#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
बाला
ऊचुः -
प्रेंखस्थोऽयं क्षिपन्पादौ रुदन्दुग्धार्थमेव हि ।
तताड पादं शकटे तेनेदं पतितं खलु ॥१४॥
श्रद्धां न चक्रुर्बालोक्ते गोपा गोप्यश्च विस्मिताः ।
त्रैमासिकः क्व बालोऽयं क्व चैतद्भारभृत्त्वनः ॥१५॥
बालमंके सा गृहित्वा यशोदा ग्रहशंकिता ।
कारयामास विधिवद्यज्ञं विप्रैः सुतर्पितैः ॥१६॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं तु कुशली दैत्य उत्कचनामभाक् ।
अहो कृष्णपदस्पर्शाद्गतो मोक्षं महामुने ॥१७॥
श्रीनारद उवाच -
हिरण्याक्षसुतो दैत्य उत्कचो नाम मैथिल ।
लोमशस्याश्रमे गच्छन् वृक्षांश्चूर्णीचकार ह ॥१८॥
तं दृष्ट्वा स्थूलदेहाढ्यमुत्कचाख्यं महाबलम् ।
शशाप रोषयुग्विप्रो विदेहो भव दुर्मते ॥१९॥
सर्पकंचुकवद्देहोऽपतत्कर्मविपाकतः ।
सद्यस्तच्चरणोपांते पतित्वा प्राह दैत्यराट् ॥२०॥
उत्कच उवाच -
हे मुने हे कृपासिंधो कृपां कुरु ममोपरि ।
ते प्रभावं न जानामि देहं मे देहि हे प्रभो ॥२१॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्दृष्टं नयशतं विधेः ।
सतां रोषोऽपि वरदो वरो मोक्षार्थदः किमु ॥२२॥
श्रीलोमश उवाच -
वातदेहस्तु ते भूयातद्व्यतीते चाक्षुषांतरे ।
वैवस्वतांतरे मुक्तिः भविता च पदा हरेः ॥२३॥
बालकोंने
कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही
पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट
गया । व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी
आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे- 'कहाँ तो तीन महीनेका यह
छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !' यशोदाको
यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें
लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको
धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥। १४ – १६ ॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा- महामुने ! इस 'उत्कच' नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका
भागी हो गया ? ॥ १७ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह
लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया । स्थूलदेहसे
युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- 'दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।' उसी कर्मके परिपाकसे
उसका वह शरीर सर्प- शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव
मुनिके चरणों में गिर पड़ा और बोला ॥। १८ - २० ॥
उत्कचने
कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । भगवन् ! मैंने आपके
प्रभावको नहीं जाना । आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ
नीतियाँ देखी हैं, अर्थात् जिनके सामने
सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता
है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या
है ॥२२॥
लोमशजी
बोले - चाक्षुष - मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत-
मन्वन्तर आयेगा । उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान् श्रीकृष्णके
चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ।। २३ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से