॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
श्रीकपिलदेवजी का जन्म
मैत्रेय उवाच -
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापतिः ।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह ॥ ४१ ॥
व्रतं स आस्थितो मौनं आत्मैकशरणो मुनिः ।
निःसङ्गो व्यचरत् क्षोणीं अनग्निरनिकेतनः ॥ ४२ ॥
मनो ब्रह्मणि युञ्जानो यत्तत् सदसतः परम् ।
गुणावभासे विगुण एकभक्त्यानुभाविते ॥ ४३ ॥
निरहङ्कृतिर्निर्ममश्च निर्द्वन्द्वः समदृक् स्वदृक् ।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीरः प्रशान्तोर्मिरिवोदधिः ॥ ४४ ॥
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि ।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धनः ॥ ४५ ॥
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तं अवस्थितम् ।
अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि ॥ ४६ ॥
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा ।
भगवद्भ्क्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः ॥ ४७ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान् कपिलके इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दम जी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये ॥ ४१ ॥
वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्मका पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान्
की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रमका त्याग करके नि:सङ्गभावसे पृथ्वीपर विचरने लगे ॥ ४२ ॥ जो कार्यकारण से अतीत है, सत्त्वादि गुणोंका प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया ॥ ४३ ॥ वे अहंकार, ममता और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टिसे रहित) हो, सबमें अपने आत्मा को ही देखने लगे । उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी । उस समय धीर कर्दम जी शान्त लहरोंवाले समुद्र के समान जान पडऩे लगे ॥ ४४ ॥ परम भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त स्थिर हो जानेसे वे सारे बन्धनोंसे मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ सम्पूर्ण भूतोंमें अपने आत्मा श्रीभगवान्को और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मस्वरूप श्रीहरिमें स्थित देखने लगे ॥ ४६ ॥ इस प्रकार इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्तिसे सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजीने भगवान्का परमपद प्राप्त कर लिया ॥ ४७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से