मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

दग्ध्वाऽऽत्मकृत्यहतकृत्यमहन् कबन्धं ।
सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः ॥
बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्यैः ।
वेलामगात् स मनुजोऽजभवार्चिताङ्‌घ्रि ॥ १२ ॥
यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात ।
सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः ॥
सिन्धुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी ।
पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३ ॥
न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन् ।
कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ॥
यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा ।
मन्योश्च भूतपतयः स भवान्गुणेशः ॥ १४ ॥
कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं ।
त्रैलोक्य रावणमवाप्नुहि वीर पत्‍नीम् ॥
बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै ।
गायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः ॥ १५ ॥

इसके बाद भगवान्‌ ने उस जटायुका दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्मसे पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान्‌ ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरोंसे मित्रता करके वालिका वध किया, तदनन्तर वानरोंके द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शङ्कर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, वे भगवान्‌ श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरोंकी सेनाके साथ समुद्रतटपर पहुँचे ॥ १२ ॥ (वहाँ उपवास और प्रार्थनासे जब समुद्रपर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान्‌ ने क्रोधकी लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्रपर डाली। उसी समय समुद्रके बड़े-बड़े मगर और कच्छ खलबला उठे। डर जानेके कारण समुद्रकी सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिरपर बहुत-सी भेंटें लेकर भगवान्‌ के चरणकमलों की शरणमें आया और इस प्रकार कहने लगा ॥ १३ ॥ अनन्त ! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। जानें भी कैसे ? आप समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत्के समस्त परिवर्तनों में एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणों के स्वामी हैं । इसलिये जब आप सत्त्वगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओं की, रजोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियों की और तमोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब आप के क्रोध से रुद्रगण की उत्पत्ति होती है ॥ १४ ॥ वीरशिरोमणे ! आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकी को रुलानेवाले विश्रवा के कुपूत रावण को मारकर अपनी पत्नी को फिर से प्राप्त कीजिये। परंतु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आप के यश का विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यश का गान करेंगे ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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