मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

सूत उवाच ।

अथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।
दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥। १ ॥
ते निनीयोदकं सर्वे विलप्य च भृशं पुनः ।
आप्लुता हरिपादाब्जः अजःपूतसरिज्जले ॥। २ ॥
तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।
गान्धारीं पुत्रशोकार्तां पृथां कृष्णां च माधवः ॥। ३ ॥
सांत्वयामास मुनिभिः हतबंधून् शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन् अप्रतिक्रियाम् ॥। ४ ॥
साधयित्वाजातशत्रोः स्वं राज्यं कितवैर्हृतम् ।
घातयित्वासतो राज्ञः कचस्पर्शक्षतायुषः ॥। ५ ॥
याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकैः ।
तद्यशः पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥। ६ ॥

सूतजी कहते हैंइसके बाद पाण्डव श्रीकृष्णके साथ जलाञ्जलिके इच्छुक मरे हुए स्वजनोंका तर्पण करनेके लिये स्त्रियोंको आगे करके गङ्गातटपर गये ॥ १ ॥ वहाँ उन सबने मृत बन्धुओंको जलदान दिया और उनके गुणोंका स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान्‌के चरण- कमलोंकी धूलिसे पवित्र गङ्गाजलमें पुन: स्नान किया ॥ २ ॥ वहाँ अपने भाइयोंके साथ कुरुपति महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्रशोकसे व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदीसब बैठकर मरे हुए स्वजनोंके लिये शोक करने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने धौम्यादि मुनियोंके साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि संसारके सभी प्राणी कालके अधीन हैं, मौतसे किसीको कोई बचा नहीं सकता ॥ ३-४ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको उनका वह राज्य, जो धूर्तोंने छलसे छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदीके केशोंका स्पर्श करनेसे जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओंका वध कराया ॥ ५ ॥ साथ ही युधिष्ठिरके द्वारा उत्तम सामग्रियोंसे तथा पुरोहितोंसे तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिरके पवित्र यशको सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्रके यशकी तरह सब ओर फैला दिया ॥ ६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

आमंत्र्य पाण्डुपुत्रांश्च शैनेयोद्धवसंयुतः ।
द्वैपायनादिभिर्विप्रैः पूजितैः प्रतिपूजितः ॥। ७ ॥
गन्तुं कृतमतिर्ब्रह्मन् द्वारकां रथमास्थितः ।
उपलेभेऽभिधावन्तीं उत्तरां भयविह्वलाम् ॥। ८ ॥

उत्तरोवाच

पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ ९ ॥
अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥ १० ॥

सूत उवाच ।

उपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सलः ।
अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥ ११ ॥
तर्ह्येवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवाः पञ्च सायकान् ।
आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तान् आलक्ष्यास्त्राण्युपाददुः ॥ १२ ॥
व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषां अनन्यविषयात्मनाम् ।
सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः ॥ १३ ॥

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने वहाँसे जानेका विचार किया । उन्होंने इसके लिये पाण्डवोंसे विदा ली और व्यास आदि ब्राह्मणोंका सत्कार किया। उन लोगोंने भी भगवान्‌का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धवके साथ द्वारका जानेके लिये वे रथपर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भयसे विह्वल होकर सामनेसे दौड़ी चली आ रही है ॥ ७-८ ॥
उत्तराने कहादेवाधिदेव ! जगदीश्वर ! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोकमें मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरेकी मृत्युके निमित्त बन रहे हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहेका बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन् ! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भको नष्ट न करेऐसी कृपा कीजिये ॥ १० ॥
सूतजी कहते हैंभक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामाने पाण्डवोंके वंशको निर्बीज करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया है ॥ ११ ॥ शौनकजी ! उसी समय पाण्डवोंने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये ॥ १२ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने अनन्य प्रेमियों परशरणागत भक्तोंपर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन-चक्रसे उन निज जनोंकी रक्षा की ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

अन्तःस्थः सर्वभूतानां आत्मा योगेश्वरो हरिः ।
स्वमाययाऽऽवृणोद्‍गर्भं वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥ १४ ॥
यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरः त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्वह ॥ १५ ॥
मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।
य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ १६ ॥
ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैः आत्मजैः सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णं इदमाह पृथा सती ॥ १७ ॥

योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तराके गर्भको पाण्डवोंकी वंश-परम्परा चलानेके लिये अपनी मायाके कवचसे ढक दिया ॥ १४ ॥ शौनकजी ! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारणका कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान्‌ श्रीकृष्णके तेजके सामने आकर वह शान्त हो गया ॥ १५ ॥ यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान्‌ तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति मायासे स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसारकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ १६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे मुक्त अपने पुत्रोंके और द्रौपदीके साथ सती कुन्तीने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

कुन्त्युवाच ।

नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यं ईश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानां अन्तर्बहिरवस्थितम् ॥ १८ ॥
मायाजवनिकाच्छन्नं अज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥ १९ ॥
तथा परमहंसानां मुनीनां अमलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥ २० ॥
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च ।
नंदगोपकुमाराय गोविंदाय नमो नमः ॥ २१ ॥
नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २२ ॥

कुन्तीने (श्रीकृष्ण से) कहाआप समस्त जीवोंके बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियोंसे देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृतिसे परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ १८ ॥ इन्द्रियोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही मायाके परदेसे अपनेको ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तमको भला, कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नटको प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ॥ १९ ॥ आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसोंके हृदयमें अपनी प्रेममयी भक्तिका सृजन करनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ॥ २० ॥ आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द-गोपके लाड़ले लाल गोविन्दको हमारा बारंबार प्रणाम है ॥ २१ ॥ जिनकी नाभिसे ब्रह्माका जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलोंकी माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरण-कमलोंमें कमलका चिह्न हैश्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

यथा हृषीकेश खलेन देवकी
     कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
     त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्‍गणात् ॥ २३ ॥
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनाद्
     असत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो
     द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥ २४ ॥
विपदः सन्तु ताः शश्वत् तत्र तत्र जगद्‍गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥ २५ ॥

(कुन्ती श्रीकृष्ण से कह रही हैं) हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और चिरकालसे शोकग्रस्त देवकीकी रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रोंके साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियोंसे रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण ! कहाँतक गिनाऊँविषसे, लाक्षागृहकी भयानक आगसे, हिडिम्ब आदि राक्षसोंकी दृष्टिसे, दुष्टोंकी द्यूत-सभासे, वनवासकी विपत्तियोंसे और अनेक बारके युद्धोंमें अनेक महारथियोंके शस्त्रास्त्रोंसे और अभी-अभी इस अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे भी आपने ही हमारी रक्षा की है ॥ २३-२४ ॥ जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियोंमें ही निश्चितरूपसे आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं आना पड़ता ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिः एधमानमदः पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वां अकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥
नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥ २७ ॥
मन्ये त्वां कालमीशानं अनादिनिधनं विभुम् ।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥ २८ ॥

ऊँचे कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्तिके कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगोंको दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं ॥ २६ ॥ आप निर्धनोंके परम धन हैं। मायाका प्रपञ्च आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आपमें ही विहार करनेवाले, परम शान्तस्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्षके अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ २७ ॥
मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप परमेश्वर समझती हूँ। संसारके समस्त पदार्थ और प्राणी आपसमें टकराकर विषमताके कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परन्तु आप सबमें समानरूपसे विचर रहे हैं ॥ २८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

न वेद कश्चिद् भगवंश्चिकीर्षितं
     तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद् दयितोऽस्ति कर्हिचिद्
     द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥ २९ ॥
जन्म कर्म च विश्वात्मन् अजस्याकर्तुरात्मनः ।
तिर्यङ् नृषिषु यादःसु तद् अत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३० ॥

भगवन् ! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैंयह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्धमें लोगोंकी बुद्धि ही विषम हुआ करती है ॥ २९ ॥ आप विश्वके आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदिमें आप जन्म लेते हैं और उन योनियोंके अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है ॥ ३० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्
     या ते दशाश्रुकलिल अञ्जन संभ्रमाक्षम् ।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य
     सा मां विमोहयति भीरपि यद्‌बिभेति ॥ ३१ ॥

जब बचपनमें आपने दूधकी मटकी फोडक़र यशोदा मैयाको खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधनेके लिये हाथमें रस्सी ली थी, तब आपकी आँखोंमें आँसू छलक आये थे, काजल कपोलोंपर बह चला था, नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भयकी भावनासे आपने अपने मुखको नीचेकी ओर झुका लिया था ! आपकी उस दशाकालीला-छबिका ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ। भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा ! ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

केचिद् आहुः अजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।
यदोः प्रियस्य अन्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥ ३२ ॥
अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् ।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥ ३३ ॥

आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचलकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदुकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये ही आपने उनके वंशमें अवतार ग्रहण किया है ॥ ३२ ॥ दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकीने पूर्वजन्ममें (सुतपा और पृश्नि के रूपमें) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था, इसीलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत् के कल्याण और दैत्योंके नाशके लिये उनके पुत्र बने हैं ॥ ३३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥ ३४ ॥
भवेऽस्मिम् क्लिश्यमानानां अविद्याकामकर्मभिः ।
श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यम् इति केचन ॥ ३५ ॥
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः
     स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
     भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३६ ॥

 कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्योंके अत्यन्त भारसे समुद्रमें डूबते हुए जहाजकी तरह डगमगा रही थीपीडि़त हो रही थी, तब ब्रह्माकी प्रार्थनासे उसका भार उतारनेके लिये ही आप प्रकट हुए ॥ ३४ ॥ कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसारमें अज्ञान, कामना और कर्मोंके बन्धनमें जकड़े हुए पीडि़त हो रहे हैं, उन लोगोंके लिये श्रवण और स्मरण करनेयोग्य लीला करनेके विचारसे ही आपने अवतार ग्रहण किया है ॥ ३५ ॥ भक्तजन बार-बार आपके चरित्रका श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमलका दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्युके प्रवाहको सदाके लिये रोक देता है ॥ ३६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ११)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
     जिहाससि स्वित् सुहृदोऽनुजीविनः ।
येषां न चान्यत् भवतः पदाम्बुजात्
     परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥ ३७ ॥
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणां इव ईशितुः ॥ ३८ ॥
नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैः अङ्‌किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥ ३९ ॥
इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।
वनाद्रि नदी उदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥ ४० ॥
अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशं इमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१ ॥

(कुन्ती श्रीकृष्ण से कह रही हैं) भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो ! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगोंको छोडक़र जाना चाहते हैं ? आप जानते हैं कि आपके चरणकमलोंके अतिरिक्त हमें और किसीका सहारा नहीं है। पृथ्वीके राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं ॥ ३७ ॥ जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियोंके और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूपका अस्तित्व ही क्या रह जाता है ॥ ३८ ॥ गदाधर ! आपके विलक्षण चरणचिह्नोंसे चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देशकी भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जानेके बाद न रहेगी ॥ ३९ ॥ आपकी दृष्टिके प्रभावसे ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षोंसे समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टिसे ही वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं ॥ ४० ॥ आप विश्वके स्वामी हैं, विश्वके आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवोंमें मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनोंके साथ जोड़े हुए इस स्नेहकी दृढ़ फाँसीको काट दीजिये ॥ ४१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १२)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिं उद्वहतात् अद्धा गङ्गेवौघं उदन्वति ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्णि ऋषभावनिध्रुग्
     राजन्यवंशदहन अनपवर्ग वीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार
     योगेश्वराखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥ ४३ ॥

श्रीकृष्ण ! जैसे गङ्गा की अखण्ड धारा समुद्रमें गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे ॥ ४२ ॥ श्रीकृष्ण ! अर्जुनके प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे ! आप पृथ्वीके भाररूप राजवेशधारी दैत्योंको जलानेके लिये अग्निस्वरूप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द ! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओंका दु:ख मिटानेके लिये ही है। योगेश्वर ! चराचरके गुरु भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ४३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १३)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

सूत उवाच ।

पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४ ॥
तां बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५ ॥
व्यासाद्यैरीश्वरेहा ज्ञैः कृष्णेनाद्‍भुत कर्मणा ।
प्रबोधितोऽपि इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६ ॥

सूतजी कहते हैंइस प्रकार कुन्तीने बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्‌की अधिकांश लीलाओंका वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी मायासे उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकराने लगे ॥ ४४ ॥ उन्होंने कुन्तीसे कह दिया—‘अच्छा ठीक हैऔर रथके स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियोंसे विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे उन्हें रोक लिया ॥ ४५ ॥ राजा युधिष्ठिरको अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेका बड़ा शोक हो रहा था। भगवान्‌की लीलाका मर्म जाननेवाले व्यास आदि महर्षियोंने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझानेकी बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ॥ ४६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १४)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

आह राजा धर्मसुतः चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥ ४७ ॥
अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥ ४८ ॥
बालद्विजसुहृन् मित्र पितृभ्रातृगुरु द्रुहः ।
न मे स्यात् निरयात् मोक्षो ह्यपि वर्ष अयुत आयुतैः ॥ ४९ ॥
नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुः धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥ ५० ॥
स्त्रीणां मत् हतबंधूनां द्रोहो योऽसौ इहोत्थितः ।
कर्मभिः गृहमेधीयैः नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥ ५१ ॥
यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैः मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२ ॥

शौनकादि ऋषियो ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरको अपने स्वजनोंके वधसे बड़ी चिन्ता हुई। वे अविवेकयुक्त चित्तसे स्नेह और मोहके वशमें होकर कहने लगेभला, मुझ दुरात्माके हृदयमें बद्धमूल हुए इस अज्ञानको तो देखो; मैंने सियार-कुत्तोंके आहार इस अनात्मा शरीरके लिये अनेक अक्षौहिणी [*] सेनाका नाश कर डाला ॥ ४७-४८ ॥ मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा, ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनोंसे द्रोह किया है। करोड़ों बरसोंमें भी नरकसे मेरा छुटकारा नहीं हो सकता ॥ ४९ ॥ यद्यपि शास्त्रका वचन है कि राजा यदि प्रजाका पालन करनेके लिये धर्मयुद्धमें शत्रुओंको मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ॥ ५० ॥ स्त्रियोंके पति और भाई-बन्धुओंको मारनेसे उनका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है, उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकोंके द्वारा मार्जन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥ ५१ ॥ जैसे कीचड़से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरासे मदिराकी अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही बहुत-से हिंसाबहुल यज्ञोंके द्वारा एक भी प्राणीकी हत्याका प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता ॥ ५२ ॥
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[*] २१८७० रथ,२१८७० हाथी, १०९३५० पैदल, और ६५६१० घुडसवार-इतनी सेना को अक्षौहिणी कहते हैं—महाभारत

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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