जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे
दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!
तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस,
हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे। पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है। वह यह
है-
अहं हरे तवपादैकमूल
दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
गृणीत वाक् कर्मकरोतु कायः॥
दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
गृणीत वाक् कर्मकरोतु कायः॥
अर्थात्, हे भगवन् ! मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के
सेवकों का ही दास होऊँ । हे प्राणेश्वर! मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता
रहे। मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे। और, मेरा शरीर सदा
तुम्हारी सेवामें लगा रहे।
किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीय’
ही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना
पड़े। सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये। अन्तमें यही विनय है, नाथ!
अर्थ न धर्म न काम-रुचि,
गति न चहौं निर्बान।
जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥
------ -तुलसी
जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥
------ -तुलसी
क्यों नहीं कह देते, कि ‘एवमस्तु !’
( श्रीवियोगी-हरिजी
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….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६(वि०),कल्याण ( पृ० ७५५ )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६(वि०),कल्याण ( पृ० ७५५ )
जय सियाराम
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