॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
देवहूतिरुवाच
–
लक्षणं
महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
स्वरूपं
लक्ष्यतेऽमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥ १ ॥
यथा
साङ्ख्येषु कथितं यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।
भक्तियोगस्य
मे मार्गं ब्रूहि विस्तरशः प्रभो ॥ २ ॥
विरागो
येन पुरुषो भगवन् सर्वतो भवेत् ।
आचक्ष्व
जीवलोकस्य विविधा मम संसृतीः ॥ ३ ॥
कालस्येश्वररूपस्य
परेषां च परस्य ते ।
स्वरूपं
बत कुर्वन्ति यद्धेतोः कुशलं जनाः ॥ ४ ॥
लोकस्य
मिथ्याभिमतेरचक्षुषः
चिरं प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।
श्रान्तस्य
कर्मस्वनुविद्धया धिया
त्वमाविरासीः किल योगभास्करः ॥ ५ ॥
देवहूति
ने पूछा—प्रभो ! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा
लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप
अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोगको ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोगका मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक
बताइये ॥ १-२ ॥ इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी
वर्णन कीजिये; जिनके सुननेसे जीव को सब प्रकारकी वस्तुओंसे
वैराग्य होता है ॥ ३ ॥ जिसके भयसे लोग शुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और जो
ब्रह्मादिका भी शासन करनेवाला है, उस सर्वसमर्थ कालका स्वरूप
भी आप मुझसे कहिये ॥ ४ ॥ ज्ञानदृष्टिके लुप्त हो जानेके कारण देहादि मिथ्या
वस्तुओंमें जिन्हें आत्माभिमान हो गया है तथा बुद्धिके कर्मासक्त रहनेके कारण
अत्यन्त श्रमित होकर जो चिरकालसे अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
मैत्रेय
उवाच ।
इति
मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।
आबभाषे
कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दितः ॥ ६ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
भक्तियोगो
बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण
पुंसां भावो विभिद्यते ॥ ७ ॥
अभिसन्धाय
यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।
संरम्भी
भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥ ८ ॥
विषयान्
अभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादौ
अर्चयेद्यो मां पृथग्भावः स राजसः ॥ ९ ॥
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य
परस्मिन् वा तदर्पणम् ।
यजेद्
यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिलजी ने उनकी
प्रशंसा की और जीवों के प्रति दयासे द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस
प्रकार बोले ॥ ६ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—माताजी ! साधकोंके भावके अनुसार भक्तियोगका अनेक प्रकार से प्रकाश होता है,
क्योंकि स्वभाव और गुणोंके भेदसे मनुष्योंके भावमें भी विभिन्नता आ
जाती है ॥ ७ ॥ जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदयमें हिंसा, दम्भ
अथवा मात्सर्यका भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस
भक्त है ॥ ८ ॥ जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से
प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है
॥ ९ ॥ जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को
अर्पण करने के लिये और पूजन करना कर्तव्य है—इस बुद्धिसे मेरा
भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
मद्गुणश्रुतिमात्रेण
मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिः
अविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥ ११ ॥
लक्षणं
भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता
या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १२ ॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य
सारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं
न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ १३ ॥
स
एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य
त्रिगुणं मद्भावायोपपद्यते ॥ १४ ॥
जिस
प्रकार गङ्गाका प्रवाह अखण्डरूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मनकी गति का तैलधारावत्
अविच्छिन्नरूप से मुझ सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में
निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण
कहा गया है ॥ ११-१२ ॥ ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी,
मेरी सेवा को छोडक़र सालोक्य१, सार्ष्टि,२ सामीप्य,३ सारूप्य४ और सायुज्य५ मोक्षतक नहीं लेते
[*]— ॥ १३ ॥ भगवत्-सेवाके लिये मुक्ति का
तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है । इसके
द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव को—मेरे
प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ १४ ॥
......................................
[*] १. भगवान् के नित्यधाम में निवास, २. भगवान् के
समान ऐश्वर्यभोग, ३. भगवान् की नित्य समीपता, ४. भगवान् का-सा रूप और ५. भगवान् के विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप प्राप्त कर लेना।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
निषेवितेनानिमित्तेन
स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन
शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥ १५ ॥
मद्धिष्ण्य
दर्शनस्पर्श पूजास्तुति अभिवन्दनैः ।
भूतेषु
मद्भावनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६ ॥
महतां
बहुमानेन दीनानां अनुकम्पया ।
मैत्र्या
चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ १७ ॥
आध्यात्मिकानुश्रवणात्
नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसङ्गेन
निरहङ्क्रियया तथा ॥ १८ ॥
मद्
धर्मणो गुणैः एतैः परिसंशुद्ध आशयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति
श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९ ॥
निष्कामभावसे
श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोगका अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियोंमें
मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्यके अवलम्बन, महापुरुषोंका मान, दीनोंपर दया और समान स्थितिवालों के
प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्मशास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से
तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के सङ्ग और अहंकार के त्याग से
मेरे धर्मों का (भागवतधर्मोंका ) अनुष्ठान करनेवाले भक्त पुरुष का चित्त अत्यन्त
शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझ में लग जाता है ॥ १५—१९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
यथा
वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं
योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥ २० ॥
अहं
सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तं
अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥ २१ ॥
यो
मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां
भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२ ॥
द्विषतः
परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु
बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ २३ ॥
जिस
प्रकार वायुके द्वारा उडक़र जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्पसे घ्राणेन्द्रियतक
पहुँच जाता है,
उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारोंसे शून्य
चित्त परमात्माको प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवोंमें
स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्माका अनादर
करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा
स्वाँगमात्र है ॥ २१ ॥ मैं सब का आत्मा, परमेश्वर सभी
भूतोंमें स्थित हूँ; ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके
केवल प्रतिमा के पूजनमें ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें
ही हवन करता है ॥ २२ ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष जो दूसरे जीवों के साथ वैर
बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है,
उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः
क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव
तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥ २४ ॥
अर्चादौ
अर्चयेत्तावद् ईश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न
वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५ ॥
आत्मनश्च
परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य
भिन्नदृशो मृत्युः विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६ ॥
अथ
मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद्
दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २७ ॥
(भगवान्
कह रहे हैं) माताजी ! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढिय़ा सामग्रियों से अनेक प्रकारके विधि-विधान के साथ
मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता ॥ २४ ॥ मनुष्य
अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वरकी प्रतिमा आदिमें पूजा करता रहे,
जबतक उसे अपने हृदयमें एवं सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित परमात्माका
अनुभव न हो जाय ॥ २५ ॥ जो व्यक्ति आत्मा और परमात्माके बीचमें थोड़ा-सा भी अन्तर
करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूपसे महान् भय उपस्थित
करता हूँ ॥ २६ ॥ अत: सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर घर बनाकर उन प्राणियोंके ही रूपमें
स्थित मुझ परमात्माका यथायोग्य दान, मान, मित्रताके व्यवहार तथा समदृष्टिके द्वारा पूजन करना चाहिये ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
०००००००००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
जीवाः
श्रेष्ठा हि अजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
ततः
सचित्ताः प्रवराः ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २८ ॥
तत्रापि
स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो
गन्धविदः श्रेष्ठाः ततः शब्दविदो वराः ॥ २९ ॥
रूपभेदविदस्तत्र
ततश्चोभयतोदतः ।
तेषां
बहुपदाः श्रेष्ठाः चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ ३० ॥
(भगवान्
देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव
श्रेष्ठ हैं,
उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें
भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रियकी वृत्तियोंसे युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं।
सेन्द्रिय प्राणियोंमें भी केवल स्पर्शका अनुभव करनेवालोंकी अपेक्षा रसका ग्रहण कर
सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं, तथा रसवेत्ताओंकी अपेक्षा
गन्धका अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्धका ग्रहण करनेवालोंसे भी शब्दका ग्रहण
करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं ॥ २८-२९ ॥ उनसे भी रूपका अनुभव करनेवाले (काकादि)
उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैरवालोंसे बहुत-से चरणोंवाले श्रेष्ठ
हैं तथा बहुत चरणोंवालोंसे चार चरणवाले और चार चरणवालोंसे भी दो चरणवाले मनुष्य
श्रेष्ठ हैं ॥ ३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
ततो
वर्णाश्च चत्वारः तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।
ब्राह्मणेष्वपि
वेदज्ञो हि,
अर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३१ ॥
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता
ततः श्रेयान् स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसङ्गस्ततो
भूयात् अदोग्धा धर्ममात्मनः ॥ ३२ ॥
तस्मान्मय्यर्पिताशेष
क्रियार्थात्मा निरन्तरः ।
मय्यर्पितात्मनः
पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।
न
पश्यामि परं भूतं अकर्तुः समदर्शनात् ॥ ३३ ॥
मनसैतानि
भूतानि प्रणमेद्बहुमानयन् ।
ईश्वरो
जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ३४ ॥
मनुष्यों
में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उनमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है।
ब्राह्मणों में वेद को जाननेवाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में भी वेदका तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३१ ॥
तात्पर्य जाननेवालों से संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने
वर्णाश्रमोचित धर्मका पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्तिका त्याग और अपने धर्मका
निष्कामभावसे आचरण करनेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३२ ॥ उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने
सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीरको भी मुझे ही अर्पण
करके भेदभाव छोडक़र मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस
प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकत्र्ता और समदर्शी पुरुषसे बढक़र
मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता ॥ ३३ ॥ अत: यह मानकर कि जीवरूप अपने अंशसे
साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत हैं, इन समस्त प्राणियोंको
बड़े आदरके साथ मनसे प्रणाम करे ॥ ३४ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
भक्तियोगश्च
योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव
पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥ ३५ ॥
एतद्भगवतो
रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं
प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥ ३६ ॥
रूपभेदास्पदं
दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां
महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥ ३७ ॥
योऽन्तः
प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।
स
विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥ ३८ ॥
न
चास्य कश्चिद् दयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।
आविशत्यप्रमत्तोऽसौ
प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥ ३९ ॥
यद्भयाद्
वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भयात् ।
यद्भयाद्
वर्षते देवो भगणो भाति यद्भयात् ॥ ४० ॥
(भगवान्
देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और
अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया। इनमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान् को
प्राप्त कर सकता है ॥ ३५ ॥ भगवान् परमात्मा परब्रह्मका अद्भुत प्रभावसम्पन्न तथा
जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसीके रूप
हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकारके कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा
इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ॥ ३६-३७ ॥
जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही
उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करनेवाले ब्रह्मादि का
भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञों का फल
देनेवाला विष्णु है ॥ ३८ ॥ इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई
सगा-सम्बन्धी ही है । यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान् को
भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है
॥३९॥ इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भयसे सूर्य तपता है,
इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं
॥ ४०॥
शेष
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0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उनतीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
भक्ति
का मर्म और काल की महिमा
यद्
वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे
स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥
स्रवन्ति
सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे
सगिरिभिः भूर्न मज्जति यद्भयात् ॥ ४२ ॥
नभो
ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं
स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥ ४३ ॥
गुणाभिमानिनो
देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भयात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं
येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः
कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं
जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५ ॥
इसीसे
(कालसे) भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ
और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं ॥ ४१ ॥ इसीके डरसे नदियाँ बहती
हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। इसीके भयसे अग्रि प्रज्वलित होती है
और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ॥ ४२ ॥ इसीके शासनसे यह आकाश जीवित
प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका
सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ॥ ४३ ॥ इस काल के ही भयसे
सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा
चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से
तत्पर रहते हैं ॥ ४४ ॥ यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता
(उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे
पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत् की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके
द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ॥ ४५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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