॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
शौनक
उवाच ।
निर्गते
नारदे सूत भगवान् बादरायणः ।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं
ततः किमकरोद् विभुः ।
सूत
उवाच ।
ब्रह्मनद्यां
सरस्वत्यां आश्रमः पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास
इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः ॥। २ ॥
तस्मिन्
स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोऽप
उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम् ॥। ३ ॥
भक्तियोगेन
मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले ।
अपश्यत्
पुरुषं पूर्णं मायां च तदपाश्रयम् ॥। ४ ॥
यया
संमोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् ।
परोऽपि
मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते ॥। ५ ॥
अनर्थोपशमं
साक्षाद् भक्तियोगमधोक्षजे ।
लोकस्याजानतो
विद्वांन् चक्रे सात्वतसंहिताम् ॥। ६ ॥
यस्यां
वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे ।
भक्तिरुत्पद्यते
पुंसः शोकमोहभयापहा ॥। ७ ॥
स
संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।
शुकं
अध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः ॥। ८ ॥
श्रीशौनकजीने
पूछा—सूतजी ! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यासभगवान् ने नारदजी का अभिप्राय
सुन लिया। फिर उनके चले जानेपर उन्होंने क्या किया ? ॥ १ ॥ श्रीसूतजीने
कहा—ब्रह्मनदी सरस्वतीके पश्चिम तटपर शम्याप्रास नामका एक
आश्रम है। वहाँ ऋषियोंके यज्ञ चलते ही रहते हैं ॥ २ ॥ वहीं व्यासजीका अपना आश्रम
है। उसके चारों ओर बेर का सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और
स्वयं अपने मन को समाहित किया ॥ ३ ॥ उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को
पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रयसे रहनेवाली माया को
देखा ॥ ४ ॥ इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणोंसे अतीत होनेपर भी अपने को
त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यताके कारण होनेवाले अनर्थोंको भोगता है ॥ ५ ॥
इन अनर्थों की शान्ति का साक्षात् साधन है—केवल भगवान्का
भक्तियोग। परन्तु संसारके लोग इस बातको नहीं जानते। यही समझकर उन्होंने इस
परमहंसोंकी संहिता श्रीमद्भागवतकी रचना की ॥ ६ ॥ इसके श्रवणमात्रसे पुरुषोत्तम
भगवान् श्रीकृष्णके प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे
जीवके शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं ॥ ७ ॥ उन्होंने इस
भागवत-संहिताका निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र
श्रीशुकदेवजीको पढ़ाया ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
शौनक
उवाच ।
स
वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षको मुनिः ।
कस्य
वा बृहतीं एतां आत्मारामः समभ्यसत् ॥ ९ ॥
सूत
उवाच ।
आत्मारामाश्च
मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्ति
अहैतुकीं भक्तिं इत्थंभूतगुणो हरिः ॥ १० ॥
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिः
भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान्
महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ ११ ॥
श्रीशौनकजीने
पूछा—
श्रीशुकदेवजी
तो अत्यन्त निवृत्तिपरायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तुकी अपेक्षा
नहीं है। वे सदा आत्मामें ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थ
(श्रीमद्भागवत) का अध्ययन किया ? ॥ ९ ॥
श्रीसूतजीने
कहा—
जो
लोग ज्ञानी हैं,
जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले
हैं, वे भी भगवान् की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं;
क्योंकि भगवान् के गुण ही
ऐसे मधुर हैं, जो सब को अपनी ओर खींच लेते हैं ॥ १० ॥ फिर
श्रीशुकदेव जी तो भगवान् के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यास के
पुत्र हैं। भगवान् के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे
विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ॥११॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
परीक्षितोऽथ
राजर्षेः जन्मकर्मविलापनम् ।
संस्थां
च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम् ॥ १२ ॥
यदा
मृधे कौरवसृञ्जयानां
वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्श
भग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे ॥ १३ ॥
भर्तुः
प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन्
कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि ।
उपाहरद्
विप्रियमेव तस्य
जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति ॥ १४ ॥
माता
शिशूनां निधनं सुतानां
निशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारुदद्
बाष्पकलाकुलाक्षी
तां सांत्वयन्नाह किरीटमाली ॥ १५ ॥
तदा
शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे
यद्ब्रह्मबंधोः
शिर आततायिनः ।
गाण्डीवमुक्तैः
विशिखैरुपाहरे
त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा ॥ १६ ॥
इति
प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः
स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूतः ।
अन्वाद्रवद्
दंशित उग्रधन्वा
कपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन ॥ १७ ॥
शौनकजी
! अब मैं राजर्षि परीक्षित्के जन्म, कर्म और मोक्षकी
तथा पाण्डवोंके स्वर्गारोहणकी कथा कहता हूँ; क्योंकि
इन्हींसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों कथाओंका उदय होता है ॥ १२ ॥ जिस समय महाभारत
युद्धमें कौरव और पाण्डव दोनों पक्षोंके बहुत-से वीर वीरगतिको प्राप्त हो चुके थे
और भीमसेनकी गदाके प्रहारसे दुर्योधनकी जाँघ टूट चुकी थी, तब
अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदीके सोते हुए
पुत्रोंके सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधनको भी
अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्मकी सभी निन्दा करते हैं
॥ १३-१४ ॥ उन बालकोंकी माता द्रौपदी अपने पुत्रोंका निधन सुनकर अत्यन्त दुखी हो
गयी। उसकी आँखोंमें आँसू छलछला आये—वह रोने लगी। अर्जुनने
उसे सान्त्वना देते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘कल्याणि ! मैं तुम्हारे
आँसू तब पोछूँगा, जब उस आततायी[*] ब्राह्मणाधम का सिर
गाण्डीव-धनुषके बाणोंसे काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रोंकी अन्त्येष्टि
क्रियाके बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान करोगी’ ॥ १६ ॥
अर्जुनने इन मीठी और विचित्र बातोंसे द्रौपदीको सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान्
श्रीकृष्णकी सलाहसे उन्हें सारथि बनाकर कवच धारणकर और अपने भयानक गाण्डीव धनुषको
लेकर वे रथपर सवार हुए तथा गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़ पड़े ॥ १७ ॥
.....................................................
[*]
आग लगाने वाला,
जहर देने वाला, बुरी नीयत से हाथ में शस्त्र
ग्रहण करनेवाला, धन लूटने वाला, खेत और
स्त्री को छीननेवाला—ये छ: ‘आततायी’
कहलाते हैं।
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
तमापतन्तं
स विलक्ष्य दूरात्
कुमारहोद्विग्नमना रथेन ।
पराद्रवत्
प्राणपरीप्सुरुर्व्यां
यावद्गमं रुद्रभयाद् यथार्कः ॥ १८ ॥
यदाशरणमात्मानं
ऐक्षत श्रान्तवाजिनम् ।
अस्त्रं
ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः ॥ १९ ॥
अथोपस्पृश्य
सलिलं सन्दधे तत्समाहितः ।
अजानन्
उपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते ॥ २० ॥
ततः
प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम् ।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य
विष्णुं जिष्णुरुवाच ह ॥ २१ ॥
(द्रौपदीके
सोते हुए ) बच्चोंकी हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्र हो गया था। जब उसने
दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँतक भाग सकता था,
रुद्रसे भयभीत सूर्य [*] की भाँति भागता रहा ॥ १८ ॥ जब उसने देखा कि
मेरे रथके घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब
उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ १९ ॥ यद्यपि उसे
ब्रह्मास्त्र को लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राणसङ्कट
देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया ॥ २० ॥ उस
अस्त्र से सब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो
मेरे प्राणोंपर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्णसे
प्रार्थना की ॥ २१ ॥
......................................................
[*]शिवभक्त
विद्युन्माली दैत्यको जब सूर्यने हरा दिया, तब सूर्यपर क्रोधित
हो भगवान् रुद्र त्रिशूल हाथमें लेकर उनकी ओर दौड़े । उस समय सूर्य भागते-भागते
पृथ्वीपर काशीमें आकर गिरे, इसीसे वहाँ उनका ‘लोलार्क’ नाम पड़ा।
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
अर्जुन
उवाच ।
कृष्ण
कृष्ण महाबाहो भक्तानामभयङ्कर ।
त्वमेको
दह्यमानानां अपवर्गोऽसि संसृतेः ॥ २२ ॥
त्वमाद्यः
पुरुषः साक्षाद् ईश्वरः प्रकृतेः परः ।
मायां
व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि ॥ २३ ॥
स
एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः ।
विधत्से
स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २४ ॥
तथायं
चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया ।
स्वानां
चानन्यभावानां अनुध्यानाय चासकृत् ॥ २५ ॥
किमिदं
स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्म्यहम् ।
सर्वतो
मुखमायाति तेजः परमदारुणम् ॥ २६ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
वेत्थेदं
द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम् ।
नैवासौ
वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते ॥ २७ ॥
न
ह्यस्यान्यतमं किञ्चिद् अस्त्रं प्रत्यवकर्शनम् ।
जह्यस्त्रतेज
उन्नद्धं अस्त्रज्ञो ह्यस्त्रतेजसा ॥ २८ ॥
अर्जुनने
कहा—श्रीकृष्ण ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है।
तुम्हीं भक्तोंको अभय देनेवाले हो। जो संसारकी धधकती हुई आगमें जल रहे हैं,
उन जीवोंको उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो ॥ २२ ॥ तुम
प्रकृतिसे परे रहनेवाले आदिपुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्-शक्ति
(स्वरूप-शक्ति) से बहिरङ्ग एवं त्रिगुणमयी मायाको दूर भगाकर अपने अद्वितीय
स्वरूपमें स्थित हो ॥ २३ ॥ वही तुम अपने प्रभावसे माया-मोहित जीवोंके लिये
धर्मादिरूप कल्याणका विधान करते हो ॥ २४ ॥ तुम्हारा यह अवतार पृथ्वीका भार हरण करनेके
लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है ॥
२५ ॥ स्वयंप्रकाशस्वरूप श्रीकृष्ण ! यह भयङ्कर तेज सब ओर से मेरी ओर आ रहा है। यह
क्या है, कहाँसे, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है ! ॥ २६ ॥
भगवान्ने
कहा—अर्जुन ! यह अश्वत्थामाका चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि
प्राण-संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता ॥ २७ ॥ किसी भी दूसरे अस्त्र में
इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र-विद्या को भलीभाँति जानते ही हो,
ब्रह्मास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा
दो ॥ २८ ॥
शेष
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00000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
सूत
उवाच -
श्रुत्वा
भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा ।
स्पृष्ट्वापस्तं
परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय संदधे ॥ २९ ॥
संहत्य
अन्योन्यं उभयोः तेजसी शरसंवृते ।
आवृत्य
रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत् ॥ ३० ॥
दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु
तयोः त्रिँल्लोकान् प्रदहन्महत् ।
दह्यमानाः
प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत ॥ ३१ ॥
प्रजोपप्लवमालक्ष्य
लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं
च वासुदेवस्य संजहारार्जुनो द्वयम् ॥ ३२ ॥
तत
आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम् ।
बबंधामर्षताम्राक्षः
पशुं रशनया यथा ॥ ३३ ॥
शिबिराय
निनीषन्तं रज्ज्वा बद्ध्वा रिपुं बलात् ।
प्राहार्जुनं
प्रकुपितो भगवान् अंबुजेक्षणः ॥ ३४ ॥
मैनं
पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबंधुमिमं जहि ।
यो
असौ अनागसः सुप्तान् अवधीन्निशि बालकान् ॥ ३५ ॥
सूतजी
कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरोंको मारनेमें बड़े प्रवीण थे। भगवान्की बात सुनकर
उन्होंने आचमन किया और भगवान्की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्रके निवारण के लिये
ब्रह्मास्त्रका ही सन्धान किया ॥ २९ ॥ बाणोंसे वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रोंके
तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्रिके समान आपसमें टकराकर सारे आकाश और दिशाओंमें फैल
गये और बढऩे लगे ॥ ३० ॥ तीनों लोकोंको जलानेवाली उन दोनों अस्त्रोंकी बढ़ी हुई
लपटोंसे प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकालकी सांवर्तक
अग्रि है ॥ ३१ ॥ उस आगसे प्रजाका और लोकोंका नाश होते देखकर भगवान्की अनुमतिसे
अर्जुनने उन दोनोंको ही लौटा लिया ॥ ३२ ॥ अर्जुनकी आँखें क्रोधसे लाल-लाल हो रही
थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामाको पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सीसे पशुको
बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया ॥ ३३ ॥ अश्वत्थामाको बलपूर्वक
बाँधकर अर्जुनने जब शिविरकी ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन
भगवान् श्रीकृष्णने कुपित होकर कहा— ॥ ३४ ॥ ‘अर्जुन ! इस ब्राह्मणाधमको छोडऩा ठीक नहीं है, इसको
तो मार ही डालो। इसने रात, में सोये हुए निरपराध बालकोंकी
हत्या की है ॥ ३५ ॥
शेष
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00000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
मत्तं
प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं
विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥ ३६ ॥
स्वप्राणान्यः
परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः ।
तद्
वधस्तस्य हि श्रेयो यद् दोषाद्यात्यधः पुमान् ॥ ३७ ॥
प्रतिश्रुतं
च भवता पाञ्चाल्यै श्रृण्वतो मम ।
आहरिष्ये
शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥ ३८ ॥
तदसौ
वध्यतां पाप आतताय्यात्मबंधुहा ।
भर्तुश्च
विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः ॥ ३९ ॥
सूत
उवाच ।
एवं
परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः ।
नैच्छद्
हन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥ ४० ॥
अथोपेत्य
स्वशिबिरं गोविंदप्रियसारथिः ।
न्यवेदयत्
तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान् ॥ ४१ ॥
धर्मवेत्ता
पुरुष असावधान,
मतवाले, पागल, सोये हुए,
बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य,
शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रुको कभी नहीं
मारते ॥ ३६ ॥ परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरोंको मारकर अपने प्राणोंका पोषण
करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदतको लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन
पापोंके कारण नरकगामी होता है ॥ ३७ ॥ फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से
प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती ! जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध
किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा’ ॥
३८ ॥ इस पापी कुलाङ्गार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी
दुर्योधन को भी दु:ख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन ! इसे मार ही डालो ॥ ३९ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णने अर्जुनके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुनका हृदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामा ने उनके पुत्रोंकी
हत्या की थी, फिर भी अर्जुनके मनमें गुरुपुत्र को मारनेकी
इच्छा नहीं हुई ॥ ४० ॥
इसके
बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्णके साथ वे अपने युद्ध-शिविरमें पहुँचे। वहाँ
अपने मृत पुत्रोंके लिये शोक करती हुई द्रौपदीको उसे सौंप दिया ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
तथाहृतं
पशुवत्पाशबद्धं
अवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन ।
निरीक्ष्य
कृष्णापकृतं गुरोः सुतं
वामस्वभावा कृपया ननाम च ॥ ४२ ॥
उवाच
चासहन्त्यस्य बंधनानयनं सती ।
मुच्यतां
मुच्यतां एष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ॥ ४३ ॥
सरहस्यो
धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः ।
अस्त्रग्रामश्च
भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥ ४४ ॥
स
एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं
पत्न्याः ते नान्वगाद् वीरसूः कृपी ॥ ४५ ॥
तद्
धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिः र्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं
नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः ॥ ४६ ॥
मा
रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं
मृतवत्साऽर्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥ ४७ ॥
यैः
कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः ।
तत्
कुलं प्रदहत्याशु सानुबंधं शुचार्पितम् ॥ ४८ ॥
द्रौपदी
ने देखा कि अश्वत्थामा पशुकी तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करनेके कारण
उसका मुख नीचेकी ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामाको इस
प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदीका कोमल हृदय कृपासे भर आया और उसने अश्वत्थामा को
नमस्कार किया ॥ ४२ ॥ गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन
नहीं हुआ। उसने कहा—‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं ॥ ४३ ॥ जिनकी कृपासे आपने रहस्यके साथ सारे
धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त
किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके
सामने खड़े हैं। उनकी अर्धाङ्गिनी कृपी अपने वीर पुत्रकी ममतासे ही अपने पतिका
अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं ॥ ४४-४५ ॥
महाभाग्यवान् आर्यपुत्र ! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंशकी नित्य पूजा और
वन्दना करनी चाहिये, उसीको व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य
नहीं है ॥ ४६ ॥ जैसे अपने बच्चोंके मर जानेसे मैं दुखी होकर रो रही हूँ और मेरी
आँखोंसे बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता
पतिव्रता गौतमी न रोयें ॥ ४७ ॥ जो उच्छृङ्खल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मणकुल को
कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओं को
सपरिवार शोकाग्रि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’ ॥ ४८
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
सूत
उवाच ।
धर्म्यं
न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत् ।
राजा
धर्मसुतो राज्ञ्याः प्रत्यनंदद् वचो द्विजाः ॥ ४९ ॥
नकुलः
सहदेवश्च युयुधानो धनंजयः ।
भगवान्
देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः ॥ ५० ॥
तत्राहामर्षितो
भीमः तस्य श्रेयान् वधः स्मृतः ।
न
भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन् सुप्तान् शिशून् वृथा ॥ ५१ ॥
निशम्य
भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः ।
आलोक्य
वदनं सख्युः इदमाह हसन्निव ॥ ५२ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
ब्रह्मबंधुर्न
हन्तव्य आततायी वधार्हणः ।
मयैवोभयमाम्नातं
परिपाह्यनुशासनम् ॥ ५३ ॥
कुरु
प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत् सांत्वयता प्रियाम् ।
प्रियं
च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च ॥ ५४ ॥
सूतजीने
कहा—
शौनकादि
ऋषियो ! द्रौपदीकी बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिरने रानीके इन हितभरे श्रेष्ठ
वचनोंका अभिनन्दन किया ॥ ४९ ॥ साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान्
श्रीकृष्ण और वहाँपर उपस्थित सभी नर-नारियोंने द्रौपदीकी बातका समर्थन किया ॥ ५० ॥
उस समय क्रोधित होकर भीमसेनने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चोंको
न अपने लिये और न अपने स्वामीके लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार
डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’ ॥ ५१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदी और भीमसेनकी बात सुनकर और अर्जुनकी ओर देखकर कुछ
हँसते हुए-से कहा— ॥ ५२ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण बोले—
‘पतित ब्राह्मणका भी वध नहीं करना चाहिये और आततायीको मार ही डालना चाहिये’—शास्त्रोंमें मैंने ही ये दोनों बातें कही हैं। इसलिये मेरी दोनों
आज्ञाओंका पालन करो ॥ ५३ ॥ तुमने द्रौपदीको सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी
उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी
और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ॥ ५४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
सूत
उवाच –
अर्जुनः
सहसाऽऽज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना ।
मणिं
जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम् ॥ ५५ ॥
विमुच्य
रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम् ।
तेजसा
मणिना हीनं शिबिरान् निरयापयत् ॥ ५६ ॥
वपनं
द्रविणादानं स्थानान् निर्यापणं तथा ।
एष
हि ब्रह्मबंधूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ॥ ५७ ॥
पुत्रशोकातुराः
सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया ।
स्वानां
मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम् ॥ ५८ ॥
सूतजी
कहते हैं—अर्जुन भगवान् के हृदयकी बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवारसे
अश्वत्थामा के सिरकी मणि उसके बालों के साथ उतार ली ॥ ५५ ॥ बालकों की हत्या करने से
वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेज से भी
रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविरसे निकाल दिया ॥ ५६
॥ मूँड देना, धन छीन लेना और स्थानसे बाहर निकाल देना—यही ब्राह्मणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वधका विधान
नहीं है ॥ ५७ ॥ पुत्रोंकी मृत्युसे द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब
उन्होंने अपने मरे हुए भाई-बन्धुओंकी दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की ॥ ५८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
द्रौणिनिग्रहो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥। ७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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