गुरुवार, 11 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०५)

सती का अग्निप्रवेश

कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतं
     वेदे विविच्योभयलिङ्‌गमाश्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तरि
     द्वयं तथा ब्रह्मणि कर्म नर्च्छति ॥ २० ॥
मा वः पदव्यः पितरस्मदास्थिता
     या यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभिः ।
तदन्नतृप्तैरसुभृद्‌भिरीडिता
     अव्यक्तलिङ्‌गा अवधूतसेविताः ॥ २१ ॥
नैतेन देहेन हरे कृतागसो
     देहोद्भ वेनालमलं कुजन्मना ।
व्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसङ्‌गतः
     तज्जन्म धिग् यो महतामवद्यकृत् ॥ २२ ॥
गोत्रं त्वदीयं भगवान्वृषध्वजो
     दाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मनाः ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तद्ध्यहं
     व्युत्स्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदङ्‌गजम् ॥ २३ ॥

(सती अपने पिता दक्ष से कह रही हैं ) प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि)-रूप दोनों ही प्रकारके कर्म ठीक हैं। वेदमें उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकारके अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होनेके कारण उक्त दोनों प्रकारके कर्मोंका एक साथ एक ही पुरुषके द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान्‌ शङ्कर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकारका कर्म करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ २० ॥ पिताजी ! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राणपोषण करने वाले कर्मठलोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते ॥ २१ ॥ आप भगवान्‌ शङ्कर का अपराध करनेवाले हैं। अत: आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होनेके कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषोंका अपराध करता है, उससे होनेवाले जन्मको भी धिक्कार है ॥ २२ ॥ जिस समय भगवान्‌ शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नामसे पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अङ्ग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीरको त्याग दूँगी ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 10 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०४)

सती का अग्निप्रवेश

किं वा शिवाख्यमशिवं न विदुस्त्वदन्ये
     ब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटाः श्मशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचैः
     ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम् ॥ १६ ॥
कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे
     धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेत्
     जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥ १७ ॥
अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं
     न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिणः ।
जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो
     जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥
न वेदवादान् अनुवर्तते मतिः
     स्व एव लोके रमतो महामुनेः ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययोः पृथक्
     स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थितः ॥ १९ ॥

(देवी सती कह रही हैं)  वे केवल नाममात्रके शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमङ्गलरूप है; इस बातको आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवत: नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान्‌ शिव श्मशानभूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिरपर धारण करते हैं ॥ १६ ॥ यदि निरङ्कुशलोग धर्ममर्यादा की रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामीकी निन्दा करें तो अपनेमें उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर कान बंद करके वहाँसे चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकडक़र उस बकवाद करनेवाली अमङ्गलरूप दुष्ट जिह्वाको काट डाले। इस पापको रोकनेके लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है ॥ १७ ॥ आप भगवान्‌ नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूलसे कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय, तो उसे वमन करके निकाल देनेसे ही मनुष्यकी शुद्धि बतायी जाती है ॥ १८ ॥ जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेदके विधिनिषेधमय वाक्योंका अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्योंकी गतिमें भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्गमें स्थित रहते हुए भी दूसरोंके मार्गकी निन्दा न करे ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०३)

सती का अग्निप्रवेश

देव्युवाच -
न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायनः प्रियः
     तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मनः ।
तस्मिन् समस्तात्मनि मुक्तवैरके
     ऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥
दोषान् परेषां हि गुणेषु साधवो
     गृह्णन्ति केचिन्न भवादृशो द्विज ।
गुणांश्च फल्गून् बहुलीकरिष्णवो
     महत्तमास्तेष्वविदद्भववानघम् ॥ १२ ॥
नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा
     महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेर्ष्यं महापूरुषपादपांसुभिः
     निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ॥ १३ ॥
यद् द्व्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणां
     सकृत्प्रसङ्‌गादघमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्तिं तमलङ्‌घ्यशासनं
     भवानहो द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥ १४ ॥
यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभिः
     निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभिः ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिनः
     तस्मै भवान् द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥

देवी सतीने कहा—पिताजी ! भगवान्‌ शङ्कर से बड़ा तो संसारमें कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणीसे वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा ? ॥ ११ ॥ द्विजवर ! आप-जैसे लोग दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग—दोष देखनेकी बात तो अलग रही—दूसरोंके थोड़ेसे गुणको भी बड़े रूपमें देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषोंपर भी दोषारोपण ही किया ॥ १२ ॥ जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीरको ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषोंकी निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टापर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणोंकी धूलि उनके इस अपराधको न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अत: महापुरुषोंकी निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषोंको ही शोभा देता है ॥ १३ ॥ जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरोंका नाम प्रसङ्गवश एक बार भी मुखसे निकल जानेपर मनुष्यके समस्त पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञाका कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, अहो ! उन्हीं पवित्रकीर्ति मङ्गलमय भगवान्‌ शङ्करसे आप द्वेष करते हैं ! अवश्य ही आप अमङ्गलरूप हैं ॥ १४ ॥ अरे ! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषोंको उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान्‌ शिवसे आप वैर करते हैं ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 9 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०२)

सती का अग्निप्रवेश

आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसं
     विप्रर्षिजुष्टं विबुधैश्च सर्वशः ।
मृद्दार्वयःकाञ्चनदर्भचर्मभिः
     निसृष्टभाण्डं यजनं समाविशत् ॥ ॥ ६ ॥
तामागतां तत्र न कश्चनाद्रियद्
     विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।
ऋते स्वसॄर्वै जननीं च सादराः
     प्रेमाश्रुकण्ठ्यः परिषस्वजुर्मुदा ॥ ७ ॥
सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तया
     मात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।
दत्तां सपर्यां वरमासनं च सा
     नादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥ ८ ॥
अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरं
     पित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।
अनादृता यज्ञसदस्यधीश्वरी
     चुकोप लोकानिव धक्ष्यती रुषा ॥ ९ ॥
जगर्ह सामर्षविपन्नया गिरा
     शिवद्विषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान् समुत्थितान्
     निगृह्य देवी जगतोऽभिशृण्वतः ॥ १० ॥

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकोंके साथ दक्षकी यज्ञशालामें पहुँचीं। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणोंमें परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वरमें कौन बोले सब ओर ब्रहमर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्मके पात्र रखे हुए थे ॥ ६ ॥ वहाँ पहुँचनेपर पिताके द्वारा सतीकी अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहनोंके सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुर्ईं और प्रेमसे गद्गद होकर उन्होंने सतीजीको आदरपूर्वक गले लगाया ॥ ७ ॥ किन्तु सतीजीने पितासे अपमानित होनेके कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्नसहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादिको स्वीकार नहीं किया ॥ ८ ॥
सर्वलोकेश्वरी देवी सतीका यज्ञमण्डपमें तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञमें भगवान्‌ शङ्करके लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोषसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगी ॥ ९ ॥ दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमंड हो गया था। उसे शिवजीसे द्वेष करते देख जब सतीके साथ आये हुए भूत उसे मारनेको तैयार हुए, तो देवी सती ने उन्हें अपने तेजसे रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लडख़ड़ाती हुई वाणीमें कहा ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०१)

सती का अग्निप्रवेश

मैत्रेय उवाच -
एतावदुक्त्वा विरराम शङ्‌करः
     पत्न्यिङ्‌गनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन् ।
सुहृद् दिदृक्षुः परिशङ्‌किता भवान्
     निष्क्रामती निर्विशती द्विधाऽऽस सा ॥ १ ॥
सुहृद् दिदृक्षाप्रतिघातदुर्मनाः
     स्नेहाद्रुदत्यश्रुकलातिविह्वला ।
भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषा
     प्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथुः ॥ २ ॥
ततो विनिःश्वस्य सती विहाय तं
     शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।
पित्रोरगात् स्त्रैणविमूढधीर्गृहान्
     प्रेम्णात्मनो योऽर्धमदात्सतां प्रियः ॥ ३ ॥
तामन्वगच्छन् द्रुतविक्रमां सतीं
     एकां त्रिनेत्रानुचराः सहस्रशः ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयः
     पुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथाः ॥ ४ ॥
तां सारिका कन्दुकदर्पणाम्बुज
     श्वेतातपत्र व्यजनस्रगादिभिः ।
गीतायनैः दुन्दुभिशङ्‌खवेणुभिः
     वृषेन्द्रमारोप्य विटङ्‌किता ययुः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इतना कहकर भगवान्‌ शङ्कर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्षके यहाँ जाने देने अथवा जाने देनेसे रोकने—दोनों ही अवस्थाओंमें सतीके प्राणत्यागकी सम्भावना है। इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनोंको देखने जानेकी इच्छासे बाहर आतीं और कभी ‘भगवान्‌ शङ्कर रुष्ट न हो जायँ’ इस शङ्कासे फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकनेके कारण वे दुविधामें पड़ गयीं—चञ्चल हो गयीं ॥ १ ॥ बन्धुजनोंसे मिलनेकी इच्छामें बाधा पडऩेसे वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनोंके स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखोंमें आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थरथर काँपने लगा और वे अप्रतिम पुरुष भगवान्‌ शङ्करकी ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी ॥ २ ॥ शोक और क्रोधने उनके चित्तको बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभावके कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अङ्गतक दे दिया था, उन सत्पुरुषोंके प्रिय भगवान्‌ शङ्कर को भी छोडक़र वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिताके घर चल दीं ॥ ३ ॥ सतीको बड़ी फुर्तीसे अकेली जाते देख श्रीमहादेवजीके मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान्‌ के वाहन वृषभराजको आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षोंको साथ ले बड़ी तेजीसे निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये ॥ ४ ॥ उन्होंने सतीको बैलपर सवार करा दिया तथा मैनापक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेलकी सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शङ्ख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उनके साथ चल दिये ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 8 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

व्यक्तं त्वमुत्कृष्टगतेः प्रजापतेः
     प्रियात्मजानामसि सुभ्रु मे मता ।
तथापि मानं न पितुः प्रपत्स्यसे
     मदाश्रयात्कः परितप्यते यतः ॥ २० ॥
पापच्यमानेन हृदाऽऽतुरेन्द्रियः
     समृद्धिभिः पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् ।
अकल्प एषामधिरोढुमञ्जसा
     परं पदं द्वेष्टि यथासुरा हरिम् ॥ २१ ॥
प्रत्युद्गंमप्रश्रयणाभिवादनं
     विधीयते साधु मिथः सुमध्यमे ।
प्राज्ञैः परस्मै पुरुषाय चेतसा
     गुहाशयायैव न देहमानिने ॥ २२ ॥
सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं
     यदीयते तत्र पुमानपावृतः ।
सत्त्वे च तस्मिन् भगवान् वासुदेवो
     ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥ २३ ॥
तत्ते निरीक्ष्यो न पितापि देहकृद्
     दक्षो मम द्विट् तदनुव्रताश्च ये ।
यो विश्वसृग्यज्ञगतं वरोरु मां
     अनागसं दुर्वचसाकरोत्तिरः ॥ २४ ॥
यदि व्रजिष्यस्यतिहाय मद्वचो
     भद्रं भवत्या न ततो भविष्यति ।
सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवो
     यदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥ २५ ॥
 
भगवान्‌ शङ्कर कह रहे  हैं- सुन्दरि ! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नति को प्राप्त हुए दक्षप्रजापति को अपनी कन्याओं में सब से अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होने के कारण तुम्हें अपने पितासे मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं ॥ २० ॥ जीवकी चित्तवृत्तिके साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषोंकी समृद्धिको देखकर जिसके हृदयमें सन्ताप और इन्द्रियों में व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पद को तो सुगमता से प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरि से द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है ॥ २१ ॥
सुमध्यमे ! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियोंकी सभामें उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोकव्यवहारमें परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा बहुत अच्छे ढंगसे की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूपसे सबके अन्त:करणोंमें स्थित परमपुरुष वासुदेवको ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुषको नहीं करते ॥ २२ ॥ विशुद्ध अन्त:करणका नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसीमें भगवान्‌ वासुदेवका अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्ध चित्तमें स्थित इन्द्रियातीत भगवान्‌ वासुदेवको ही मैं नमस्कार किया करता हूँ ॥ २३ ॥ इसीलिये प्रिये ! जिसने प्रजापतियोंके यज्ञमें, मेरेद्वारा कोई अपराध न होनेपर भी, मेरा कटुवाक्योंसे तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि तुम्हारे शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता है, तो भी मेरा शत्रु होनेके कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियोंको देखनेका विचार भी नहीं करना चाहिये ॥ २४ ॥ यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिका अपने आत्मीयजनोंके द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्युका कारण हो जाता है ॥ २५ ॥
  
इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे उमारुद्रसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

ऋषिरुवाच -
एवं गिरित्रः प्रिययाभिभाषितः
     प्रत्यभ्यधत्त प्रहसन् सुहृत्प्रियः ।
संस्मारितो मर्मभिदः कुवागिषून्
     यानाह को विश्वसृजां समक्षतः ॥ १५ ॥

श्रीभगवानुवाच -
त्वयोदितं शोभनमेव शोभने
     अनाहुता अप्यभियन्ति बन्धुषु ।
ते यद्यनुत्पादितदोषदृष्टयो
     बलीयसान् आत्म्यमदेन मन्युना ॥ १६ ॥
विद्यातपोवित्तवपुर्वयःकुलैः
     सतां गुणैः षड्‌भिरसत्तमेतरैः ।
स्मृतौ हतायां भृतमानदुर्दृशः
     स्तब्धा न पश्यन्ति हि धाम भूयसाम् ॥ १७ ॥
नैतादृशानां स्वजनव्यपेक्षया
     गृहान् प्रतीयादनवस्थितात्मनाम् ।
येऽभ्यागतान् वक्रधियाभिचक्षते
     आरोपितभ्रूभिरमर्षणाक्षिभिः ॥ १८ ॥
तथारिभिर्न व्यथते शिलीमुखैः
     शेतेऽर्दिताङ्‌गो हृदयेन दूयता ।
स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभिः
     दिवानिशं तप्यति मर्मताडितः ॥ १९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—प्रिया सतीजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर अपने आत्मीयोंका प्रिय करनेवाले भगवान्‌ शङ्करको दक्षप्रजापतिके उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप बाणों का स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियों के सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले ॥ १५ ॥
भगवान्‌ शङ्करने कहा—सुन्दरि ! तुमने जो कहा कि अपने बन्धुजन के यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किन्तु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमानसे उत्पन्न हुए मद और क्रोधके कारण द्वेष-दोषसे युक्त न हो गयी हो ॥ १६ ॥ विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल—ये छ: सत्पुरुषोंके तो गुण हैं, परन्तु नीच पुरुषोंमें ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक-शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषोंका प्रभाव नहीं देख पाते ॥ १७ ॥ इसीसे जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषोंको कुटिल बुद्धिसे भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टिसे देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित्त लोगोंके यहाँ ‘ये हमारे बान्धव हैं’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये ॥ १८ ॥ देवि ! शत्रुओंके बाणोंसे बिंध जानेपर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनोंके कुटिल वचनोंसे होती है। क्योंकि बाणोंसे शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेपर तो जैसे-तैसे निद्रा आ जाती है, किन्तु कुवाक्योंसे मर्मस्थान विद्ध हो जानेपर तो मनुष्य हृदयकी पीड़ासे दिन-रात बेचैन रहता है ॥ १९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 7 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

सत्युवाच -
प्रजापतेस्ते श्वशुरस्य साम्प्रतं
     निर्यापितो यज्ञमहोत्सवः किल ।
वयं च तत्राभिसराम वाम ते
     यद्यर्थितामी विबुधा व्रजन्ति हि ॥ ८ ॥
तस्मिन् भगिन्यो मम भर्तृभिः स्वकैः
     ध्रुवं गमिष्यन्ति सुहृद्दिदृक्षवः ।
अहं च तस्मिन् भवताभिकामये
     सहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ॥ ९ ॥
तत्र स्वसॄर्मे ननु भर्तृसम्मिता
     मातृष्वसॄः क्लिन्नधियं च मातरम् ।
द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभिः
     उन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ॥ १० ॥
त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममायया
     विनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् ।
तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च ते
     दीना दिदृक्षे भव मे भवक्षितिम् ॥ ११ ॥
पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितो
     ऽप्यलङ्‌कृताः कान्तसखा वरूथशः ।
यासां व्रजद्‌भिः शितिकण्ठ मण्डितं
     नभो विमानैः कलहंसपाण्डुभिः ॥ १२ ॥
कथं सुतायाः पितृगेहकौतुकं
     निशम्य देहः सुरवर्य नेङ्‌गते ।
अनाहुता अप्यभियन्ति सौहृदं
     भर्तुर्गुरोर्देहकृतश्च केतनम् ॥ १३ ॥
तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाञ्छितं
     कर्तुं भवान्कारुणिको बतार्हति ।
त्वयात्मनोऽर्धेऽहमदभ्रचक्षुषा
     निरूपिता मानुगृहाण याचितः ॥ १४ ॥

सतीने कहा—वामदेव ! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्षप्रजापति के यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें ॥ ८ ॥ इस समय अपने आत्मीयों से मिलने के लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियोंके सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता के दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ ॥ ९ ॥ वहाँ अपने पतियों से सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननी को देखनेके लिये मेरा मन बहुत दिनोंसे उत्सुक है। कल्याणमय ! इसके सिवा वहाँ महर्षियों का रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखनेको मिलेगा ॥ १० ॥ अजन्मा प्रभो ! आप जगत् की  उत्पत्ति के हेतु हैं। आपकी मायासे रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आपहीमें भास रहा है ॥ किन्तु मैं तो स्त्रीस्वभाव होनेके कारण आपके तत्त्वसे अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय अपनी जन्मभूमि देखनेको बहुत उत्सुक हो रही हूँ ॥ ११ ॥ जन्मरहित नीलकण्ठ ! देखिये—इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्षसे कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियोंके सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जानेवाली इन देवाङ्गनाओंके राजहंसके समान श्वेत विमानोंसे आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है ॥ १२ ॥ सुरश्रेष्ठ ! ऐसी अवस्थामें अपने पिताके यहाँ उत्सवका समाचार पाकर उसकी बेटीका शरीर उसमें सम्मिलित होनेके लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदोंके यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं ॥ १३ ॥ अत: देव ! आप मुझपर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परम ज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अङ्गमें स्थान दिया है। अब मेरी इस याचनापर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

मैत्रेय उवाच -
सदा विद्विषतोरेवं कालो वै ध्रियमाणयोः ।
जामातुः श्वशुरस्यापि सुमहानतिचक्रमे ॥ १ ॥
यदाभिषिक्तो दक्षस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।
प्रजापतीनां सर्वेषां आधिपत्ये स्मयोऽभवत् ॥ २ ॥
इष्ट्वा स वाजपेयेन ब्रह्मिष्ठानभिभूय च ।
बृहस्पतिसवं नाम समारेभे क्रतूत्तमम् ॥ ३ ॥
तस्मिन् ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षिपितृदेवताः ।
आसन् कृतस्वस्त्ययनाः तत्पत्न्य्श्च सभर्तृकाः ॥ ४ ॥
तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम् ।
सती दाक्षायणी देवी पितृयज्ञमहोत्सवम् ॥ ५ ॥
व्रजन्तीः सर्वतो दिग्भ्य उपदेववरस्त्रियः ।
विमानयानाः सप्रेष्ठा निष्ककण्ठीः सुवाससः ॥ ॥ ६ ॥
दृष्ट्वा स्वनिलयाभ्याशे लोलाक्षीर्मृष्टकुण्डलाः ।
पतिं भूतपतिं देवं औत्सुक्यादभ्यभाषत ॥ ७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार उन ससुर और दामाद को आपस में वैर-विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया ॥ १ ॥ इसी समय ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया । इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया ॥२॥ उसने भगवान्‌ शङ्कर आदि ब्रह्मनिष्ठों को यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेययज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नाम का महायज्ञ आरम्भ किया ॥ ३ ॥ उस यज्ञोत्सव में सभी ब्रहमर्षि,देवर्षि,पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ माङ्गलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्ष के द्वारा उन सब का स्वागत-सत्कार किया गया ॥ ४ ॥ उस समय आकाशमार्ग से जाते हुए देवता आपसमें उस यज्ञकी चर्चा करते जाते थे । उनके मुख से दक्षकुमारी सती ने अपने पिता के घर होनेवाले यज्ञ की बात सुन ली ॥ ५ ॥ उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलासके पाससे होकर सब ओरसे चञ्चल नेत्रोंवाली गन्धर्व और यक्षोंकी स्त्रियाँ चमकीले कुण्डल और हार पहने खूब सज-धजकर अपने-अपने पतियोंके साथ विमानोंपर बैठी उस यज्ञोत्सवमें जा रही हैं। इससे उन्हें भी बड़ी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान्‌ भूतनाथसे कहा ॥ ६-७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 6 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

तस्यैवं वदतः शापं श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगुः प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २७ ॥
भवव्रतधरा ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २८ ॥
नष्टशौचा मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिणः ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥ २९ ॥
ब्रह्म च ब्राह्मणांश्चैव यद्यूयं परिनिन्दथ ।
सेतुं विधारणं पुंसां अतः पाषण्डमाश्रिताः ॥ ३० ॥
एष एव हि लोकानां शिवः पन्थाः सनातनः ।
यं पूर्वे चानुसन्तस्थुः यत्प्रमाणं जनार्दनः ॥ ३१ ॥
तद्ब्र्ह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराट् ॥ ३२ ॥

मैत्रेय उवाच -
तस्यैवं वदतः शापं भृगोः स भगवान्भवः ।
निश्चक्राम ततः किञ्चित् विमना इव सानुगः ॥ ३३ ॥
तेऽपि विश्वसृजः सत्रं सहस्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरिः ॥ ३४ ॥
आप्लुत्यावभृथं यत्र गङ्‌गा यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना सर्वे स्वं स्वं धाम ययुस्ततः ॥ ३५ ॥

नन्दीश्वरके मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदलेमें भृगुजीने यह दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया ॥ २७ ॥ ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले और पाखण्डी हों ॥ २८ ॥ जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं—वे ही शैव-सम्प्रदायमें दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं ॥ २९ ॥ अरे ! तुमलोग जो धर्ममर्यादाके संस्थापक एवं वर्णाश्रमियोंके रक्षक वेद और ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्डका आश्रय ले रखा है ॥ ३० ॥ यह वेदमार्ग ही लोगोंके लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसीपर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णुभगवान्‌ हैं ॥ ३१ ॥ तुमलोग सत्पुरुषोंके परम पवित्र और सनातन मार्गस्वरूप वेदकी निन्दा करते हो—इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’ ॥ ३२ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! भृगुऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान्‌ शङ्कर कुछ खिन्न-से हो वहाँ से अपने अनुयायियोंसहित चल दिये ॥ ३३ ॥ वहाँ प्रजापतिलोग जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे। और वह यज्ञ एक हजार वर्ष में समाप्त होनेवाला था । उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगङ्गा-यमुना के सङ्गम में यज्ञान्त स्नान किया और फिर प्रसन्नमन से वे अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥३४-३५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे दक्षशापो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...