॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
ऋषिरुवाच ।
बाढमुद्वोढुकामोऽहं अप्रत्ता च तवात्मजा ।
आवयोः अनुरूपोऽसौ आद्यो वैवाहिको विधिः ॥ १५ ॥
कामः स भूयान् नरदेव तेऽस्याः
पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः ।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियम् ॥ १६ ॥
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्घ्रिशोभां
विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम् ।
विश्वावसुर्न्यपतत् स्वात् विमानात्
विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः ॥ १७ ॥
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललामं
असेवितश्रीचरणैरदृष्टाम् ।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम् ॥ १८ ॥
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
यावत्तेजो बिभृयाद् आत्मनो मे ।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान् ॥ १९ ॥
यतोऽभवद्विश्वमिदं विचित्रं
संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते ।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
परं प्रमाणं भगवान् अनन्तः ॥ २० ॥
श्रीकर्दम मुनिने कहा—ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी के साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म [*] विधि से विवाह होना उचित ही होगा ॥ १५ ॥ राजन् ! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रोंमें बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्याके साथ हमारा सम्बन्ध होनेसे सफल होगा। भला, जो अपनी अङ्गकान्तिसे आभूषणादिकी शोभाको भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्याका कौन आदर न करेगा ? ॥ १६ ॥ एक बार यह अपने महलकी छतपर गेंद खेल रही थी। गेंदके पीछे इधर-उधर दौडऩेके कारण इसके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा पैरोंके पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमानसे गिर पड़ा था ॥ १७ ॥ वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्थामें कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा ? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है तथा यह रमणियोंमें रत्नके समान है। जिन लोगोंने कभी श्रीलक्ष्मीजीके चरणोंकी उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता ॥ १८ ॥ अत: मैं आपकी इस साध्वी कन्याको अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्तके साथ। जबतक इसके संतान न हो जायगी, तबतक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान्के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दमादि धर्मोंको ही अधिक महत्त्व दूँगा ॥ १९ ॥ जिनसे इस विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रयसे यह स्थित है—मुझे तो वे प्रजापतियोंके भी पति भगवान् श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं ॥ २० ॥
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[*] मनुस्मृतिमें आठ प्रकारके विवाहोंका उल्लेख पाया जाता है—(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य, (५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और (८) पैशाच। इनके लक्षण वहीं तीसरे अध्यायमें देखने चाहिये। इनमें पहला सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वरको कन्याका दान करता है।
शेष आगामी पोस्ट में --