शनिवार, 10 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

कर्दम और देवहूतिका विहार

स्नानेन तां महार्हेण स्नापयित्वा मनस्विनीम् ।
दुकूले निर्मले नूत्नेह ददुरस्यै च मानदाः ॥ २८ ॥
भूषणानि परार्ध्यानि वरीयांसि द्युमन्ति च ।
अन्नं सर्वगुणोपेतं पानं चैवामृतासवम् ॥ २९ ॥
अथादर्शे स्वमात्मानं स्रग्विणं विरजाम्बरम् ।
विरजं कृतस्वस्त्ययनं कन्याभिर्बहुमानितम् ॥ ३० ॥
स्नातं कृतशिरःस्नानं सर्वाभरणभूषितम् ।
निष्कग्रीवं वलयिनं कूजत् काञ्चननूपुरम् ॥ ३१ ॥
श्रोण्योरध्यस्तया काञ्च्या काञ्चन्या बहुरत्न३या ।
हारेण च महार्हेण रुचकेन च भूषितम् ॥ ३२ ॥
सुदता सुभ्रुवा श्लक्ष्ण स्निग्धापाङ्गेन चक्षुषा ।
पद्मकोशस्पृधा नीलैः अलकैश्च लसन्मुखम् ॥ ३३ ॥

विदुरजी ! तब स्वामिनीको सम्मान देनेवाली उन रमणियोंने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदिसे मिश्रित जलके द्वारा मनस्विनी देवहूतिको स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहननेको दिये ॥ २८ ॥ फिर उन्होंने ये बहुत मूल्यके बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीनेके लिये अमृतके समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये ॥ २९ ॥ अब देवहूतिने दर्पणमें अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह भाँति-भाँतिके सुगंधित फूलोंके हारोंसे विभूषित है, स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए है, उसका शरीर भी निर्मल और कान्तिमान् हो गया है तथा उन कन्याओंने बड़े आदरपूर्वक उसका माङ्गलिक श्रृंगार किया है ॥ ३० ॥ उसे सिर से स्नान कराया गया है, स्नानके पश्चात् अङ्ग-अङ्गमें सब प्रकारके आभूषण सजाये गये हैं तथा उसके गलेमें हार-हुमेल, हाथोंमें कङ्कण और पैरोंमें छमछमाते हुए सोनेके पायजेब सुशोभित हैं ॥ ३१ ॥ कमरमें पड़ी हुई सोनेकी रत्नजटित करधनीसे, बहुमूल्य मणियोंके हारसे और अङ्ग-अङ्गमें लगे हुए कुङ्कुमादि मङ्गलद्रव्योंसे उसकी अपूर्व शोभा हो रही है ॥ ३२ ॥ उसका मुख सुन्दर दन्तावली, मनोहर भौंहें, कमलकी कली-से स्पर्धा करनेवाले प्रेमकटाक्षमय सुन्दर नेत्र और नीली अलकावलीसे बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता है ॥ ३३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 9 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

कर्दम और देवहूतिका विहार

सा तद्भरर्तुः समादाय वचः कुवलयेक्षणा ।
सरजं बिभ्रती वासो वेणीभूतांश्च मूर्धजान् ॥ २४ ॥
अङ्गं च मलपङ्केन सञ्छन्नं शबलस्तनम् ।
आविवेश सरस्वत्याः सरः शिवजलाशयम् ॥ २५ ॥
सान्तः सरसि वेश्मस्थाः शतानि दश कन्यकाः ।
सर्वाः किशोरवयसो ददर्शोत्पलगन्धयः ॥ २६ ॥
तां दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रोचुः प्राञ्जलयः स्त्रियः ।
वयं कर्मकरीस्तुभ्यं शाधि नः करवाम किम् ॥ २७ ॥

कमललोचना देवहूतिने अपने पतिकी बात मानकर सरस्वतीके पवित्र जलसे भरे हुए उस सरोवरमें प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहने हुए थी, उसके सिरके बाल चिपक जानेसे उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीरमें मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे ॥ २४-२५ ॥ सरोवरमें गोता लगानेपर उसने उसके भीतर एक महलमें एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर अवस्थाकी थीं और उनके शरीरोंसे कमलकी-सी गन्ध आती थी ॥ २६ ॥ देवहूतिको देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोडक़र कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ?’ ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 8 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

कर्दम और देवहूतिका विहार

चक्षुष्मत् पद्मरागाग्र्यैः वज्रभित्तिषु निर्मितैः ।
जुष्टं विचित्रवैतानैः महार्हैः हेमतोरणैः ॥ १९ ॥
हंसपारावतव्रातैः तत्र तत्र निकूजितम् ।
कृत्रिमान् मन्यमानैः स्वान् अधिरुह्याधिरुह्य च ॥ २० ॥
विहारस्थानविश्राम संवेशप्राङ्गणाजिरैः ।
यथोपजोषं रचितैः व्प्स्मापनं इवात्मनः ॥ २१ ॥
ईदृग्गृहं तत्पश्यन्तीं नातिप्रीतेन चेतसा ।
सर्वभूताशयाभिज्ञः प्रावोचत् कर्दमः स्वयम् ॥ २२ ॥
निमज्ज्यास्मिन् ह्रदे भीरु विमानं इदमारुह ।
इदं शुक्लकृतं तीर्थं आशिषां यापकं नृणाम् ॥ २३ ॥

उस (विमान)की हीरे की दीवारों में बढिय़ा लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों, तथा उसे रंग-बिरंगे चँदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था ॥ १९ ॥ उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव-से मालूम पड़ते थे। उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे ॥ २० ॥ उसमें सुविधानुसार क्रीडास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे—जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दमजी को भी विस्मित-सा कर रहा था ॥ २१ ॥
ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा, तो सबके आन्तरिक भाव को परख लेनेवाले कर्दमजी ने स्वयं ही कहा— ॥ २२ ॥ ‘भीरु ! तुम इस बिन्दुसरोवर में स्नान कर के विमानपर चढ़ जाओ; यह विष्णुभगवान्‌ का रचा हुआ तीर्थ मनुष्योंको सभी कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाला है’ ॥ २३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 7 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

कर्दम और देवहूतिका विहार

मैत्रेय उवाच -
प्रियायाः प्रियमन्विच्छन् कर्दमो योगमास्थितः ।
विमानं कामगं क्षत्तः तर्ह्येवाविरचीकरत् ॥ १२ ॥
सर्वकामदुघं दिव्यं सर्वरत्नेसमन्वितम् ।
सर्वर्द्ध्युपचयोदर्कं मणिस्तम्भैरुपस्कृतम् ॥ १३ ॥
दिव्योपकरणोपेतं सर्वकालसुखावहम् ।
पट्टिकाभिः पताकाभिः विचित्राभिः अलङ्कृतम् ॥ १४ ॥
स्रग्भिर्विचित्रमाल्याभिः मञ्जुशिञ्जत् षडङ्‌घ्रिभिः ।
दुकूलक्षौमकौशेयैः नानावस्त्रैः विराजितम् ॥ १५ ॥
उपर्युपरि विन्यस्त निलयेषु पृथक्पृथक् ।
क्षिप्तैः कशिपुभिः कान्तं पर्यङ्कव्यजनासनैः ॥ १६ ॥
तत्र तत्र विनिक्षिप्त नानाशिल्पोपशोभितम् ।
महामरकतस्थल्या जुष्टं विद्रुमवेदिभिः ॥ १७ ॥
द्वाःसु विद्रुमदेहल्या भातं वज्रकपाटवत् ।
शिखरेषु इन्द्रनीलेषु हेमकुम्भैः अधिश्रितम् ॥ १८ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! कर्दम मुनिने अपनी प्रियाकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसी समय योगमें स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था ॥ १२ ॥ यह विमान सब प्रकारके इच्छित भोग-सुख प्रदान करनेवाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकारके रत्नोंसे युक्त, सब सम्पत्तियोंकी उत्तरोत्तर वृद्धिसे सम्पन्न तथा मणिमय खंभोंसे सुशोभित था ॥ १३ ॥ वह सभी ऋतुओंमें सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकारकी दिव्य सामग्रियाँ रखी हुई थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओंसे खूब सजाया गया था ॥ १४ ॥ जिनपर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पोंकी मालाओंसे तथा अनेक प्रकारके सूती और रेशमी वस्त्रोंसे वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था ॥ १५ ॥ एकके ऊपर एक बनाये हुए कमरोंमें अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनोंके कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था ॥ १६ ॥ जहाँ-तहाँ दीवारोंमें की हुई शिल्परचनासे उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्नेका फर्श था और बैठनेके लिये मूँगेकी वेदियाँ बनायी गयी थीं ॥ १७ ॥ मूँगेकी ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारोंमें हीरेके किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणिके शिखरोंपर सोनेके कलश रखे हुए थे ॥ १८ ॥ 

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मंगलवार, 6 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

कर्दम और देवहूतिका विहार

देवहूतिरुवाच –

राद्धं बत द्विजवृषैतदमोघयोग
     मायाधिपे त्वयि विभो तदवैमि भर्तः ।
यस्तेऽभ्यधायि समयः सकृदङ्गसङ्गो
     भूयाद्गमरीयसि गुणः प्रसवः सतीनाम् ॥ १० ॥
तत्रेतिकृत्यमुपशिक्ष यथोपदेशं
     येनैष मे कर्शितोऽतिरिरंसयाऽऽत्मा ।
सिद्ध्येत ते कृतमनोभवधर्षिताया
     दीनस्तदीश भवनं सदृशं विचक्ष्व ॥ ११ ॥

देवहूतिने कहा—द्विजश्रेष्ठ ! स्वामिन् ! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होनेवाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिका मायापर अधिकार रखनेवाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो ! आपने विवाहके समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होनेतक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुखका उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पतिके द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्रीके लिये महान् लाभ है ॥ १० ॥ हम दोनोंके समागमके लिये शास्त्रके अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलनकी इच्छासे अत्यन्त दीन, दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अङ्ग-संगके योग्य हो जाय; क्योंकि आपकी ही बढ़ाई हुई कामवेदनासे मैं पीडि़त हो रही हूँ। स्वामिन् ! इस कार्यके लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाय, इसका भी विचार कीजिये ॥ ११ ॥

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सोमवार, 5 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

कर्दम और देवहूतिका विहार

कर्दम उवाच -
तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदायाः
     शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या ।
यो देहिनामयमतीव सुहृत्स देहो
     नावेक्षितः समुचितः क्षपितुं मदर्थे ॥ ६ ॥
ये मे स्वधर्मनिरतस्य तपःसमाधि
     विद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादाः ।
तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्
     दृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान् ॥ ७ ॥
अन्ये पुनर्भगवतो भ्रुव उद्विजृम्भ
     विभ्रंशितार्थरचनाः किमुरुक्रमस्य ।
सिद्धासि भुङ्क्ष्व विभवान् निजधर्मदोहान्
     दिव्यान् नरैर्दुरधिगान् नृपविक्रियाभिः ॥ ८ ॥
एवं ब्रुवाणमबलाखिलयोगमाया
     विद्याविचक्षणमवेक्ष्य गताधिरासीत् ।
सम्प्रश्रयप्रणयविह्वलया गिरेषद्
     व्रीडावलोकविलसद् हसिताननाह ॥ ९ ॥

कर्दमजी बोले—मनुनन्दिनि ! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्तिसे बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियोंको अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदरकी वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवाके आगे उसके क्षीण होनेकी भी कोई परवा नहीं की ॥ ६ ॥ अत: अपने धर्मका पालन करते रहनेसे मुझे तप, समाधि, उपासना और योगके द्वारा जो भय और शोकसे रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं, उनपर मेरी सेवाके प्रभावसे अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो ॥ ७ ॥ अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान्‌ श्रीहरिके भ्रुकुटि-विलासमात्रसे नष्ट हो जाते हैं; अत: वे इनके आगे कुछ भी नहीं हैं। तुम मेरी सेवासे भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्मका पालन करनेसे तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्योंको इन दिव्य भोगोंकी प्राप्ति होनी कठिन है ॥ ८ ॥ कर्दमजीके इस प्रकार कहनेसे अपने पतिदेवको सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओंमें कुशल जानकर उस अबलाकी सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख ‘किञ्चित संकोचभरी चितवन और मधुर मुसकानसे खिल उठा और वह विनय एवं प्रेमसे गद्गद वाणीमें इस प्रकार कहने लगी ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 4 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

कर्दम और देवहूतिका विहार

मैत्रेय उवाच ।

पितृभ्यां प्रस्थिते साध्वी पतिं इङ्‌कितकोविदा ।
नित्यं पर्यचरत् प्रीत्या भवानीव भवं प्रभुम् ॥ १ ॥
विश्रम्भेणात्मशौचेन गौरवेण दमेन च ।
शुश्रूषया सौहृदेन वाचा मधुरया च भोः ॥ २ ॥
विसृज्य कामं दम्भं च द्वेषं लोभमघं मदम् ।
अप्रमत्तोद्यता नित्यं तेजीयांसमतोषयत् ॥ ३ ॥
स वै देवर्षिवर्यस्तां मानवीं समनुव्रताम् ।
दैवाद्गवरीयसः पत्युः आशासानां महाशिषः ॥ ४ ॥
कालेन भूयसा क्षामां कर्शितां व्रतचर्यया ।
प्रेमगद्गसदया वाचा पीडितः कृपयाब्रवीत् ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! माता-पिताके चले जानेपर पतिके अभिप्रायको समझ लेनेमें कुशल साध्वी देवहूति कर्दमजीकी प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वतीजी भगवान्‌ शङ्करकी सेवा करती हैं ॥ १ ॥ उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मदका त्यागकर बड़ी सावधानी और लगनके साथ सेवामें तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुरभाषणादि गुणोंसे अपने परम तेजस्वी पतिदेवको सन्तुष्ट कर लिया ॥ २-३ ॥ देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैवसे भी बढक़र हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी- बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवामें लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनोंतक अपना अनुवर्तन करने- वाली उस मनुपुत्रीको व्रतादिका पालन करनेसे दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दमको दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणीमें कहा ॥ ४-५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 3 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

अयातयामाः तस्यासन् यामाः स्वान्तरयापनाः ।
श्रृण्वतो ध्यायतो विष्णोः कुर्वतो ब्रुवतः कथाः ॥ ३५ ॥
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानां एकसप्ततिम् ।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रयः ॥ ३६ ॥
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥ ३७ ॥
यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान् नानाविधान् शुभान् ।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा ॥ ३८ ॥
एतत्ते आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुततम् ।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं श्रृणु ॥ ३९ ॥

भगवान्‌ विष्णुकी कथाओंका श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहनेके कारण उनके मन्वन्तरको व्यतीत करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे ॥ ३५ ॥ इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणोंको अभिभूत करके उन्होंने भगवान्‌ वासुदेवके कथाप्रसङ्गमें अपने मन्वन्तरके इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये ॥ ३६ ॥ व्यासनन्दन विदुरजी ! जो पुरुष श्रीहरिके आश्रित रहता है, उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दु:ख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं ॥ ३७ ॥ मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे। मुनियों के पूछने पर उन्हों ने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार के मङ्गलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है) ॥३८॥
जगत् के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तवमें कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का प्रभाव सुनो ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 2 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

तं आयान्तं अभिप्रेत्य ब्रह्मावर्तात्प्रजाः पतिम् ।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयुः प्रहर्षिताः ॥ २८ ॥
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसंपत् समन्विता ।
न्यपतन्यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः ॥ २९ ॥
कुशाः काशास्त एवासन् शश्वद्धरितवर्चसः ।
ऋषयो यैः पराभाव्य यज्ञघ्नान् यज्ञमीजिरे ॥ ३० ॥
कुशकाशमयं बर्हिः आस्तीर्य भगवान् मनुः ।
अयजद् यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम् ॥ ३१ ॥
बर्हिष्मतीं नाम विभुः यां निर्विश्य समावसत् ।
तस्यां प्रविष्टो भवनं तापत्रयविनाशनम् ॥ ३२ ॥
सभार्यः सप्रजः कामान् बुभुजेऽन्याविरोधतः ।
सङ्गीयमानसत्कीर्तिः सस्त्रीभिः सुरगायकैः ।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा श्रृण्वन् हरेः कथाः ॥ ३३ ॥
निष्णातं योगमायासु मुनिं स्वायम्भुवं मनुम् ।
यदाभ्रंशयितुं भोगा न शेकुर्भगवत्परम् ॥ ३४ ॥

जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ अगवानी करनेके लिये ब्रह्मावर्तकी राजधानीसे बाहर आयी ॥ २८ ॥ सब प्रकारकी सम्पदाओंसे युक्त बर्हिष्मती नगरी मनुजीकी राजधानी थी, जहाँ पृथ्वीको रसातलसे ले आनेके पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराहभगवान्‌के रोम झडक़र गिरे थे ॥ २९ ॥ वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहनेवाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियोंने यज्ञमें विघ्र डालनेवाले दैत्योंका तिरस्कार कर भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी यज्ञोंद्वारा आराधना की है ॥ ३० ॥ महाराज मनुने भी श्रीवराहभगवान्‌से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होनेपर इसी स्थानमें कुश और कास की बर्हि(चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञभगवान्‌की पूजा की थी ॥ ३१ ॥ जिस बर्हिष्मती पुरीमें मनुजी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवनमें प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वहाँ अपनी भार्या और सन्ततिके सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्षके अनुकूल भोगोंको भोगने लगे। प्रात:काल होनेपर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियोंके सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदयसे श्रीहरिकी कथाएँ ही सुना करते थे ॥ ३३ ॥ वे इच्छानुसार भोगोंका निर्माण करनेमें कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होनेके कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे ॥ ३४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 1 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

मैत्रेय उवाच -
स उग्रधन्वन् नियदेवाबभाषे
     आसीच्च तूष्णीं अरविन्दनाभम् ।
धियोपगृह्णन् स्मितशोभितेन
     मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्याः ॥ २१ ॥
सोऽनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम् ।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षितः ॥ २२ ॥
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हान् महाधनान् ।
दम्पत्योः पर्यदात् प्रीत्या भूषावासः परिच्छदान् ॥ २३ ॥
प्रत्तां दुहितरं सम्राट् सदृक्षाय गतव्यथः ।
उपगुह्य च बाहुभ्यां औत्कण्ठ्योन्मथिताशयः ॥ २४ ॥
अशक्नुवन् तद्विरहं मुञ्चन् बाष्पकलां मुहुः ।
आसिञ्चद् अम्ब वत्सेति नेत्रोदैर्दुहितुः शिखाः ॥ २५ ॥
आमन्त्र्य तं मुनिवं अमनुज्ञातः सहानुगः ।
प्रतस्थे रथमारुह्य सभार्यः स्वपुरं नृपः ॥ २६ ॥
उभयोः ऋषिकुल्यायाः सरस्वत्याः सुरोधसोः ।
ऋषीणां उपशान्तानां पश्यन् आश्रमसम्पदः ॥ २७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—प्रचण्ड धनुर्धर विदुर ! कर्दमजी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदयमें भगवान्‌ कमलनाभका ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उनके मन्द हास्ययुक्त मुखकमलको देखकर देवहूतिका चित्त लुभा गया ॥ २१ ॥ मनुजीने देखा कि इस सम्बन्धमें महारानी शतरूपा और राजकुमारीकी स्पष्ट अनुमति है, अत: उन्होंने अनेक गुणोंसे सम्पन्न कर्दमजी को उन्हीं के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नता-पूर्वक दान कर दिया ॥ २२ ॥ महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेजमें दिये ॥ २३ ॥ इस प्रकार सुयोग्य वरको अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकनेके कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छातीसे चिपटा लिया और ‘बेटी ! बेटी !’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूतिके सिरके सारे बाल भिगो दिये ॥ २४-२५ ॥ फिर वे मुनिवर कर्दमसे पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानीके सहित रथपर सवार हुए और अपने सेवकोंसहित ऋषिकुलसेवित सरस्वती नदीके दोनों तीरोंपर मुनियोंके आश्रमोंकी शोभा देखते हुए अपनी राजधानीमें चले आये ॥ २६-२७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

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