॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
कपिल
उवाच –
तस्यैतस्य
जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि
बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥ १ ॥
यं
यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं
तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति यत्कृते ॥ २ ॥
यदध्रुवस्य
देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि
मन्यते मोहाद् गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३ ॥
जन्तुर्वै
भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां
तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
नरकस्थोऽपि
देहं वै न पुमान् त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां
निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥
कपिलदेवजी
कहते हैं—माताजी ! जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बलको
नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणासे
भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियोंमें भ्रमण करता रहता है, किन्तु
उसके प्रबल पराक्रमको नहीं जानता ॥ १ ॥ जीव सुखकी अभिलाषासे जिस-जिस वस्तुको बड़े
कष्टसे प्राप्त करता है, उसी-उसीको भगवान् काल विनष्ट कर
देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ॥ २ ॥ इसका कारण
यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियोंके घर,
खेत और धन आदिको मोहवश नित्य मान लेता है ॥ ३ ॥ इस संसारमें यह जीव
जिस-जिस योनिमें जन्म लेता है, उसी-उसीमें आनन्द मानने लगता
है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ ४ ॥ यह भगवान्की मायासे ऐसा मोहित हो रहा है कि
कर्मवश नारकी योनियोंमें जन्म लेनेपर भी वहाँके विष्ठा आदि भोगोंमें ही सुख
माननेके कारण उसे भी छोडऩा नहीं चाहता ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
आत्मजायासुतागार
पशुद्रविण बन्धुषु ।
निरूढमूलहृदय
आत्मानं बहु मन्यते ॥ ६ ॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग
एषां उद्वहनाधिना ।
करोति
अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥ ७ ॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः
स्त्रीणां असतीनां च मायया ।
रहो
रचितयालापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ॥ ८ ॥
गृहेषु
कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन्
दुखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९ ॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या
हिंसयेतः ततश्च तान् ।
पुष्णाति
येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १० ॥
वार्तायां
लुप्यमानायां आरब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो
निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥ ११ ॥
कुटुम्बभरणाकल्पो
मन्दभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया
विहीनः कृपणो ध्यायन् श्वसिति मूढधीः ॥ १२ ॥
यह
मूर्ख(जीव) अपने शरीर,
स्त्री, पुत्र, गृह,
पशु, धन और बन्धु-बान्धवोंमें अत्यन्त आसक्त
होकर उनके सम्बन्धमें नाना प्रकारके मनोरथ करता हुआ अपनेको बड़ा भाग्यशाली समझता
है ॥ ६ ॥ इनके पालन-पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओंसे दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हींके
लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है ॥ ७ ॥ कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में
सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकोंकी मीठी-मीठी
बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दु:ख-प्रधान
कपटपूर्ण कर्मोंमें लिप्त हो जाता है । उस समय बहुत सावधानी करनेपर यदि उसे किसी
दु:खका प्रतीकार करनेमें सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह
सुख-सा मान लेता है ॥८-९॥ जहाँ-तहाँ से भयङ्कर हिंसावृत्ति के द्वारा धन सञ्चयकर
यह ऐसे लोगोंका पोषण करता है, जिनके पोषणसे नरकमें जाता है।
स्वयं तो उनके खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नको ही खाकर रहता है ॥ १० ॥ बार-बार प्रयत्न
करनेपर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर
हो जानेसे दूसरेके धनकी इच्छा करने लगता है ॥ ११ ॥ जब मन्दभाग्यके कारण इसका कोई
प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्बके भरण-पोषणमें असमर्थ हो
जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसें
छोडऩे लगता है ॥ १२ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
एवं
स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।
नाद्रियन्ते
यथा पूर्वं कीनाशा इव गोजरम् ॥ १३ ॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो
भ्रियमाणः स्वयम्भृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो
मरणाभिमुखो गृहे ॥ १४ ॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं
गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निः
अल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ १५ ॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः
कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः
कण्ठे घुरघुरायते ॥ १६ ॥
शयानः
परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः ।
वाच्यमानोऽपि
न ब्रूते कालपाशवशं गतः ॥ १७ ॥
इसे
अपने पालन-पोषणमें असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहलेके समान आदर नहीं
करते,
जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ॥ १३ ॥ फिर भी
इसे वैराग्य नहीं होता । जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही
अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़
जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि
मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते
हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के
अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है ॥ १४-१५ ॥ मृत्युका समय
निकट आनेपर वायुके उत्क्रमणसे इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वासकी
नलिकाएँ कफसे रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेनेमें भी इसे
बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जानेके कारण कण्ठमें घुरघुराहट होने लगती है ॥ १६ ॥
यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवोंसे घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाशके वशीभूत हो
जानेसे उनके बुलानेपर भी नहीं बोल सकता ॥ १७ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
एवं
कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माजितेन्द्रियः ।
म्रियते
रुदतां स्वानां उरुवेदनयास्तधीः ॥ १८ ॥
यमदूतौ
तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ ।
स
दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः शकृन् मूत्रं विमुञ्चति ॥ १९ ॥
यातनादेह
आवृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् ।
नयतो
दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा ॥ २० ॥
तयोर्निर्भिन्नहृदयः
तर्जनैर्जातवेपथुः ।
पथि
श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं स्वमनुस्मरन् ॥ २१ ॥
क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः
सन्तप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छ्रेण
पृष्ठे कशया च ताडितः
चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ २२ ॥
तत्र
तत्र पतन्छ्रान्तो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः ।
पथा
पापीयसा नीतस्तरसा यमसादनम् ॥ २३ ॥
इस
प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषणमें ही लगा रहता
है,
वह रोते हुए स्वजनोंके बीच अत्यन्त वेदनासे अचेत होकर मृत्युको
प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ इस अवसर पर उसे लेने के लिये अति भयङ्कर और रोषयुक्त
नेत्रोंवाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भयके कारण
मल-मूत्र कर देता है ॥ १९ ॥ वे यमदूत उसे यातनादेहमें डाल देते हैं और फिर जिस
प्रकार सिपाही किसी अपराधीको ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके
गलेमें रस्सी बाँधकर बलात् यमलोककी लंबी यात्रामें उसे ले जाते हैं ॥ २० ॥ उनकी
घुड़कियोंसे उसका हृदय फटने और शरीर काँपने लगता है, मार्गमें
उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापोंको याद करके वह व्याकुल हो उठता है ॥ २१ ॥
भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओंसे
वह तप जाता है। ऐसी अवस्थामे जल और विश्राम-स्थानसे रहित उस तप्तबालुकामय मार्गमें
जब उसे एक पग आगे बढऩेकी भी शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी
पीठपर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्टसे उसे चलना ही पड़ता
है ॥ २२ ॥ वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्छा आ जाती है,
चेतना आनेपर फिर उठता है। इस प्रकार अति दु:खमय अँधेरे मार्गसे
अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रतासे यमपुरीको ले जाते हैं ॥ २३ ॥
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0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
योजनानां
सहस्राणि नवतिं नव चाध्वनः ।
त्रिभिर्मुहूर्तैर्द्वाभ्यां
वा नीतः प्राप्नोति यातनाः ॥ २४ ॥
आदीपनं
स्वगात्राणां वेष्टयित्वोल्मुकादिभिः ।
आत्ममांसादनं
क्वापि स्वकृत्तं परतोऽपि वा ॥ २५ ॥
जीवतश्चान्त्राभ्युद्धारः
श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिक
दंशाद्यैः दशद्भिश्चात्मवैशसम् ॥ २६ ॥
कृन्तनं
चावयवशो गजादिभ्यो भिदापनम् ।
पातनं
गिरिशृङ्गेभ्यो रोधनं चाम्बुगर्तयोः ॥ २७ ॥
यास्तामिस्रान्धतामिस्रा
रौरवाद्याश्च यातनाः ।
भुङ्क्ते
नरो वा नारी वा मिथः सङ्गेन निर्मिताः ॥ २८ ॥
अत्रैव
नरकः स्वर्ग इति मातः प्रचक्षते ।
या
यातना वै नारक्यः ता इहाप्युपलक्षिताः ॥ २९ ॥
(भगवान्
कपिल कह रहे हैं) यमलोकका मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इतने लम्बे मार्गको
दो-ही-तीन मुहूर्तमें तै करके वह नरकमें तरह-तरहकी यातनाएँ भोगता है ॥ २४ ॥ वहाँ
उसके शरीरको धधकती लकडिय़ों आदिके बीचमें डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरोंके द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है
॥ २५ ॥ यमपुरीके कुत्तों अथवा गिद्धोंद्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं।
साँप, बिच्छू और डाँस आदि डसनेवाले तथा डंक मारनेवाले
जीवोंसे शरीरको पीड़ा पहुँचायी जाती है ॥ २६ ॥ शरीरको काटकर टुकड़े-टुकड़े किये
जाते हैं। उसे हाथियोंसे चिरवाया जाता है, पर्वतशिखरोंसे
गिराया जाता है अथवा जल या गढ़ेमें डालकर बन्द कर दिया जाता है ॥ २७ ॥ ये सब
यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्र, अन्धतामिस्र एवं रौरव आदि
नरकोंकी और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष,
उस जीवको पारस्परिक संसर्गसे होनेवाले पापके कारण भोगनी ही पड़ती
हैं ॥ २८ ॥ माताजी ! कुछ लोगोंका कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोकमें हैं,
क्योंकि जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी
देखी जाती हैं ॥ २९ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
देह-गेहमें
आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
एवं
कुटुम्बं बिभ्राण उदरम्भर एव वा ।
विसृज्येहोभयं
प्रेत्य भुङ्क्ते तत्फलमीदृशम् ॥ ३० ॥
एकः
प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो
भूतद्रोहेण यद् भृतम् ॥ ३१ ॥
दैवेनासादितं
तस्य शमलं निरये पुमान् ।
भुङ्क्ते
कुटुम्बपोषस्य हृतवित्त इवातुरः ॥ ३२ ॥
केवलेन
हि अधर्मेण कुटुम्बभरणोत्सुकः ।
याति
जीवोऽन्धतामिस्रं चरमं तमसः पदम् ॥ ३३ ॥
अधस्तात्
नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः ।
क्रमशः
समनुक्रम्य पुनरत्राव्रजेच्छुचिः ॥ ३४ ॥
इस
प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्बका ही पालन करनेवाला अथवा केवल अपना ही पेट
भरनेवाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर—दोनोंको यहीं छोडक़र
मरनेके बाद अपने किये हुए पापोंका ऐसा फल भोगता है ॥ ३० ॥ अपने इस शरीरको यहीं
छोडक़र प्राणियोंसे द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेयको साथ लेकर वह अकेला
ही नरकमें जाता है ॥ ३१ ॥ मनुष्य अपने कुटुम्बका पेट पालनेमें जो अन्याय करता है,
उसका दैवविहित कुफल वह नरकमें जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल
होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो ॥ ३२ ॥ जो पुरुष निरी
पापकी कमाईसे ही अपने परिवारका पालन करनेमें व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्र नरकमें जाता है—जो नरकोंमें चरम
सीमाका कष्टप्रद स्थान है ॥ ३३ ॥ मनुष्य-जन्म मिलनेके पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं
तथा शूकर-कूकरादि योनियोंके जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रमसे
भोगकर शुद्ध हो जानेपर वह फिर मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है ॥ ३४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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