शनिवार, 31 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या |
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्  ||२५||
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ||२६||

मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतरसब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है ? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है ॥ २५ ॥ इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होनेपर भी विश्वके रचयिता और विश्वस्वरूप हैंसाथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद-स्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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