॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
मोहिनीरूप से भगवान् के द्वारा अमृत बाँटा जाना
श्रीभगवानुवाच -
कथं कश्यपदायादाः पुंश्चल्यां मयि संगताः ।
विश्वासं पण्डितो जातु कामिनीषु न याति हि ॥ ९ ॥
सालावृकाणां स्त्रीणां च स्वैरिणीनां सुरद्विषः ।
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्नं नूत्नं विचिन्वताम् ॥ १० ॥
श्रीशुक उवाच -
इति ते क्ष्वेलितैस्तस्या आश्वस्तमनसोऽसुराः ।
जहसुर्भावगम्भीरं ददुश्चामृतभाजनम् ॥ ११ ॥
ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरिः
बभाष ईषत् स्मितशोभया गिरा ।
यद्यभ्युपेतं क्व च साध्वसाधु वा
कृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥ १२ ॥
इत्यभिव्याहृतं तस्या आकर्ण्यासुरपुंगवाः ।
अप्रमाणविदस्तस्याः तत् तथेत्यन्वमंसत ॥ १३ ॥
अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च हविषानलम् ।
दत्त्वा गोविप्रभूतेभ्यः कृतस्वस्त्ययना द्विजैः ॥ १४ ॥
यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते ।
कुशेषु प्राविशन्सर्वे प्राग् अग्रेष्वभिभूषिताः ॥ १५ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—आपलोग महर्षि कश्यपके पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आपलोग मुझपर न्यायका भार
क्यों डाल रहे हैं ?
विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंका कभी विश्वास नहीं
करते ॥ ९ ॥ दैत्यो ! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियोंकी मित्रता स्थायी नहीं होती।
वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढ़ा करते हैं ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! मोहिनीकी परिहासभरी वाणीसे दैत्योंके मनमें और भी विश्वास हो
गया। उन लोगोंने रहस्यपूर्ण भावसे हँसकर अमृतका कलश मोहिनीके हाथमें दे दिया ॥ ११
॥ भगवान्ने अमृतका कलश अपने हाथमें लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणीसे कहा—‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुमलोगोंको स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती
हूँ’
॥ १२ ॥ बड़े-बड़े दैत्योंने मोहिनीकी यह मीठी बात सुनकर
उसकी बारीकी नहीं समझी,
इसलिये सबने एक स्वरसे कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनीके वास्तविक स्वरूपका पता नहीं था ॥ १३ ॥
इसके बाद एक दिनका उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्यसे
अग्नि में हवन किया। गौ,
ब्राह्मण और समस्त प्राणियोंको घास-चारा, अन्न-धनादिका यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणोंसे
स्वस्त्ययन कराया ॥ १४ ॥ अपनी-अपनी रुचिके अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये
और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनोंपर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था ॥ १५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से