रविवार, 10 दिसंबर 2017

प्रह्लाद पर संत-कृपा..(02)



||| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
प्रह्लाद पर संत-कृपा..(02)
“प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहनतें परमेश्वरु काढ़े ॥“
प्रेम तो प्रह्लाद जी का है, जिन्होंने पत्थरमें से रामजी को निकाल लिया । जिस पत्थरमें से कोई-सा रस नहीं निकलता, ऐसे पत्थरमें से रसराज श्रीठाकुरजी को निकाल लिया । ‘पाहनतें परमेश्वरु काढ़े’ थम्भे में से भगवान् प्रकट हो गये । थम्भे अपने यहाँ भी बहुत-से खड़े हैं । थम्भा तो है ही, पर प्रह्लाद नहीं है । राक्षस के घर के थम्भों से ये अशुद्ध थोड़े ही हैं ? अपवित्र थोड़े ही हैं, पर जरूरत प्रह्लाद की है‒
‘प्रकर्षेण आह्लादः यस्य स प्रह्लादः ।’ …इधर तो मार पड़ रही है, पर भीतर खुशी हो रही है, प्रसन्नता हो रही है । भगवान्‌ की कृपा देख-देखकर हर समय आनन्द हो रहा है । ऐसे हम भी प्रह्लाद हो जायँ ।
आपत्ति आवे, चाहे सम्पत्ति आवे, हर समय भगवान्‌ की कृपा समझें । भगवान्‌ की कृपा है ही, हम मानें तो है, न मानें तो है, जानें तो है, न जानें तो है । पर नहीं जानेंगे, नहीं मानेंगे तो दुःख पायेंगे । भीतरसे प्रभु कृपा करते ही रहते हैं ।बच्चा चाहे रोवे, चाहे हँसे, माँ की कृपा तो बनी ही रहती है, वह पालन करती ही है । बिना कारण जब छोटा बच्चा ज्यादा हँसता है तो माँ के चिन्ता हो जाती है कि बिना कारण हँसता है तो कुछ-न-कुछ आफत आयेगी । ऐसे आप संसार की खुशी ज्यादा लेते हो तो रामजी के विचार आता है कि यह ज्यादा हँसता है तो कोई आफत आयेगी । यह अपशकुन है ।
नाम रूप गति अकथ कहानी ।
समुझत सुखद न परति बखानी ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ७)
नाम और रूप (नामी) की जो गति है, इसका जो वर्णन है, ज्ञान है, इसकी जो विशेष कहानी है, वह समझने में महान् सुख देनेवाली है; परंतु इसका विवेचन करना बड़ा कठिन है । जैसे नाम की विलक्षणता है, ऐसे ही रूप की भी विलक्षणता है । अब दोनों में कौन बड़ा है, कौन छोटा है‒यह कहना कैसे हो सकता है ! भगवान्‌ का नाम याद करो, चाहे भगवान्‌ के स्वरूप को याद करो, दोनों विलक्षण हैं । भगवान्‌ के नाम अनन्त हैं, भगवान्‌ के रूप अनन्त हैं, भगवान्‌की महिमा अनन्त है और भगवान्‌ के गुण अनन्त हैं । इनकी विलक्षणता का वाणी क्या वर्णन कर सकती है ! ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।’, ‘मन समेत जेहि जान न बानी’ मन भी वहाँ कल्पना नहीं कर सकता । बुद्धि भी वहाँ कुण्ठित हो जाती है तो वर्णन क्या होगा ?
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)



|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)
भगवान्‌ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रको सदाचारयुक्त जीवन बनाने तथा दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करनेकी अनेक युक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलायी हैं । वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुरूप विहित कर्तव्य-कर्म करनेके लिये प्रेरणा करते हुए भगवान् कहते हैं‒
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।“
......................(गीता ३ । २१)
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं ।’
वस्तुतः मनुष्यके आचरणसे ही उसकी वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है । आचरण दो प्रकारके होते हैं‒(१) अच्छे आचरण, जिन्हें सदाचार कहते हैं और (२) बुरे आचरण, जिन्हें दुराचार कहते हैं ।
सदाचार और सद्‌गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्‌गुण दृढ़ होते हैं । इसी प्रकार दुर्गुण-दुराचार का भी परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण-सदाचार (सत् होनेसे) प्रकट होते हैं, पैदा नहीं होते । ‘प्रकट’ वही तत्त्व होता है, जो पहलेसे (अदर्शनरूपसे) रहता है । दुर्गुण-दुराचार मूल में हैं नहीं, वे केवल सांसारिक कामना और अभिमान से उत्पन्न होते हैं । दुर्गुण-दुराचार स्वयं मनुष्यने ही उत्पन्न किये हैं । अतः इनको दूर करनेका उत्तरदायित्व भी मनुष्य पर ही है । सद्‌गुण-सदाचार कुसंग के प्रभाव से दब सकते हैं, परंतु नष्ट नहीं हो सकते, जब कि दुर्गुण-दुराचार सत्संगादि सदाचार के पालन से सर्वथा नष्ट हो सकते हैं । सर्वथा दुर्गुण-दुराचाररहित सभी हो सकते हैं, किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वथा सद्‌गुण-सदाचार से रहित नहीं हो सकता ।
यद्यपि लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि मनुष्य सदाचारी होने पर सद्‌गुणी और दुराचारी होने पर दुर्गुणी बनता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सद्‌गुणी होनेपर ही व्यक्ति सदाचारी और दुर्गुणी होने पर ही दुराचारी बनता है । जैसे‒दयारूप सद्‌गुणके पश्चात् दानरूप सदाचार प्रकट होता है । इसी प्रकार पहले चोरपने (दुर्गुण) का भाव अहंता (मैं) में उत्पन्न होनेपर व्यक्ति चोरीरूप दुराचार करता है । अतः मनुष्यको सद्‌गुणों का संग्रह और दुर्गुणोंका त्याग दृढ़तासे करना चाहिये । दृढ़ निश्चय होनेपर दुराचारी-से-दुराचारी को भी भगवत्प्राप्तिरूप सदाचार के चरम लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


प्रह्लाद पर संत-कृपा..(01)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
प्रह्लाद पर संत-कृपा..(01)
प्रह्लादजी महाराजपर नारदजीकी कृपा हो गयी । इन्द्रको हिरण्यकशिपु से भय लगता था । हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया हुआ था । पीछेसे इन्द्र उसकी स्त्री कयाधू को पकड़कर ले गया । बीचमें नारदजी मिल गये । उन्होंने कहा‒‘बेचारी अबला का कोई कसूर नहीं है, इसको क्यों दुःख देता है भाई !’ इन्द्रने कहा‒‘इसको दुःख नहीं देना है ! इसके गर्भ में बालक है । अकेले हिरण्यकशिपु ने हमारे को इतना तंग कर दिया है, अगर यह बालक पैदा हो जायगा तो बाप और बेटा दो होने पर हमारी क्या दशा करेंगे । इसलिये बालक जन्मेगा, तब उसे मार दूँगा, फिर काम ठीक हो जायगा ।’
नारदजीने कहा‒‘इसका बेटा तेरा वैरी नहीं होगा ।’ नारदजीकी बात सब मानते थे । इन्द्रने मान ली । ठीक है महाराज ! कयाधू को छोड़ दिया । नारदजीने बड़े स्नेहसे उसको अपनी कुटियापर रखा और कहा कि ‘बेटी ! तू चिन्ता मत कर । तेरे पति आयेंगे, तब पहुँचा दूँगा ।’ वह जैसे अपने बाप के घर रहे, वैसे नारदजी के पास रहने लगी । नारद जी के मन में एक लोभ था कि मौका पड़ जाय तो इसके गर्भ में जो बालक है, इसको भक्ति सिखा दें । यह संतों की कृपा होती है । कयाधू को बढ़िया-बढ़िया भगवान्‌ की बातें सुनाते, पर लक्ष्य रखते उस बालकका । वह प्रसन्नता से सुनती और गर्भ में बैठा बालक भी उन बातों को सुनता था । नारदजी की कृपा से गर्भमें ही उसे ज्ञान हो गया ।
माता रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धार्‌यो हि अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥
प्रह्लादजी को कितना कष्ट दिया ! कितना भय दिखाया ! परंतु उन्होंने नाम को छोड़ा नहीं । प्रह्लादजी को रस आ गया, ऐसे नामको कैसे छोड़ा जाय ?शुक्राचार्यजी के पुत्र प्रह्लादजी को पढ़ाते थे । राजाने उनको धमकाया कि तुम हमारे बेटे को बिगाड़ते हो । यह प्रह्लाद हमारे वैरी का नाम लेता है । यह कैसे सीख गया ? प्रह्लादसे पूछा‒‘तुम्हारे यह कुमति कहाँसे आयी ? दूसरों का कहा हुआ करते हो कि स्वयं अपने मनसे ही ! किसने सिखा दिया ?’ प्रह्लादजी कहते हैं‒‘जिसको आप कुमति कहते हो, यह दूसरा कोई सिखा नहीं सकता, न स्वयं आती है । संत-महापुरुष, भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी जबतक कृपा नहीं हो जाती,तबतक इसे कोई सिखा नहीं सकता ।’
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


प्रह्लाद पर संत-कृपा..(01)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
प्रह्लाद पर संत-कृपा..(01)
प्रह्लादजी महाराजपर नारदजीकी कृपा हो गयी । इन्द्रको हिरण्यकशिपु से भय लगता था । हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया हुआ था । पीछेसे इन्द्र उसकी स्त्री कयाधू को पकड़कर ले गया । बीचमें नारदजी मिल गये । उन्होंने कहा‒‘बेचारी अबला का कोई कसूर नहीं है, इसको क्यों दुःख देता है भाई !’ इन्द्रने कहा‒‘इसको दुःख नहीं देना है ! इसके गर्भ में बालक है । अकेले हिरण्यकशिपु ने हमारे को इतना तंग कर दिया है, अगर यह बालक पैदा हो जायगा तो बाप और बेटा दो होने पर हमारी क्या दशा करेंगे । इसलिये बालक जन्मेगा, तब उसे मार दूँगा, फिर काम ठीक हो जायगा ।’
नारदजीने कहा‒‘इसका बेटा तेरा वैरी नहीं होगा ।’ नारदजीकी बात सब मानते थे । इन्द्रने मान ली । ठीक है महाराज ! कयाधू को छोड़ दिया । नारदजीने बड़े स्नेहसे उसको अपनी कुटियापर रखा और कहा कि ‘बेटी ! तू चिन्ता मत कर । तेरे पति आयेंगे, तब पहुँचा दूँगा ।’ वह जैसे अपने बाप के घर रहे, वैसे नारदजी के पास रहने लगी । नारद जी के मन में एक लोभ था कि मौका पड़ जाय तो इसके गर्भ में जो बालक है, इसको भक्ति सिखा दें । यह संतों की कृपा होती है । कयाधू को बढ़िया-बढ़िया भगवान्‌ की बातें सुनाते, पर लक्ष्य रखते उस बालकका । वह प्रसन्नता से सुनती और गर्भ में बैठा बालक भी उन बातों को सुनता था । नारदजी की कृपा से गर्भमें ही उसे ज्ञान हो गया ।
माता रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धार्‌यो हि अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥
प्रह्लादजी को कितना कष्ट दिया ! कितना भय दिखाया ! परंतु उन्होंने नाम को छोड़ा नहीं । प्रह्लादजी को रस आ गया, ऐसे नामको कैसे छोड़ा जाय ?शुक्राचार्यजी के पुत्र प्रह्लादजी को पढ़ाते थे । राजाने उनको धमकाया कि तुम हमारे बेटे को बिगाड़ते हो । यह प्रह्लाद हमारे वैरी का नाम लेता है । यह कैसे सीख गया ? प्रह्लादसे पूछा‒‘तुम्हारे यह कुमति कहाँसे आयी ? दूसरों का कहा हुआ करते हो कि स्वयं अपने मनसे ही ! किसने सिखा दिया ?’ प्रह्लादजी कहते हैं‒‘जिसको आप कुमति कहते हो, यह दूसरा कोई सिखा नहीं सकता, न स्वयं आती है । संत-महापुरुष, भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी जबतक कृपा नहीं हो जाती,तबतक इसे कोई सिखा नहीं सकता ।’
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


बुधवार, 6 दिसंबर 2017

भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०४)




।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०४)
उपासकोंकी प्रकृति, श्रद्धा-विश्वास, रुचि आदिको लेकर वे एक ही परमात्मा विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्ति‒इन पाँच रूपोंको धारण करते हैं‒
‘सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥
एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभिः ॥‘
.....................(पद्मपुराण, उत्तर॰ ९० । ६३-६४)
‘जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, ऐसे ही विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्तिके उपासक मेरेको ही प्राप्त होते हैं । जैसे एक ही देवदत्त नामक व्यक्ति पुत्र, पिता आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है, ऐसे ही लीलाके लिये मैं एक ही पाँच रूपोंमें प्रकट होकर अनेक नामोंसे पुकारा जाता हूँ ।’
भगवान्‌के इन पाँचों रूपोंको लेकर पाँच सम्प्रदाय चले हैं‒वैष्णव, सौर, शैव, गाणपत और शाक्त । साधक किसी भी सम्प्रदायका हो, उसका ऐसा दृढ़ निश्चय रहना चाहिये कि भगवान्‌के जितने भी रूप हैं, वे सब तत्त्वसे एक ही हैं । रूप दूसरा है, पर तत्त्व दूसरा नहीं है । अगर वह ऐसा दृढ़ निश्चय न कर सके तो वह अपने इष्ट रूपको सर्वोपरि मानकर दूसरे रूपोंको उसका अनुयायी माने । जैसे, उसका इष्ट विष्णु है तो वह ऐसा माने कि सूर्य, शिव आदि सभी देवता विष्णुके उपासक हैं, अनुयायी हैं । ऐसा भी निश्चय न बैठे तो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्ता-रूपसे विद्यमान है‒ऐसा मानकर बाहर-भीतरसे चुप (चिन्तनरहित) हो जाय ।
अगर विष्णु का ध्यान करते समय शिव, गणेश आदि याद आ जायें तो ‘मेरे इष्ट ही अपनी मरजी से शिव आदि के रूपमें आये हैं’‒ऐसा मानकर साधक को प्रसन्न होना चाहिये । अगर संसार याद आ जाय तो भी साधक उसको भगवान्‌का ही रूप समझे [*] ।
सम्प्रदायों में परस्पर जो राग-द्वेष, खटपट देखी जाती है, उसका कारण बेसमझी है । एक अनुयायी होता है और एक पक्षपाती (जय बोलनेवाला) होता है । अनुयायी तो अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तों का पालन करता है पर पक्षपाती सिद्धान्तों के पालनका खयाल नहीं करता । खटपट पक्षपाती के द्वारा ही होती है, अनुयायी के द्वारा नहीं ।
जब तक ‘अहम्’ रहता है, तभी तक दार्शनिक भेद तथा अपने-अपने सम्प्रदाय का पक्षपात रहता है । ‘अहम्‌’ का सर्वथा अभाव होने पर दार्शनिक और साम्प्रदायिक भेद नहीं रहता, प्रत्युत एक तत्त्व रहता है । जहाँ तत्त्व है, वहाँ भेद नहीं है और जहाँ भेद है, वहाँ तत्त्व नहीं है । ऐसा वह तत्त्व ही महाविष्णु, सदाशिव, महाशक्ति, परात्पर परब्रह्म राम तथा कृष्ण आदि नामोंसे कहा जाता है और वही समस्त साधकों का साध्य-तत्त्व है ।
--------------------------------------
[*] खं वायुमग्रिं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । ४१)
अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्‌के ही शरीर हैं अर्थात् सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैं‒ऐसा समझकर जो भी भक्तके सामने आ जाता है, उसको वह अनन्य-भावसे प्रणाम करता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०४)




।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०४)
उपासकोंकी प्रकृति, श्रद्धा-विश्वास, रुचि आदिको लेकर वे एक ही परमात्मा विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्ति‒इन पाँच रूपोंको धारण करते हैं‒
‘सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥
एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभिः ॥‘
.....................(पद्मपुराण, उत्तर॰ ९० । ६३-६४)
‘जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, ऐसे ही विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्तिके उपासक मेरेको ही प्राप्त होते हैं । जैसे एक ही देवदत्त नामक व्यक्ति पुत्र, पिता आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है, ऐसे ही लीलाके लिये मैं एक ही पाँच रूपोंमें प्रकट होकर अनेक नामोंसे पुकारा जाता हूँ ।’
भगवान्‌के इन पाँचों रूपोंको लेकर पाँच सम्प्रदाय चले हैं‒वैष्णव, सौर, शैव, गाणपत और शाक्त । साधक किसी भी सम्प्रदायका हो, उसका ऐसा दृढ़ निश्चय रहना चाहिये कि भगवान्‌के जितने भी रूप हैं, वे सब तत्त्वसे एक ही हैं । रूप दूसरा है, पर तत्त्व दूसरा नहीं है । अगर वह ऐसा दृढ़ निश्चय न कर सके तो वह अपने इष्ट रूपको सर्वोपरि मानकर दूसरे रूपोंको उसका अनुयायी माने । जैसे, उसका इष्ट विष्णु है तो वह ऐसा माने कि सूर्य, शिव आदि सभी देवता विष्णुके उपासक हैं, अनुयायी हैं । ऐसा भी निश्चय न बैठे तो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्ता-रूपसे विद्यमान है‒ऐसा मानकर बाहर-भीतरसे चुप (चिन्तनरहित) हो जाय ।
अगर विष्णु का ध्यान करते समय शिव, गणेश आदि याद आ जायें तो ‘मेरे इष्ट ही अपनी मरजी से शिव आदि के रूपमें आये हैं’‒ऐसा मानकर साधक को प्रसन्न होना चाहिये । अगर संसार याद आ जाय तो भी साधक उसको भगवान्‌का ही रूप समझे [*] ।
सम्प्रदायों में परस्पर जो राग-द्वेष, खटपट देखी जाती है, उसका कारण बेसमझी है । एक अनुयायी होता है और एक पक्षपाती (जय बोलनेवाला) होता है । अनुयायी तो अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तों का पालन करता है पर पक्षपाती सिद्धान्तों के पालनका खयाल नहीं करता । खटपट पक्षपाती के द्वारा ही होती है, अनुयायी के द्वारा नहीं ।
जब तक ‘अहम्’ रहता है, तभी तक दार्शनिक भेद तथा अपने-अपने सम्प्रदाय का पक्षपात रहता है । ‘अहम्‌’ का सर्वथा अभाव होने पर दार्शनिक और साम्प्रदायिक भेद नहीं रहता, प्रत्युत एक तत्त्व रहता है । जहाँ तत्त्व है, वहाँ भेद नहीं है और जहाँ भेद है, वहाँ तत्त्व नहीं है । ऐसा वह तत्त्व ही महाविष्णु, सदाशिव, महाशक्ति, परात्पर परब्रह्म राम तथा कृष्ण आदि नामोंसे कहा जाता है और वही समस्त साधकों का साध्य-तत्त्व है ।
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[*] खं वायुमग्रिं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । ४१)
अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्‌के ही शरीर हैं अर्थात् सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैं‒ऐसा समझकर जो भी भक्तके सामने आ जाता है, उसको वह अनन्य-भावसे प्रणाम करता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०३)


।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०३)
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उस परब्रह्म परमात्मा को ही द्विभुज कृष्ण और चतुर्भुज विष्णुरूप से बताया गया है‒
‘त्वमेव भगवानाद्यो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
अर्द्धाङ्गो द्विभुजः कृष्णोऽप्यर्द्धाङ्गेन चतुर्भुजः ॥‘
......................(प्रकृति॰ १२ । १५)
‘आप सबके आदि, निर्गुण और प्रकृतिसे अतीत भगवान्‌ ही अपने आधे अंगसे द्विभुज कृष्ण और आधे अंगसे चतुर्भुज विष्णुके रूपमें प्रकट हुए हैं ।’
“द्विभुजो राधिकाकान्तो लक्ष्मीकान्तश्चतुर्भुजः ।
गोलोके द्विभुजस्तस्थौ गोपैर्गोपीभिरावृतः ॥
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठं प्रययौ पद्मया सह ।
सर्वांशेन समौ तौ द्वौ कृष्णनारायणौ परौ ॥“
.......................(प्रकृति॰ ३५ । १४-१५)
‘द्विभुज कृष्ण राधिकापति हैं और चतुर्भुज विष्णु लक्ष्मीपति हैं । कृष्ण गोप-गोपियों से आवृत हो कर गोलोक में और विष्णु वैकुण्ठ में स्थित हैं । वे कृष्ण और विष्णु‒दोनों सब प्रकारसे समान ही हैं ।’
जब भगवान्‌ के अत्युग्र विराट्‌रूप (सहस्रभुजरूप) को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये, तब उनको आश्वासन देने के लिये भगवान् पहले चतुर्भुजरूप से और फिर द्विभुजरूप से अर्जुनके सामने प्रकट हुए‒
“इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥“
...................(गीता ११ । ५०)
‘वासुदेव भगवान्‌ ने अर्जुन से ऐसा कहकर फिर उसी प्रकार से अपना देवरूप (चतुर्भुजरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्ण ने पुनः सौम्यरूप (द्विभुजरूप) होकर भयभीत अर्जुनको आश्वासन दिया [*] ।’ तात्पर्य है कि एक ही परब्रह्म परमात्मा द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं ।
-----------------------------------
[*] द्विभुज होने के कारण सौम्यरूप को मनुष्यरूप भी कहा गया है‒”दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन” ...(गीता ११ । ५१) ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०३)


।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०३)
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उस परब्रह्म परमात्मा को ही द्विभुज कृष्ण और चतुर्भुज विष्णुरूप से बताया गया है‒
‘त्वमेव भगवानाद्यो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
अर्द्धाङ्गो द्विभुजः कृष्णोऽप्यर्द्धाङ्गेन चतुर्भुजः ॥‘
......................(प्रकृति॰ १२ । १५)
‘आप सबके आदि, निर्गुण और प्रकृतिसे अतीत भगवान्‌ ही अपने आधे अंगसे द्विभुज कृष्ण और आधे अंगसे चतुर्भुज विष्णुके रूपमें प्रकट हुए हैं ।’
“द्विभुजो राधिकाकान्तो लक्ष्मीकान्तश्चतुर्भुजः ।
गोलोके द्विभुजस्तस्थौ गोपैर्गोपीभिरावृतः ॥
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठं प्रययौ पद्मया सह ।
सर्वांशेन समौ तौ द्वौ कृष्णनारायणौ परौ ॥“
.......................(प्रकृति॰ ३५ । १४-१५)
‘द्विभुज कृष्ण राधिकापति हैं और चतुर्भुज विष्णु लक्ष्मीपति हैं । कृष्ण गोप-गोपियों से आवृत हो कर गोलोक में और विष्णु वैकुण्ठ में स्थित हैं । वे कृष्ण और विष्णु‒दोनों सब प्रकारसे समान ही हैं ।’
जब भगवान्‌ के अत्युग्र विराट्‌रूप (सहस्रभुजरूप) को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये, तब उनको आश्वासन देने के लिये भगवान् पहले चतुर्भुजरूप से और फिर द्विभुजरूप से अर्जुनके सामने प्रकट हुए‒
“इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥“
...................(गीता ११ । ५०)
‘वासुदेव भगवान्‌ ने अर्जुन से ऐसा कहकर फिर उसी प्रकार से अपना देवरूप (चतुर्भुजरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्ण ने पुनः सौम्यरूप (द्विभुजरूप) होकर भयभीत अर्जुनको आश्वासन दिया [*] ।’ तात्पर्य है कि एक ही परब्रह्म परमात्मा द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं ।
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[*] द्विभुज होने के कारण सौम्यरूप को मनुष्यरूप भी कहा गया है‒”दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन” ...(गीता ११ । ५१) ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


भजनमें दिखावा..(02)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
भजनमें दिखावा..(02)
“गुप्त अकाम निरन्तर ध्यान सहित सानन्द ।
आदर जुत जपसे तुरत पावत परमानन्द ॥“
ये छः बातें जिस जप में होती हैं, उस जप का तुरन्त और विशेष माहात्म्य होता है । भगवान्‌ का नाम गुप्त रीति से लिया जाय, वह बढ़िया है । लोग देखें ही नहीं, पता ही न लगे‒यह बढ़िया बात है परंतु कम-से-कम दिखावटीपन तो होना ही नहीं चाहिये । इससे असली नाम-जप नहीं होता । नाम का निरादर होता है ।नामके बदले मान-बड़ाई खरीदते हैं, आदर खरीदते हैं, लोगों को अपनी तरफ खींचते हैं‒यह नाम महाराज की बिक्री करना है । यह बिक्री की चीज थोड़े ही है ! नाम जैसा धन, बताने के लिये है क्या ? लौकिक धन भी लोग नहीं बताते, खूब छिपाकर रखते हैं । यह तो भीतर रखनेका है, असली धन है ।
“माई मेरे निरधनको धन राम ।
रामनाम मेरे हृदयमें राखूं ज्यूं लोभी राखे दाम ॥
दिन दिन सूरज सवायो उगे, घटत न एक छदाम ।
सूरदास के इतनी पूँजी, रतन मणि से नहीं काम ॥“
यह अपने हृदय की बात है । मेरे निर्धन का धन यही है । कैसा बढ़िया धन है यह ! अन्त में कहते हैं यह जो रत्न-मणि, सोना आदि है, इनसे मेरे मतलब नहीं है । ये पत्थर के टुकड़े हैं । इनसे क्या काम ! निर्धन का असली धन तो ‘राम’ नाम है ।
“धनवन्ता सोइ जानिये जाके ‘राम’ नाम धन होय ।“
यह धन जिसके पास है, वही धनी है । उसके बिना कंगले हैं सभी ।
“सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिदस्ति ।
करोड़ों रुपये आज पास में हैं, पर ये दोनों आँखें सदा के लिये जिस दिन बन्द हो गयीं, उस दिन कुछ नहीं है । सब यहाँ का यहीं रह जायगा ।
“सुपना सो हो जावसी सुत कुटुम्ब धन धाम ।“
यह स्वप्न की तरह हो जायगा । आँख खुलते ही स्वप्न कुछ नहीं और आँख मिचते ही यहाँ का धन कुछ नहीं ।
स्थूल बुद्धिवाले बिना समझे कह देते हैं कि ‘राम’ नामसे क्या होता है ? वे बेचारे इस बात को जानते नहीं, उन्हें पता ही नहीं है । इस विद्या को जानने वाले ही जानते हैं भाई ! सच्ची लगन जिसके लगी है वह जानता है । दूसरों को क्या पता ?
‘जिसके लागी है सोई जाने दूजा क्या जाने रे भाई’
…भगवान्‌ का नाम लेनेवालों का बड़े-बड़े लोकों में जहाँ जाते हैं, वहाँ आदर होता है कि भगवान्‌ के भक्त पधारे हैं । हमारा लोक पवित्र हो जाय । भगवन्नाम से रोम-रोम, कण-कण पवित्र हो जाता है, महान् पवित्रता छा जाती है । ऐसा भगवान्‌ का नाम है । जिसके हृदयमें नामके प्रति प्रेम जाग्रत् हो गया, वह असली धनी है । इससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं । वह खुद ऐसा विलक्षण हो जाता है कि उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण से दूसरों पर असर पड़ता है । नाम लेनेवाले सन्त-महात्माओं के दर्शनसे शान्ति मिलती है । अशान्ति दूर हो जाती है, शोक-चिन्ता दूर हो जाते हैं और पापोंका नाश हो जाता है । जहाँ वे रहते हैं, वे धाम पवित्र हो जाते हैं और जहाँ वे चलते हैं वहाँ का वायुमण्डल पवित्र हो जाता है ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


हनुमान् जी साक्षात् शंकर जी या उनके अंशरूप में !



जय सियाराम जय जय सियाराम ! विघ्न विनाशक जय हनुमान !!
शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।
हनुमान् जी साक्षात् शंकर जी या उनके अंशरूप में !
पवननन्दन हनुमान जी का चरित भगवान श्रीराम चंद्र जी से इतना अनुस्यूत है कि श्रीराम चर्चा के प्रसंग में मारुति चर्चा अनिवार्य है | पौराणिक आख्यानों में हनुमान जी का यथार्थ परिचय मिलता है |
हनुमान जी कहीं शंकरजी के अंशरूप में और कहीं साक्षात् शंकर जी के रूप में वर्णित किये गए हैं | इसके प्रमाणस्वरूप शिवपुराण की “शतरुद्रसंहिता” के बीसवें अध्याय का अनुशीलन करना चाहिए | वहाँ हनुमान जी की जन्म-कथा का विशिष्ट उल्लेख है | श्रीराम कार्य की सिद्धि के लिए शिवजी ने स्वयं हनुमान जी का रूप धारण किया था | दानवों को मोह में डालने के लिए विष्णु ने जब मोहिनीरूप धारण किया, तब उस रूप के अलोकसामान्य सौंदर्य पर शिवजी विक्षुब्ध हो गए | उस अंत: क्षोभ से स्खलित शिववीर्य को सप्तॠषियों ने कानों के मार्ग से गौतम की पुत्री अञ्जना के गर्भ में संक्रान्त कर दिया और इस गर्भ से हनुमान जी का जन्म हुआ | इस प्रकार हनुमान जी शिवजी के वीर्योत्पन्न पुत्र हैं | हनुमान जी के ‘शंकरसुवन’ होने के प्रसिद्धि केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं है प्रत्युत् वह बृहत्तर भारत के ‘मलय एशिया’ देश में भी फ़ैली है | इसका पूर्ण विवरण वहाँ के प्रचलित रामायण में उपलब्ध होता है | सूर्य को फल मानकर खाना, सूर्य से सब विद्याएँ सीखना और सूर्य के आदेश पर सुग्रीव की सेवा में उपस्थित होना—ये समग्र घटनाएं “शतरुद्र संहिता” के बीसवें अध्याय में विस्तार से वर्णित हैं |
“बृहद्धर्म पुराण” में वर्णित रामायण कथा देवी-तंत्र के द्वारा प्रभावित हुआ है | इसके १८ वें अध्याय में वर्णन मिलता है कि शिव-पार्वती, रावण की रक्षा के लिए लंका में निवास करते थे | उनके पास देवगण रावण के अत्याचार की कथा सुनाने के लिए गए | तब सीता के अपमान से खुब्ध होकर, पार्वती ने लंका छोडने की बात कही | श्री राम-काज की सिद्धि के लिए शिवजी ने हनुमान बनना स्वीकार किया एवं ब्रह्मा ने जाम्बवान् तथा धर्म ने विभीषण रूप धारण किया | इस पुराण के २० वें अध्याय में हनुमान जी के शिव रूप होने का प्रमाण प्रस्तुत किया गया है | अशोक-वाटिका में जब हनुमान जी ने चण्डिका-मन्दिर को देखा, तब अपने को शिवजी का रूप बतलाकर, देवी से लंका को छोडने के लिए आग्रह किया | हनुमान जी ( शिव ) ने अपने विश्वरूप का दर्शन कराया, जिसमें देवी ने रावण की सेना को संकट में और श्रीराम की सेना को सफल रूप में देखा | इस प्रकार पौराणिक-साक्ष्य पर हनुमानजी शिवजी के साक्षात् अवतार सिद्ध होते हैं | यह “बृहद्धर्म पुराण” उपपुराणों के अंतर्गत माना जाता है |
स्कंदपुराण का अवन्तीखंड कहता है कि हनुमान जी से बढ़कर जगत में कोई भी प्राणी नहीं है | किसी भी दृष्टि से –चाहे पराक्रम,उत्साह,मति और प्रताप को देखें, चाहे सुशीलता, माधुर्य तथा नीति को परखें , चाहे गाम्भीर्य, चातुर्य, सुवीर्य और धैर्य पर दृष्टि डालें, हनुमान जी के सदृश इस विशाल ब्रह्माण्ड में कोई प्राणी है ही नहीं | विक्षुब्ध महासागर, सम्पूर्ण लोकों को दग्ध कर डालने के लिए उद्यत हुए संवर्तक अग्नि तथा प्रजाओं का संहार करने के लिए उठे हुए काल के समान प्रभावशाली इन हनुमान जी के सामने कौन ठहर सकेगा !
“पराक्रमोत्साहमतिप्रतापै:
सौशील्यमाधुर्यनयादिकैश्च |
गाम्भीर्यचातुर्यसुवीर्यधैर्यै-
र्हनुमत:कोऽप्यधिकोऽस्ति लोके ||
ममेव विक्षोभितसागरस्य
लोकान् दिधक्षोरिव पावकस्य |
प्रजां जिहीर्षोरिव चान्तकस्य
हनूमत: स्थास्यति क: पुरस्तात् ||” (७९/४२.४३)
(कल्याण- श्री हनुमान-अंक)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...