गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

अष्टाङ्गयोग की विधि

श्रीभगवानुवाच -
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम् ॥ १ ॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मवित् चरणार्चनम् ॥ २ ॥
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद् विविक्तक्षेमसेवनम् ॥ ३ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम् ॥ ४ ॥
मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥ ५ ॥
स्वधिष्ण्यानां एकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं तथात्मनः ॥ ६ ॥
एतैः अन्यैश्च पथिभिः मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्ध्या युञ्जीत शनकैः जितप्राणो ह्यतन्द्रितः ॥ ७ ॥

कपिलभगवान्‌ कहते हैंमाताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है ॥ १ ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, ॥ २ ॥ विषयवासनाओं को बढ़ानेवाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, ॥ ३ ॥ मन, वाणी और शरीरसे किसी जीवको न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान्‌ की पूजा करना, ॥ ४ ॥ वाणी का संयम करना, उत्तम आसनोंका अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना ॥ ५ ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्रमें मनके सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान्‌ की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना,॥ ६ ॥ इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे ॥ ७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

अष्टाङ्गयोग की विधि

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन् स्वस्ति समासीन ऋजुकायः समभ्यसेत् ॥ ८ ॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरं अचञ्चलम् ॥ ९ ॥
मनोऽचिरात्स्याद् विरजं जितश्वासस्य योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं त्यजति वै मलम् ॥ १० ॥
प्राणायामैः दहेद् दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनान् ईश्वरान्गुणान् ॥ ११ ॥

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि से युक्त आसन बिछावे । उसपर शरीरको सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे॥८॥ आरम्भ में पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राण के मार्ग का शोधन करेजिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ ९ ॥ जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ १० ॥ अत: योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ॥ ११ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यदा मनः स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत् स्वनासाग्रावलोकनः ॥ १२ ॥
प्रसन्नवदनाम्भोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ १३ ॥
लसत्पङ्कज किञ्जल्क पीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥ १४ ॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलय किरीटाङ्गदनूपुरम् ॥ १५ ॥
काञ्चीगुणोल्लसत् श्रोणिं हृदयाम्भोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयन वर्धनम् ॥ १६ ॥
अपीच्यदर्शनं शश्वत् सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्तं वयसि कैशोरे भृत्यानुग्रहकातरम् ॥ १७ ॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न च्यवते मनः ॥ १८ ॥

जब योगका अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान्‌की मूर्तिका ध्यान करे ॥ १२ ॥ भगवान्‌ का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम है; हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हैं ॥ १३ ॥ कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है,वक्ष:स्थल में श्रीवत्सचिह्न है और गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है॥१४॥ वनमाला चरणोंतक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्धसे मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अङ्ग-प्रत्यङ्ग में महामूल्य हार,कङ्कण,किरीट,भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥१५॥ कमर में करधनी की लडिय़ाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करनेवाला है ॥१६॥ उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है,वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान्‌ सदा सम्पूर्ण लोकोंसे वन्दित हैं ॥१७॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियोंके भी यशको बढ़ानेवाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अङ्गोंके सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँसे हटे नहीं ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

अष्टाङ्गयोग की विधि

स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेत् शुद्धभावेन चेतसा ॥ १९ ॥
तस्मिन्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्याद् अङ्गे भगवतो मुनिः ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयेद् भगवतश्चरणारविन्दं
     वज्राङ्कुशध्वज सरोरुह लाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन् नखचक्रवाल
     ज्योत्स्नाभिराहतमहद् हृदयान्धकारम् ॥ २१ ॥
यच्छौचनिःसृतसरित् प्रवरोदकेन ।
     तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनःशमलशैलनिसृष्टवज्रं
     ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ २२ ॥

भगवान्‌ की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अत: अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप में स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे ॥ १९ ॥ इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी,तब वह उनके समस्त अङ्गों में लगे हुए चित्त को विशेष रूपसे एक-एक अङ्ग में लगावे   ॥ २० ॥ भगवान्‌के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमलके मङ्गलमय चिह्नोंसे युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्र-मण्डलकी चन्द्रिकासे ध्यान करनेवालोंके हृदयके अज्ञानरूप घोर अन्धकारको दूर कर देते हैं ॥ २१ ॥ इन्हींकी धोवनसे नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र जलको मस्तकपर धारण करनेके कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये। ये अपना ध्यान करनेवालोंके पापरूप पर्वतोंपर छोड़े हुए इन्द्रके वज्रके समान हैं। भगवान्‌के इन चरणकमलोंका चिरकालतक चिन्तन करे ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

अष्टाङ्गयोग की विधि

जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
     लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
     संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३ ॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधि शोभमानौ
     वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालम्बिपीतवरवाससि वर्तमान
     काञ्चीकलापपरिरम्भि नितम्बबिम्बम् ॥ २४ ॥
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
     यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
     ध्यायेद् द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५ ॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः
     पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थं
     कुर्यान्मनस्यखिल लोकनमस्कृतस्य ॥ २६ ॥

भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी  अपनी जाँघोंपर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयोंकी कान्तिसे लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ २३ ॥ भगवान्‌की जाँघोंका ध्यान करे, जो अलसीके फूलके समान नीलवर्ण और बलकी निधि हैं तथा गरुडजीकी पीठपर शोभायमान हैं। भगवान्‌के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बरके ऊपर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनी की लडिय़ों को आलिङ्गन कर रहा है ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण लोकोंके आश्रयस्थान भगवान्‌के उदरदेशमें स्थित नाभिसरोवरका ध्यान करे; इसीमेंसे ब्रह्माजी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभुके श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्ष:स्थलपर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं ॥ २५ ॥ इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान्‌ के वक्ष:स्थलका ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाला है । फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान्‌ के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

अष्टाङ्गयोग की विधि

बाहूंश्च मन्दरगिरेः परिवर्तनेन
     निर्णिक्तबाहुवलयान् अधिलोकपालान् ।
सञ्चिन्तयेद् दशशतारमसह्यतेजः
     शङ्खं च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥ २७ ॥
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेत
     दिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टां
     चैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे ॥ २८ ॥
भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्तेः
     सञ्चिन्तयेद् भगवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन् मकरकुण्डलवल्गितेन ।
     विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥ २९ ॥

समस्त लोकपालोंकी आश्रयभूता भगवान्‌की चारों भुजाओंका ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कङ्कणादि आभूषण समुद्रमन्थनके समय मन्दराचलकी रगड़से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेजको सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारोंवाले सुदर्शनचक्रका तथा उनके कर-कमलमें राजहंसके समान विराजमान शङ्खका चिन्तन करे ॥ २७ ॥ फिर विपक्षी वीरोंके रुधिरसे सनी हुई प्रभुकी प्यारी कौमोदकी गदाका, भौंरोंके शब्दसे गुञ्जायमान वनमालाका और उनके कण्ठमें सुशोभित सम्पूर्ण जीवोंके निर्मलतत्त्वरूप कौस्तुभमणिका ध्यान करे [*] ॥ २८ ॥ भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करनेवाले श्रीहरिके मुखकमलका ध्यान करे, जो सुघड़ नासिकासे सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृति कुण्डलोंके हिलनेसे अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलोंके कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है ॥ २९ ॥
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[*] आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम् । बिभर्ति कौस्तुभमङ्क्षण स्वरूपं भगवान्‌ हरि: ।।अर्थात् इस जगत् की  निर्लेप, निर्गुण, निर्मल तथा स्वरूपभूत आत्माको कौस्तुभमणिके रूपमें भगवान्‌ धारण करते हैं।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यच्छ्रीनिकेतमलिभिः परिसेव्यमानं
     भूत्या स्वया कुटिलकुन्तलवृन्दजुष्टम् ।
मीनद्वयाश्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रं
     ध्यायेन् मनोमयमतन्द्रित उल्लसद्‍भ्रु ॥ ३० ॥
तस्यावलोकमधिकं कृपयातिघोर
     तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णोः ।
स्निग्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादं
     ध्यायेच्चिरं विपुलभावनया गुहायाम् ॥ ३१ ॥
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र
     शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य
     भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥ ३२ ॥

कालीकाली घुँघराली अलकावलीसे मण्डित भगवान्‌का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोशका भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चञ्चल नेत्र उस कमलकोशपर उछलते हुए मछलियोंके जोड़ेकी शोभाको मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओंसे सुशोभित भगवान्‌के ऐसे मनोहर मुखारविन्दकी मनमें धारणा करके आलस्यरहित हो उसीका ध्यान करे ॥ ३० ॥ हृदयगुहा में चिरकालतक भक्तिभाव से भगवान्‌के नेत्रोंकी चितवनका ध्यान करना चाहिये, जो कृपासे और प्रेमभरी मुसकानसे क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसादकी वर्षा करती रहती है और भक्तजनोंके अत्यन्त घोर तीनों तापोंको शान्त करनेके लिये ही प्रकट हुई है ॥ ३१ ॥ श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रुसागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियोंके हितके लिये कामदेवको मोहित करनेके लिये ही अपनी मायासे श्रीहरिने अपने भ्रूमण्डलको बनाया हैउनका ध्यान करना चाहिये ॥ ३२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

अष्टाङ्गयोग की विधि

ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ
     भासारुणायिततनुद्विजकुन्दपङ्‌क्ति ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेऽवसितस्य विष्णोः
     भक्त्यार्द्रयार्पितमना न पृथग्दिदृक्षेत् ॥ ३३ ॥
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो
     भक्त्या द्रवद्‌धृदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कण्ठ्यबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानः
     तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते ॥ ३४ ॥

अत्यन्त प्रेमार्द्रभावसे अपने हृदयमें विराजमान श्रीहरिके खिलखिलाकर हँसनेका ध्यान करे, जो वस्तुत: ध्यानके ही योग्य है तथा जिसमें ऊपर और नीचेके दोनों होठोंकी अत्यधिक अरुण कान्तिके कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे ॥ ३३ ॥
इस प्रकारके ध्यानके अभ्याससे साधकका श्रीहरिमें प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्तिसे द्रवित हो जाता है, शरीरमें आनन्दातिरेकके कारण रोमाञ्च होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रुओंकी धारामें वह बारंबार अपने शरीरको नहलाता है और फिर मछली पकडऩेके काँटेके समान श्रीहरिको अपनी ओर आकर्षित करनेके साधनरूप अपने चित्तको भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तुसे हटा लेता है ॥ ३४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

अष्टाङ्गयोग की विधि

मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं विरक्तं
     निर्वाणमृच्छति मनः सहसा यथार्चिः ।
आत्मानमत्र पुरुषोऽव्यवधानमेकम्
     अन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवाहः ॥ ३५ ॥
सोऽप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्या
     तस्मिन् महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाह्ये ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्
     स्वात्मन्विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ठः ॥ ३६ ॥

जैसे तेल आदि के चुक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्तब्रह्माकार हो जाता है । इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुणप्रवाहरूप देहादि उपाधि के  निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय  आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है  ॥ ३५ ॥ योगाभ्यास  से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दु:ख-रहित ब्रह्मरूप  महिमा में  स्थित होकर  परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दु:ख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश  अपने  स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है     ॥ ३६॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

अष्टाङ्गयोग की विधि

देहं च तं न चरमः स्थितमुत्थितं वा
     सिद्धो विपश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं
     वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ ३७ ॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
     स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
     स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३८ ॥

जिस प्रकार मदिराके मदसे मतवाले पुरुषको अपनी कमरपर लपेटे हुए वस्त्रके रहने या गिरनेकी कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्थाको प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषको भी अपनी देहके बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आनेके विषयमें कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमय स्वरूपमें स्थित है ॥ ३७ ॥ उसका शरीर तो पूर्वजन्मके संस्कारोंके अधीन है; अत: जबतक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है तबतक वह इन्द्रियोंके सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योगकी स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्वको भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादिके सहित इस शरीरको स्वप्नमें प्रतीत होनेवाले शरीरोंके समान फिर स्वीकार नहीं करताफिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता ॥ ३८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथङ्‌मर्त्यः प्रतीयते ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् देहादेः पुरुषस्तथा ॥ ३९ ॥
यथोल्मुकाद् विस्फुलिङ्गाद् धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् यथाग्निः पृथगुल्मुकात् ॥ ४० ॥
भूतेन्द्रियान्तःकरणात् प्रधानात् जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥ ४१ ॥

जिस प्रकार अत्यन्त स्नेहके कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवोंकी आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करनेसे ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादिसे भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार जलती हुई लकड़ीसे, चिनगारीसे, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धूएँसे तथा अग्निरूप मानी जानेवाली उस जलती हुई लकड़ीसे भी अग्नि वास्तवमें पृथक् ही हैउसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्त:करण से उनका साक्षी आत्मा अलग है, तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके सञ्चालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं ॥ ४०-४१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

अष्टाङ्गयोग की विधि

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षेतान् अन्यभावेन भूतेष्विव तदात्मताम् ॥ ४२ ॥
स्वयोनिषु यथा ज्योतिः एकं नाना प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात् तथात्मा प्रकृतौ स्थितः ॥ ४३ ॥
तस्माद् इमां स्वां प्रकृतिं दैवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ ४४ ॥

जिस प्रकार देहदृष्टिसे जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्जचारों प्रकारके प्राणी पञ्चभूतमात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण जीवोंको अनन्यभावसे अनुगत देखे ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयोंमें उनकी विभिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न आकारका दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरोंमें रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयोंके गुण-भेदके कारण भिन्न-भिन्न प्रकारका भासता है ॥ ४३ ॥ अत: भगवान्‌का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान्‌ की इस अचिन्त्य शक्तिमयी मायाको भगवान्‌की कृपासे ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूपब्रह्मरूपमें स्थित होता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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