शनिवार, 16 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीशुक उवाच -
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः ।
रक्षां इच्छन् तनु धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥ ५ ॥
उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः ।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ॥ ६ ॥
आसीद् अतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप ॥ ७ ॥
कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली ।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ॥ ८ ॥
ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम् ।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यों तो भगवान्‌ सब के एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थ की रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं ॥ ५ ॥ वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परंतु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहितनिर्गुण हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ॥ ७ ॥ प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ॥ ८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरिने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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