||ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
श्रीशुक
उवाच
तथा
च भद्रश्रवा नाम धर्मसुतस्तत्कुलपतयः पुरुषा
भद्राश्ववर्षे साक्षाद्भगवतो वासुदेवस्य प्रियां तनुं धर्ममयीं हयशीर्षाभिधानां
परमेण समाधिना सन्निधाप्येदमभिगृणन्त उपधावन्ति ||१||
भद्रश्रवस
ऊचुः
ॐ
नमो भगवते धर्मायात्मविशोधनाय नम इति ||२||
अहो
विचित्रं भगवद्विचेष्टितं घ्नन्तं जनोऽयं हि मिषन्न पश्यति
ध्यायन्नसद्यर्हि
विकर्म सेवितुं निर्हृत्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ||३||
वदन्ति
विश्वं कवयः स्म नश्वरं पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः
तथापि
मुह्यन्ति तवाज मायया सुविस्मितं कृत्यमजं नतोऽस्मि तम् ||४||
विश्वोद्भवस्थाननिरोधकर्म
ते ह्यकर्तुरङ्गीकृतमप्यपावृतः
युक्तं
न चित्रं त्वयि कार्यकारणे सर्वात्मनि व्यतिरिक्ते च वस्तुतः ||५||
वेदान्युगान्ते
तमसा तिरस्कृतान्रसातलाद्यो नृतुरङ्गविग्रहः
प्रत्याददे
वै कवयेऽभियाचते तस्मै नमस्तेऽवितथेहिताय इति ||६||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! भद्राश्ववर्षमें धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक
भगवान् वासुदेवकी हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्तिको अत्यन्त समाधिनिष्ठाके
द्वारा हृदयमें स्थापित कर इस मन्त्र[1]का जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं
॥ १ ॥
भद्रश्रवा
और उनके सेवक कहते हैं—
‘चित्तको विशुद्ध करनेवाले ओङ्कारस्वरूप भगवान् धर्मको नमस्कार है’
॥ २ ॥
अहो
! भगवान्की लीला बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यह जीव
सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेवाले कालको देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयोंका
सेवन करनेके लिये पापमय विचारोंकी उधेड़-बुनमें लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र
और पितादिकी लाशको जलाकर भी स्वयं जीते रहनेकी इच्छा करता है ॥ ३ ॥ विद्वान् लोग
जगत् को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी
आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी हैं; तो भी जन्मरहित प्रभो !
आपकी मायासे लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि हैं तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक
हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ परमात्मन् ! आप अकर्ता
और मायाके आवरणसे रहित हैं तो भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति
और प्रलय—ये आपके ही कर्म माने गये हैं। सो ठीक ही है,
इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूपसे आप ही
सम्पूर्ण कार्योंके कारण हैं और अपने शुद्धस्वरूपमें इस कार्य- कारणभावसे सर्वथा
अतीत हैं ॥ ५ ॥ आपका विग्रह मनुष्य और घोड़ेका संयुक्त रूप है। प्रलयकालमें जब
तम:प्रधान दैत्यगण वेदोंको चुरा ले गये थे, तब ब्रह्माजीके
प्रार्थना करनेपर आपने उन्हें रसातलसे लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करनेवाले
सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
हरिवर्षे
चापि भगवान्नरहरिरूपेणास्ते तद्रूपग्रहणनिमित्तमुत्तरत्राभिधास्ये तद्दयितं रूपं
महापुरुषगुणभाजनो महाभागवतो दैत्यदानव-कुलतीर्थीकरणशीलाचरितः
प्रह्लादोऽव्यवधानानन्यभक्तियोगेन सह तद्वर्षपुरुषैरुपास्ते इदं चोदाहरति ||७||
ॐ
नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र
कर्माशयान्रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा ॐ क्ष्रौम् ||८||
स्वस्त्यस्तु
विश्वस्य खलः प्रसीदतां ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धियामनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी ||९||
मागारदारात्मजवित्तबन्धुषु
सङ्गो यदि स्याद्भगवत्प्रियेषु नः
यः
प्राणवृत्त्या परितुष्ट आत्मवान्सिद्ध्यत्यदूरान्न तथेन्द्रियप्रियः ||१०||
यत्सङ्गलब्धं
निजवीर्यवैभवं तीर्थं मुहुः संस्पृशतां हि मानसम्
हरत्यजोऽन्तः
श्रुतिभिर्गतोऽङ्गजं को वै न सेवेत मुकुन्दविक्रमम् ||११||
हरिवर्षखण्डमें
भगवान् नृसिंहरूपसे रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारणसे धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्कन्धमें) वर्णन किया जायगा। भगवान्के उस प्रिय रूपकी
महाभागवत प्रह्लादजी उस वर्षके अन्य पुरुषोंके सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभावसे
उपासना करते हैं। ये प्रह्लादजी महापुरुषोचित गुणोंसे सम्पन्न हैं तथा इन्होंने
अपने शील और आचरणसे दैत्य और दानवोंके कुलको पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र [2]
तथा स्तोत्रका जप-पाठ करते हैं ॥ ७ ॥ — ‘ओङ्कारस्वरूप भगवान्
श्रीनृसिंहदेव को नमस्कार है। आप अग्रि आदि तेजोंके भी तेज हैं, आपको नमस्कार है। हे वज्रनख ! हे वज्रदंष्ट्र ! आप हमारे समीप प्रकट होइये,
प्रकट होइये; हमारी कर्म- वासनाओं को जला
डालिये, जला डालिये। हमारे अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कीजिये,
नष्ट कीजिये। ॐ स्वाहा। हमारे अन्त:करणमें अभयदान देते हुए प्रकाशित
होइये। ॐ क्षौम्’ ॥ ८ ॥ ‘नाथ ! विश्वका
कल्याण हो, दुष्टोंकी बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियोंमें परस्पर सद्भावना हो, सभी एकदूसरेका
हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्गमें प्रवृत्त हो और हम
सबकी बुद्धि निष्कामभावसे भगवान् श्रीहरिमें प्रवेश करे ॥ ९ ॥ प्रभो ! घर,
स्त्री, पुत्र, धन और
भाई-बन्धुओंमें हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान्के
प्रेमी भक्तोंमें ही । जो संयमी पुरुष केवल शरीरनिर्वाहके योग्य अन्नादिसे
सन्तुष्ट रहता है, उसे जितना शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है,
वैसी इन्द्रियलोलुप पुरुषको नहीं होती ॥ १० ॥ उन भगवद्भक्तों के
सङ्ग से भगवान् के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभावके सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन
करनेवालोंके कानोंके रास्तेसे भगवान् हृदयमें प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी
प्रकारके दैहिक और मानसिक मलोंको नष्ट कर देते हैं। फिर भला, उन भगवद्भक्तोंका सङ्ग कौन न करना चाहेगा ? ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
नमो भगवते वासुदेवाय
॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
यस्यास्ति
भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः
हरावभक्तस्य
कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ||१२||
हरिर्हि
साक्षाद्भगवान्शरीरिणामात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम्
हित्वा
महांस्तं यदि सज्जते गृहे तदा महत्त्वं वयसा दम्पतीनाम् ||१३||
तस्माद्र
जोरागविषादमन्यु मानस्पृहाभयदैन्याधिमूलम्
हित्वा
गृहं संसृतिचक्रवालं नृसिंहपादं भजताकुतोभयमिति ||१४||
जिस
पुरुषकी भगवान्में निष्काम भक्ति है, उसके हृदयमें समस्त
देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणोंके सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो
भगवान्का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषोंके वे गुण आ ही
कहाँसे सकते हैं ? वह तो तरह-तरहके संकल्प करके निरन्तर
तुच्छ बाहरी विषयोंकी ओर ही दौड़ता रहता है ॥ १२ ॥ जैसे मछलियोंको जल अत्यन्त
प्रिय—उनके जीवनका आधार होता है, उसी
प्रकार साक्षात् श्रीहरि ही समस्त देहधारियोंके प्रियतम आत्मा हैं। उन्हें त्यागकर
यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घरमें आसक्त रहता है तो उस दशामें स्त्री-पुरुषोंका
बड़प्पन केवल आयुको लेकर ही माना जाता है; गुणकी दृष्टिसे
नहीं ॥ १३ ॥ अत: असुरगण ! तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक
सन्ताप के मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्र का वहन करनेवाले गृह आदिको त्यागकर
भगवान् नृसिंहके निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लो’ ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
केतुमालेऽपि
भगवान्कामदेवस्वरूपेण लक्ष्म्याः प्रियचिकीर्षया प्रजापतेर्दुहित्तॄणां पुत्राणां
तद्वर्षपतीनां पुरुषायुषाहोरात्रपरिसङ्ख्यानानां यासां गर्भा
महापुरुषमहास्त्रतेजसोद्वेजितमनसां विध्वस्ता व्यसवः संवत्सरान्ते विनिपतन्ति ||१५||
अतीव
सुललितगतिविलासविलसितरुचिरहासलेशावलोकली-लया
किञ्चिदुत्तम्भितसुन्दरभ्रूमण्डलसुभगवदनारविन्दश्रिया रमां रमयन्निन्द्रि याणि
रमयते ||१६||
तद्भगवतो
मायामयं रूपं परमसमाधियोगेन रमा देवी संवत्सरस्य रात्रिषु
प्रजापतेर्दुहितृभिरुपेताहःसु च तद्भर्तृभिरुपास्ते इदं चोदाहरति ||१७||
ॐ
ह्रां ह्रीं ह्रूं ॐ नमो भगवते हृषीकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विल-क्षितात्मने आकूतीनां
चित्तीनां चेतसां विशेषाणां चाधिपतये षोडशकलाय च्छन्दोमयायान्नमयायामृतमयाय
सर्वमयाय ओजसे बलाय कान्ताय कामाय नमस्ते उभयत्र भूयात् ||१८||
केतुमालवर्षमें
लक्ष्मीजीका तथा संवत्सर नामक प्रजापतिके पुत्र और पुत्रियोंका प्रिय करनेके लिये
भगवान् कामदेवरूपसे निवास करते हैं। उन रात्रिकी अभिमानी देवतारूप कन्याओं और
दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रोंकी संख्या मनुष्यकी सौ वर्षकी आयुके दिन और रातके
बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है, और वे ही उस वर्षके
अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायणके श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शनचक्रके तेजसे
डर जाती हैं; इसलिये प्रत्येक वर्षके अन्तमें उनके गर्भ नष्ट
होकर गिर जाते हैं ॥ १५ ॥ भगवान् अपने सुललित गति-विलाससे सुशोभित मधुर-मधुर
मन्द-मुसकानसे मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवनसे कुछ उझके हुए सुन्दर भ्रूमण्डलकी
छबीली छटाके द्वारा वदनारविन्दका राशि-राशि सौन्दर्य उँडेलकर सौन्दर्यदेवी
श्रीलक्ष्मीको अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं ॥ १६ ॥
श्रीलक्ष्मीजी परम समाधियोगके द्वारा भगवान्के उस मायामय स्वरूपकी रात्रिके समय
प्रजापति संवत्सरकी कन्याओंसहित और दिनमें उनके पतियोंके सहित आराधना और वे इस
मन्त्र [3] का जप करती हुई भगवान्की स्तुति करती हैं ॥ १७
॥--
‘जो इन्द्रियोंके नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओंके आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और संकल्प- अध्यवसाय आदि
चित्तके धर्मों तथा उनके विषयोंके अधीश्वर हैं, ग्यारह
इन्द्रिय और पाँच विषय— इन सोलह कलाओंसे युक्त हैं, वेदोक्त कर्मोंसे प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय
और सर्वमय हैं—उन मानसिक, ऐन्द्रियक
एवं शारीरिक बलस्वरूप परम सुन्दर भगवान् कामदेवको ‘ॐ ह्रां
ह्रीं ह्रूं’ इन बीजमन्त्रोंके सहित सब ओर से नमस्कार है’ ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
स्त्रियो
व्रतैस्त्वा हृषीकेश्वरं स्वतो ह्याराध्य लोके पतिमाशासतेऽन्यम्
तासां
न ते वै परिपान्त्यपत्यं प्रियं धनायूंषि यतोऽस्वतन्त्राः ||१९||
स
वै पतिः स्यादकुतोभयः स्वयं समन्ततः पाति भयातुरं जनम्
स
एक एवेतरथा मिथो भयं नैवात्मलाभादधि मन्यते परम् ||२०||
या
तस्य ते पादसरोरुहार्हणं निकामयेत्साखिलकामलम्पटा
तदेव
रासीप्सितमीप्सितोऽर्चितो यद्भग्नयाच्ञा भगवन्प्रतप्यते ||२१||
मत्प्राप्तयेऽजेशसुरासुरादयस्तप्यन्त
उग्रं तप ऐन्द्रि ये धियः
ऋते
भवत्पादपरायणान्न मां विन्दन्त्यहं त्वद्धृदया यतोऽजित ||२२||
स
त्वं ममाप्यच्युत शीर्ष्णि वन्दितं कराम्बुजं यत्त्वदधायि सात्वताम्
बिभर्षि
मां लक्ष्म वरेण्य मायया क ईश्वरस्येहितमूहितुं विभुरिति ||२३||
‘भगवन् ! आप इन्द्रियोंके अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरहके कठोर व्रतोंसे
आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियोंकी इच्छा किया करती हैं। किन्तु वे उनके
प्रिय पुत्र, धन और आयुकी रक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र हैं ॥ १९ ॥ सच्चा पति (रक्षा करनेवाला या
ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत
लोगोंकी सब प्रकारसे रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एकसे अधिक ईश्वर माने जायँ, तो उन्हें एक-
दूसरेसे भय होनेकी सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्तिसे बढक़र और किसी लाभको नहीं
मानते ॥ २० ॥ भगवन् ! जो स्त्री आपके चरणकमलोंका पूजन ही चाहती है, और किसी वस्तुकी इच्छा नहीं करती—उसकी सभी कामनाएँ
पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामनाको लेकर आपकी
उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं और जब भोग
समाप्त होनेपर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तप्त होना पड़ता है ॥ २१ ॥
अजित् ! मुझे पानेके लिये इन्द्रिय-सुखके अभिलाषी ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त
सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं; किन्तु आपके चरणकमलोंका
आश्रय लेनेवाले भक्तके सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता; क्योंकि
मेरा मन तो आपमें ही लगा रहता है ॥ २२ ॥ अच्युत ! आप अपने जिस वन्दनीय करकमलको
भक्तोंके मस्तकपर रखते हैं, उसे मेरे सिरपर भी रखिये। वरेण्य
! आप मुझे केवल श्रीलाञ्छनरूप से अपने वक्ष:स्थलमें ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ हैं, आप अपनी मायासे जो लीलाएँ करते
हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है ? ॥
२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
रम्यके
च भगवतः प्रियतमं मात्स्यमवताररूपं तद्वर्षपुरुषस्य मनोः प्राक्
प्रदर्शितं
स इदानीमपि महता भक्तियोगेनाराधयतीदं चोदाहरति ||२४||
ॐ
नमो भगवते मुख्यतमाय नमः सत्त्वाय प्राणायौजसे सहसे बलाय महामत्स्याय नम इति ||२५||
अन्तर्बहिश्चाखिललोकपालकैरदृष्टरूपो
विचरस्युरुस्वनः
स
ईश्वरस्त्वं य इदं वशेऽनयन्नाम्ना यथा दारुमयीं नरः स्त्रियम् ||२६||
यं
लोकपालाः किल मत्सरज्वरा हित्वा यतन्तोऽपि पृथक्समेत्य च
पातुं
न शेकुर्द्विपदश्चतुष्पदः सरीसृपं स्थाणु यदत्र दृश्यते ||२७||
भवान्युगान्तार्णव
ऊर्मिमालिनि क्षोणीमिमामोषधिवीरुधां निधिम्
मया
सहोरु क्रमतेऽज ओजसा तस्मै जगत्प्राणगणात्मने नम इति||२८||
रम्यकवर्षमें
भगवान्ने वहाँके अधिपति मनुको पूर्वकालमें अपना परम प्रिय मत्स्यरूप दिखाया था।
मनुजी इस समय भी भगवान् के उसी रूपकी बड़े भक्तिभावसे उपासना करते हैं और इस
मन्त्र [4] का जप करते हुए स्तुति करते हैं—
‘सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल
और शरीरबल ओङ्कारपदके अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान् महामत्स्यको बार-बार नमस्कार है’
॥ २४-२५ ॥
प्रभो
! नट जिस प्रकार कठपुतलियोंको नचाता है, उसी प्रकार आप
ब्राह्मणादि नामोंकी डोरीसे सम्पूर्ण विश्वको अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अत: आप
ही सबके प्रेरक हैं। आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियोंके भीतर प्राणरूपसे और बाहर वायुरूपसे निरन्तर
सञ्चार करते रहते हैं। वेद ही आपका महान् शब्द है ॥ २६ ॥ एक बार इन्द्रादि
इन्द्रियाभिमानी देवताओंको प्राणस्वरूप आपसे डाह हुआ। तब आपके अलग हो जानेपर वे
अलग-अलग अथवा आपसमें मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जङ्गम आदि जितने शरीर दिखायी देते हैं—उनमेंसे
किसीकी बहुत यत्न करनेपर भी रक्षा नहीं कर सके ॥ २७ ॥ अजन्मा प्रभो ! आपने मेरे
सहित समस्त औषध और लताओंकी आश्रयरूपा इस पृथ्वीको लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरङ्गोंसे
युक्त प्रलयकालीन समुद्रमें बड़े उत्साहसे विहार किया था। आप संसारके समस्त
प्राणसमुदायके नियन्ता हैं; मेरा आपको नमस्कार है’ ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
हिरण्मयेऽपि
भगवान्निवसति कूर्मतनुं बिभ्राणस्तस्य तत्प्रियतमां तनुमर्यमा सह वर्षपुरुषैः
पितृगणाधिपतिरुपधावति मन्त्रमिमं चानुजपति ||२९||
ॐ
नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुणविशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वर्ष्मणे
नमो
भूम्ने नमो नमोऽवस्थानाय नमस्ते ||३०||
यद्रूपमेतन्निजमाययार्पितमर्थस्वरूपं
बहुरूपरूपितम्
सङ्ख्या
न यस्यास्त्ययथोपलम्भनात्तस्मै नमस्तेऽव्यपदेशरूपिणे ||३१||
जरायुजं
स्वेदजमण्डजोद्भिदं चराचरं देवर्षिपितृभूतमैन्द्रियम्
द्यौः
खं क्षितिः शैलसरित्समुद्र द्वीपग्रहर्क्षेत्यभिधेय एकः ||३२||
यस्मिन्नसङ्ख्येयविशेषनाम
रूपाकृतौ कविभिः कल्पितेयम्
सङ्ख्या
यया तत्त्वदृशापनीयते तस्मै नमः साङ्ख्यनिदर्शनाय ते इति ||३३||
हिरण्मयवर्षमें
भगवान् कच्छपरूप धारण करके रहते हैं। वहाँके निवासियोंके सहित पितृराज अर्यमा
भगवान्की उस प्रियतम मूर्तिकी उपासना करते हैं और इस मन्त्र[5] को निरन्तर जपते
हुए स्तुति करते हैं ॥ २९ ॥ —
‘जो सम्पूर्ण सत्त्वगुणसे युक्त हैं, जलमें विचरते
रहनेके कारण जिनके स्थानका कोई निश्चय नहीं है तथा जो कालकी मर्यादाके बाहर हैं,
उन ओङ्कारस्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान् कच्छपको बार-बार
नमस्कार है’ ॥ ३० ॥
भगवन्
! अनेक रूपोंमें प्रतीत होनेवाला यह दृश्यप्रपञ्च यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुत: कोई संख्या नहीं है; तथापि यह
मायासे प्रकाशित होनेवाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीयरूप आपको मेरा नमस्कार है
॥ ३१ ॥ एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज,
उद्भिज्ज, जङ्गम, स्थावर,
देवता, ऋषि, पितृगण,
भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग,
आकाश, पृथ्वी, पर्वत,
नदी, समुद्र, द्वीप,
ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हैं ॥ ३२ ॥ आप असंख्य
नाम, रूप और आकृतियोंसे युक्त हैं; कपिलादि
विद्वानोंने जो आपमें चौबीस तत्त्वोंकी संख्या निश्चित की है—वह जिस तत्त्वदृष्टिका उदय होनेपर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुत: आपका ही स्वरूप हैं। ऐसे सांख्यसिद्धान्तस्वरूप आपको मेरा
नमस्कार है’ ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
उत्तरेषु
च कुरुषु भगवान्यज्ञपुरुषः कृतवराहरूप आस्ते तं तु देवी हैषा भूः सह
कुरुभिरस्खलितभक्तियोगेनोपधावति
इमां च परमामुपनिषदमावर्तयति ||३४||
ॐ
नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय यज्ञक्रतवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय नमः
कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते ||३५||
यस्य
स्वरूपं कवयो विपश्चितो गुणेषु दारुष्विव जातवेदसम्
मथ्नन्ति
मथ्ना मनसा दिदृक्षवो गूढं क्रियार्थैर्नम ईरितात्मने ||३६||
द्र
व्यक्रियाहेत्वयनेशकर्तृभिर्मायागुणैर्वस्तुनिरीक्षितात्मने
अन्वीक्षयाङ्गातिशयात्मबुद्धिभिर्निरस्तमायाकृतये
नमो नमः ||३७||
उत्तर
कुरुवर्षमें भगवान् यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। वहाँके
निवासियोंके सहित साक्षात् पृथ्वीदेवी उनकी अविचल भक्तिभावसे उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट
मन्त्र का जप करती हुई स्तुति [6] करती हैं ॥ ३४ ॥ —
‘जिनका तत्त्व मन्त्रोंसे जाना जाता है, जो यज्ञ और
क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अङ्ग हैं—उन
ओङ्कारस्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराहको बार-बार
नमस्कार है’ ॥ ३५ ॥
‘ऋत्विज् गण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठखण्डोंमें छिपी हुई अग्नि को
मन्थनद्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं
कर्मफलकी कामनासे छिपे हुए जिनके रूपको देखनेकी इच्छासे परमप्रवीण पण्डितजन अपने
विवेकयुक्त मनरूप मन्थनकाष्ठसे शरीर एवं इन्द्रियादिको बिलो डालते हैं। इस प्रकार
मन्थन करनेपर अपने स्वरूपको प्रकट करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ विचार तथा
यम-नियमादि योगाङ्गोंके साधनसे जिनकी बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी है—वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियोंके
व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता
(अहंकार) आदि मायाके कार्योंको देखकर जिनके वास्तविक स्वरूपका निश्चय करते हैं ऐसे
मायिक आकृतियोंसे रहित आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
भिन्न-भिन्न
वर्षोंका वर्णन
करोति
विश्वस्थितिसंयमोदयं यस्येप्सितं नेप्सितमीक्षितुर्गुणैः
माया
यथायो भ्रमते तदाश्रयं ग्राव्णो नमस्ते गुणकर्मसाक्षिणे ||३८||
प्रमथ्य
दैत्यं प्रतिवारणं मृधे यो मां रसाया जगदादिसूकरः
कृत्वाग्रदंष्ट्रे
निरगादुदन्वतः क्रीडन्निवेभः प्रणतास्मि तं विभुमिति ||३९||
जिस
प्रकार लोहा जड होनेपर भी चुम्बककी सन्निधिमात्रसे चलने-फिरने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षी की इच्छामात्रसे—जो अपने
लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियोंके लिये होती है—प्रकृति अपने गुणोंके द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय
करती रहती है; ऐसे सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मोंके साक्षी आपको
नमस्कार है ॥ ३८ ॥ आप जगत् के कारणभूत
आदिसूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथीको पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराजके समान क्रीडा करते हुए आप युद्धमें अपने प्रतिद्वन्द्वी
हिरण्याक्ष दैत्यको दलित करके मुझे अपनी दाढ़ोंकी नोकपर रखकर रसातलसे
प्रलय-पयोधिके बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभुको बार-बार नमस्कार करती
हूँ’ ॥ ३९ ॥
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[1]
ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान्
रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा। अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा: ॐ क्षौम्।
[2]
ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान्
रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा। अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा: ॐ क्षौम्।
[3]
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ॐ नमो भगवते हृषीकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्मने आकूतीनां
चित्तीनां चेतसां विशेषाणां चाधिपतये षोडशकलायच्छन्दोमयायान्नमयायामृतमयाय
सर्वमयाय सहसे ओजसे बलाय कान्ताय कामाय नमस्ते उभयत्र भूयात्।
[4]
ॐ नमो भगवते मुख्यतमाय नम: सत्त्वाय प्राणायौजसे सहसे बलाय महामत्स्याय नम इति।
[5]
ॐ नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुणविशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वर्ष्मणे नमो
भूम्ने नमो नमोऽवस्थानाय नमस्ते।
[6]
ॐ नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय यज्ञक्रततवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय नम:
कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते।
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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