रविवार, 31 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

क्रीणीहि भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः ।
फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रदः ॥ १० ॥
फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम् ।
फलैरपूरयद् रत्‍नैः फलभाण्डमपूरि च ॥ ॥
सरित्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाह्वयत् ।
रामं च रोहिणी देवी क्रीडन्तं बालकैर्भृशम् ॥ १२ ॥
नोपेयातां यदाऽऽहूतौ क्रीडासङ्‌गेन पुत्रकौ ।
यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम् ॥ १३ ॥
क्रीडन्तं सा सुतं बालैः अतिवेलं सहाग्रजम् ।
यशोदाजोहवीत् कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥ १४ ॥
कृष्ण कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।
अलं विहारैः क्षुत्क्षान्तः क्रीडाश्रान्तोऽसि पुत्रक ॥ १५ ॥
हे रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनन्दन ।
प्रातरेव कृताहारः तद् भवान् भोक्तुमर्हति ॥ १६ ॥
प्रतीक्षते त्वां दाशार्ह भोक्ष्यमाणो व्रजाधिपः ।
एह्यावयोः प्रियं धेहि स्वगृहान् यात बालकाः ॥ १७ ॥
धूलिधूसरिताङ्‌गस्त्वं पुत्र मज्जनमावह ।
जन्मर्क्षमद्य भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः ॥ १८ ॥
पश्य पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान् स्वलङ्‌कृतान् ।
त्वं च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलङ्‌कृतः ॥ १९ ॥
इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं
मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नृप ।
हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतं
नीत्वा स्ववाटं कृतवत्यथोदयम् ॥ २० ॥

एक दिन कोई फल बेचनेवाली आकर पुकार उठी—‘फल लो फल ! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओंके फल देनेवाले भगवान्‌ अच्युत फल खरीदनेके लिये अपनी छोटी-सी अंजलियोंमें अनाज लेकर दौड़ पड़े ॥ १० ॥ उनकी अंजलिमेंसे अनाज तो रास्तेमें ही बिखर गया, पर फल बेचनेवालीने उनके दोनों हाथ फलसे भर दिये । इधर भगवान्‌ने भी उसकी फल रखनेवाली टोकरी रत्नोंसे भर दी ॥ ११ ॥ तदनन्तर एक दिन यमलार्जुन वृक्षको तोडऩेवाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकोंके साथ खेलते-खेलते यमुनातटपर चले गये और खेलमें ही रम गये, तब रोहिणीदेवीने उन्हें पुकारा ओ कृष्ण ! ओ बलराम ! जल्दी आओ॥ १२ ॥ परंतु रोहिणीके पुकारनेपर भी वे आये नहीं; क्योंकि उनका मन खेलमें लग गया था । जब बुलानेपर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणीजीने वात्सल्यस्नेहमयी यशोदाजीको भेजा ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण और बलराम ग्वालबालकोंके साथ बहुत देरसे खेल रहे थे, यशोदाजीने जाकर उन्हें पुकारा । उस समय पुत्रके प्रति वात्सल्य-स्नेहके कारण उनके स्तनोंमेंसे दूध चुचुआ रहा था ॥ १४ ॥ वे जोर-जोरसे पुकारने लगीं—‘मेरे प्यारे कन्हैया ! ओ कृष्ण ! कमलनयन ! श्यामसुन्दर ! बेटा ! आओ, अपनी माका दूध पी लो । खेलते-खेलते थक गये हो बेटा ! अब बस करो । देखो तो सही, तुम भूखसे दुबले हो रहे हो ॥ १५ ॥ मेरे प्यारे बेटा राम ! तुम तो समूचे कुलको आनन्द देनेवाले हो । अपने छोटे भाईको लेकर जल्दीसे आ जाओ तो ! देखो, भाई ! आज तुमने बहुत सबेरे कलेऊ किया था । अब तो तुम्हें कुछ खाना चाहिये ॥ १६ ॥ बेटा बलराम ! व्रजराज भोजन करनेके लिये बैठ गये हैं; परंतु अभीतक तुम्हारी बाट देख रहे हैं । आओ, अब हमें आनन्दित करो । बालको ! अब तुमलोग भी अपने-अपने घर जाओ ॥ १७ ॥ बेटा ! देखो तो सही, तुम्हारा एक-एक अङ्ग धूलसे लथपथ हो रहा है । आओ, जल्दीसे स्नान कर लो । आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र है । पवित्र होकर ब्राह्मणोंको गोदान करो ॥ १८ ॥ देखो-देखो ! तुम्हारे साथियोंको उनकी माताओंने नहला-धुलाकर, मींज-पोंछकर कैसे सुन्दर-सुन्दर गहने पहना दिये हैं । अब तुम भी नहा-धोकर, खा-पीकर, पहन- ओढक़र तब खेलना॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! माता यशोदाका सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धनसे बँधा हुआ था । वे चराचर जगत्के शिरोमणि भगवान्‌को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर एक हाथसे बलराम तथा दूसरे हाथसे श्रीकृष्णको पकडक़र अपने घर ले आयीं । इसके बाद उन्होंने पुत्रके मङ्गलके लिये जो कुछ करना था, वह बड़े प्रेमसे किया ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

गोकुल से वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

श्रीशुक उवाच ।
गोपा नन्दादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो रवम् ।
तत्राजग्मुः कुरुश्रेष्ठ निर्घातभयशङ्‌किताः ॥ १ ॥
भूम्यां निपतितौ तत्र ददृशुर्यमलार्जुनौ ।
बभ्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम् ॥ २ ॥
उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं च बालकम् ।
कस्येदं कुत आश्चर्यं उत्पात इति कातराः ॥ ३ ॥
बाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतं उलूखलम् ।
विकर्षता मध्यगेन पुरुषौ अपि अचक्ष्महि ॥ ४ ॥
न ते तदुक्तं जगृहुः न घटेतेति तस्य तत् ।
बालस्योत्पाटनं तर्वोः केचित् संदिग्धचेतसः ॥ ५ ॥
उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम् ।
विलोक्य नन्दः प्रहसद् वदनो विमुमोच ह ॥ ६ ॥
गोपीभिः स्तोभितोऽनृत्यद् भगवान् बालवत् क्वचित् ।
उद्‍गायति क्वचिन्मुग्धः तद्वशो दारुयन्त्रवत् ॥ ७ ॥
बिभर्ति क्वचिदाज्ञप्तः पीठकोन्मानपादुकम् ।
बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन् ॥ ८ ॥
दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम् ।
व्रजस्योवाह वै हर्षं भगवान् बालचेष्टितैः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वृक्षोंके गिरनेसे जो भयङ्कर शब्द हुआ था, उसे नन्दबाबा आदि गोपोंने भी सुना । उनके मनमें यह शङ्का हुई कि कहीं बिजली तो नहीं गिरी ! सब-के-सब भयभीत होकर वृक्षोंके पास आ गये ॥ १ ॥ वहाँ पहुँचनेपर उन लोगोंने देखा कि दोनों अर्जुनके वृक्ष गिरे हुए हैं । यद्यपि वृक्ष गिरनेका कारण स्पष्ट थावहीं उनके सामने ही रस्सीमें बँधा हुआ बालक ऊखल खींच रहा था, परंतु वे समझ न सके। यह किसका काम है, ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटना कैसे घट गयी ?’—यह सोचकर वे कातर हो गये, उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ॥ २-३ ॥ वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे । उन्होंने कहा—‘अरे, इसी कन्हैयाका तो काम है । यह दोनों वृक्षोंके बीचमेंसे होकर निकल रहा था । ऊखल तिरछा हो जानेपर दूसरी ओरसे इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े । हमने तो इनमेंसे निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं. ॥ ४ ॥ परंतु गोपोंने बालकों की बात नहीं मानी । वे कहने लगे—‘एक नन्हा-सा बच्चा इतने बड़े वृक्षों को उखाड़ डाले, यह कभी सम्भव नहीं है ।किसी-किसी के चित्त में श्रीकृष्ण की पहले की लीलाओं का स्मरण करके सन्देह भी हो आया ॥ ५ ॥ नन्दबाबा ने देखा, उनका प्राणोंसे प्यारा बच्चा रस्सी से बँधा हुआ ऊखल घसीटता जा रहा है । वे हँसने लगे और जल्दी से जाकर उन्होंने रस्सी की गाँठ खोल दी ॥ ६ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ कभी-कभी गोपियोंके फुसलानेसे साधारण बालकोंके समान नाचने लगते । कभी भोले-भाले अनजान बालककी तरह गाने लगते । वे उनके हाथकी कठपुतलीउनके सर्वथा अधीन हो गये ॥ ७ ॥ कभी उनकी आज्ञासे पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलनेके बटखरे उठा लाते । कभी खड़ाऊँ ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिये पहलवानों की भाँति ताल ठोंकने लगते ॥ ८ ॥ इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ अपनी बाल-लीलाओंसे व्रजवासियोंको आनन्दित करते और संसारमें जो लोग उनके रहस्यको जाननेवाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकोंके वशमें हूँ ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शनिवार, 30 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

यमलार्जुन का उद्धार

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
आत्मद्योतगुणैश्छन्न महिम्ने ब्रह्मणे नमः ॥ ३३ ॥
यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।
तैस्तैरतुल्यातिशयैः वीर्यैर्देहिष्वसङ्‌गतैः ॥ ३४ ॥
स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।
अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥ ३५ ॥
नमः परमकल्याण नमः परममङ्‌गल ।
वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः ॥ ३६ ॥
अनुजानीहि नौ भूमन् तवानुचरकिङ्‌करौ ।
दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥ ३७ ॥
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः ।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥ ३८ ॥

श्रीशुक उवाच ।
इत्थं सङ्‌कीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः ।
दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ ॥ ३९ ॥

श्रीभगवानुवाच ।
ज्ञातं मम पुरैवैतद् ऋषिणा करुणात्मना ।
यत् श्रीमदान्धयोर्वाग्भिः विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः ॥ ४० ॥
साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो भवेद्‍बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥ ४१ ॥
तद्‍गच्छतं मत्परमौ नलकूबर सादनम् ।
सञ्जातो मयि भावो वां ईप्सितः परमोऽभवः ॥ ४२ ॥

श्रीशुक उवाच ।
इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥ ४३ ॥

समस्त प्रपञ्च के विधाता भगवान्‌ वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं । प्रभो ! आपके द्वारा प्रकाशित होनेवाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है । परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ आप प्राकृत शरीरसे रहित हैं । फिर भी जब आप ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियोंके लिये शक्य नहीं है और जिनसे बढक़र तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आप के अवतारों का पता चल जाता है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप ही समस्त लोकोंके अभ्युदय और नि:श्रेयसके लिये इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंसे अवतीर्ण हुए हैं । आप समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ३५ ॥ परम कल्याण (साध्य) स्वरूप ! आपको नमस्कार है । परम मङ्गल (साधन) स्वरूप ! आपको नमस्कार है । परम शान्त, सबके हृदयमें विहार करनेवाले यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ अनन्त ! हम आपके दासानुदास हैं । आप यह स्वीकार कीजिये । देवर्षि भगवान्‌ नारदके परम अनुग्रहसे ही हम अपराधियोंको आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ३७ ॥ प्रभो ! हमारी वाणी आपके मङ्गलमय गुणोंका वर्णन करती रहे । हमारे कान आपकी रसमयी कथामें लगे रहें । हमारे हाथ आपकी सेवामें और मन आपके चरण-कमलोंकी स्मृतिमें रम जायँ । यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास-स्थान है । हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे । संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं । हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें ॥ ३८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंसौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्णने नलकूबर और मणिग्रीवके इस प्रकार स्तुति करनेपर रस्सीसे ऊखलमें बँधे-बँधे ही हँसते हुए [8] उनसे कहा॥ ३९ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहातुमलोग श्रीमदसे अंधे हो रहे थे । मैं पहलेसे ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारदने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की ॥ ४० ॥ जिनकी बुद्धि समदॢशनी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ॥ ४१ ॥ इसलिये नलकूबर और मणिग्रीव ! तुमलोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ । तुमलोगोंको संसारचक्रसे छुड़ानेवाले अनन्य भक्तिभावकी, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है ॥ ४२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब भगवान्‌ ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनों ने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया । इसके बाद ऊखलमें बँधे हुए सर्वेश्वर की आज्ञा प्राप्त करके उन लोगों ने उत्तर दिशाकी यात्रा की[9] ॥ ४३ ॥
.........................................
[8] सर्वदा मैं मुक्त रहता हूँ और बद्ध जीव मेरी स्तुति करते हैं । आज मैं बद्ध हूँ और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं । यह विपरीत दशा देखकर भगवान्‌ को हँसी आ गयी ।
[9] यक्षोंने विचार किया कि जबतक यह सगुण (रस्सी) में बँधे हुए हैं, तभीतक हमें इनके दर्शन हो रहे हैं । निर्गुणको तो मनसे सोचा भी नहीं जा सकता । इसीसे भगवान्‌ के बँधे रहते ही वे चले गये ।

स्वस्त्यस्तु उलूखल सर्वदा श्रीकृष्णगुणशाली एव भूया:।

ऊखल ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सदा श्रीकृष्ण के गुणों से बँधे रहो।’—ऐसा ऊखल को आशीर्वाद देकर यक्ष वहाँ से चले गये।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

यमलार्जुन का उद्धार

देवर्षिर्मे प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।
तत्तथा साधयिष्यामि यद्‍गीतं तन्महात्मना ॥ २५ ॥
इत्यन्तरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतं उलूखलम् ॥ २६ ॥
बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्
दामोदरेण तरसोत्कलिताङ्‌घ्रिबन्धौ ।
निष्पेततुः परमविक्रमितातिवेप
स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ ॥ २७ ॥
तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः ।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली विरजसाविदमूचतुः स्म ॥ २८ ॥
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् त्वमाद्यः पुरुषः परः ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥ २९ ॥
त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः ।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः ॥ ३० ॥
त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी ।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥ ३१ ॥
गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः ।
को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्‌सिद्धं गुणसंवृतः ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ ने सोचा कि देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेरके लडक़े हैं । इसलिये महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूपमें पूरा करूँगा’[5] ॥ २५ ॥ यह विचार करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीचमें घुस गये[6] । वे तो दूसरी ओर निकल गये, परंतु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया ॥ २६ ॥ दामोदर भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी । उन्होंने अपने पीछे लुढक़ते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक जोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं[7] । समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान्‌ का तनिक-सा जोर लगते ही पेड़ोंके तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े जोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ २७ ॥ उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले । उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं । उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास आकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोडक़र शुद्ध हृदयसे वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे॥ २८ ॥
उन्होंने कहासच्चिदानन्दघनस्वरूप ! सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण ! आप प्रकृतिसे अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं । वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत् आपका ही रूप है ॥ २९ ॥ आप ही समस्त प्राणियोंके शरीर, प्राण, अन्त:करण और इन्द्रियोंके स्वामी हैं । तथा आप ही सर्वशक्तिमान् काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं ॥ ३० ॥ आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है । आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके साक्षी परमात्मा हैं ॥ ३१ ॥ वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले प्रकृतिके गुणों और विकारोंके द्वारा आप पकड़में नहीं आ सकते । स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके ? क्योंकि आप तो उन शरीरोंके पहले भी एकरस विद्यमान थे ॥ ३२ ॥
....................................
[5] भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी कृपादृष्टिसे उन्हें मुक्त कर सकते थे । परंतु वृक्षोंके पास जानेका कारण यह है कि देवर्षि नारदने कहा था कि तुम्हें वासुदेवका सान्निध्य प्राप्त होगा ।
[6] वृक्षोंके बीचमें जानेका आशय यह है कि भगवान्‌ जिसके अन्तर्देशमें प्रवेश करते हैं, उसके जीवनमें क्लेशका लेश भी नहीं रहता । भीतर प्रवेश किये बिना दोनोंका एक साथ उद्धार भी कैसे होता ।
[7] जो भगवान्‌ के गुण (भक्त-वात्सल्य आदि सद्गुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, वह तिर्यक् गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चालवाला) ही क्यों न होदूसरोंका उद्धार कर सकता है । अपने अनुयायीके द्वारा किया हुआ काम जितना यशस्कर होता है, उतना अपने हाथसे नहीं। मानो यही सोचकर अपने पीछे-पीछे चलनेवाले ऊखलके द्वारा उनका उद्धार करवाया।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शुक्रवार, 29 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

यमलार्जुन का उद्धार

यथा कण्टकविद्धाङ्‌गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम् ।
जीवसाम्यं गतो लिङ्‌गैः न तथाविद्धकण्टकः ॥ १४ ॥
दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह ।
कृच्छ्रं यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः ॥ १५ ॥
नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्‌क्षिणः ।
इन्द्रियाणि अनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥ १६ ॥
दरिद्रस्यैव युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः ।
सद्‍भिः क्षिणोति तं तर्षं तत आराद्विशुद्ध्यति ॥ १७ ॥
साधूनां समचित्तानां मुकुन्द चरणैषिणाम् ।
उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैः असद्‌भिः असदाश्रयैः ॥ १८ ॥
तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः ।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोः अजितात्मनोः ॥ १९ ॥
यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।
न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ ॥ २० ॥
अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।
स्मृतिः स्यात् मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात् ॥ २१ ॥
वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।
वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः ॥ २२ ॥

श्रीशुक उवाच ।
एवमुक्त्वा स देवर्षिः गतो नारायणाश्रमम् ।
नलकूवरमणिग्रीवौ आसतुः यमलार्जुनौ ॥ २३ ॥
ऋषेर्भागवत मुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः ।
जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥ २४ ॥

जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गडऩे की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होनेवाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है । परंतु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता ॥ १४ ॥ दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है । बल्कि दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिये एक बहुत बड़ी तपस्या भी है ॥ १५ ॥ जिसे प्रतिदिन भोजनके लिये अन्न जुटाना पड़ता है, भूखसे जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्रकी इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगोंके लिये दूसरे प्राणियोंको सताता नहींउनकी हिंसा नहीं करता ॥ १६ ॥ यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्रके लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहलेसे ही छूटे हुए हैं । अब संतोंके सङ्गसे उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है [2] ॥ १७ ॥ जिन महात्माओंके चित्तमें सबके लिये समता है, जो केवल भगवान्‌ के चरणारविन्दोंका  मकरन्द-रस पीनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणोंके खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलानेवाले और धनके मदसे मतवाले दुष्टोंकी क्या आवश्यकता है ? वे तो उनकी उपेक्षाके ही पात्र हैं [3] ॥ १८ ॥ ये दोनों यक्ष वारुणी मदिराका पान करके मतवाले और श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं । अपनी इन्द्रियोंके अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षोंका अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥ १९ ॥ देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेरके पुत्र होनेपर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बातका भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धड़ंग हैं ॥ २० ॥ इसलिये ये दोनों अब वृक्षयोनिमें जानेके योग्य हैं। ऐसा होनेसे इन्हें फिर इस प्रकारका अभिमान न होगा। वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवान्‌ की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओंके सौ वर्ष बीतनेपर इन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णका सान्ङ्क्षनध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान्‌ के चरणोंमें परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोकमें चले आयेंगे ॥ २१-२२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंदेवर्षि नारद इस प्रकार कहकर भगवान्‌ नर-नारायण के आश्रमपर चले गये[4] । नलकूबर और मणिग्रीवये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारदजी की बात सत्य करने के लिये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे
॥ २४ ॥
................................................
[2] धनी पुरुष में तीन दोष होते हैंधन, धनका अभिमान और धनकी तृष्णा । दरिद्र पुरुषमें पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है । इसलिये सत्पुरुषों के सङ्ग से धनकी तृष्णा मिट जानेपर धनियों की अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है ।
[3] धन स्वयं एक दोष है । सातवें स्कन्ध में कहा है कि जितने से पेट भर जाय, उससे अधिक को अपना माननेवाला चोर है और दण्डका पात्र है—‘स स्तेनो दण्डमहर्ति ।भगवान्‌ भी कहते हैंजिसपर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ । इसीसे सत्पुरुष प्राय: धनियोंकी उपेक्षा करते हैं ।
[4] १. शाप-वरदान से तपस्या क्षीण होती है । नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देनेके पश्चात् नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करनेका यह अभिप्राय है कि फिरसे तप:सञ्चय कर लिया जाय ।
२. मैंने यक्षोंपर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्याके पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये ।
३. अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायणके सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करनेके लिये ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

यमलार्जुन का उद्धार

श्रीनारद उवाच ।
न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान् बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः ।
श्रीमदादाभिजात्यादिः यत्र स्त्री द्यूतमासवः ॥ ८ ॥
हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैः अजितात्मभिः ।
मन्यमानैरिमं देहः अजरामृत्यु नश्वरम् ॥ ९ ॥
देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड् भस्मसंज्ञितम् ।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ १० ॥
देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।
मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा ॥ ११ ॥
एवं साधारणं देहं अव्यक्त प्रभवाप्ययम् ।
को विद्वान् आत्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः ॥ १२ ॥
असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम् ।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ॥ १३ ॥

नारदजीने कहाजो लोग अपने प्रिय विषयोंका सेवन करते हैं, उनकी बुद्धिको सबसे बढक़र नष्ट करनेवाला है श्रीमदधन-सम्पत्तिका नशा । हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदिका अभिमान भी उससे बढक़र बुद्धि-भ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमदके साथ-साथ तो स्त्री, जूआ और मदिरा भी रहती है ॥ ८ ॥ ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही-जैसे शरीरवाले पशुओं की हत्या करते हैं ॥ ९ ॥ जिस शरीरको भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देवआदि नामोंसे पुकारते हैंउसकी अन्तमें क्या गति होगी ? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राखका ढेर बन जायगा । उसी शरीरके लिये प्राणियोंसे द्रोह करनेमें मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है ? ऐसा करनेसे तो उसे नरककी ही प्राप्ति होगी ॥ १० ॥ बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है ? अन्न देकर पालनेवालेकी है या गर्भाधान करानेवाले पिताकी ? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखनेवाली माताका है अथवा माताको भी पैदा करनेवाले नानाका ? जो बलवान् पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेनेवालेका ? चिताकी जिस धधकती आगमें यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार इसको चीथ-चीथकर खा जानेकी आशा लगाये बैठे हैं, उनका ? ॥ ११ ॥ यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृतिसे पैदा होता है और उसीमें समा जाता है । ऐसी स्थितिमें मूर्ख पशुओंके सिवा और ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो इसको अपना आत्मा मानकर दूसरोंको कष्ट पहुँचायेगा, उनके प्राण लेगा ॥ १२ ॥ जो दुष्ट श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखोंमें ज्योति डालनेके लिये दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...