॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१७)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
यूयं
नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति
येषां
गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ॥ ७५
॥
स
वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः
प्रियः
सुहृद्वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ॥ ७६
॥
न
यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्
मौनेन
भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ॥ ७७
॥
श्रीशुक
उवाच
इति
देवर्षिणा प्रोक्तं निशम्य भरतर्षभः
पूजयामास
सुप्रीतः कृष्णं च प्रेमविह्वलः ॥ ७८ ॥
कृष्णपार्थावुपामन्त्र्य
पूजितः प्रययौ मुनिः
श्रुत्वा
कृष्णं परं ब्रह्म पार्थः परमविस्मितः ॥ ७९ ॥
इति
दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशा प्रकीर्तिताः
देवासुरमनुष्याद्या
लोका यत्र चराचराः ॥ ८० ॥
युधिष्ठिर
! इस मनुष्यलोक में तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण
करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि
बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ७५ ॥
बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो
मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी,
गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ७६ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन,
भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा
स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥ ७७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त
आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा
की ॥ ७८ ॥ देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके
द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिरके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ७९ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार
मैंने तुम्हें दक्ष-पुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हींके वंशमें
देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण
चराचरकी सृष्टि हुई है ॥ ८० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम
पञ्चदशोऽध्यायः
॥
इति सप्तम स्कन्ध समाप्त ॥
॥
हरि: ॐ तत्सत् ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌸🍂🌷जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏