगवान्‌ विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्रके चार पुत्रोंमेंसे एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यशको भक्तजन भगवान्‌के गुणोंके साथ गायेंगे ॥ ४३-४४ ॥ जिस प्रकार खोटे सोनेको बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभावका अनुकरण करनेके लिये निर्वैरता आदि उपायोंसे अपने अन्त:करणको शुद्ध करेंगे ॥ ४५ ॥ जिनकी कृपासे उन्हींका स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान्‌ भी उसकी अनन्य भक्तिसे सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ ४६ ॥ 

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रविवार, 16 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

दिति का गर्भधारण

दितिरुवाच ।
न मे गर्भमिमं ब्रह्मन् भूतानां ऋषभोऽवधीत् ।
रुद्रः पतिर्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम् ॥ ३३ ॥
नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीढुषे ।
शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥ ३४ ॥
स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रहः ।
व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देवः सतीपतिः ॥ ३५ ॥

मैत्रेय उवाच ।
स्वसर्गस्याशिषं लोक्यां आशासानां प्रवेपतीम् ।
निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापतिः ॥ ३६ ॥

दिति बोलीं—ब्रह्मन् ! भगवान्‌ रुद्र भूतोंके स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है; किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें ॥ ३३ ॥ मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषोंके लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देनेके भावसे रहित हैं, किन्तु दुष्टोंके लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ॥ ३४ ॥ हम स्त्रियोंपर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अत: वे मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! प्रजापति कश्यपने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्मसे निवृत्त होनेपर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नतिके लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा ॥ ३६ ॥

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शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दिति का गर्भधारण

यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो
    गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।
निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं
    पिशाचचर्यामचरद्गसतिः सताम् ॥ २६ ॥
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः
    स्वात्मन् रतस्याविदुषः समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः
    श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २७ ॥
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला
    यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्या
    अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ २८ ॥

मैत्रेय उवाच ।
सैवं संविदिते भर्त्रा मन्मथोन् मथितेन्द्रिया ।
जग्राह वासो ब्रह्मर्षेः वृषलीव गतत्रपा ॥ २९ ॥
स विदित्वाथ भार्यायाः तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥ ३० ॥
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।
ध्यायन् जजाप विरजं ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ॥ ३१ ॥
दितिस्तु व्रीडिता तेन कर्मावद्येन भारत ।
उपसङ्गम्य विप्रर्षिं अधोमुख्यभ्यभाषत ॥ ३२ ॥

(कश्यपजी दिति से कहरहे हैं) विवेकी पुरुष अविद्याके आवरणको हटाने की इच्छा से उनके (भगवान् शंकर के) निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं; उनसे बढक़र तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उनतक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचोंका-सा आचरण करते हैं ॥ २६ ॥ यह नरशरीर कुत्तोंका भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसीको सजाते-सँवारते रहते हैं—वे अभागे ही आत्माराम भगवान्‌ शङ्कर के आचरणपर हँसते हैं ॥ २७ ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हंउ तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करने वाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतों का-सा आचरण करते हैं। अहो ! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती’॥ २८॥ मैत्रेयजी कहते हैं—पतिके इस प्रकार समझानेपर भी कामातुरा दिति ने वेश्याके समान निर्लज्ज होकर ब्रहमर्षि कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया ॥ २९ ॥ तब कश्यपजी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया ॥ ३० ॥ फिर जल में स्नानकर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे ॥ ३१ ॥ विदुरजी ! दिति को भी उस निन्दित कर्मके कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मर्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी ॥ ३२॥

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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

दिति का गर्भधारण

न वयं प्रभवस्तां त्वां अनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ २० ॥
अथापि काममेतं ते प्रजात्यै करवाण्यलम् ।
यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्तं प्रतिपालय ॥ २१ ॥
एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ २२ ॥
एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।
परीतो भूतपर्षद्‌भिः वृषेणाटति भूतराट् ॥ २३ ॥
श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र
    विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो
    देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ २४ ॥
न यस्य लोके स्वजनः परो वा
    नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।
वयं व्रतैर्यत् चरणापविद्धां
    आशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ २५ ॥

(कश्यपजी दिति से कहरहे हैं) गृहेश्वरि ! तुम-जैसी भार्याके उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तरमें भी पूर्णरूप से नहीं चुका सकते ॥ २० ॥ तो भी तुम्हारी इस सन्तान-प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ॥ २१ ॥ यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान्‌ भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं ॥ २२ ॥ साध्वि ! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान्‌ शङ्कर अपने गण भूत- प्रेतादि को साथ लिये बैलपर चढक़र विचरा करते हैं ॥ २३ ॥ जिनका जटाजूट श्मशानभूमि से उठे हुए बवंडरकी धूलिसे धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीरमें भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंसे सभीको देखते रहते हैं ॥ २४ ॥ संसारमें उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हमलोग तो अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन करके उनकी मायाको ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है ॥ २५ ॥ 

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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दिति का गर्भधारण

इति तां वीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।
प्रत्याहानुनयन् वाचा प्रवृद्धानङ्गकश्मलाम् ॥ १५ ॥
एष तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्याः कामं न कः कुर्यात् सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ १६ ॥
सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १७ ॥
यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ १८ ॥
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन् दुर्जयानितराश्रमैः ।
वयं जयेम हेलाभिः दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ १९ ॥

विदुरजी ! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यप जी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘भीरु ! तुम्हारी इच्छाके अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम—तीनोंकी सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नीकी कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ १६ ॥ जिस प्रकार जहाजपर चढक़र मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रमद्वारा स्वयं भी दु:खसमुद्र के पार हो जाता है ॥ १७ ॥ मानिनि ! स्त्री को तो त्रिविध पुरुषार्थ की कामनावाले पुरुषका आधा अङ्ग कहा गया है। उसपर अपनी गृहस्थीका भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ १८ ॥ इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालोंके लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहजमें ही जीत लेते हैं ॥१९ ॥ 

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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

दिति का गर्भधारण

दितिर्दाक्षायणी क्षत्तः मारीचं कश्यपं पतिम् ।
अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हृच्छयार्दिता ॥ ७ ॥
इष्ट्वाग्निजिह्वं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम् ।
निम्लोचत्यर्क आसीनं अग्न्यगारे समाहितम् ॥ ८ ॥

दितिरुवाच ।
एष मां त्वत्कृते विद्वन् काम आत्तशरासनः ।
दुनोति दीनां विक्रम्य रम्भामिव मतङ्गजः ॥ ९ ॥
तद्भतवान् दह्यमानायां सपत्नीजनां समृद्धिभिः ।
प्रजावतीनां भद्रं ते मय्यायुङ्क्तामनुग्रहम् ॥ १० ॥
भर्तर्याप्तोरुमानानां लोकानाविशते यशः ।
पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥ ११ ॥
पुरा पिता नो भगवान् दक्षो दुहितृवत्सलः ।
कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक् ॥ १२ ॥
स विदित्वात्मजानां नो भावं सन्तानभावनः ।
त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुव्रताः ॥ १३ ॥
अथ मे कुरु कल्याण कामं कञ्जविलोचन ।
आर्तोपसर्पणं भूमन् अमोघं हि महीयसि ॥ १४ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) विदुरजी ! एक बार दक्षकी पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छासे कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजीसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान्‌ यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे ॥ ८ ॥
दितिने कहा—विद्वन् ! मतवाला हाथी जैसे केलेके वृक्षको मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आप के लिये मुझे बेचैन कर रहा है ॥ ९ ॥ अपनी पुत्रवती सौतोंकी सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आगसे जली जाती हूँ। अत: आप मुझपर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ १० ॥ जिनके गर्भसे आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसारमें सर्वत्र फैल जाता है ॥ ११ ॥ हमारे पिता प्रजापति दक्षका अपनी पुत्रियोंपर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ ॥ १२ ॥ वे अपनी सन्तान की सब प्रकारकी चिन्ता रखते थे। अत: हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमेंसे हम तेरह पुत्रियोंको, जो आपके गुण-स्वभावके अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया ॥ १३ ॥ अत: मङ्गलमूर्ते ! कमलनयन ! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम ! आप-जैसे महापुरुषोंके पास दीनजनोंका आना निष्फल नहीं होता ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

दिति का गर्भधारण

श्रीशुक उवाच ।
निशम्य कौषारविणोपवर्णितां
    हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।
पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिः
    न चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
तेनैव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २ ॥
तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य च ब्रह्मन् कस्माद् हेतोरभून्मृधः ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच ।
साधु वीर त्वया पृष्टं अवतारकथां हरेः ।
यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४ ॥
ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्योः कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्‌घ्रिं आरुरोह हरेः पदम् ॥ ५ ॥
अथात्रापीतिहासोऽयं श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।
ब्रह्मणा देवदेवेन देवानां अनुपृच्छताम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुखसे सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी को पूर्ण तृप्ति न हुई; अत: उन्होंने हाथ जोडक़र फिर पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहा—मुनिवर ! हमने यह बात आप के मुखसे अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्षको भगवान्‌ यज्ञमूर्तिने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान्‌ लीलासे ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जलमें से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! तुम्हारा प्रश्र बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्योंके मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिरपर पैर रखकर भगवान्‌ के परमपदपर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में एक बार इसी वराह- भगवान्‌ और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करनेपर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसीके परम्परासे मैंने सुना है ॥ ६ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...