॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान्
के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का
विवाह
और
कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों हत्या
श्रीशुक
उवाच ।
इत्यादिश्यामरगणान्
प्रजापतिपतिः विभुः ।
आश्वास्य
च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ ॥ २६ ॥
शूरसेनो
यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम् ।
माथुरान्
शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा ॥ २७ ॥
राजधानी
ततः साभूत् सर्वयादव भूभुजाम् ।
मथुरा
भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ २८ ॥
तस्यां
तु कर्हिचित् शौरिः वसुदेवः कृतोद्वहः ।
देवक्या
सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत् ॥ २९ ॥
उग्रसेनसुतः
कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया ।
रश्मीन्
हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः ॥ ३० ॥
चतुःशतं
पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम् ।
अश्वानां
अयुतं सार्धं रथानां च त्रिषट्शतम् ॥ ३१ ॥
दासीनां
सुकुमारीणां द्वे शते समलंकृते ।
दुहित्रे
देवकः प्रादात् याने दुहितृवत्सलः ॥ ३२ ॥
शंखतूर्यमृदंगाश्च
नेदुः दुन्दुभयः समम् ।
प्रयाणप्रक्रमे
तावत् वरवध्वोः सुमंगलम् ॥ ३३ ॥
पथि
प्रग्रहिणं कंसं आभाष्य आह अशरीरवाक् ।
अस्यास्त्वां
अष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसे अबुध ॥ ३४ ॥
इत्युक्तः
स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः ।
भगिनीं
हन्तुमारब्धः खड्गपाणिः कचेऽग्रहीत् ॥ ३५ ॥
तं
जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम् ।
वसुदेवो
महाभाग उवाच परिसान्त्वयन् ॥ ३६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! प्रजापतियोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माजीने देवताओंको इस
प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वीको समझा-बुझाकर ढाढ़स बँधाया। इसके बाद वे अपने परम धामको
चले गये ॥ २६ ॥ प्राचीन कालमें यदुवंशी राजा थे शूरसेन। वे मथुरापुरीमें रहकर
माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डलका राज्यशासन करते थे ॥ २७ ॥ उसी समयसे मथुरा ही समस्त
यदुवंशी नरपतियोंकी राजधानी हो गयी थी। भगवान् श्रीहरि सर्वदा वहाँ विराजमान रहते
हैं ॥ २८ ॥ एक बार मथुरामें शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नवविवाहिता
पत्नी देवकीके साथ घर जानेके लिये रथपर सवार हुए ॥ २९ ॥ उग्रसेनका लडक़ा था कंस।
उसने अपनी चचेरी बहिन देवकीको प्रसन्न करनेके लिये उसके रथके घोड़ोंकी रास पकड़
ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों
सोनेके बने हुए रथ चल रहे थे ॥ ३० ॥ देवकीके पिता थे देवक। अपनी पुत्रीपर उनका
बड़ा प्रेम था। कन्याको विदा करते समय उन्होंने उसे सोनेके हारोंसे अलंकृत चार सौ
हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ
तथा सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित दो सौ सुकुमारी दासियाँ दहेजमें दीं ॥
३१-३२ ॥ विदाईके समय वर-वधूके मङ्गलके लिये एक ही साथ शङ्ख, तुरही,
मृदङ्ग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं ॥ ३३ ॥ मार्गमें जिस समय घोड़ोंकी
रास पकडक़र कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणीने उसे
सम्बोधन करके कहा—‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथमें बैठाकर लिये जा
रहा है, उसकी आठवें गर्भकी सन्तान तुझे मार डालेगी’ ॥ ३४ ॥ कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टताकी सीमा नहीं थी। वह भोजवंशका कलङ्क
ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिनकी चोटी पकडक़र उसे
मारनेके लिये तैयार हो गया ॥ ३५ ॥ वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा
वसुदेवजी उसको शान्त करते हुए बोले— ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से