शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

मैत्रेय उवाच –

अङ्‌गोऽश्वमेधं राजर्षिः आजहार महाक्रतुम् ।
नाजग्मुर्देवतास्तस्मिन् आहूता ब्रह्मवादिभिः ॥ २५ ॥
तं ऊचुः विस्मितास्तत्र यजमानमथर्त्विजः ।
हवींषि हूयमानानि न ते गृह्णन्ति देवताः ॥ २६ ॥
राजन्हवींष्यदुष्टानि श्रद्धयाऽऽसादितानि ते ।
छन्दांस्ययातयामानि योजितानि धृतव्रतैः ॥ २७ ॥
न विदामेह देवानां हेलनं वयमण्वपि ।
यन्न गृह्णन्ति भागान् स्वान् ये देवाः कर्मसाक्षिणः ॥ २८ ॥

मैत्रेय उवाच –

अङ्‌गो द्विजवचः श्रुत्वा यजमानः सुदुर्मनाः ।
तत्प्रष्टुं व्यसृजद् वाचं सदस्यान् तदनुज्ञया ॥ २९ ॥
नागच्छन्त्याहुता देवा न गृह्णन्ति ग्रहानिह ।
सदसस्पतयो ब्रूत किमवद्यं मया कृतम् ॥ ३० ॥

सदसस्पतय ऊचुः –

नरदेवेह भवतो नाघं तावन् मनाक् स्थितम् ।
अस्त्येकं प्राक्तनमघं यदिहेदृक् त्वमप्रजः ॥ ३१ ॥
तथा साधय भद्रं ते आत्मानं सुप्रजं नृप ।
इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्रं दास्यति यज्ञभुक् ॥ ३२ ॥
तथा स्वभागधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौकसः ।
यद् यज्ञपुरुषः साक्षाद् अपत्याय हरिर्वृतः ॥ ३३ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! एक बार राजर्षि अङ्गने अश्वमेध-महायज्ञका अनुष्ठान किया। उसमें वेदवादी ब्राह्मणोंके आवाहन करनेपर भी देवतालोग अपना भाग लेने नहीं आये ॥ २५ ॥ तब ऋत्विजोंने विस्मित होकर यजमान अङ्ग से कहा—‘राजन् ! हम आहुतियों के रूप में आपका जो घृत आदि पदार्थ हवन कर रहे हैं, उसे देवता लोग स्वीकार नहीं करते ॥ २६ ॥ हम जानते हैं आपकी होम-सामग्री दूषित नहीं है; आपने उसे बड़ी श्रद्धासे जुटाया है तथा वेदमन्त्र भी किसी प्रकार बलहीन नहीं हैं; क्योंकि उनका प्रयोग करनेवाले ऋत्विज्  गण याजकोचित सभी नियमोंका पूर्णतया पालन करते हैं ॥ २७ ॥ हमें ऐसी कोई बात नहीं दीखती कि इस यज्ञमंो देवताओंका किञ्चित् भी तिरस्कार हुआ है—फिर भी कर्माध्यक्ष देवतालोग क्यों अपना भाग नहीं ले रहे हैं ?’ ॥ २८ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—ऋत्विजोंकी बात सुनकर यजमान अङ्ग बहुत उदास हुए। तब उन्होंने याजकोंकी अनुमतिसे मौन तोडक़र सदस्योंसे पूछा ॥ २९ ॥ ‘सदस्यो ! देवतालोग आवाहन करनेपर भी यज्ञमें नहीं आ रहे हैं और न सोमपात्र ही ग्रहण करते हैं; आप बतलाइये मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है ?’ ॥ ३० ॥
सदस्योंने कहा—राजन् ! इस जन्ममें तो आपसे तनिक भी अपराध नहीं हुआ; हाँ, पूर्वजन्मका एक अपराध अवश्य है, जिसके कारण आप ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न होनेपर भी पुत्रहीन हैं ॥ ३१ ॥ आपका कल्याण हो ! इसलिये पहले आप सुपुत्र प्राप्त करनेका कोई उपाय कीजिये। यदि आप पुत्रकी कामनासे यज्ञ करेंगे, तो भगवान्‌ यज्ञेश्वर आपको अवश्य पुत्र प्रदान करेंगे ॥ ३२ ॥ जब सन्तानके लिये साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीहरिका आवाहन किया जायगा, तब देवतालोग स्वयं ही अपना- अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे ॥ ३३ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

यमङ्‌ग शेपुः कुपिता वाग्वज्रा मुनयः किल ।
गतासोस्तस्य भूयस्ते ममन्थुर्दक्षिणं करम् ॥ १९ ॥
अराजके तदा लोके दस्युभिः पीडिताः प्रजाः ।
जातो नारायणांशेन पृथुराद्यः क्षितीश्वरः ॥ २० ॥

विदुर उवाच -
तस्य शीलनिधेः साधोः ब्रह्मण्यस्य महात्मनः ।
राज्ञः कथमभूद् दुष्टा प्रजा यद्विमना ययौ ॥ २१ ॥
किं वांहो वेन उद्दिश्य ब्रह्मदण्डं अयूयुजन् ।
दण्डव्रतधरे राज्ञि मुनयो धर्मकोविदाः ॥ २२ ॥
नावध्येयः प्रजापालः प्रजाभिरघवानपि ।
यदसौ लोकपालानां बिभर्त्योजः स्वतेजसा ॥ २३ ॥
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन् सुनीथात्मज चेष्टितम् ।
श्रद्दधानाय भक्ताय त्वं परावरवित्तमः ॥ २४ ॥

प्यारे विदुरजी ! मुनियोंके वाक्य वज्रके समान अमोघ होते हैं; उन्होंने कुपित होकर वेनको शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहनेके कारण लोकमें लुटेरोंके द्वारा प्रजाको बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेनकी दाहिनी भुजाका मन्थन किया, जिससे भगवान्‌ विष्णुके अंशावतार आदिसम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए ॥ १९-२० ॥
विदुरजीने पूछा—ब्रह्मन् ! महाराज अङ्ग तो बड़े शीलसम्पन्न, साधुस्वभाव, ब्राह्मण-भक्त और महात्मा थे। उनके वेन-जैसा दुष्ट पुत्र कैसे हुआ, जिसके कारण दुखी होकर उन्हें नगर छोडऩा पड़ा ॥ २१ ॥ राजदण्डधारी वेनका भी ऐसा क्या अपराध था, जो धर्मज्ञ मुनीश्वरोंने उसके प्रति शापरूप ब्रह्मदण्डका प्रयोग किया ॥ २२ ॥ प्रजाका कर्तव्य है कि वह प्रजापालक राजासे कोई पाप बन जाय तो भी उसका तिरस्कार न करे; क्योंकि वह अपने प्रभावसे आठ लोकपालोंके तेजको धारण करता है ॥ २३ ॥ ब्रह्मन् ! आप भूत-भविष्यकी बातें जाननेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिये आप मुझे सुनीथाके पुत्र वेनकी सब करतूतें सुनाइये। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ ॥ २४ ॥

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शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

मैत्रेय उवाच –

ध्रुवस्य चोत्कलः पुत्रः पितरि प्रस्थिते वनम् ।
सार्वभौमश्रियं नैच्छद् अधिराजासनं पितुः ॥ ६ ॥
स जन्मनोपशान्तात्मा निःसङ्‌गः समदर्शनः ।
ददर्श लोके विततं आत्मानं लोकमात्मनि ॥ ७ ॥
आत्मानं ब्रह्म निर्वाणं प्रत्यस्तमितविग्रहम् ।
अवबोधरसैकात्म्यं आनन्दं अनुसन्ततम् ॥ ८ ॥
अव्यवच्छिन्नयोगाग्नि दग्धकर्ममलाशयः ।
स्वरूपमवरुन्धानो नात्मनोऽन्यं तदैक्षत ॥ ९ ॥
जडान्धबधिरोन्मत्त मूकाकृतिरतन्मतिः ।
लक्षितः पथि बालानां प्रशान्तार्चिः इवानलः ॥ १० ॥
मत्वा तं जडमुन्मत्तं कुलवृद्धाः समंत्रिणः ।
वत्सरं भूपतिं चक्रुः यवीयांसं भ्रमेः सुतम् ॥ ११ ॥
स्वर्वीथिर्वत्सरस्येष्टा भार्यासूत षडात्मजान् ।
पुष्पार्णं तिग्मकेतुं च इषमूर्जं वसुं जयम् ॥ १२ ॥
पुष्पार्णस्य प्रभा भार्या दोषा च द्वे बभूवतुः ।
प्रातर्मध्यन्दिनं सायं इति ह्यासन् प्रन्प्रभासुताः ॥ १३ ॥
प्रदोषो निशिथो व्युष्ट इति दोषासुतास्त्रयः ।
व्युष्टः सुतं पुष्करिण्यां सर्वतेजसमादधे ॥ १४ ॥
स चक्षुः सुतमाकूत्यां पत्न्यां  मनुं अवाप ह ।
मनोरसूत महिषी विरजान्नड्वला सुतान् ॥ १५ ॥
पुरुं कुत्सं त्रितं द्युम्नं सत्यवन्तमृतं व्रतम् ।
अग्निष्टोममतीरात्रं प्रद्युम्नं शिबिमुल्मुकम् ॥ १६ ॥
उल्मुकोऽजनयत् पुत्रान् पुष्करिण्यां षडुत्तमान् ।
अङ्‌गं सुमनसं ख्यातिं क्रतुं अङ्‌गिरसं गयम् ॥ १७ ॥
सुनीथाङ्‌गस्य या पत्नी  सुषुवे वेनमुल्बणम् ।
यद्दौःशील्यात्स राजर्षिः निर्विण्णो निरगात्पुरात् ॥ १८ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! महाराज ध्रुवके वन चले जानेपर उनके पुत्र उत्कलने अपने पिताके सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासनको अस्वीकार कर दिया ॥ ६ ॥ वह जन्मसे ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था तथा सम्पूर्ण लोकोंको अपनी आत्मामें और अपनी आत्माको सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित देखता था ॥ ७ ॥ उसके अन्त:करणका वासनारूप मल अखण्ड योगाग्नि से भस्म हो गया था। इसलिये वह अपनी आत्माको विशुद्ध बोधरसके साथ अभिन्न, आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सब प्रकारके भेदसे रहित प्रशान्त ब्रह्मको ही वह अपना स्वरूप समझता था तथा अपनी आत्मासे भिन्न कुछ भी नहीं देखता था ॥ ८-९ ॥ वह अज्ञानियोंको रास्ते आदि साधारण स्थानोंमें बिना लपटकी आगके समान, मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूँगा-सा प्रतीत होता था—वास्तवमें ऐसा था नहीं ॥ १० ॥ इसलिये कुलके बड़े-बूढ़े तथा मन्ङ्क्षत्रयोंने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सरको राजा बनाया ॥ ११ ॥
वत्सरकी प्रेयसी भार्या स्वर्वीथिके गर्भसे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नामके छ: पुत्र हुए ॥ १२ ॥ पुष्पार्णके प्रभा और दोषा नामकी दो स्त्रियाँ थीं; उनमेंसे प्रभाके प्रात:, मध्यन्दिन और सायं—ये तीन पुत्र हुए ॥ १३ ॥ दोषाके प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट—ये तीन पुत्र हुए। व्युष्टने अपनी भार्या पुष्करिणीसे सर्वतेजा नामका पुत्र उत्पन्न किया ॥ १४ ॥ उसकी पत्नी आकूतिसे चक्षु: नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तरमें वही मनु हुआ। चक्षु मनुकी स्त्री नड्वलासे पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्र, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्रिष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्र, शिबि और उल्मुक—ये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए ॥ १५-१६ ॥ इनमें उल्मुकने अपनी पत्नी पुष्करिणीसे अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरा और गय—ये छ: उत्तम पुत्र उत्पन्न किये ॥ १७ ॥ अङ्गकी पत्नी सुनीथाने क्रूरकर्मा वेनको जन्म दिया, जिसकी दुष्टतासे उद्विग्र होकर राजर्षि अङ्ग नगर छोडक़र चले गये थे ॥ १८ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

सूत उवाच –

निशम्य कौषारविणोपवर्णितं
     ध्रुवस्य वैकुण्ठपदाधिरोहणम् ।
प्ररूढभावो भगवत्यधोक्षजे
     प्रष्टुं पुनस्तं विदुरः प्रचक्रमे ॥ १ ॥

विदुर उवाच –

के ते प्रचेतसो नाम कस्यापत्यानि सुव्रत ।
कस्यान्ववाये प्रख्याताः कुत्र वा सत्रमासत ॥ २ ॥
मन्ये महाभागवतं नारदं देवदर्शनम् ।
येन प्रोक्तः क्रियायोगः परिचर्याविधिर्हरेः ॥ ३ ॥
स्वधर्मशीलैः पुरुषैः भगवान् यज्ञपूरुषः ।
इज्यमानो भक्तिमता नारदेनेरितः किल ॥ ४ ॥
यास्ता देवर्षिणा तत्र वर्णिता भगवत्कथाः ।
मह्यं शुश्रूषवे ब्रह्मन् कार्त्स्न्येनाचष्टुमर्हसि ॥ ५ ॥

श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकजी ! श्रीमैत्रेय मुनि के मुख से ध्रुवजीके विष्णुपदपर आरूढ़ होनेका वृत्तान्त सुनकर विदुरजीके हृदयमें भगवान्‌ विष्णुकी भक्तिका उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेयजीसे प्रश्न करना आरम्भ किया ॥ १ ॥
विदुरजीने पूछा—भगवत्परायण मुने ! ये प्रचेता कौन थे ? किसके पुत्र थे ? किसके वंशमें प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था ? ॥ २ ॥ भगवान्‌के दर्शनसे कृतार्थ नारदजी परम भागवत हैं—ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने पाञ्चरात्रका निर्माण करके श्रीहरिकी पूजापद्धतिरूप क्रियायोगका उपदेश किया है ॥ ३ ॥ जिस समय प्रचेतागण स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान्‌ यज्ञेश्वरकी आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारदजीने ध्रुवका गुणगान किया था ॥ ४ ॥ ब्रह्मन् ! उस स्थानपर उन्होंने भगवान्‌की जिन-जिन लीला-कथाओंका वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूपसे मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुननेकी बड़ी इच्छा है ॥ ५ ॥

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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

मैत्रेय उवाच -
एतत्तेऽभिहितं सर्वं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।
ध्रुवस्योद्दामयशसः चरितं सम्मतं सताम् ॥ ४४ ॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
स्वर्ग्यं ध्रौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ॥ ४५ ॥
श्रुत्वैतत् श्रद्धयाभीक्ष्णं अच्युतप्रियचेष्टितम् ।
भवेद्‌भक्तिर्भगवति यया स्यात् क्लेशसङ्‌क्षयः ॥ ४६ ॥
महत्त्वमिच्छतां तीर्थं श्रोतुः शीलादयो गुणाः ।
यत्र तेजस्तदिच्छूनां मानो यत्र मनस्विनाम् ॥ ४७ ॥
प्रयतः कीर्तयेत्प्रातः समवाये द्विजन्मनाम् ।
सायं च पुण्यश्लोकस्य ध्रुवस्य चरितं महत् ॥ ४८ ॥
पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेऽथवा ।
दिनक्षये व्यतीपाते सङ्‌क्रमेऽर्कदिनेऽपि वा ॥ ४९ ॥
श्रावयेत् श्रद्दधानानां तीर्थपादपदाश्रयः ।
नेच्छन् तत्रात्मनात्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ॥ ५० ॥
ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेऽमृतम् ।
कृपालोर्दीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्णते ॥ ५१ ॥
इदं मया तेऽभिहितं कुरूद्वह
     ध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मणः ।
हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातुः
     गृहं च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥ ५२ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुवजीके चरित्रके विषयमें पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्रकी बड़ी प्रशंसा करते हैं ॥ ४४ ॥ यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त मङ्गलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्वकी प्राप्ति करानेवाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है ॥ ४५ ॥ भगवद्भक्त ध्रुवके इस पवित्र चरित्रको जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान्‌की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दु:खोंका नाश हो जाता है ॥ ४६ ॥ इसे श्रवण करनेवालेको शीलादि गुणोंकी प्राप्ति होती है जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्वकी प्राप्ति करानेवाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियोंका मान बढ़ता है ॥ ४७ ॥ पवित्रकीर्ति ध्रुवजीके इस महान् चरित्रका प्रात: और सायंकाल ब्राह्मणादि द्विजातियोंके समाजमें एकाग्र चित्तसे कीर्तन करना चाहिये ॥ ४८ ॥ भगवान्‌के परम पवित्र चरणोंकी शरणमें रहनेवाला जो पुरुष इसे निष्कामभावसे पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है ॥ ४९-५० ॥ यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं—उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुषपर देवता अनुग्रह करते हैं ॥ ५१ ॥ ध्रुवजी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं, वे अपनी बाल्यावस्था में ही माताके घर और खिलौनों का मोह छोडक़र श्रीविष्णुभगवान्‌ की शरण में चले गये थे। कुरुनन्दन ! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया ॥ ५२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरित नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

यद्‌भ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतो
     लोकास्त्रयो ह्यनु विभ्राजन्त एते ।
यन्नाव्रजन्जन्तुषु येऽननुग्रहा
     व्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येऽनिशम् ॥ ३६ ॥
शान्ताः समदृशः शुद्धाः सर्वभूतानुरञ्जनाः ।
यान्त्यञ्जसाच्युतपदं अच्युतप्रियबान्धवाः ॥ ३७ ॥
इत्युत्तानपदः पुत्रो ध्रुवः कृष्णपरायणः ।
अभूत्त्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ॥ ३८ ॥
गम्भीरवेगोऽनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
यस्मिन् भ्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गणः ॥ ३९ ॥
महिमानं विलोक्यास्य नारदो भगवान् ऋषिः ।
आतोद्यं वितुदन् श्लोकान् सत्रेऽगायत् प्रचेतसाम् ॥ ४० ॥

नारद उवाच -
नूनं सुनीतेः पतिदेवतायाः
     तपःप्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् ।
दृष्ट्वाभ्युपायानपि वेदवादिनो
     नैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति किं नृपाः ॥ ४१ ॥
यः पञ्चवर्षो गुरुदारवाक्शरैः
     भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।
वनं मदादेशकरोऽजितं प्रभुं
     जिगाय तद्‌भक्तगुणैः पराजितम् ॥ ४२ ॥
यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढं
     अन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः ।
षट्पञ्चवर्षो यदहोभिरल्पैः
     प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ॥ ४३ ॥

यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है, इसीके प्रकाशसे तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवोंपर निर्दयता करनेवाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हींकी पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियोंके कल्याणके लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं ॥ ३६ ॥ जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियोंको प्रसन्न रखनेवाले हैं तथा भगवद्भक्तोंको ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद् मानते हैं—ऐसे लोग सुगमतासे ही इस भगवद्धामको प्राप्त कर लेते हैं ॥ ३७ ॥
इस प्रकार उत्तानपादके पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुवजी तीनों लोकोंके ऊपर उसकी निर्मल चूडामणिके समान विराजमान हुए ॥ ३८ ॥ कुरुनन्दन ! जिस प्रकार दायँ चलानेके समय खम्भेके चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेगवाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोकके आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है ॥ ३९ ॥ उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारदने प्रचेताओंकी यज्ञशालामें वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे ॥ ४० ॥
नारदजीने कहा था—इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीतिके पुत्र ध्रुवने तपस्याद्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मोंकी आलोचना करके वेदवादी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओंकी तो बात ही क्या है ॥ ४१ ॥ अहो ! वे पाँच वर्षकी अवस्थामें ही सौतेली माताके वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर दुखी हृदयसे वनमें चले गये और मेरे उपदेशके अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभुको जीत लिया, जो केवल अपने भक्तोंके गुणोंसे ही वशमें होते हैं ॥ ४२ ॥ ध्रुवजीने तो पाँच-छ: वर्षकी अवस्थामें कुछ दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान्‌को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पदको भूमण्डलमें कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षोंतक तपस्या करके भी पा सकता है ? ॥ ४३ ॥

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बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

मैत्रेय उवाच -
निशम्य वैकुण्ठनियोज्यमुख्ययोः
     मधुच्युतं वाचमुरुक्रमप्रियः ।
कृताभिषेकः कृतनित्यमङ्‌गलो
     मुनीन् प्रणम्याशिषमभ्यवादयत् ॥ २८ ॥
परीत्याभ्यर्च्य धिष्ण्याग्र्यं पार्षदौ अवभिवन्द्य च ।
इयेष तदधिष्ठातुं बिभ्रद्‌रूपं हिरण्मयम् ॥ २९ ॥
तदोत्तानपदः पुत्रो ददर्शान्तकमागतम् ।
मृत्योर्मूर्ध्नि पदं दत्त्वा आरुरोहाद्‌भुतं गृहम् ॥ ३० ॥
तदा दुन्दुभयो नेदुः मृदङ्‌गपणवादयः ।
गन्धर्वमुख्याः प्रजगुः पेतुः कुसुमवृष्टयः ॥ ३१ ॥
स च स्वर्लोकमारोक्ष्यन् सुनीतिं जननीं ध्रुवः ।
अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ॥ ३२ ॥
इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ ।
दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ॥ ३३ ॥
तत्र तत्र प्रशंसद्‌भिः पथि वैमानिकैः सुरैः ।
अवकीर्यमाणो ददृशे कुसुमैः क्रमशो ग्रहान् ॥ ३४ ॥
त्रिलोकीं देवयानेन सोऽतिव्रज्य मुनीनपि ।
परस्ताद्यद्ध्रुवगतिः विष्णोः पदमथाभ्यगात् ॥ ३५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान्‌के प्रमुख पार्षदोंके ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुवजीने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो माङ्गलिक अलङ्कारादि धारण किये। बदरिकाश्रममें रहनेवाले मुनियोंको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया ॥ २८ ॥ इसके बाद उस श्रेष्ठ विमानकी पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदोंको प्रणाम कर सुवर्णके समान कान्तिमान् दिव्य रूप धारण कर उसपर चढऩेको तैयार हुए ॥ २९ ॥ इतनेमें ही ध्रुवजीने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्युके सिरपर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमानपर चढ़ गये ॥ ३० ॥ उस समय आकाशमें दुन्दुभि, मृदङ्ग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ ३१ ॥
विमानपर बैठकर ध्रुवजी ज्यों-ही भगवान्‌के धामको जानेके लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें अपनी माता सुनीतिका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माताको छोडक़र अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधामको जाऊँगा ?’ ॥ ३२ ॥ नन्द और सुनन्दने ध्रुवके हृदयकी बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमानपर जा रही हैं ॥ ३३ ॥ उन्होंने क्रमश: सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्गमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलोंकी वर्षा करते जाते थे ॥ ३४ ॥ उस दिव्य विमानपर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकीको पारकर सप्तर्षिमण्डलसे भी ऊपर भगवान्‌ विष्णुके नित्यधाममें पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की ॥ ३५ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

सुनन्दनन्दावूचतुः -

भो भो राजन् सुभद्रं ते वाचं नोऽवहितः श्रृणु ।
यः पञ्चवर्षस्तपसा भवान् देवमतीतृपत् ॥ २३ ॥
तस्याखिलजगद्धातुः आवां देवस्य शार्ङ्‌गिणः ।
पार्षदौ इविह सम्प्राप्तौ नेतुं त्वां भगवत्पदम् ॥ २४ ॥
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वया
     यत्सूरयोऽप्राप्य विचक्षते परम् ।
आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयो
     ग्रहर्क्षताराः परियन्ति दक्षिणम् ॥ २५ ॥
अनास्थितं ते पितृभिः अन्यैरप्यङ्‌ग कर्हिचित् ।
आतिष्ठ जगतां वन्द्यं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २६ ॥
एतद्विमानप्रवरं उत्तमश्लोकमौलिना ।
उपस्थापितमायुष्मन् अधिरोढुं त्वमर्हसि ॥ २७ ॥

सुनन्द और नन्द कहने लगे—राजन् ! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान्‌को प्रसन्न कर लिया था ॥ २३ ॥ हम उन्हीं निखिलजगन्नियन्ता शार्ङ्गपाणि भगवान्‌ विष्णु के सेवक हैं और आप को भगवान्‌ के धाम में ले जानेके लिये यहाँ आये हैं ॥ २४ ॥ आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाममें निवास कीजिये ॥ २५ ॥ प्रियवर ! आजतक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पदपर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान्‌ विष्णुका वह परमधाम सारे संसारका वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों ॥ २६ ॥ आयुष्मन् ! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोकशिखामणि श्रीहरिने आपके लिये ही भेजा है, आप इसपर चढऩेयोग्य हैं ॥ २७ ॥

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मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

तस्यां विशुद्धकरणः शिववार्विगाह्य
     बद्ध्वाऽऽसनं जितमरुन्मनसाऽऽहृताक्षः ।
स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद्
     ध्यायन् तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ॥ १७ ॥
भक्तिं हरौ भगवति प्रवहन्नजस्रम्
     आनन्दबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानः ।
विक्लिद्यमानहृदयः पुलकाचिताङ्‌गो
     नात्मानमस्मरदसाविति मुक्तलिङ्‌गः ॥ १८ ॥
स ददर्श विमानाग्र्यं नभसोऽवतरद् ध्रुवः ।
विभ्राजयद् दश दिशो राकापतिमिवोदितम् ॥ १९ ॥
तत्रानु देवप्रवरौ चतुर्भुजौ
     श्यामौ किशोरावरुणाम्बुजेक्षणौ ।
स्थिताववष्टभ्य गदां सुवाससौ
     किरीटहाराङ्‌गदचारुकुण्डलौ ॥ २० ॥
विज्ञाय तावुत्तमगायकिङ्‌करौ
     अभ्युत्थितः साध्वसविस्मृतक्रमः ।
ननाम नामानि गृणन्मधुद्विषः
     पार्षत्प्रधानौ इति संहताञ्जलिः ॥ २१ ॥
तं कृष्णपादाभिनिविष्टचेतसं
     बद्धाञ्जलिं प्रश्रयनम्रकन्धरम् ।
सुनन्दनन्दावुपसृत्य सस्मितं
     प्रत्यूचतुः पुष्करनाभसम्मतौ ॥ २२ ॥

वहाँ (बदरिकाश्रम में) महात्मा ध्रुव ने पवित्र जल में स्नानकर इन्द्रियोंको विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायामद्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मनके द्वारा इन्द्रियोंको बाह्य विषयोंसे हटाकर मनको भगवान्‌के स्थूल विराट्स्वरूपमें स्थिर कर दिया। उसी विराट् रूप का चिन्तन करते-करते वे अन्तमें ध्याता और ध्येयके भेदसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें लीन हो गये और उस अवस्थामें विराट्रूपका भी परित्याग कर दिया ॥ १७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीहरिके प्रति निरन्तर भक्तिभावका प्रवाह चलते रहनेसे उनके नेत्रोंमें बार-बार आनन्दाश्रुओंकी बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीरमें रोमाञ्च हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जानेसे उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही ॥ १८ ॥
इसी समय ध्रुवजीने आकाशसे एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमाका चन्द्र ही उदय हुआ हो ॥ १९ ॥ उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओंका सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमलके समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे ॥ २० ॥ उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरिके सेवक जान ध्रुवजी हड़बड़ाहटमें पूजा आदिका क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान्‌के पार्षदोंमें प्रधान हैं—ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदनके नामोंका कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोडक़र प्रणाम किया ॥ २१ ॥ ध्रुवजीका मन भगवान्‌के चरणकमलोंमें तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडक़र बड़ी नम्रतासे सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरिके प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्दने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा ॥ २२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

मैत्रेय उवाच –

स राजराजेन वराय चोदितो
     ध्रुवो महाभागवतो महामतिः ।
हरौ स वव्रेऽचलितां स्मृतिं यया
     तरत्ययत्ने न दुरत्ययं तमः ॥ ८ ॥
तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः ।
पश्यतोऽन्तर्दधे सोऽपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ॥ ९ ॥
अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥ १० ॥
सर्वात्मनि अच्युतेऽसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्वहन् ।
ददर्शात्मनि भूतेषु तं एव अवस्थितं विभुम् ॥ ११ ॥
तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् ।
गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजाः ॥ १२ ॥
षट्‌त्रिंशद् वर्षसाहस्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।
भोगैः पुण्यक्षयं कुर्वन् अभोगैः अशुभक्षयम् ॥ १३ ॥
एवं बहुसवं कालं महात्माविचलेन्द्रियः ।
त्रिवर्गौपयिकं नीत्वा पुत्रायादान् नृपासनम् ॥ १४ ॥
मन्यमान इदं विश्वं मायारचितमात्मनि ।
अविद्यारचितस्वप्न गन्धर्वनगरोपमम् ॥ १५ ॥
आत्मस्त्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोशम्
     अन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्याः ।
भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य
     कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! यक्षराज कुबेरने जब इस प्रकार वर माँगनेके लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजीने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरिकी अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागरको पार कर जाता है ॥ ८ ॥ इडविडाके पुत्र कुबेरजीने बड़े प्रसन्न मनसे उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुवजी भी अपनी राजधानीको लौट आये ॥ ९ ॥ वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना की; भगवान्‌ ही द्रव्य, क्रिया और देवता- सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफलके दाता भी हैं ॥ १० ॥ सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युतमें प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुवजी अपनेमें और समस्त प्राणियोंमें सर्वव्यापक श्रीहरिको ही विराजमान देखने लगे ॥ ११ ॥ ध्रुवजी बड़े ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादाके रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिताके समान मानती थी ॥ १२ ॥ इस प्रकार तरह-तरहके ऐश्वर्यभोगसे पुण्यका और भोगोंके त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मोंके अनुष्ठानसे पापका क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्षतक पृथ्वीका शासन किया ॥ १३ ॥ जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुवने इसी तरह अर्थ, धर्म और कामके सम्पादनमें बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया ॥ १४ ॥ इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्चको अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगरके समान मायासे अपनेमें ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहारभूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य—ये सभी कालके गालमें पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रमको चले गये ॥ १५-१६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सोलहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) वन्दीजन द्वारा महाराज पृथुकी स्तुति दुरासदो दुर्वि...