सोमवार, 31 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन् सुराणां जयमावह ॥ २६ ॥
अधुनैषोऽभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको ह्यगात् ।
शिवाय नस्त्वं सुहृदां आशु निस्तर दुस्तरम् ॥ २७ ॥
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युं अयं आसादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकान् आधेहि शर्मणि ॥ २८ ॥

(श्रीब्रह्माजी कहते हैं) ‘प्रभो ! देखिये, लोकों का संहार करनेवाली संन्ध्या की भयङ्कर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये ॥ २६ ॥ इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अत: अपने सुहृद् हमलोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! इसकी मृत्यु आप के ही हाथ बदी है। हमलोगों के बड़े भाग्य हैं कि यह स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये॥२८॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 30 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

ब्रह्मोवाच –

एष ते देव देवानां अङ्‌‌घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानां अपि अनागसाम् ॥ २२ ॥
आगस्कृद् भयकृद् दुष्कृद् अस्मद् राद्धवरोऽसुरः ।
अन्वेषन् अप्रतिरथो लोकान् अटति कण्टकः ॥ २३ ॥
मैनं मायाविनं दृप्तं निरङ्‌कुशमसत्तमम् ।
आक्रीड बालवद्देव यथाऽऽशीविषमुत्थितम् ॥ २४ ॥
न यावदेष वर्धेत स्वां वेलां प्राप्य दारुणः ।
स्वां देव मायां आस्थाय तावत् जह्यघमच्युत ॥ २५ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—देव ! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणोंकी शरणमें रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवोंको बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दु:खदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोडक़ा और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें घूम रहा है ॥ २२-२३ ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरङ्कुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँपसे खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ २४ ॥ देव ! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धिकी वेलाको पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमायाको स्वीकार करके इस पापीको मार डालिये ॥ २५ ॥ 

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शनिवार, 29 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ १८ ॥
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताङ्‌गयोः
     क्षतास्रवघ्राणविवृद्धमन्य्वोः ।
विचित्रमार्गांश्चरतोर्जिगीषया
     व्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मृधः ॥ १९ ॥
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया
     गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
     दिदृक्षुरागाद् ऋषिभिर्वृतः स्वराट् ॥ २० ॥
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसं
     कृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान् सहस्रणीः
     जगाद नारायणमादिसूकरम् ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे ॥ १८ ॥ उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अङ्ग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अङ्गों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनोंका ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरहके पैंतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौके लिये आपसमें लडऩेवाले दो साँड़ोंके समान उन दोनोंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ १९ ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंके सहित ब्रह्माजी आये ॥ २० ॥ वे हजारों ऋषियोंसे घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करनेमें भी समर्थ है और उसके पराक्रमको चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान्‌ आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे ॥ २१ ॥

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शुक्रवार, 28 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

मैत्रेय उवाच –

सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३ ॥
सृजन् अमर्षितः श्वासान् मन्युप्रचलितेन्द्रियः ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदया न्यहनद् हरिम् ॥ १४ ॥
भगवान् तु गदावेगं विसृष्टं रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत् तिरश्चीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥ १५ ॥
पुनर्गदां स्वां आदाय भ्रामयन्तं अभीक्ष्णशः ।
अभ्यधावद् हरिः क्रुद्धः संरम्भाद् दष्टदच्छदम् ॥ १६ ॥
ततश्च गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि प्रभुः ।
आजघ्ने स तु तां सौम्य गदया कोविदोऽहनत् ॥ १७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब भगवान्‌ने रोषसे उस दैत्यका इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकडक़र खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे तिलमिला उठा ॥ १३ ॥ वह खीझकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोधसे क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्यने बड़े वेगसे लपककर भगवान्‌पर गदाका प्रहार किया ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान्‌ने अपनी छातीपर चलायी हुई शत्रुकी गदाके प्रहारको कुछ टेढ़े होकर बचा लिया—ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्युके आक्रमणसे अपनेको बचा लेता है ॥ १५ ॥ फिर जब वह क्रोधसे होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेगसे उसकी ओर झपटे ॥ १६ ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब प्रभुने शत्रुकी दायीं भौंहपर गदाकी चोट की, किन्तु गदायुद्धमें कुशल हिरण्याक्षने उसे बीचमें ही अपनी गदापर ले लिया ॥ १७ ॥ 

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गुरुवार, 27 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

श्रीभगवानुवाच –

सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
     युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
     विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥ १० ॥
एते वयं न्यासहरा रसौकसां
     गतह्रियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेऽथापि कथञ्चिदाजौ
     स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम् ॥ ११ ॥
त्वं पद्-रथानां किल यूथपाधिपो
     घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां
     यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥ १२ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्यु-पाशमें बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं देते ॥ १० ॥ हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोडक़र तेरी गदा के भयसे यहाँ भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीरके सामने युद्धमें ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानोंसे वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ ११ ॥ तू पैदल वीरोंका सरदार है, इसलिये अब नि:शङ्क होकर—उधेड़-बुन छोडक़र हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओंके आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असभ्य है—भले आदमियोंमें बैठनेलायक नहीं है ॥ १२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 26 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरैः
     दंष्ट्राग्रगां गां उपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन् निरगाद् अम्बुमध्याद्
     ग्राहाहतः सकरेणुर्यथेभः ॥ ६ ॥
तं निःसरन्तं सलिलाद् अनुद्रुतो
     हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झषः ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवीद्‌
     गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥ ७ ॥
स गां उदस्तात् सलिलस्य गोचरे
     विन्यस्य तस्यां अदधात् स्वसत्त्वम् ।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनैः
     आपूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः ॥ ८ ॥
परानुषक्तं तपनीयोपकल्पं
     महागदं काञ्चनचित्रदंशम् ।
मर्माण्यभीक्ष्णं प्रतुदन्तं दुरुक्तैः
     प्रचण्डमन्युः प्रहसन् तं बभाषे ॥ ९ ॥

हिरण्याक्ष भगवान्‌ को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँतकी नोकपर स्थित पृथ्वीको भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ ६ ॥ जब उसकी चुनौतीका कोई उत्तर न देकर वे जलसे बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्यने उनका पीछा किया तथा वज्रके समान कडक़कर वह कहने लगा, ‘तुझे भागनेमें लज्जा नहीं आती ? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है ?’ ॥ ७ ॥
भगवान्‌ ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार-योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का सञ्चार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओंने फूल बरसाये ॥ ८ ॥ तब श्रीहरिने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोनेके आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्योंसे उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा ॥ ९ ॥

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मंगलवार, 25 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

मैत्रेय उवाच ।

तदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितं
     महामनास्तद् विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विदित्वा गतिमङ्‌ग नारदाद्
     रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥ १ ॥
ददर्श तत्राभिजितं धराधरं
     प्रोन्नीयमान अवनिं अग्रदंष्ट्रया ।
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोऽरुणश्रिया
     जहास चाहो वनगोचरो मृगः ॥ २ ॥
आहैनमेह्यज्ञ महीं विमुञ्च नो
     रसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतः
     सुराधमासादितसूकराकृते ॥ ३ ॥
त्वं नः सपत्नैःस अभवाय किं भृतो
     यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं
     संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥ ४ ॥
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्षणि
     अस्मद्भुदजच्युतया ये च तुभ्यम् ।
बलिं हरन्ति ऋषयो ये च देवाः
     स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूलाः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—तात ! वरुणजी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथनपर कि ‘तू उनके हाथसे मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया ॥ १ ॥ वहाँ उसने विश्वविजयी वराहभगवान्‌को अपनी दाढ़ोंकी नोकपर पृथ्वीको ऊपरकी ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल- लाल चमकीले नेत्रोंसे उसके तेजको हर लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँ से आया’ ॥ २ ॥ फिर वराहजी से कहा, ‘अरे नासमझ ! इधर आ, इस पृथ्वीको छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्माजी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है । रे सूकररूपधारी सुराधम ! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता ॥ ३ ॥ तू मायासे लुक-छिपकर ही दैत्योंको जीत लेता और मार डालता है। क्या इसीसे हमारे शत्रुओंने हमारा नाश करानेके लिये तुझे पाला है ? मूढ़ ! तेरा बल तो योगमाया ही है; और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही हैं। आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओंका शोक दूर करूँगा ॥ ४ ॥ जब मेरे हाथसे छूटी हुई गदाके प्रहारसे सिर फट जानेके कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षोंकी भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’ ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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सोमवार, 24 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स एवं उत्सिक्त मदेन विद्विषा
     दृढं प्रलब्धो भगवान् अपां पतिः ।
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया
     व्यवोचदङ्‌गोपशमं गता वयम् ॥ २९ ॥
पश्यामि नान्यं पुरुषात् पुरातनाद्
     यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यति असुरर्षभेहि तं
     मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ३० ॥
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः
     शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानां असतां प्रशान्तये
     रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१ ॥

उस मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे भगवान्‌ वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे—‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है ॥ २९ ॥ भगवान्‌ पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तोंसे घिरकर वीरशय्यापर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप धारण किया करते हैं’ ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 23 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स वर्षपूगान् उदधौ महाबलः
     चरन् महोर्मीन् श्वसनेरितान्मुहुः ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरीं
     आसेदिवान् तास्तात पुरीं प्रचेतसः ॥ २६ ॥
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
     यादोगणानां ऋषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचवत्
     जगाद मे देह्यधिराज संयुगम् ॥ २७ ॥
त्वं लोकपालोऽधिपतिर्बृहच्छ्रवा
     वीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोकेऽखिलदैत्यदानवान्
     यद् राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥ २८ ॥

महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षोंतक समुद्रमें ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार- बार वायुवेगसे उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गोंपर ही अपनी लोहमयी गदाको आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुणकी राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ॥ २६ ॥ वहाँ पाताललोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुणजी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे कहा—‘महाराज ! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था’ ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 22 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

चक्रे हिरण्यकशिपुः दोर्भ्यां ब्रह्मवरेण च ।
वशे सपालान् लोकान् त्रीन् अकुतोमृत्युरुद्धतः ॥ १९ ॥
हिरण्याक्षो अनुजस्तस्य प्रियः प्रीतिकृदन्वहम् ।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुः मृगयन् रणम् ॥ २० ॥
तं वीक्ष्य दुःसहजवं रणत् काञ्चन नूपुरम् ।
वैजयन्त्या स्रजा जुष्टं अंस न्यस्त महागदम् ॥ २१ ॥
मनोवीर्यवर उत्सिक्तं असृण्यं अकुतोभयम् ।
भीता निलिल्यिरे देवाः तार्क्ष्य त्रस्तः इवाहयः ॥ २२ ॥
स वै तिरोहितान् दृष्ट्वा महसा स्वेन दैत्यराट् ।
स-इन्द्रान् देवगणान् क्षीबान् अपश्यन् व्यनदद्भृःशम् ॥ २३ ॥
ततो निवृत्तः क्रीडिष्यन् गम्भीरं भीमनिस्वनम् ।
विजगाहे महासत्त्वो वार्धिं मत्त इव द्विपः ॥ २४ ॥
तस्मिन्प्रविष्टे वरुणस्य सैनिका
     यादोगणाः सन्नधियः ससाध्वसाः ।
अहन्यमाना अपि तस्य वर्चसा
     प्रधर्षिता दूरतरं प्रदुद्रुवुः ॥ २५ ॥

हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीके वरसे मृत्युभयसे मुक्त हो जानेके कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओंके बलसे लोकपालोंके सहित तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया ॥ १९ ॥ वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्षको बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाईका प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथमें गदा लिये युद्धका अवसर ढूँढ़ता हुआ स्वर्गलोकमें जा पहुँचा ॥ २० ॥ उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरोंमें सोनेके नूपुरोंकी झनकार हो रही थी, गलेमें विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधेपर विशाल गदा रखी हुई थी ॥ २१ ॥ उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजीके वरने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरङ्कुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डरके मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुडक़े डर से साँप छिप जाते हैं ॥ २२ ॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्षने देखा कि मेरे तेजके सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर गर्जना करने लगा ॥ २३ ॥ फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे लौटकर जलक्रीडा करनेके लिये मतवाले हाथीके समान गहरे समुद्रमें घुस गया, जिसमें लहरोंकी बड़ी भयङ्कर गर्जना हो रही थी ॥ २४ ॥ ज्यों ही उसने समुद्रमें पैर रखा कि डरके मारे वरुणके सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करनेपर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६) ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन तां...