श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
दामोदर कृष्णका
उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
श्रीनारद
उवाच -
एकदा गोकुले गोप्यो ममंथुर्दधि सर्वतः ।
गृहे गृहे प्रगायन्त्यो गोपालचरितं परम् ॥१॥
यशोदापि समुत्थाय प्रातः श्रीनंदमंदिरे ।
भांडे रायं विनिक्षिप्य ममंथ दधि सुंदरी ॥२॥
मंजीररावं संकुर्वन्बालः श्रीनंदनंदनः ।
ननर्त्त नवनीतार्थं रायःशब्दकुतूहलात् ॥३॥
बालकेलिर्बभौ नृत्यन्मातुः पार्श्वमनुभ्रमन् ।
सुनादिकिंकिणीसंघ झंकारं कारयन्मुहुः ॥४॥
हैयंगवीनं सततं नवीनं
याचन्स मातुर्मधुरं ब्रुवन्सः ।
आदाय हस्तेऽश्मसुतं रुषा सुधी-
र्बिभेद कृष्णो दधिमंथपात्रम् ॥५॥
पलायमानं स्वसुतं यशोदा
प्रभावती प्राप न हस्तमात्रात् ।
योगीश्वराणामपि यो दुरापः
कथं स मातुर्ग्रहणे प्रयाति ॥६॥
तथापि भक्तेषु च भक्तवश्यता
प्रदर्शिता श्रीहरिणा नृपेश्वर ।
बालं गृहीत्वा स्वसुतं यशोमती
बबंध रज्ज्वाथ रुषा ह्युलूखले ॥७॥
आदाय यद्यद्बहुदाम तत्त-
त्स्वल्पं प्रभूतं स्वसुते यशोदा ।
गुणैर्न बद्धः प्रकृतेः परो यः
कथं स बद्धो भवतीह दाम्ना ॥८॥
यदा यशोदा गतबन्धनेच्छा
खिन्ना निषण्णा नृप खिन्नमानसा ।
आसीत्तदायं कृपया स्वबंधे
स्वच्छंदयानः स्ववशोऽपि कृष्णः ॥९॥
एष प्रसादो न हि वीरकर्मणां
न ज्ञानिनां कर्मधियां कुतः पुनः ।
मातुर्यथाऽभून्नृप एषु तस्मा-
न्मुक्तिं व्यधाद्भक्तिमलं न माधवः ॥१०॥
तदैव गोप्यस्तु समागतास्त्वरं
दृष्ट्वाथ भग्नं दधिमंथभाजनम् ।
उलूखले बद्धमतीव दामभि-
र्भीतं शिशुं वीक्ष्य जगुर्घृणातुराः ॥११॥
गोप्य ऊचुः -
अस्मद्गृहेषु पात्राणि भिनत्ति सततं शिशुः ।
तदप्येनं नो वदामः कारुण्यान्नंदगेहिनि ॥१२॥
गतव्यथे ह्यकरुणे यशोदे हे व्रजेश्वरि ।
यष्ट्या निर्भर्त्सितो बालस्त्वया बद्धो घटक्षयात् ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक समय गोपाङ्गनाएँ घर-घरमें गोपालकी लीलाएँ गाती हुई गोकुलमें
सब ओर दधि-मन्थन कर रही थीं। श्रीनन्द - मन्दिरमें सुन्दरी यशोदाजी भी प्रातःकाल
उठकर दहीके भाण्डमें रई डालकर उसे मथने लगीं ।। १-२ ॥
मथानी
की आवाज सुनकर बालक श्रीनन्दनन्दन भी नवनीतके लिये कौतूहलवश मञ्जीरकी मधुर ध्वनि
प्रकट करते हुए नाचने लगे। माताके पास बाल- क्रीडापरायण श्रीकृष्ण बार-बार चक्कर
लगाते और नाचते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे और बजती हुई करधनीके घुघुरुओंकी मधुर
झंकार बारंबार फैला रहे थे ।। ३-४ ॥
वे
माता से मीठे वचन बोलकर ताजा निकाला हुआ माखन माँग रहे थे। जब वह उन्हें नहीं मिला,
तब वे कुपित हो उठे और एक पत्थर का टुकड़ा लेकर उसके द्वारा दही
मथने का पात्र फोड़ दिया। ऐसा करके वे भाग चले । यशोदाजी भी अपने पुत्रको पकड़ने के
लिये पीछे- पीछे दौड़ीं। वे उनसे एक ही हाथ आगे थे, किंतु वे
उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। जो योगीश्वरों के लिये भी दुर्लभ हैं, वे माता की पकड़ में कैसे आ सकते थे ॥ ५-६॥
नृपेश्वर
! तथापि श्रीहरिने भक्तोंके प्रति अपनी भक्तवश्यता दिखायी,
इसलिये वे जान-बूझकर माता के हाथ आ गये। अपने बालक- पुत्र को पकड़कर
यशोदा ने रोषपूर्वक ऊखलमें बाँधना आरम्भ किया। वे जो-जो बड़ी से बड़ी रस्सी उठातीं,
वही वही उनके पुत्रके लिये कुछ छोटी पड़ जाती थी। जो प्रकृतिके
तीनों गुणोंसे न बँध सके, वे प्रकृतिसे परे विद्यमान
परमात्मा यहाँके गुणसे (रस्सीसे) कैसे बँध सकते थे ? ॥ ७-८ ॥
हे
राजन् ! जब यशोदा बाँधते- बाँधते थक गयीं और हतोत्साह होकर बैठ रहीं तथा बाँधनेकी
इच्छा भी छोड़ बैठीं, तब ये स्वच्छन्दगति
भगवान् श्रीकृष्ण स्ववश होते हुए भी कृपा करके माताके बन्धनमें आ गये। भगवान् की
ऐसी कृपा कर्मत्यागी ज्ञानियोंको भी नहीं मिल सकी; फिर जो
कर्ममें आसक्त हैं, उनको तो मिल ही कैसे सकती है। यह भक्तिका
ही प्रताप है कि वे माताके बन्धनमें आ गये। नरेश्वर ! इसीलिये भगवान् ज्ञानके साधक
आराधकोंको मुक्ति तो दे देते हैं, किंतु भक्ति नहीं देते।
उसी समय बहुत-सी गोपियाँ भी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने देखा कि दही
मथनेका भाण्ड फूटा हुआ है और भयभीत नन्द- शिशु बहुत-सी रस्सियोंद्वारा ओखलीमें
बँधे खड़े हैं। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आयी और वे यशोदाजीसे बोलीं ॥ ९ - ११॥
गोपियोंने
कहा - नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा सा बालक सदा ही हमारे घरोंमें जाकर बर्तन-
भाँड़े फोड़ा करता है, तथापि हम करुणावश इसे
कभी कुछ नहीं कहतीं ।
व्रजेश्वरि
यशोदे ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दर्द नहीं है, तुम
निर्दय हो गयी हो। एक बर्तनके फूट जानेके कारण तुमने इस बच्चेको छड़ीसे डराया-
धमकाया है और बाँध भी दिया है ! ॥ १२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से