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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
पंद्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 04)
यशोदाद्वारा
श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन;
नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका
नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ
जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना
श्रीवृषभानुरुवाच
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सतां पर्यटनं शांतं गृहिणां शांतये स्मृतम् ।
नृणामंतस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥४६॥
तीर्थीभूता वयं गोपा जातास्त्वद्दर्शनात्प्रभो ।
तीर्थानि तीर्थीकुर्वंति त्वादृशाः साधवः क्षितौ ॥४७॥
हे मुने राधिकानाम कन्या मे मंगलायना ।
कस्मै वराय दातव्या वद त्वं मे सुनिश्चितम् ॥४८॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीं दिव्यदर्शनः ।
वरोऽनया समो यो वै तस्मै दास्यामि कन्यकाम् ॥४९॥
श्रीनारद उवाच -
हस्तं गृहीत्वा श्रीगर्गो वृषभानोर्महामुनिः ।
जगाम यमुनातीरं निर्जनं सुंदरस्थलम् ॥५०॥
कालिन्दीजलकल्लोककोलाहलसमाकुलम् ।
तत्रोपवेश्य गोपेशं मुनींद्रः प्राह धर्मवित् ॥५१॥
श्रीगर्ग उवाच -
हे गोप गुप्तमाख्यानं कथनीयं न च त्वया ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ॥५२॥
असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।
तस्मात्परो वरो नास्ति जातो नंदगृहे पतिः ॥५३॥
श्रीवृषभानुरुवाच -
अहोभाग्यमहोभाग्यं नंदस्यापि महामुने ।
श्रीकृष्णस्यावतारस्य सर्वं त्वं वद कारणम् ॥५४॥
श्रीगर्ग उवाच -
भुवो भारावताराय कंसादीनां वधाय च ।
ब्रह्मणा प्राथितः कृष्णो बभूव जगतीतले ॥५५॥
श्रीकृष्णपट्टराज्ञी या गोलोके राधिकाभिधा ।
त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ॥५६॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रहर्षितो गोपो वृषभानुः सुविस्मितः ।
कलावतीं समाहूय तया सार्द्धं विचार्य च ॥५७॥
राधाकृष्णानुभावं च ज्ञात्वा गोपवरः परः ।
आनंदाश्रुकलां मुंचन्पुनराह महामुनिम् ॥५८॥
श्रीवृषभानुरुवाच -
तस्मै दास्यामि हे ब्रह्मन् कन्यां कमललोचनाम् ।
त्वया पंथा दर्शितो मे त्वया कार्योऽयमुद्वहः ॥५९॥
श्रीवृषभानु
ने कहा- संत पुरुषों का विचरण शान्तिमय है; क्योंकि
वह गृहस्थजनों को परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। मनुष्यों के भीतरी अन्धकार का
नाश महात्माजन ही करते हैं, सूर्यदेव नहीं। भगवन् ! आपका
दर्शन पाकर हम सभी गोप पवित्र हो गये। भूमण्डल पर आप जैसे साधु-महात्मा पुरुष
तीर्थों को भी पावन बनानेवाले होते हैं। मुने! मेरे यहाँ एक कन्या हुई है, जो मङ्गल की धाम है और जिसका 'राधिका' नाम है। आप भली-भाँति विचारकर यह बताने की कृपा कीजिये कि इसका शुभ विवाह
किसके साथ किया जाय। सूर्य की भाँति आप तीनों लोकों में विचरण करते हैं। आप
दिव्यदर्शन हैं, जो इसके अनुरूप सुयोग्य वर होगा, उसीके हाथ में इस कल्याणमयी कन्या को दूँगा । ४६ – ४९ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर मुनिवर गर्गजी वृषभानुजीका हाथ पकड़े यमुनाके तटपर गये।
वहाँ एक निर्जन और अत्यन्त सुन्दर स्थान था, जहाँ
कालिन्दीजलकी कल्लोलमालाओंकी कल-कल ध्वनि सदा गूँजती रहती थी। वहीं गोपेश्वर
वृषभानुको बैठाकर धर्मज्ञ मुनीन्द्र गर्ग इस प्रकार कहने लगे । ५०-५१ ॥
श्रीगर्गजी
बोले- वृषभानुजी ! एक गुप्त बात है, यह
तुम्हें किसीसे नहीं कहनी चाहिये। जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकधामके स्वामी, परात्पर तथा साक्षात् परिपूर्णतम
हैं; जिनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है; स्वयं
वे ही भगवान् श्रीकृष्ण नन्दके घरमें प्रकट हुए हैं ।। ५२-५३ ।।
श्रीवृषभानुने
कहा- महामुने ! नन्दजीका भी भाग्य अद्भुत है, धन्य
एवं अवर्णनीय है। अब आप भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार का सम्पूर्ण कारण मुझे बताइये ॥
५४ ॥
श्रीगर्ग
जी बोले- पृथ्वी का भार उतारने और कंस आदि दुष्टों का विनाश करने के लिये
ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।
उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्णकी पटरानी, जो
प्रिया श्रीराधिकाजी गोलोकधाममें विराजती हैं, वे ही
तुम्हारे
घर
पुत्रीरूप से प्रकट हुई हैं। तुम उन पराशक्ति राधिकाको नहीं जानते ।। ५५-५६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! उस समय गोप वृषभानुके मनमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी और वे अत्यन्त
विस्मित हो गये। उन्होंने कलावती (कीर्ति) को बुलाकर उनके साथ विचार किया। पुनः
श्रीराधा- कृष्णके प्रभावको जानकर गोपवर वृषभानु आनन्दके आँसू बहाते हुए पुनः
महामुनि गर्गसे कहने लगे ।। ५७-५८ ॥
श्रीवृषभानुने
कहा – द्विजवर ! उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको मैं अपनी यह कमलनयनी कन्या समर्पण
करूँगा। आपने ही मुझे यह सन्मार्ग दिखलाया है; अतः
आपके द्वारा ही इसका शुभ विवाह-संस्कार सम्पन्न होना चाहिये ।। ५९ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺💖🌸🥀जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ‼️ प्रणत क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः 🙏🙏