मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

आठवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा  का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और  वर्णन करना

 

एकादशीव्रतस्यास्य फलं वक्ष्ये व्रजाङ्गनाः ।
 यस्य श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ॥३५॥
 अष्टाशीतिसहस्राणि द्विजान्भोजयते तु यः ।
 तत्कृतं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥३६॥
 ससागरवनोपेतां यो ददाति वसुन्धराम् ।
 तत्सहस्रगुणं पुण्यमेकादश्या महाव्रते ॥३७॥
 ये संसारार्णवे मग्नाः पापपङ्कसमाकुले ।
 तेषामुद्धरणार्थाय द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३८॥
 रात्रौ जागरणं कृत्वैकादशीव्रतकृन्नरः ।
 न पश्यति यमं रौद्रं युक्तः पापशतैरपि ॥३९॥
 पूजयेद्यो हरिं भक्त्या द्वादश्यां तुलसीदलैः ।
 लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥४०॥
 अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥४१॥
 दश वै मातृके पक्षे तथा वै दश पैतृके ।
 प्रियाया दश पक्षे तु पुरुषानुद्धरेन्नरः ॥४२॥
 यथा शुक्ला तथा कृष्णा द्वयोश्च सदृशं फलम् ।
 धेनुः श्वेता तथा कृष्णा उभयोः सदृशं पयः ॥४३॥
 मेरुमन्दरमात्राणि पापानि शतजन्मसु ।
 एका चैकादशी गोप्यो दहते तूलराशिवत् ॥४४॥
 विधिवद्विधिहीनं वा द्वादश्यां दानमेव च ।
 स्वल्पं वा सुकृतं गोप्यो मेरुतुल्यं भवेच्च तत् ॥४५॥
 एकादशीदिने विष्णोः शृणुते यो हरेः कथाम् ।
 सप्तद्वीपवतीदाने लत्फलं लभते च सः ॥४६॥
 शङ्खोद्धारे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा देवं गदाधरम् ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४७॥
 प्रभासे च कुरुक्षेत्रे केदारे बदरिकाश्रमे ।
 काश्यां च सूकरक्षेत्रे ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥४८॥
 सङ्क्रान्तीनां चतुर्लक्षं दानं दत्तं च यन्नरैः ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४९॥
 नागानां च यथा शेषः पक्षिणां गरुडो यथा ।
 देवानां च यथा विष्णुर्वर्णानां ब्राह्मणो यथा ॥५०॥
 वृक्षाणां च यथाश्वत्थः पत्राणां तुलसी यथा ।
 व्रतानां च तथा गोप्यो वरा चैकादशी तिथिः ॥५१॥
 दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्यति यो नरः ।
 तत्तुल्यं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥५२॥
 इत्थमेकादशीनां च फलमुक्तं व्रजाङ्गनाः ।
 कुरुताशु व्रतं यूयं किं भूयः श्रोतुमिच्छथ ॥५३॥

व्रजाङ्गनाओ ! अब मैं तुम्हें इस एकादशी व्रतका फल बता रही हूँ, जिसके श्रवणमात्रसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। जो अट्ठासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, उसको जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको एकादशीका व्रत करनेवाला मनुष्य उस व्रतके पालन- मात्रसे पा लेता है। जो समुद्र और वनोंसहित सारी वसुंधराका दान करता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यसे भी हजारगुना पुण्य एकादशीके महान् व्रतका अनुष्ठान करनेसे सुलभ हो जाता है। जो पापपङ्कसे भरे हुए संसार सागरमें डूबे हैं, उनके उद्धारके लिये एकादशी- का व्रत ही सर्वोत्तम साधन है। रात्रिकालमें जागरण- पूर्वक एकादशी व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य यदि सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी यमराजके रौद्ररूपका दर्शन नहीं करता। जो द्वादशीको तुलसीदलसे भक्ति- पूर्वक श्रीहरिका पूजन करता है, वह जलसे कमल- पत्रकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होता। सहस्रों अश्वमेध तथा सैकड़ों राजसूययज्ञ भी एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर नहीं हो सकते। एकादशीका व्रत करनेवाला मनुष्य मातृकुलकी दस, पितृकुलकी दस तथा पत्नीके कुलकी दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जैसी शुक्लपक्षकी एकादशी है, वैसी ही कृष्णपक्षकी भी है; दोनोंका समान फल है। दुधारू गाय जैसी सफेद वैसी काली — दोनोंका दूध एक-सा ही होता है। गोपियो ! मेरु और मन्दराचलके बराबर बड़े-बड़े सौ जन्मोंके पाप एक ओर और एक ही एकादशीका व्रत दूसरी ओर हो तो वह उन पर्वतोपम पापोंको उसी प्रकार जलाकर भस्म कर देती है, जैसे आगकी चिनगारी रूईके ढेरको दग्ध कर देती है ।। ३५–४४ ॥

गोपङ्गनाओ ! विधिपूर्वक हो या अविधिपूर्वक, यदि द्वादशीको थोड़ा-सा भी दान कर दिया जाय तो वह मेरु पर्वतके समान महान् हो जाता है। जो एकादशीके दिन भगवान् विष्णुकी कथा सुनता है, वह सात द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीके दानका फल पाता है । यदि मनुष्य शङ्खोद्धारतीर्थमें स्नान करके गदाधर देव के दर्शनका महान् पुण्य संचित कर ले तो भी वह पुण्य एकादशी के उपवास की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकता है। प्रभास, कुरुक्षेत्र, केदार, बदरिकाश्रम, काशी तथा सूकरक्षेत्र में चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा चार लाख संक्रान्तियों के अवसरपर मनुष्योंद्वारा जो दान दिया गया हो, वह भी एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर नहीं है। गोपियो ! जैसे नागोंमें शेष, पक्षियोंमें गरुड़, देवताओंमें विष्णु, वर्णोंमें ब्राह्मण, वृक्षोंमें पीपल तथा पत्रोंमें तुलसीदल सबसे श्रेष्ठ है, उसी प्रकार व्रतोंमें एकादशी तिथि सर्वोत्तम है । जो मनुष्य दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करता है, उसके समान ही फल वह मनुष्य भी पा लेता है, जो एकादशीका व्रत करता है। व्रजाङ्गनाओ ! इस प्रकार मैंने तुमसे एकादशियोंके फलका वर्णन किया। अब तुम शीघ्र इस व्रतको आरम्भ करो। बताओ, अब और क्या सुनना चाहती हो ? ॥। ४५ - ५३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'यज्ञसीताओंका उपाख्यान एवं एकादशी - माहात्म्य' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ || ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🌹🥀जय श्रीकृष्ण🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    राधेकृष्ण राधेकृष्ण राधेकृष्ण

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