जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
हनुमान जी में दास्य भक्ति
“ सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ||”
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ||”
भगवान् के गुण,तत्व, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना दास्य भक्ति है |
मंदिरों में भगवान् के विग्रहों की सेवा करना, मंदिर-मार्जनादी करना, मन से प्रभु के स्वरुप का ध्यान करके उनकी सेवा करना सम्पूर्ण चराचर को प्रभु का स्वरुप समझकर,सब की यथाशक्ति, यथायोग्य सेवा करना, गीता आदि शास्त्रों को भगवान् की आज्ञा मानकर उसके अनुसार आचरण करना और जो कर्म भगवान् की रूचि, प्रसन्नता और इच्छा के अनुकूल हों उन्हीं कर्मों को करना, ये सभी दास्य भक्ति के प्रकार हैं |
भगवान् के रहस्य जानने वाले प्रेमी भक्तों के संग और सेवन से दास्य भक्ति की प्राप्ति होती है |
भगवान् में अनन्य प्रेम की प्राप्ति और नित्य-निरंतर सेवा के लिए भगवान् के समीप रहने के उद्देश्य से दास्य भक्ति की जाती है |
भगवान् में अनन्य प्रेम की प्राप्ति और नित्य-निरंतर सेवा के लिए भगवान् के समीप रहने के उद्देश्य से दास्य भक्ति की जाती है |
केवल इस दास्य भक्ति से भी मनुष्य को सहज ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है |
गोस्वामी जी तो कहते हैं कि दास्य-भक्ति के बिना भाव-सागर से उद्धार ही नहीं हो सकता ---
“सेवक सेब्य भाव बिनु भाव न तरिअ उरगारि |
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत विचारि ||”
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत विचारि ||”
श्री लक्ष्मण, हनुमान, अंगद आदि इस दास्य-भक्ति के आदर्श उदाहरण हैं |
हनुमान जी का तो सारा जीवन ही दास्य-भक्ति से ओत-प्रोत है | प्रथम ही ऋष्यमूक पर्वत पर भगवान् श्रीराम चन्द्र जी को पहचानकर हनुमान जी कहते हैं ------
“एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान |
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान् ||”
जदपि नाथ बहु अवगुण मोरे | सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा | सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||
सेवक सुत पति मातु भरोंसे | रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||”
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान् ||”
जदपि नाथ बहु अवगुण मोरे | सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा | सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||
सेवक सुत पति मातु भरोंसे | रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||”
भगवान् भी अपनी सेवक वत्सलता का परिचय देते हुए हनुमान जी को उठाकर हृदय से लगा लेते हैं और प्रेमाश्रुओं से उनके अंगों का सिंचन करते हुए कहते हैं ---
“सुनु कपि जियँ मानसी जी ऊना | तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ | सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ ||”
समदरसी मोहि कह सब कोऊ | सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ ||”
दास्य-भक्ति का भक्त अपने स्वामी की कृपा का कितना विश्वासी होता है, इसके सम्बन्ध में हनुमान जी ने विभीषण से जो कुछ कहा वह स्मरण रखने योग्य है –
“सुनहु विभीषण प्रभु कै रीती | करहीं सदा सेवक पर प्रीती ||
कहहु कवन मैं परम कुलीना | कपि चंचल सब विधि हीना ||”
“अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर |
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे विलोचन नीर ||”
कहहु कवन मैं परम कुलीना | कपि चंचल सब विधि हीना ||”
“अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर |
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे विलोचन नीर ||”
मंगल भवन अमंगल हारी | द्रवहुं सो दशरथ अजिर बिहारि ||
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम !!
(नवधा भक्ति-पुस्तक कोड २९२,गीताप्रेस,गोरखपुर)
🌼🍂🌾 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंदीन दयाल विरद संभारी
हरहुं नाथ मम संकट भारी
जय श्री सीताराम